इस बार लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हरियाणा की एक रैली में दावा किया कि उन्होंने 1984 में हुए सिखों के कत्लेआम के दोषियों को सजा दिलाने की प्रक्रिया आरंभ कर दी है. रैली में मोदी ने दावा किया, “2014 में देश और दुनिया के सिख समाज से मैंने वादा किया था कि सिखों के कातिलों को छोड़ूंगा नहीं.” मोदी ने कांग्रेस को सिखों की दुश्मन पार्टी बताते हुए कांग्रेस के नेता सैम पित्रोदा की “हुआ तो हुआ” वाली टिप्पणी का भी उल्लेख किया. हालांकि पित्रोदा ने अपनी उस टिप्पणी के लिए माफी मांगी थी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उनकी टिप्पणी को गलत कहा था. पंजाब में ही एक अन्य रैली में अमित शाह ने भी बीजेपी और मोदी को पंजाब और सिखों का हितैषी बताया था. अमित शाह ने दावा किया, “1984 में हजारों सिख मार दिए गए थे और किसी भी दोषी को सजा नहीं मिली. लेकिन मोदी सरकार आने के बाद पीड़ित परिवारों को न्याय मिला है.” उन्होंने दावा किया कि कांग्रेस पार्टी के तीन बार के सांसद सज्जन कुमार को मोदी द्वारा गठित विशेष जांच टीम की रिपोर्ट के बाद जेल जाना पड़ा.
1984 का सिख नरसंहार भारतीय लोकतंत्र की न भुलाई जा सकने वाली त्रासदी है. बहुत से मानवाधिकार चिंतकों का मानना है कि अगर 1984 घटित न होता तो 1992 और 2002 के अल्पसंख्यक विरोधी कत्लेआम भी नहीं होते. 1984 व 2002 के कत्लेआम हर बार चुनावों में चर्चा का विषय बनते हैं. हाल में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में, पंजाब में सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ रोष होने के बावजूद न तो अकाली दल ने अच्छा प्रदर्शन किया और न ही “मोदी लहर” का असर हुआ. इन चुनावों में अकाली और बीजेपी ने 1984 के कत्लेआम को जोर-शोर से उठाया. बीजेपी नेता पूरे देश में 2002 के सवालों से बचने के लिए 1984 को ढाल के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं.
लेकिन क्या बीजेपी और नरेन्द्र मोदी, जिनके दामन पर 2002 के नरसंहार के दाग हैं, को 1984 के नरसंहार की बात करने का कोई नैतिक अधिकार है? बीजेपी और आरएसएस, जो पूरे भारत को एक रंग, एक विचार, एक संस्कृति में रंगा हुआ देखना चाहते हैं और जिनके छोटे-बड़े नेता अल्पसंख्यकों के विरुद्ध नफरत फैलाते रहते हैं, क्या वे सचमुच सिखों के हितैषी हो सकते हैं? साथ ही इन सवालों के जवाब ढूंढने की भी जरूरत है कि जब 1980 के दशक में पंजाब जल रहा था तो बीजेपी और संघ की क्या भूमिका थी?
जब ‘पंजाबी सूबा’ आंदोलन चल रहा था तो आज पंजाब हितैषी होने का दावा करने वाली बीजेपी की पूर्व अवतार पार्टी भारतीय जनसंघ ‘महा-पंजाब’ लहर चलाकर पंजाब के दो बड़े संप्रदायों को आपस में लड़वाने का काम कर रही थी. अमृतसर में दरबार साहब के नजदीक बीड़ी, गुटखा और तंबाकू की दुकानें खोलने की मांग करने वाले संगठनों को इनका पूर्ण सहयोग था. दरबार साहब का मॉडल तोड़ने वाला हरबंस लाल खन्ना बीजेपी का राज्य स्तरीय नेता था.
ऑपरेशन ब्लू स्टार के लिए सरकार पर दबाव डालने वालों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी आगे थे. ऑपरेशन ब्लू स्टार से कुछ दिन पहले लाल कृष्ण अडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी इस बात को लेकर धरने पर बैठे थे कि दरबार साहब में फौज भेजी जाए. आडवाणी अपनी आत्मकथा माई कंट्री माई लाईफ में इस बात को स्वीकार करते हैं और फौजी कार्रवाई की सराहना भी करते हैं. अपनी आत्मकथा के एक अध्याय द ट्रॉमा एंड ट्राइअंप ऑफ पंजाब में अडवाणी ने लिखा है, “बीजेपी के इतिहास में एक प्रमुख जन आंदोलन भिंडरांवाले और उसकी निजी सेना के सामने सरकार के आत्मसमर्पण के खिलाफ था. भिंडरांवाले ने स्वर्ण मंदिर को अपनी कार्रवाई का मुख्यालय बनाया हुआ था”. स्वर्ण मंदिर में फौजी कार्रवाई के बाद आरएसएस द्वारा लड्डू बांटे जाने की खबरें भी प्रकाश में आई थीं.
मोदी सरकार ने जिन नानाजी देशमुख को ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया है उन्होंने अपने एक लेख ‘मोमेंट ऑफ सोल सर्चिंग’ में दरबार साहब में की गई फौजी कार्रवाई के लिए इंदिरा गांधी की प्रशंसा की थी और 1984 के सिख कत्लेआम को यह कहकर सही ठहराया था कि यह सिख नेताओं की गलतियों का परिणाम है. आजकल बीजेपी से नाराज चल रहे लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे अरुण शौरी ने भी अपने लेख ‘लैसन्स फ्रोम द पंजाब’ में स्वर्ण मंदिर में फौजी कार्रवाई को जायज ठहराया है. शौरी का यह लेख “द पंजाब स्टोरी” नाम की किताब में प्रकाशित है. इसके अलावा यह भी एक सच्चाई है कि बीजेपी के कई नेता ऐसे हैं जो राजीव गांधी के समय कांग्रेस में थे.
इसी प्रकार 1984 के सिख विरोधी कत्लेआम में बीजेपी और संघ के नेताओं का शामिल होना भी एक सच्चाई है जिसे संघ या बीजेपी के नेता भुला देना चाहते हैं. दिल्ली सिटी पुलिस स्टेशन में दर्ज 14 एफआईआर में बीजेपी और संघ से संबंधित 49 व्यक्तियों के नाम शामिल हैं. श्रीनिवासपुर पुलिस स्टेशन दक्षिण दिल्ली में ज्यादा मामले दर्ज हैं. एफआईआर से पता लगता है कि हरिनगर, आश्रम, भगवाननगर और सन लाईट कालोनी में बीजेपी और आरएसएस के नेताओं के खिलाफ हत्या, आगजनी, लूटपाट के मामले दर्ज हैं. जिन व्यक्तियों के नाम एफआईआर में दर्ज हैं उनमें से एक नाम है राम कुमार जैन, जो 1980 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी का चुनाव एजेंट था.
अगस्त 2005 में संसद के जिस सत्र में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 1984 की दुखद घटना के लिए माफी मांगी थी, उसी सत्र में बहस के दौरान कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने दावा किया था कि बीजेपी और संघ के नेताओं के खिलाफ भी सिखों के कत्लेआम की में शिकायत दर्ज है.
लेखक और इतिहासकार शम्सुल इस्लाम का कहना है, “कत्लेआम के बाद राजीव गांधी ने चुनाव राष्ट्रवाद के नाम पर जिस ढंग से बहुसंख्यकों की भावनाओं को उकसा कर जीता था, उससे यह बात साफ है कि कट्टरवादी हिन्दू संगठन पूरी तरह कांग्रेस के साथ थे.”
1991 में बीजेपी की कल्याण सिंह सरकार के समय उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में 10 सिख श्रद्धालुओं को आतंकवादी कह कर पुलिस ने मार दिया था.
जिस मोदी को अमित शाह सिख हितैषी कहते हैं उसी मोदी ने पहले सिख प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बहाने सिख समुदाय की बेइज्जती की है. एक संदर्भ में मोदी ने मनमोहन सिंह को ‘शिखंडी’ कहा तो दूसरी बार डॉ. सिंह पर “बारह बजने वाला” व्यंग्य किया था जिसका सिख तबके में कड़ा विरोध हुआ था. गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए मोदी, सालों से गुजरात के कच्छ और भुज इलाके में बसे सिख किसानों की जमीनें छीनने वाला बिल लेकर आए. जब सरकार हाई कोर्ट से हार गई तो वह मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गए. गुजरात में बसने वाले पंजाबी किसानों के नेता सुरेन्द्र सिंह भुल्लर के अनुसार, “अब बीजेपी के स्थानीय नेता हमारे साथ गुंडागर्दी करते हैं, हमें धक्के देकर यहां से निकालना चाहते हैं. असल में मोदी केवल मुसलमानों के ही नहीं बल्कि तमाम अल्पसंख्यकों के विरोधी हैं.”
बीजेपी के कई नेता सरेआम सिखों के बारे में विवादास्पद बयान देते रहे हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी सांसद वरुण गांधी ने सिखों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी की थी. अभी कुछ दिन पहले हरियाणा सरकार के मंत्री अनिल विज ने भी सिख समुदाय को गालियां दी थीं.
अनेक सिख बुद्धिजीवी व नेता मानते हैं कि आरएसएस उनके धर्म को हिन्दू धर्म में जज्ब करना चाहता है. इसके कई उदाहरण समय-समय पर सामने भी आए हैं. आरएसएस व उसकी सोच वाले प्रकाशनों द्वारा सिख इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता रहा है. सिख गुरुओं की मानवता के लिए लड़ी लड़ाईयों को मुस्लिम विरोधी दिखाया गया है. कई किताबों में सिख गुरुओं का कृतित्व हनन भी किया गया है. 2006 में गुरु अर्जन देवजी के 400वें शहीदी दिवस के मौके पर आयोजित समारोह में बीजेपी नेता सुषमा स्वराज ने गुरु साहब की शहीदी से जुड़े चंदू के नाम पर भी एतराज किया था. (सिख कथा में चंदू वह शख्स है जिसके बारे में कहा जाता है कि मुगल दरबार का करीबी था और गुरु अर्जन देवजी के बेटे से अपनी बेटी का ब्याह कराना चाहता था. जब ऐसा नहीं हो पाया तो उसने मुगल बादशाह को गुरु के खिलाफ भड़काया.) उसी समारोह में राष्ट्रीय सिख संगत पर लगी रोक हटाने की मांग भी भाजपाइयों ने कर डाली थी.
हाल ही में कारवां में प्रकाशित निकीता सक्सेना की रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकारी दस्तावेजों में मोदी सरकार आज भी सिख आतंकवाद शब्द का प्रयोग कर रही है. उस रिपोर्ट के अनुसार, “आतंक को मिलने वाले वित्तपोषण पर स्थाई फोकस समूह” का “उद्देश्य इस्लामिक और सिख आतंकवाद पर काम करना है.”
कनाडा में रहने वाले पंजाबी मूल के पत्रकार गुरप्रीत सिंह का कहना है कि बीजेपी सिखों के साथ झूठा अपनापन जता कर प्रवासी सिखों में अपनी साख बनाना चाहती है क्योंकि दुनिया के कोने-कोने में बसने वाले सिखों का अपने देशों में अच्छा रुतबा है और उनके सहारे बीजेपी दुनिया में अपनी उदार छवि बनाना चाहती है.
पूरे देश को एक रंग में रंगने का विचार रखने वाले संघ की राजनीतिक इकाई बीजेपी पूरी तरह मुस्लिम, ईसाई, दलित और आदिवासी विरोधी है और इसलिए वह बाकि धर्मों को अपने में जज्ब करना चाहती है.
1984 में राजीव गांधी ने सिख समुदाय के कत्लेआम की तुलना “बड़े वृक्ष के गिरने और धरती के कांपने” से की थी और बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को राष्ट्रवादी रंग देकर प्रधानमंत्री बन गए थे. फिर 30 साल बाद एक ऐसा व्यक्ति प्रधानमंत्री बना जो एक दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय के कत्लेआम की तुलना “न्यूटन के तीसरे गति नियम” के साथ करता है. अपने पांच सालों के राज में मोदी ने ऐसा माहौल तैयार किया है जहां अल्पसंख्यकों की हत्या और मार-पिटाई आम हो गई है. कातिलों का स्वागत किया जा रहा है और अल्पसंख्यकों को गालियां देना “राष्ट्रवाद” मान लिया गया है. दरअसल मोदी का ‘सिख प्रेम’ एक ऐसा राजनीतिक जुमला है जिसकी आड़ में वह बीजेपी और संघ के सिख विरोधी इतिहास को छिपाना चाहते हैं.
सुधार: 1984 के सिख नरसंहार के लिए लेख के पूर्व संस्करण में दो स्थानों पर दंगा शब्द का प्रयोग किया गया था जो कत्लेआम के लिए उपयुक्त शब्द नहीं है. हमने इसे सुधार लिया है. कारवां को इस भूल का खेद है.