नागरिकता (संशोधन) कानून, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु के बाहर भी हुए हैं. दिसंबर 2019 के मध्य से राज्य के मध्य और उत्तरी हिस्सों : हुबली, शिवमोग्गा, सागर, बागलकोट और भटकल जैसे क्षेत्रों में विरोध प्रदर्शन हुए हैं.
उत्तरी कर्नाटक के कलबुर्गी, जिसे 2014 तक गुलबर्गा के नाम से जाना जाता था, में कई विरोध प्रदर्शन हुए. महिलाओं के विरोध प्रदर्शन, राजनीतिक दलों द्वारा समर्थित बड़ी रैलियां, मानव श्रृंखला और कॉलेज परिसरों में छोटी सभाएं भी हुईं. पिछले महीने जब शहर में धारा 144 लागू की गई, तो लोग नाफरमानी करते हुए सड़कों पर उतर आए. शहर के एक शख्स ने मुझे बताया, "ऐसा लगता है कि भूख हड़ताल, सत्याग्रह या लोगों के विरोध के बिना एक दिन भी नहीं बीता है."
19 जनवरी 2020 को कलबुर्गी में छात्र संगठनों के संयुक्त मंच यूनाइटेड ब्रदरहुड ने सीएए, एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ एक छात्र सम्मेलन का आयोजन किया. यह प्रदर्शन नेशनल गर्ल्स कॉलेज के बाहर एक मैदान में आयोजित किया गया. एक बड़े तंबू से मंच के सामने के हिस्से को ढक कर औरतों के लिए अलग से जगह बनाई गई थी.
भाषण, कविता पाठ, कव्वाली, वीडियो की स्क्रीनिंग और सीएए-एनआरसी के बारे में नाटकीय बहस कार्यक्रम में शामिल थे. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया जैसी संस्थाओं से वक्ताओं और साथ ही स्थानीय शिक्षक, छात्र, कार्यकर्ताओं व मुस्लिम समुदाय के पूर्व सैन्य अधिकारी ने लोगों को संबोधित किया. कई छात्रों ने मुझे बताया कि विरोध प्रदर्शन के अलग-अलग कारण हैं. लेकिन सबका कहना था कि इस वक्त देश भर के छात्रों का सड़कों पर उतरना बेहद जरूरी है.
बेंगलुरु विश्वविद्यालय में भारतीय राजनीति के छात्र सैयद अलीम इलाही सम्मेलन आयोजित करने के लिए पढ़ाई से ब्रेक लेकर पहुंचे थे. उन्होंने बताया, "हम आज ऐसी स्थिति में हैं कि अगर हम अभी नहीं बोलेंगे तो मिटा दिए जाएंगे." इलाही को लगता है कि बड़े शहरों के बाहर पढ़ रहे छात्रों को देश भर में जारी विरोध प्रदर्शनों के बारे में शिक्षित करना बहुत जरूरी है. “गुलबर्गा शिक्षा का एक केंद्र है," उन्होंने कहा. “हमारे यहां देश भर के छात्र आते हैं. हालांकि यहां कई रैलियां हुई हैं फिर भी वे हम विद्यार्थियों को इस बारे में शिक्षित नहीं कर रहे हैं कि सीएए क्या है, एनआरसी क्या है?"
इलाही और उनके साथी आयोजकों ने 19 जनवरी को शैक्षिक प्रयास के रूप में विरोध सभा का विचार बनाया था. इस आयोजन का मुख्य आकर्षण एक छोटा "संग्रहालय" है जिसे छात्रों ने खुद ही तैयार किया है. एक अस्थाई बाड़े के अंदर उन्होंने संविधान, आंबेडकर और मैसूर के अठारहवीं शताब्दी के शासक टीपू सुल्तान की बड़े कट-आउट लगाए हैं. एक कोने में तख्तियों का ढेर लगा था. दीवारों पर समाचार क्लिपिंग, ख्यातिप्राप्त लोगों के उद्धरण, राजनीतिक कार्टून और बड़े बैनर लगे थे. इन पर मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों के नाम लिखे थे. मुख्य प्रवेश द्वार के दाईं ओर की दीवार पर एक बैनर लगा था जिसमें मुस्लिम शासकों द्वारा निर्मित ऐतिहासिक स्मारकों की छवियों के साथ घोषणा की गई थी, "यह हमारा एनआरसी दस्तावेज है." एक अन्य बैनर में लिखा था, "फ्रॉम : वी द पीपल ऑफ इंडिया. गुलबर्गा, कर्नाटक. हम सीएए, एनआरसी और एनपीआर को अस्वीकार करते हैं.” शाम तक यह बैनर लोगों के हस्ताक्षरों से पूरी तरह भर गया. छात्रों ने मुझे बताया कि वे इस बैनर को राष्ट्रपति को भेजना चाहते हैं.
लेकिन शायद इस प्रदर्शन के बारे में सबसे असामान्य बात फोटो वह बूथ था जिसे "संग्रहालय" के ठीक बाहर रखा गया था. यहां प्लाईबोर्ड से बनी एक काली रंग की जेल को "डिटेक्शन सेंटर" नाम दिया गया था. लोग इस जेल के पीछे जाकर खड़े हो जाते और उनके दोस्त दूसरी तरफ से उनकी तस्वीरें लेते. विचार यह था कि लोग तब इन तस्वीरों को सोशल मीडिया पर इस व्याख्या के साथ अपलोड करेंगे कि अगर उनका नाम अखिल भारतीय एनआरसी में नहीं आया तो लोगों को हिरासत केंद्रों में रखा जाएगा.
कलबुर्गी के शरनबासवा विश्वविद्यालय में पर्यटन मेनेजमैंट के छात्र अली अहमद ने मुझसे कहा, "हम लोगों के लिए इस कार्यक्रम को मजेदार बनाना चाहते हैं." उन्होंने बताया कि सोशल मीडिया के जरिए सीएए विरोधी विचार को फैलाना बहुत महत्वपूर्ण है.
लेकिन अहमद ने कहा कि सीएए और एनआरसी पर ध्यान आकर्षित करना ही पर्याप्त नहीं है. उन्होंने कहा, "हमें स्वार्थी होना बंद करना होगा व अन्य राज्यों और दुनिया भर में क्या हो रहा है इसकी भी परवाह करनी होगी." अली उन छात्रों में से थे जिनको लगता है कि सम्मेलन का संदेश भारतीय मुद्दों तक सीमित नहीं होना चाहिए. "अत्याचार दुनिया भर में हो रहे हैं और लोगों को उनके बारे में जानना चाहिए," उन्होंने कहा. नतीजतन छोटे से संग्रहालय में चीन में उइगर मुसलमानों के उत्पीड़न, म्यांमार में रोहिंग्या और फिलिस्तीन पर कब्जे के संदर्भ भी शामिल थे. विरोध प्रदर्शनों के संबंधों की सार्वभौमिकता पर जोर देते हुए अली ने बताया कि सम्मेलन ने #यूनिटी_फॉर_ह्यूमैनिटी हैशटैग शुरू किया है.
लेकिन अन्य आयोजकों के लिए विरोध प्रदर्शन का संबंध अधिक तात्कालिक था. इलाही ने मुझे बताया कि भारत की वर्तमान आर्थिक स्थिति को देखते हुए छात्रों को नौकरी नहीं मिलने की चिंता है. उन्होंने कहा, "बेरोजगारी की हालत बहुत बुरी हो गई है. हम यह सोचकर पढ़ाई करते हैं कि हम भविष्य में कुछ अच्छा करेंगे लेकिन हमें अभी कोई भविष्य नहीं दिख रहा है."
हाल ही में इंजीनियरिंग में स्नातक हुई और वामपंथी छात्र संगठन ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक स्टूडेंट ऑर्गनाइजेशन कर्नाटक राज्य इकाई के नेता अभय दिवाकर ने इस पर सहमति व्यक्त की कि छात्रों का बहुत कुछ दांव पर लगा है. "केंद्र और राज्य दोनों सरकारें शिक्षा बजट में कटौती कर रही हैं और इन सबके बीच वे सीएए और एनआरसी लाना चाहते हैं." दिवाकर ने जेएनयू में छात्रों पर हुए हिंसक हमले और जामिया व एएमयू जैसे अन्य विश्वविद्यालयों पर पुलिस के हमले को छात्रों के विरोध के अधिकार पर सीधा हमला बताया. उनका मानना है कि जमीनी स्तर पर छात्रों के बीच एक साझा दृष्टि पैदा करना समय की जरूरत है. उन्होंने मुझसे कहा, "ये विरोध प्रदर्शन बहुत अधिक भावनात्मक स्तर पर हैं लेकिन एक ऐसी विचारधारा की जरूरत है जो धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक विचारों का प्रसार करती है. यही कारण है कि हमारा संगठन पुस्तिकाएं निकाल रहा है, पर्चे बांट रहा है जो वैचारिक रूप से आंदोलन को मजबूत करते हैं."
देर दोपहर तक विरोध प्रदर्शन में भीड़ उमड़ने लगी थी. परिवार संग्रहालय के बाहर-भीतर घूमते रहे. लोग खुशी-खुशी मंच से पढ़ी जा रही कविताएं सुन रहे थे और नारे लगा रहे थे. शाम तक वहां लगभग एक हजार लोग इकट्ठे हो गए थे.
हाल ही में इंजीनियरिंग में स्नातक हुईं निशात रूही ने मंच पर जाकर अपनी बात रखी. उन्होंने इस अवसर पर सुनाने के लिए एक कविता भी लिखी थी. कविता इस तरह शुरू होती है, "इकबाल, फैज, ये इंदोरी, इनके अल्फाज रहने दो/आपको हम अपनी लैंगवेज में समझाएंगे." अपनी कविता में उन्होंने कठबोली और मीम तथा सोशल मीडिया के कई संदर्भों के जरिए सरकार की विभिन्न नीतियों की आलोचना की.
रूही अपने कई मित्रों के साथ विरोध प्रदर्शन में शामिल हुई थीं. उन्होंने मुझे बताया, “हम भारत भर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में अपना योगदान देना चाहते हैं. हम यह दिखाना चाहते हैं कि हम संविधान को बचाने के लिए अपनी ओर से भी काम कर रहे हैं.” उन्होंने कहा कि वह दिसंबर 2019 से कलबुर्गी में हुए छात्रों और महिलाओं के हर विरोध प्रदर्शन में शामिल हुई हैं.
रूही दसवीं कक्षा तक राजकोट गुजरात में रहती और पढ़ती थी. कलबुर्गी में उनके कई रिश्तेदार थे. उन्होंने कहा कि उनके परिवार का कलबुर्गी में स्थानांतरित होने के कई कारणों में से एक यह भी था कि वे गुजरात में असुरक्षित महसूस करते थे. 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी के शासन का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, “मैं मोदी सरकार के अधीन रहती थी. आप कह सकते हैं कि वहां का माहौल मुस्लिम विरोधी था. मुझे सोचना पढ़ता था कि स्कूल में अपनी पहचार जाहिर करूं या रहने दूं. मेरे दोस्त घबरा जाते थे कि मैं एक मुसलमान हूं. एक मुसलमान के रूप में वहां रहकर और अब जो हो रहा है उसे देखकर मुझे लगता है कि मुझे स्टैंड लेना चाहिए.”
जब से रूही ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स पर सीएए के विरोध में पोस्ट डालनी शुरू की तब से गुजरात में रहने वाले उनके कई करीबी दोस्त जो बीजेपी-समर्थक परिवारों से आते हैं ने उनके व्हाट्सएप ग्रुप को छोड़ दिए और उनसे बातचीत करना कम कर दिया. हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संबंधों को भड़काने का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, "इस तरह की बात कुछ समय से हो रही है. सरकार इसे सुलझाने की कोशिश करने के बजाय हमें और बांटने की कोशिश कर रही है. यह गलत है."
उनके साथ बैठे उनकी दोस्त बिल्किस अथर ने बाताया कि कलबुर्गी में भी कुछ संस्थानों में छात्रों को ध्रुवीकृत करने की कोशिश की गई है. उन्होंने कहा, "मैं कॉलेज के नाम का उल्लेख नहीं करना चाहती क्योंकि मेरे भाई-बहन वहां पढ़ते हैं," लेकिन जब यहां सीएए के समर्थन में एक रैली हो रही थी तो कॉलेज के अधिकारियों ने छात्रों को अपनी परीक्षा छोड़कर रैली में जाने के लिए मजबूर कर दिया. हमें उस तरह के बंटवारे का मुकाबला करने की जरूरत है.”
अथर और रूही दोनों ने कहा कि कलबुर्गी में हुए विरोध और अन्य विरोध प्रदर्शनों में जिनमें वे शामिल थे में मौजूद अधिकांश लोग मुस्लिम थे. 2011 की जनगणना के अनुसार कलबुर्गी में अच्छी-खासी संख्या में मुस्लिम आबादी रहती है. लेकिन मैंने जिन छात्रों से बात की उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सीएए और एनआरसी मुस्लिम मुद्दे नहीं हैं. रूही ने कहा, "भले ही हमारे पास कागजात नहीं हों लेकिन फिर भी इससे सबसे ज्यादा पीड़ित हम नहीं होंगे. हम गरीबों के लिए ऐसा कर रहे हैं.” उन्होंने कहा कि विरोध प्रदर्शन में भाग लेना और सोशल मीडिया पर उसके बारे में पोस्ट करना एकजुटता जाहिर करने के तरीके हैं. "मैं इसके माध्यम से अपने दोस्तों को बताना चाहती हूं, ''आप मुस्लिम हैं या नहीं आपके पास कागजात हैं या नहीं कृपया जो सही है उसके लिए आवाज उठाएं.” दिवाकर का भी कुछ ऐसा ही मानना था. “गरीब प्रभावित होते हैं… गुलबर्गा में हमारे कई आदिवासी लोग हैं. वे क्या दस्तावेज देंगे?”
देश के कई हिस्सों में हुए विरोध प्रदर्शनों के विपरीत जहां औरतों ने मोर्चा सम्भाला छात्रों द्वारा आयोजित इस विरोध प्रदर्शन में पुरुषों का वर्चस्व दिखा. औरतों के लिए न केवल बैठने के लिए अलग से व्यवस्था की गई थी बल्कि बहुत कम औरतों ने सभा को संबोधित किया. हालांकि रूही ने जोर देकर कहा कि औरतों की भूमिका को कम करके नहीं आंकना चाहिए. "हो सकता है कि वे मंच पर नहीं हों लेकिन कई महिला छात्र आयोजक और वॉलेंटियर थी." उन्होंने मुझे वॉलिंटीयर का बैज लगाए कई औरतों की ओर इशारा कर मुझे दिखाया जो भीड़ को निर्देशित करने या पानी पिलाने में व्यस्त थीं. उन्होंने कहा, “बुर्का पहने लड़की पर सुरक्षा का दबाव होता है ताकि वह ज्यादा पहचान में न आए या गलत तरीके से उसका पीछा न किया जा सके. इसीलिए कई लड़कियां पर्दे के पीछे रहना पसंद करती हैं और वहां से मदद करती हैं.'' कार्यक्रम में वॉलिटिंयर के रूप में काम कर रही इंजीनियरिंग की छात्रा शिफा ने कहा कि महिलाओं के लिए अलग सेक्शन से ज्यादा महिलाओं को घर से बाहर निकालने में मदद मिली है इसलिए उन्होंने इस तरह अलग बैठाने को बुरा नहीं माना. "वर्ना उम्रदराज औरतें नहीं आतीं," उन्होंने मुझे बताया. "मायने यह रखता है कि हम यहां हैं."
रूही ने कहा कि उन्हें देश के विभिन्न हिस्सों में विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों विशेषकर औरतों की संख्या को देखकर उम्मीद बंधी है. "2014 के बाद से हम भारत को बेहतर बनाने की उम्मीदें खोतें जा रहे हैं," उन्होंने मुझे बताया. "लेकिन अब जब ये विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं तो मैं कतरा-कतरा उम्मीद जोड़ रही हूं." अथर ने कहा, "आपने सही कहा है? बूंद-बूंद कर सागर बनता है तो कल्पना करो एक बूंद यहां है, एक बूंद वहां है और हम ये सभी बूंदें हैं और हम एक साथ खड़े हैं, क्या हम नहीं हैं?"