छत्तीसगढ़ चुनाव: आदिवासी अधिकारों के मामले में बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने किया निराश

अप्रैल 2018 में छत्तीसगढ़ के बीजापुर में एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह और तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा. प्रेस सूचना ब्यूरो

छत्तीसगढ़ चुनाव से पहले राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियों, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी, ने आदिवासी हितों की नुमाइंदगी करने के बारे में बड़े-बड़े वादे किए हैं. 7 नवंबर को आदिवासी बहुल जिले सूरजपुर में चुनाव प्रचार करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा, “कांग्रेस ने कभी आपकी चिंता नहीं की, आपके बच्चों के बारे में कभी नहीं सोचा. लेकिन बीजेपी ने हमेशा आदिवासी कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है.” मोदी ने आदिवासी नेता द्रौपदी मुर्मू को भारत का राष्ट्रपति बनाए जाने को आदिवासी समाज के प्रति उनकी पार्टी के समर्थन का प्रमाण बताया.

अभियान के दूसरे छोर पर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने राजधानी रायपुर में मतदाताओं को याद दिलाया, "हमने आदिवासियों के लिए छत्तीसगढ़ में पेसा लागू किया और कांग्रेस चाहती है कि हर युवा आदिवासी सपने देखे और काम के सभी क्षेत्रों में खुद को शामिल करके अपने सपनों को पूरा करे.” गांधी और मोदी की इन बयानबाजी के बावजूद छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में पेसा का कार्यान्वयन खराब रहा है और दोनों पार्टियों ने उन प्रमुख कानूनों को कमजोर कर दिया है जो आदिवासियों की स्वायत्तता और जंगलों तक पहुंच को सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए थे. न केवल दोनों पार्टियां वन और भूमि-अधिकारों को चुनावी मुद्दा बनाने में विफल रही हैं बल्कि इन अधिकारों की रक्षा के लिए बनाए गए कानूनों का दुरुपयोग आदिवासी ईसाइयों को निशाना बनाने के लिए किया गया है. यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे बीजेपी ने बढ़ावा दिया है और कांग्रेस इसे रोकने में नाकाम रही है.

छत्तीसगढ़ की लगभग 34 प्रतिशत आबादी आदिवासी है और राज्य की 90 विधानसभा सीटों में से 29 अनुसूचित जनजाति समुदायों के लिए आरक्षित हैं. राज्य के निर्माण के शुरुआती कारणों में से एक क्षेत्र में आदिवासियों के बेहतर प्रतिनिधित्व की कोशिश थी. फिर भी मैदानी इलाकों में किसानों और अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों के मुद्दे अक्सर राज्य चुनावों में प्रमुखता से उभरते हैं. प्रमुख राजनीतिक दल अक्सर राज्य के उत्तरी और दक्षिणी हिस्सों में आदिवासियों के सामने आने वाले तात्कालिक मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं.

आदिवासी संगठनों की एक प्रमुख संस्था सर्व आदिवासी समाज के प्रदेश अध्यक्ष बीएस रावटे ने मुझे उपरोक्त बात बताई. एसएएस ने हाल ही में “हमार राज” नाम से चुनावी संगठन शुरू किया, जिसने दोनों प्रमुख पार्टियों से मोहभंग होने वाले आदिवासी सिविल सेवकों और आदिवासी राजनेताओं को आकर्षित किया है. रावटे ने मुझसे कहा, "हम अब तक अलग-अलग पार्टियों के साथ काम करते रहे हैं लेकिन हमारे मुद्दों को नजरअंदाज किया गया. इसलिए हमने अपनी पार्टी शुरू की है. हम सरकार नहीं बना पाएंगे लेकिन सरकार बनाने में उन्हें हमारी मदद नहीं मिलेगी.'' रावटे पाटन सीट पर कांग्रेस के मौजूदा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं.

केंद्र की मोदी सरकार ने वनों के संरक्षण और भूमि पर आदिवासियों के अधिकार से संबंधित नियमों को लगातार कमजोर किया है. जुलाई 2023 में विपक्ष के विरोध प्रदर्शनों के बीच, जिसमें मांग की गई कि मोदी मणिपुर में चल रहे जातीय सफाए के मुद्दे को संबोधित करें, संसद ने 1980 के वन (संरक्षण) अधिनियम में एक संशोधन पारित किया, जिसने मूल अधिनियम के तहत गारंटीकृत सुरक्षा से वनों की कई श्रेणियों को बाहर कर दिया. उदाहरण के लिए, संशोधन रेल ट्रैक या सार्वजनिक सड़क के किनारे की 0.10 हेक्टेयर भूमि और उस भूमि से सुरक्षा हटाता है जिसका उपयोग सुरक्षा संबंधी बुनियादी ढांचे की स्थापना के लिए किया जाना प्रस्तावित है और वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित क्षेत्र में पांच हेक्टेयर भूमि तक की सुरक्षा हटा दी गई है.

माओवादी खतरे का हवाला दिए बिना भी इस संशोधन से भारत में लगभग 28 प्रतिशत वन क्षेत्र प्रभावित होगा. वनों की देख-रेख करने वाली स्थाई समिति के पास भेजे बिना संशोधन को संसद में पारित करा दिया गया. पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने संसद को बताया कि माओवादियों की उपस्थिति "विकास में बाधा डालती है क्योंकि विकास कार्यों के लिए अनुमति नहीं दी जाती है." यहां माओवाद के खौफ का इस्तेमाल आदिवासी अधिकारों को छीनने के लिए किया गया.

आदिवासी भूमि-अधिकारों के नुकसान के बारे में इसी तरह की चिंताओं का हवाला देते हुए, राज्य में बीजेपी के पंद्रह साल के कार्यकाल को उखाड़ फेंकते हुए बघेल सरकार 2018 में सत्ता में आई. पेसा अधिनियम 1996 में पारित होने के बावजूद, केवल चंद राज्यों ने इसके लिए नियम लागू किए थे. 2011 में आंध्र प्रदेश ऐसा करने वाला पहला राज्य था. बीजेपी के तीन कार्यकालों में औपचारिक नियमों को बनाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया. इस बीच आदिवासी संगठन राज्य में इसे पूरी तरह लागू करने के लिए आंदोलन कर रहे. नतीजतन, कांग्रेस ने अपने 2018 के चुनावी घोषणापत्र में पेसा नियमों को औपचारिक रूप देने को अपने सबसे महत्वपूर्ण वादों में से एक बनाया. इससे उसे चुनावी लाभ मिला. पार्टी ने छत्तीसगढ़ के उत्तरी आदिवासी बहुल क्षेत्र में सभी 14 सीटें और दक्षिणी बस्तर क्षेत्र में एक सीट को छोड़ कर सभी सीटें जीत ली.

इन वादों के बावजूद बघेल सरकार ने 2018 या 2019 में नियम नहीं बनाए. 2020 के मध्य में एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता और सरगुजा के पूर्ववर्ती साम्राज्य के राजा टीएस सिंह देव ने नियम बनाने के लिए विभिन्न आदिवासी समुदायों और वन-अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ परामर्श सत्र का आयोजन किया. लेकिन जब पेसा नियमों को लागू करने वाला विधेयक पारित किया गया तो ऐसे कई पहलू थे जो अधिनियम के तहत ग्राम सभाओं को दी गई शक्तियों को बाधित करते थे. एक महत्वपूर्ण खंड जिसमें कहा गया था कि भूमि अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा की "सहमति जरूरी है” उसे ग्राम सभा के साथ "परामर्श" से बदल दिया गया. इस प्रकार पेसा द्वारा गारंटीकृत वन भूमि पर अधिकार छीन लिया गया. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) जैसे छोटे दलों ने उपरोक्त विसंगति की ओर इशारा किया. सीपीआई (एम) नेता संजय पराते ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि "वन अधिकार अधिनियम का कार्यान्वयन निराशाजनक है और पेसा नियम इस तरह से बनाए गए हैं कि वे मूल अधिनियम की भावना के खिलाफ जाते हैं."

ये बदलाव कांग्रेस के आंतरिक नेतृत्व संकट के बीच हुए हैं. देव, जो कथित तौर पर घोषणापत्र के मुख्य वास्तुकारों में से एक थे, ने पंचायती राज मंत्री के रूप में नियमों को डिजाइन किया था. जुलाई 2022 में उन्होंने पेसा नियमों के उचित सेट के लिए बघेल सरकार के विरोध का हवाला देते हुए मंत्रालय से इस्तीफा दे दिया. देव ने त्यागपत्र में कहा है, ''विभाग ने कैबिनेट समिति को मसौदा भेज दिया है. लेकिन जल, जंगल, जमीन से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु कैबिनेट के सारांश में बदले हुए पाए गए." लगभग उसी समय, अन्य पार्टियों ने देव से संपर्क करना शुरू कर दिया, जिन्हें उम्मीद थी कि वह पाला बदल लेंगे. कांग्रेस ने हाल ही में एक समझौते में देव को उपमुख्यमंत्री पद पर पदोन्नत किया है और तब से जंगलों पर अधिकार के आदिवासियों के दावों का सम्मान करने के लिए पेसा नियमों को फिर से बनाने पर कोई आंदोलन नहीं हुआ है. इसके साथ ही, जबकि बघेल सरकार ने पट्टों वाले 500,000 परिवारों के व्यक्तिगत वन अधिकारों को मान्यता देने का दावा किया है, ऑनलाइन समाचार पोर्टल इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि शासन ने सार्वजनिक रूप से जो दावा किया है उसकी तुलना में बहुत कम जमीन दी है.

रावटे ने संशोधन का जिक्र करते हुए मुझसे कहा, "यह हमें हमारे अधिकारों से वंचित कर देगा. हमारी शक्तियां स्रोत पर ही कम कर दी जाएंगी. जंगलों पर निर्भर आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए.” कई आदिवासी नेताओं ने मुझे बताया कि चिंताजनक बात यह है कि पेसा का इस्तेमाल राज्य में आदिवासी ईसाइयों के खिलाफ हमलों को बढ़ाने के लिए किया गया है. यह एक ऐसा मुद्दा जिससे निपटने में बघेल सरकार ने बहुत कम दिलचस्पी दिखाई है. पेसा के एक खंड में कहा गया है, "प्रत्येक ग्राम सभा लोगों की परंपराओं और रीति-रिवाजों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संसाधनों और विवाद समाधान के पारंपरिक तरीके की सुरक्षा और संरक्षण करने में सक्षम होगी." राज्य में सक्रिय संगठनों के नेटवर्क “छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन” की एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट के अनुसार, ऐसी धाराओं का दुरुपयोग करते हुए हिंदू चरमपंथी समूहों ने ग्राम सभाओं से एक हजार से ज्यादा आदिवासी ईसाइयों को उनके गांवों से बेदखल कर दिया है क्योंकि उन्होंने हिंदू धर्म अपनाने से इनकार कर दिया था. सीबीए की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, बीजेपी समर्थित जनजाति सुरक्षा मंच, जिसकी बैठकें अक्सर बीजेपी पदाधिकारियों के नेतृत्व में होती हैं- एसटी श्रेणी से "धर्म बदलने वाले आदिवासियों" को हटाने की मांग कर रही है.

रायगढ़ स्थित भूमि-अधिकार संगठन आदिवासी दलित मजदूर किसान संघर्ष के संयोजक डिग्री प्रसाद चौहान ने मुझे बताया कि ये उपाय मूल रूप से आदिवासी समुदायों पर हिंदू धर्म के शुद्धतावादी विचारों को थौपने के प्रयास हैं. उन्होंने मुझे बताया कि पेसा अधिनियम का इस्तेमाल गैर-ईसाई आदिवासियों को ईसाई आदिवासियों के खिलाफ भड़काने के लिए किया जा रहा है. "यह एक सोची-समझी रणनीति है ईसाई आदिवासियों को बाहरी और दुश्मन के रूप में चित्रित करने की.”

इसका जिक्र करते हुए कोंडा विधानसभा क्षेत्र से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार मनीष कुंजाम ने मुझे बताया, "वे हर जगह यही करते हैं." मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की इस घोषणा को भी उपरोक्त संदर्भ में देखा जाना चाहिए जब उन्होंने कहा, "जब धोखे से, छल से जमीन छीन ली जाएगी, हमारी आदिवासी बहनों की बेटियों को बहला-फुसलाकर शादी कर ली जाएगी, जमीन उनके नाम पर दे दी जाएगी और उसे आदिवासी भूमि कहा जाएगा तो ग्रामसभाएं हस्तक्षेप करेंगी." उन्होंने ऐसा उस बैठक में कहा जहां राष्ट्रपति मुर्मू की उपस्थिति में उनके राज्य के पेसा नियमों की घोषणा की गई.

बघेल सरकार द्वारा आदिवासियों के भूमि अधिकारों को खत्म करने का सबसे ठोस सबूत परसा और हसदेव अरण्य कोयला ब्लॉक के मुद्दे को संबोधित करने से इनकार करना है. 2016 में रमन सिंह सरकार ने अडानी समूह द्वारा पीईकेबी और परसा कोयला खदानों में खनन की सुविधा के लिए 811 हेक्टेयर वन भूमि पर घाटबर्रा गांव के निवासियों के सामुदायिक अधिकारों को रद्द कर दिया था. सत्ता में आने के बाद बघेल सरकार भी आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करने और आगे खनन रोकने के अपने चुनावी वादे से पीछे हट गई. जबकि सरकार ने 49 कोयला ब्लॉकों को नीलामी से हटाने का काम किया है लेकिन उसने परसा कोयला ब्लॉक के खनन या परसा पूर्व और कांटा बासन कोयला ब्लॉकों का विस्तार करने के लिए अडानी को दी गई सहमति वापस नहीं ली है. इसके खिलाफ विरोध अभी भी जारी है. यह कांग्रेस के नेतृत्व वाली राजस्थान सरकार द्वारा समर्थित एक बिजली कंपनी है, जो छत्तीसगढ़ विधानसभा द्वारा ब्लॉक में खनन के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित करने के बावजूद, हसदेव अरण्य में कोयला ब्लॉकों के खनन के लिए अडानी समूह के साथ संयुक्त उद्यम चला रही है. केंद्र सरकार के अधीन आयकर विभाग और केंद्रीय जांच ब्यूरो, साथ ही राज्य पुलिस, अडानी-खनन ब्लॉकों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे कार्यकर्ताओं के पीछे पड़ गई है.

सितंबर में राज्य में चुनाव प्रचार करते हुए राहुल गांधी ने कहा था, “जब बीजेपी रिमोट दबाती है तो सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण हो जाता है और जल-जंगल-जमीन अडानी के पास चला जाता है.” जिस छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से वह प्रचार कर रहे थे उसके फैसलों को देखते हुए यह एक हास्यास्पद दावा लगता है.

सीबीए के एक्टिविस्ट उमेश्वर सिंह आर्मो ने मुझे बताया, “खनन के लिए वन भूमि का उपयोग, भूमि अधिकार और आदिवासियों के अन्य संवैधानिक अधिकार प्रमुख राजनीतिक दलों के चुनाव अभियानों में अहम मुद्दे नहीं हैं." सीबीए के संयोजक आलोक शुक्ला उमेश्वर सिंह से सहमत हैं और कहते हैं, “मुझे लगता है कि कांग्रेस अपने घोषणापत्र में कह सकती थी कि वनों के बंटवारे पर मोदी सरकार की नीतियों के बावजूद छत्तीसगढ़ सरकार वन अधिकार अधिनियम का अनुपालन सुनिश्चित करेगी. लेकिन कोई भी इस बारे में बात नहीं कर रहा है.”