खस्ताहाल जेलों की खराब स्वास्थ्य व्यवस्था में महामारी से जूझते राजनीतिक बंदी

29 अगस्त 2018 को भीमा कोरेगांव मामले में पांच व्यक्तियों की गिरफ्तारी के विरोध में भाग लेते नौजवान औरऔर छात्र. इंद्रनील चौधरी / नूरफोटो / गैटी इमेजिस

भीमा कोरेगांव मामले के 16 आरोपियों में से पांच बिना मुकदमे के ही तीन साल से अधिक समय जेल में बिता चुके हैं. सात को कोविड-19 है और अन्य कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं. दूसरी लहर और जेलों में बिगड़ती स्वास्थ्य स्थितियों के बारे में आ रही रिपोर्टों के बावजूद सरकार इन राजनीतिक बंदियों को रिहा करने से इनकार कर रही है.

1 जनवरी 2018 को भीमा कोरेगांव में हिंसा भड़काने की साजिश रचने के आरोपी महेश राउत, सागर गोरखे और रमेश गायचोर को कोरोना है. 2 जून को मुंबई की तलोजा जेल में तीनों की कोविड जांच पॉजिटिव आई थी. अगले दिन उनके वकील निहाल सिंह राठौड़ ने मुझे बताया, "उन्हें अभी तक कोविड की कोई दवा नहीं दी गई है. यहां तक कि विटामिन की गोलियां भी नहीं दी जा रही हैं.” राठौड़ ने बताया कि आरोपियों को तलोजा जेल की 15x8 साइज की कोठरी में अन्य कैदियों के साथ रखा जा रहा है. अधिकारी सब कुछ उपलब्ध कराने का दावा करते हैं लेकिन मरीजों को गर्म पानी तक नहीं दिया जाता. शौचालय की सुविधा, स्वच्छता और अन्य कोविड सावधानियां नहीं बरती जा रही हैं. तलोजा जेल के अधीक्षक कौस्तुभ कुर्लेकर ने ईमेल किए गए सवालों का जवाब नहीं दिया.

भीमा कोरेगांव मामले के 13 मर्द आरोपी तलोजा सेंट्रल जेल में बंद हैं और तीन महिलाएं (सुधा भारद्वाज, शोमा सेन और ज्योति जगताप) महाराष्ट्र की भायखला जेल में हैं. शोमा की बेटी कोयल के मुताबिक उनकी मां और 40 अन्य कैदियों को एक साथ रखा जाता है.

84 वर्षीय जेसुइट पादरी स्टेन स्वामी को तलोजा जेल से नवी मुंबई के होली फैमली अस्पताल में स्थानांतरित करने के बाद राउत, गोरखे और गायचोर की कोविड जांच रिपोर्ट पॉजिटिव आई. कई दिनों तक स्वामी की तबीयत बिगड़ने के बावजूद भीमा कोरेगांव मामले की जांच कर रही राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने कई मौकों पर उनकी चिकित्सा उपचार की याचिका का विरोध किया. आखिरकार उन्हें एक निजी अस्पताल में स्थानांतरित कर दिया गया लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा जेल अधिकारियों को 28 मई को ऐसा करने का निर्देश दिए जाने के बाद ही यह हुआ. दो हफ्ते पहले बीके-16 (भीमा कोरेगांव के 16 आरोपी) प्रोफेसर हनी बाबू की भी कोरोनावायरस जांच रिपोर्ट पॉजिटिव आई. तब तक लगभग दो सप्ताह हो चुके थे और घातक म्यूकोर्मिकोसिस के लक्षणों के साथ एक आंख में भी संक्रमण हो गया था. पर्याप्त चिकित्सा देखभाल के लिए बाबू को कई बार अदालतों में याचिका डालनी पड़ी.

बाबू की पत्नी जेनी रोवेना ने मुझे बताया, “ऐसा लगता है कि एक बार अगर आपको जेल हो गई, तो आपके सभी अधिकार छीन लिए जाते हैं.” बीके-16 वकील सुरेंद्र गाडलिंग की पत्नी मीनल गाडलिंग ने मुझसे कहा, “उन्हें इस तरह क्यों प्रताड़ित किया जा रहा है और बार-बार जमानत से वंचित क्यों किया जा रहा है? परोक्ष रूप से आप उन्हें मौत की ओर धकेल रहे हैं. हम सब बहुत चिंतित हैं.”

कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार इस साल 1 मार्च से 23 मई के बीच महाराष्ट्र की जेलों में कैदियों और जेल कर्मचारियों में कोविड​​​​-19 के 360 मामले सामने आए हैं. अध्ययन में बताया गया है कि पिछले साल मई से अब तक कोविड​​​​-19 से कम से कम 35 कैदियों की मौत हो चुकी है. राठौड़ के अनुसार, "हमारे पास जो जानकारी है वह यह है कि रैंडम स्क्रीनिंग के लिए युवा और स्वस्थ लोगों को चुन रहे थे ताकि पॉजिटिव दर कम दिखे और परीक्षण भी देर से किए जाते हैं.”

अप्रैल के मध्य में कोविड​-19 की दूसरी लहर की भयावह वृद्धि के बीच बॉम्बे हाई कोर्ट ने राज्य की जेलों में कैदियों की संख्या के बारे में स्वत: संज्ञान लिया. मीडिया रिपोर्टों में आया कि कम से कम 200 कैदी कोविड संक्रमण से पीड़ित थे. इस मामले में न्याय मित्र वरिष्ठ अधिवक्ता मिहिर देसाई ने अदालत को सूचित किया है कि कैदियों के मास्क पिछले साल से नहीं बदले गए हैं. कोर्ट के निर्देश के बाद ही कैदियों को नए मास्क मुहैया कराए गए. देसाई ने मुझे बताया, "उन्हें नियमित रूप से मास्क बदलना पड़ता है. कोविड की जांच भी मनमुताबिक होती है. उदाहरण के लिए स्टेन स्वामी की जांच अक्टूबर 2020 में की गई थी. उसके बाद कोई परीक्षण या टीकाकरण नहीं हुआ है.”

कैदियों के परिजनों और सहकर्मियों द्वारा सुनाए गए जेल जीवन के वृत्तांत बहुत चिंताजन हैं. गाडलिंग की पत्नी मीनल ने 8 जून को मुझे बताया कि 31 मई से सुरेंद्र गाडलिंग 40 लोगों के साथ आइसोलेशन में हैं. उन्होंने कहा कि उनकी जांच रिपोर्ट नेगेटिव थी और वह वापस बैरक में स्थानांतरित होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं. "वह सभी एक ही शौचालय का उपयोग कर रहे हैं," मीनल ने मुझे बताया. “मुंबई में बारिश हो रही है और कमरे में पानी रिस रहा है. उनकी बेडशीट सहित सब कुछ भीग गया है और वह ज्यादातर समय खड़े रह रहे हैं.”

मीनल ने भोजन की खराब गुणवत्ता के बारे में राठौड़ की चिंताओं के लेकर हामी भरी. उन्होंने कहा कि जेल अधिकारियों ने नहाने के साबुन और दवाओं जैसी बुनियादी जरूरतें मुहैया नहीं कराईं. "सुरेंद्र मोतियाबिंद से चिंतित हैं और वह मार्च से चश्मे के लिए अनुरोध कर रहे हैं लेकिन अभी तक चश्मा नहीं दिया है," उन्होंने बताया. मीनल ने कहा कि इसके चलते सुरेंद्र अपने केस के दस्तावेजों ठीक से पढ़ने में असमर्थ हैं.

मार्च 2020 में जैसे ही कोविड-19 महामारी पूरे भारत में फैलने लगी तो सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को को जमानत देने योग्य कैदियों की जानकारी तैयार करने के लिए उच्च-सशक्त समितियों का गठन करने का निर्देश दिया.

उस महीने बीके-16 वरवर राव ने अपने बुढ़ापे और उच्च रक्तचाप, बवासीर, कोरोनरी धमनी की बीमारी और चक्कर आने संबंधित स्वास्थ्य स्थितियों के आधार पर जमानत के लिए आवेदन किया था लेकिन उनके आवेदन को अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि उन्हें गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया गया था. मई में उन्होंने फिर से जमानत के लिए आवेदन किया और जब यह लंबित था तब राव की तबीयत इतनी बिगड़ गई कि उन्हें मुंबई के सरकारी जेजे अस्पताल ले जाना पड़ा. विशेष एनआईए अदालत ने बाद में अस्पताल से छुट्टी का हवाला देते हुए राव की जमानत अर्जी खारिज कर दी. राव ने तब इस फैसले के खिलाफ बॉम्बे हाई कोर्ट में अपील की.

राव ने अपनी जमानत अर्जी की अपील में कहा कि जेल की सुविधाएं महाराष्ट्र जेल अस्पताल (संशोधन) नियम, 2015 के तहत अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा नहीं करतीं. राव ने बॉम्बे हाईकोर्ट को बताया कि जेल में कैदियों की देखभाल के लिए कोई डॉक्टर नहीं हैं और केवल तीन आयुर्वेदिक चिकित्सक जांच करते हैं. उन्होंने आगे कहा कि तलोजा सेंट्रल जेल अस्पताल में कैदियों की देखभाल के लिए स्टाफ नर्स, फार्मासिस्ट, कंपाउंडर, नर्सिंग सहायक, लैब तकनीशियन और चिकित्सा विशेषज्ञ नहीं हैं.

उच्च न्यायालय की सुनवाई महीनों तक चलती रही. उस अवधि में राव की हालत बिगड़ती रही. जुलाई में 82 वर्षीय राव फिसल गए और उन्हें चोट आई और टांके लगाने पड़े. फिर भी उस महीने के अंत में एनआईए ने जमानत मांगने की उनकी अपील का विरोध करते हुए तर्क दिया कि राव को मानवीय आधार पर रिहा नहीं करना चाहिए क्योंकि उन पर भारतीय राज्य के खिलाफ काम करने का आरोप है. नवंबर में जैसे ही राव की तबीयत खराब हुई अदालत ने उन्हें इलाज के लिए नानावती अस्पताल ले जाने की इजाजत दी. हर स्तर पर एनआईए ने राव की रिहाई के अनुरोध का विरोध किया. यहां तक ​​कि एक निजी अस्पताल में दाखिल कराने का भी.

अदालत ने आखिरकार इस साल 22 फरवरी को राव को छह महीने के लिए जमानत पर रिहा करने का फैसला सुनाया. फैसले में कहा गया है, "हमने पाया है कि रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री स्पष्ट रूप से इंगित करती है कि तलोजा केंद्रीय कारागार से जुड़े उक्त अस्पताल में पर्याप्त इंतजाम नहीं है. हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि विचाराधीन कैदी को तलोजा केंद्रीय कारागार में वापस भेजने से निश्चित रूप से उनकी जान को खतरा होगा."

राव की स्वास्थ्य स्थिति की गंभीरता के बावजूद केंद्रीय जांच एजेंसी ने उन्हें हर स्तर पर सलाखों के पीछे रखने का प्रयास किया. यहां तक ​​कि फरवरी 2021 के फैसले पर तीन महीने के लिए रोक लगाने की मांग की. जेसुइट पादरी 84 वर्षीय स्टेन स्वामी को पार्किंसंस रोग (स्मृति लोप) होने के बावजूद एनआईए से इसी तरह के विरोध का सामना करना पड़ा था.

इस साल मई में जमानत पर सुनवाई के दौरान स्वामी ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए उच्च न्यायालय की एक पीठ से बातचीत की और अपनी पीड़ा को विस्तार से बताया. स्वामी ने कहा, "मुझे आठ महीने पहले यहां लाया गया था. जब मैं तलोजा आया तब मेरा शरीर ढंग से काम कर रहा था लेकिन इन आठ महीनों में मेरा शरीर धीरे-धीरे ढीला पड़ गया है. आठ महीने पहले मैं खुद खा सकता था, कुछ लिख पाता था, चल-फिर सकता था, नहा सकता था लेकिन यह सब मुश्कल होता जा रहा है. तलोजा जेल ने मुझे ऐसी स्थिति में ला दिया है जहां मैं न तो खुद लिख सकता हूं और न ही टहलने जा सकता हूं. किसी को मुझे खिलाना पड़ता है.…”

स्वामी के वकील वरिष्ठ अधिवक्ता देसाई के अनुसार तलोजा की सुविधाओं को लेकर राव ने कहा है उसमें सुधार नहीं हुआ है. इस बीच एनआईए की विशेष अदालत ने स्वामी की चिकित्सीय स्थितियों के बावजूद उनकी जमानत याचिकाओं को बार-बार खारिज किया है और अब उनकी याचिका बॉम्बे हाई कोर्ट में लंबित है. 28 मई को अदालत ने स्वामी को तलोजा जेल अस्पताल से इलाज के लिए मुंबई के एक निजी अस्पताल में स्थानांतरित करने का निर्देश दिया है.

केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन का मामला, जिन्हें हाथरस में एक दलित महिला के साथ हुए सामूहिक बलात्कार पर रिपोर्ट करने के लिए गिरफ्तार किया गया था, दर्शाता है कि उत्तर प्रदेश में स्थिति बेहतर नहीं है. कप्पन पर पिछले साल अक्टूबर में यूएपीए के तहत राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था और दूसरी लहर के दौरान उनकी हालत तेजी से बिगड़ी. दो सप्ताह तक बुखार से पीड़ित रहने और जेल में लगीं गंभीर चोटों के बाद अप्रैल में उनकी कोविड-19 जांच पॉजिटिव आई. इसके तुरंत बाद उनकी पत्नी रेहाना को पता चला कि उन्हें कोविड उपचार के लिए मथुरा के एक अस्पताल ले जाया गया था जहां उन्हें एक बिस्तर से बांध कर रखा जा रहा है और शौचालय का उपयोग करने की अनुमति नहीं थी.

इसके तुरंत बाद केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक याचिका दायर कर कप्पन को मथुरा जेल से दिल्ली के एम्स में स्थानांतरित करने की मांग की. 29 अप्रैल को कोर्ट ने उन्हें एम्स ट्रांसफर करने का आदेश दिया. रेहाना उसी दिन केरल से दिल्ली पहुंचीं लेकिन उन्हें अपने पति से मिलने की अनुमति नहीं दी गई. रेहाथ के अनुसार, 6 मई की रात को आधा-अधूरा इलाज कर और परिवार और वकील को जानकारी दिए बिना उन्हें एम्स से छुट्टी दिला दी गई. (इस बारे में कारवां में प्रकाशित यह इंटरव्यू पढ़ें.)

कैदियों के रिश्तेदारों और वकीलों ने बताया कि महामारी के चलते मुलाकतें रुकी हैं. उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें बात करने के लिए मुश्किल से पांच मिनट का समय मिलता और शोर शराबे के बीच बातचीत कर पाना कठिन होता है. रिश्तेदारों के अनुसार कैदियों के पत्र, खासकर बीके-16 के, बहुत देरी से पहुंच रहे हैं.

हनी बाबू की पत्नी ने मुझसे कहा कि, "जब भी हम जेल अधिकारियों को फोन करते हैं तो वे कॉल नहीं उठाते या कहते हैं कि यह नंबर नहीं है. वकील को भी उनसे बात करने में मुश्किल हो रही है और उन्हें कई बार फोन करना पड़ता और मदद के लिए पत्र लिखना पड़ता है." कोविड-19 के संपर्क में आने और ब्लैक फंगस के लक्षण दिखने के बाद बाबू अब एक निजी अस्पताल में इलाज करा रहे हैं.

3 मई को जेल अधिकारियों को आंख के गंभीर संक्रमण की सूचना देने के बावजूद बाबू को छह दिन बाद ही एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया. उनकी पत्नी ने मुझे बताया, "अगर पहले 2-3 दिनों में ही किसी नेत्र रोग विशेषज्ञ द्वारा ठीक से इलाज किया गया होता तो इससे उनकी ग्रंथि, मांसपेशियों और अन्य अंगों पर असर नहीं पड़ता. वह अपनी रोशनी खो सकते हैं.”

पत्नी रोवेना ने अन्य सह आरोपियों के परिजनों के साथ गर्मी के दिनों में तलोजा जेल में पानी की किल्लत का मामला भी उठाया है. उन्होंने 11 मई को एक प्रेस विज्ञप्ति में लिखा, "जेल में पानी की भीषण कमी के कारण बाबू के पास अपनी आंख धोने के लिए साफ पानी तक नहीं है और उन्हें अपनी आंखों को गंदे तौलिए से ढकना पड़ रहा है.”

भारत के जेल सांख्यिकी 2019 के अनुसार भारतीय जेलों में मेडिकल स्टाफ पदों की स्वीकृत चिकित्सा शक्ति 3320 है लेकिन केवल 1962 ही कार्यरत हैं. दूसरे शब्दों में दो-तिहाई से अधिक ऐसे पद खाली हैं.

72 वर्षीय आनंद तेलतुंबडे, 63 वर्षीय शोमा सेन और 58 साल की सुधा भारद्वाज के परिजनों के अनुसार ये सभी पहले से ही कई बीमारियों से पीड़ित हैं. तीन साल जेल में रहने के दौरान भारद्वाज को गठिया और दिल की बीमारी हो गई है. उसके रिश्तेदारों के अनुसार वह इस साल अप्रैल में तीन सप्ताह से अधिक समय से दस्त, थकान, भूख न लगने और सूंघने की क्षमता में कमी और बिगड़ती स्वास्थ्य स्थिति से पीड़ित हैं. इस बारे में पूछे जाने पर भायखला जेल के अधीक्षक सदानंद गायकवाड़ ने द हिंदू को बताया है, “सुश्री भारद्वाज शिकायत करती रहती हैं. उन्हें शरीर में कहीं दर्द नहीं है, दस्त नहीं हैं. वह जमानत पाने के लिए इन हथकंडों का सहारा लेती हैं.”

52 वर्षीय मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधीर धवले के एक सहयोगी हर्षाली पोद्दार के अनुसार भीमा कोरेगांव के विचाराधीन कैदी जेल में कोविड​​​-19 वैक्सीन नहीं लगा पा रहे क्योंकि उनके पास आधार कार्ड नहीं है. पोद्दार के अनुसार, "उनके दस्तावेज पुलिस ने जब्त कर लिए हैं.”

13 मई को भीमा कोरेगांव कैदियों के परिवारों द्वारा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को लिखे एक संयुक्त पत्र के अनुसार बीके-16 में से केवल चार का वैकसिनेशन हुआ है. पत्र में कहा गया है कि गौतम नवलखा, वर्नोन गोंसाल्वेस, भारद्वाज और सेन को पहला टीका लगा है. राठौड़ ने मुझे बताया कि गोरखे, गायचोर और राउत को इसलिए टिका नहीं लगा क्योंकि वे 45 वर्ष से कम उम्र के हैं. "ऐसी जोखिम भरी स्थिति में रहने वाले कैदियों को उम्र के आधार पर वंचित नहीं किया जाना चाहिए,” राठौड़ ने कहा.

कैदियों को अंतरिम जमानत देने से भी इनकार कर दिया गया है. उदाहरण के लिए, एनआईए ने अगस्त 2020 में सुरेंद्र की मां की मृत्यु के बाद उनकी जमानत याचिका का भी विरोध किया. एनआईए ने उनका मृत्यु प्रमाण पत्र मांगा. अंततः जमानत से यह कह कर इनकार कर दिया गया कि उनकी मां की मृत्यु हुए तीन सप्ताह बीत चुके हैं. अदालत ने फैसला सुनाया कि सुरेंद्र को अंतिम संस्कार के लिए जाना जरूरी नहीं है. “जब उन्होंने अपनी मां की शोक सभा में भाग लेने का अनुरोध किया तो उनसे कहा गया कि सब कुछ खत्म हो गया है तो अब तुम क्यों जाना चाहते हो?" मीनल ने मुझे बताया. “उन्होंने कहा कि वह जमानत पाने के लिए नाटक कर रहे हैं. मां की मौत पर कौन ड्रामा करेगा?” धवले को भी पिछले साल अपने बड़े भाई के अंतिम संस्कार और शोक सभा में शामिल होने की अनुमति नहीं दी गई.

राजनीतिक कैदियों द्वारा जमानत आवेदनों पर एनआईए की चुनौती सुप्रीम कोर्ट, बॉम्बे हाई कोर्ट और महाराष्ट्र की उच्चाधिकार प्राप्त समितियों द्वारा महामारी के दौरान जेलों में भीड़ कम करने के लिए उठाए गए कदमों के बाद सामने आई है. 24 मार्च 2020 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद महाराष्ट्र सरकार ने एक एचपीसी का गठन किया था जिसमें राज्य सरकार के अतिरिक्त मुख्य सचिव श्रीकांत सिंह और जेलों के महानिदेशक एसएन पांडे शामिल थे.

अगले दिन पारित अपने पहले प्रस्ताव में एचपीसी ने प्रस्तावित किया कि जब तक महामारी अधिनियम, 1897 लागू है, तब तक सात साल या उससे कम की सजा काट रहे विचाराधीन कैदियों और दोषियों को अंतरिम जमानत दी जानी चाहिए. एचपीसी ने 10 मई 2020 को दूसरे प्रस्ताव में कहा कि 60 वर्ष से अधिक उम्र के 1340 कैदी ऐसे हैं जिन्हें कोविड-19 का अधिक खतरा है. एचपीसी ने सिफारिश की कि उनकी रिहाई पर विचार किया जाना चाहिए.

इस साल 11 मई को हुई बैठक के मिनिट्स के अनुसार पिछले साल 31 जुलाई तक महाराष्ट्र ने एचपीसी के निर्णयों के अनुसार 10811 कैदियों को रिहा किया है. मिनिट्स से पता चलता है कि राज्य की जेलों की आबादी 34733 तक पहुंच गई है. इनमें से 29186 विचाराधीन कैदी हैं और 5547 सजायाफ्ता. विचाराधीन कैदियों में से 16147 ने एचपीसी के फैसलों के बाद अंतरिम जमानत के लिए आवेदन किया था लेकिन केवल 214 को ही अनुमति दी गई.

इस अप्रैल में दूसरी लहर के दौरान जेलों में खतरनाक स्थिति के मद्देनजर उच्च न्यायालय ने समिति को जेलों में भीड़ कम करने के लिए नए दिशानिर्देश जारी करने का आदेश दिया. तदनुसार 11 मई को एचपीसी ने निर्देश दिया कि 65 वर्ष से अधिक आयु के कैदियों के आवेदनों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाना चाहिए भले ही जमानत के लिए उनके पिछले आवेदन खारिज कर दिए गए हों.

भीमा कोरेगांव मामले में अधिकांश विचाराधीन कैदी 60 वर्ष से अधिक उम्र के हैं और उनमें से कइयों को दूसरी बीमारियां भी हैं. मुख्यमंत्री ठाकरे को बीके-16 के परिजनों ने संयुक्त पत्र लिखा था लेकिन ठाकरे ने पत्र का जवाब नहीं दिया.

वरिष्ठ अधिवक्ता देसाई के अनुसार एचपीसी के पास मौजूदा दिशानिर्देशों से छूट प्राप्त अपराधों के तहत दर्ज लोगों के लिए अंतरिम जमानत का निर्देश देने की शक्ति है. नेशनल फोरम ऑन प्रिजन रिफॉर्म्स के संयोजक अजय वर्मा के अनुसार, कैदियों की संख्या चिंताजनक है, तिहाड़ जैसी जेलों में उनकी आधिकारिक क्षमता से लगभग दोगुनी आबादी है. वर्मा ने मुझे बताया कि एचपीसी की स्थापना के बावजूद, अधिकांश राज्यों की जेलें भरी पड़ी हैं जहां स्वच्छता और चिकित्सा सुविधाओं की भारी किल्लत है. उत्तर प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मेघालय और सिक्किम में कैदियों की मौजूदा दर 150-170 प्रतिशत से ऊपर है. "जब बाहर की स्वास्थ्य व्यवस्था विफल हो रही है, तो हम जेलों के बेहतर होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?"

अप्रैल 2021 में नेशनल फोरम ऑन प्रिजन रिफॉर्म्स ने जेलों में कोविड-19 के प्रसार से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के स्वत: संज्ञान मामले में एक हस्तक्षेप आवेदन दायर किया. एनएफपीआर के आवेदन में उल्लेख है कि कई जेलों में प्रकोप से पहले की तुलना में अधिक कैदी हैं.

दिल्ली और महाराष्ट्र के अलावा सैकड़ों कार्यकर्ता, विशेष रूप से आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों के, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, राजस्थान और गुजरात राज्यों में कैद हैं. सूचना के अधिकार के आवेदन के जवाब में मिले आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार दिसंबर 2020 तक जम्मू और कश्मीर में 90 प्रतिशत से अधिक कैदी विचाराधीन हैं.

फर्जी मामलों में कैद आदिवासियों की रिहाई के लिए काम करने वाले जेल बंदी रिहाई मंच की कार्यकर्ता हिदिमे मरकाम भी जेल में हैं. उन्हें इस साल 9 मार्च को 2016 के एक मामले में गिरफ्तार किया गया था.

जेल बंदी रिहाई मंच के सचिव सुजीत कर्मा ने यह भी कहा कि महामारी के दौरान मरकाम के साथ बातचीत कर पाना बेहद मुश्किल हो गया है. कर्मा ने कहा, "इससे पहले जब हमें विशिष्ट कैदियों के सामने आने वाली समस्याओं के बारे में पता चलता, तो हम जेल अधिकारियों से संपर्क कर कार्रवाई करने के लिए कह सकते थे लेकिन अब हमें पहले की तरह जानकारी और अपडेट नहीं मिल पा रहे हैं.”

मार्च 2019 में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की कांग्रेस सरकार ने झूठे मामलों की पहचान कर लोगों को रिहाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एके पटनायक की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था. लेकिन परिणाम धीमे रहे हैं. जून की शुरुआत में सरकार ने घोषणा की कि आदिवासी समाज के 726 सदस्यों से जुड़े 594 मामले वापस ले लिए गए हैं और समिति द्वारा अनुशंसित 33 मामले वापस लेने के लिए अदालतों में लंबित हैं.

यूएपीए या राजद्रोह कानून के तहत दर्ज किए गए राजनीतिक कैदियों के लिए जमानत से बार-बार इनकार करने का एक कारण इन कानूनों में लगाए गए जमानत देने के लिए उच्च मानक हैं. उदाहरण के लिए, यूएपीए की धारा 43डी में कहा गया है कि "अभियुक्त व्यक्ति को जमानत पर या अपने स्वयं के मुचलके पर रिहा नहीं किया जाएगा यदि अदालत ... की राय है कि इस तरह के व्यक्ति के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सच हैं." नतीजतन यूएपीए के तहत जमानत मांगने वाले आवेदक पर असाधारण रूप से अधिक बोझ पड़ता है.

एक्टिविस्ट उमर खालिद ने, जो फिलहाल 2020 में दिल्ली में हुई हिंसा से संबंधित एक मामले में यूएपीए के तहत जेल में बंद हैं, इस कठोर कानून के तहत जमानत प्रावधानों पर टिप्पणी की है. इस मई में लिखे एक लेख में खालिद ने कहा है, “कानून के रूप में यूएपीए सुप्रीम कोर्ट की उस नजीर का उल्लंघन है जो कहती है कि जमानत नियम है और जेल अपवाद.”

15 जून को दिल्ली उच्च न्यायालय ने खालिद की तरह ही ही दिल्ली हिंसा मामले में गिरफ्तार तीन अन्य छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत दे दी. अदालत का यह फैसला यूएपीए के तहत जमानत की मानक व्यवस्था के लिए एक नई कानूनी न्यायशास्त्र की नजीर बनने की क्षमता रखता है. न्यायाधीश सिद्धार्थ मृदुल और अनूप भंबानी की पीठ ने कहा कि यूएपीए केवल असाधारण परिस्थितियों में लागू किया जा सकता है, न कि उन अपराधों के लिए जो इन परिस्थितियों में नहीं आते हैं. पीठ ने यह भी फैसला सुनाया कि यदि यूएपीए के तहत अपराध किसी आरोपी व्यक्ति के कार्यों से नहीं बनते हैं, तो कार्रवाई को केवल आतंकवादी कृत्य के रूप में लेबल करके कठोर कानून लागू नहीं किया जा सकता है. फैसले के एक प्रसिद्ध उद्धरण में, बेंच ने कहा, "हम यह कहने के लिए विवश हैं कि राज्य असंतोष को दबाने के लिए विरोध करने के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच की रेखा को धुंधला रहा है. अगर यह मानसिकता जोर पकड़ती है तो यह लोकतंत्र के लिए दुखद होगा.”

लेकिन यह फैसला खुद कितने दिन कायम रह पाएगा यह देखा जाना बाकी है. 18 जून को दिल्ली पुलिस ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की है. दिल्ली पुलिस की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने फैसले के बारे में केंद्र सरकार की चिंता के बारे में कहा, “वकील इस फैसले का इस्तेमाल करके जमानत मांग रहे हैं.” शीर्ष अदालत ने इस पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है लेकिन यह भी कहा है कि पीठ के फैसले का इस्तेमाल मिसाल की तरह नहीं हो सकता और अपील के लंबित रहने के दौरान किसी भी पक्ष द्वारा किसी भी अदालत में इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.

19 जून को भारत में अकादमिक स्वतंत्रता के लिए अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता द्वारा आयोजित एक ऑनलाइन बैठक को संबोधित करते हुए रोवेना ने बताया कि भारत में अधिकांश कैदी दलित, बहुजन और मुस्लिम समुदायों से हैं. उन्होंने कहा कि जेलों की हालत खराब है क्योंकि यह व्यवस्था राज्य के खिलाफ आवाज उठाने वाले इन समुदायों के लोगों को दंडित करने के लिए बनाई गई है. रोवेना ने कहा, "यदि आप किसी भी तरह के सुधार या बदलाव के लिए कहते हैं, तो आपकी भी यही स्थिति होगी और आपको सलाखों के पीछे डाला जाएगा, आपके खिलाफ मनगढ़ंत मामले लगाए जाएंगे. भारत एक जातिवादी उपनिवेश है और यहां की जेलें इस जातिवादी उपनिवेश को कायम रखने के लिए हैं."