सिखों के लिए बीजेपी-संघ की हमदर्दी चुनावी पाखंड

नई दिल्ली में सिख नरसंहार की बरसी पर कैंडिल मार्च करते सिख समुदाय के लोग.
मुस्तफा कुरैशी/एपी फोटो
नई दिल्ली में सिख नरसंहार की बरसी पर कैंडिल मार्च करते सिख समुदाय के लोग.
मुस्तफा कुरैशी/एपी फोटो

इस बार लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हरियाणा की एक रैली में दावा किया कि उन्होंने 1984 में हुए सिखों के कत्लेआम के दोषियों को सजा दिलाने की प्रक्रिया आरंभ कर दी है. रैली में मोदी ने दावा किया, “2014 में देश और दुनिया के सिख समाज से मैंने वादा किया था कि सिखों के कातिलों को छोड़ूंगा नहीं.” मोदी ने कांग्रेस को सिखों की दुश्मन पार्टी बताते हुए कांग्रेस के नेता सैम पित्रोदा की “हुआ तो हुआ” वाली टिप्पणी का भी उल्लेख किया. हालांकि पित्रोदा ने अपनी उस टिप्पणी के लिए माफी मांगी थी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उनकी टिप्पणी को गलत कहा था. पंजाब में ही एक अन्य रैली में अमित शाह ने भी बीजेपी और मोदी को पंजाब और सिखों का हितैषी बताया था. अमित शाह ने दावा किया, “1984 में हजारों सिख मार दिए गए थे और किसी भी दोषी को सजा नहीं मिली. लेकिन मोदी सरकार आने के बाद पीड़ित परिवारों को न्याय मिला है.” उन्होंने दावा किया कि कांग्रेस पार्टी के तीन बार के सांसद सज्जन कुमार को मोदी द्वारा गठित विशेष जांच टीम की रिपोर्ट के बाद जेल जाना पड़ा.

1984 का सिख नरसंहार भारतीय लोकतंत्र की न भुलाई जा सकने वाली त्रासदी है. बहुत से मानवाधिकार चिंतकों का मानना है कि अगर 1984 घटित न होता तो 1992 और 2002 के अल्पसंख्यक विरोधी कत्लेआम भी नहीं होते. 1984 व 2002 के कत्लेआम हर बार चुनावों में चर्चा का विषय बनते हैं. हाल में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में, पंजाब में सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ रोष होने के बावजूद न तो अकाली दल ने अच्छा प्रदर्शन किया और न ही “मोदी लहर” का असर हुआ. इन चुनावों में अकाली और बीजेपी ने 1984 के कत्लेआम को जोर-शोर से उठाया. बीजेपी नेता पूरे देश में 2002 के सवालों से बचने के लिए 1984 को ढाल के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं.

लेकिन क्या बीजेपी और नरेन्द्र मोदी, जिनके दामन पर 2002 के नरसंहार के दाग हैं, को 1984 के नरसंहार की बात करने का कोई नैतिक अधिकार है? बीजेपी और आरएसएस, जो पूरे भारत को एक रंग, एक विचार, एक संस्कृति में रंगा हुआ देखना चाहते हैं और जिनके छोटे-बड़े नेता अल्पसंख्यकों के विरुद्ध नफरत फैलाते रहते हैं, क्या वे सचमुच सिखों के हितैषी हो सकते हैं? साथ ही इन सवालों के जवाब ढूंढने की भी जरूरत है कि जब 1980 के दशक में पंजाब जल रहा था तो बीजेपी और संघ की क्या भूमिका थी?

जब ‘पंजाबी सूबा’ आंदोलन चल रहा था तो आज पंजाब हितैषी होने का दावा करने वाली बीजेपी की पूर्व अवतार पार्टी भारतीय जनसंघ ‘महा-पंजाब’ लहर चलाकर पंजाब के दो बड़े संप्रदायों को आपस में लड़वाने का काम कर रही थी. अमृतसर में दरबार साहब के नजदीक बीड़ी, गुटखा और तंबाकू की दुकानें खोलने की मांग करने वाले संगठनों को इनका पूर्ण सहयोग था. दरबार साहब का मॉडल तोड़ने वाला हरबंस लाल खन्ना बीजेपी का राज्य स्तरीय नेता था.

मानवाधिकार चिंतकों का मानना है कि अगर 1984 घटित न होता तो 1992 और 2002 के अल्पसंख्यक विरोधी कत्लेआम भी नहीं होते.

शिव इंदर सिंह स्वतंत्र पत्रकार और पंजाबी वेबसाइट सूही सवेर के मुख्य संपादक हैं.

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