25 सितंबर को भारतीय निर्वाचन आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव 28 अक्टूबर से 7 नवंबर के बीच तीन चरणों में कराए जाने की घोषणा की. इससे पहले आयोग ने कोविड-19 महामारी में चुनाव करवाने के लिए व्यापक दिशानिर्देश जारी किए थे और बिहार के लिए कुछ खास सिफारिशें की थीं. ये सिफारिशें फिजिकल प्रचार अभियान को बहुत हद तक प्रतिबंधित करती हैं. इन नियमों के बाद बिहार में राजनीतिक दल प्रचार के लिए डिजिटल चुनाव प्रचार और सोशल मीडिया पर निर्भर हैं.
चुनाव की घोषणा के पांच दिन पहले इंडिया टुडे समूह के एक हिंदी ऑनलाइन समाचार पोर्टल ने बिहार के उपमुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ सदस्य सुशील मोदी का साक्षात्कार किया था. दो घंटे से अधिक समय तक चली उस बातचीत में मोदी ने कोविड-19 में माल और सेवा कर और विकास के संबंध में अपनी सरकार के काम के बारे में बताया. मोदी ने बिहार के सबसे बड़े विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू प्रसाद यादव और उनके बेटे तेजस्वी यादव के बारे में भी बात की. उसी दिन मोदी ने अपने ट्विटर अकाउंट से इस इंटरव्यू की एक क्लिप ट्वीट की. उस दिन उन्होंने दो प्रेस नोट भी ट्वीट किए. दोनों को ही दैनिक समाचार पत्रों ने कवर किया. इन्हें मोदी ने प्रेस पिकअप के रूप में रिट्वीट किया.
मोदी के सोशल मीडिया के उपयोग और मुख्यधारा के मीडिया में इसकी फीडिंग बिहार में एक खास पैटर्न की तरफ इशारा करता है जो बीजेपी को चुनाव के मीडिया नैरेटिव को तैयार करने में दूसरों से आगे कर देता है. पिछले पांच सालों में बीजेपी ने अपना सोशल मीडिया ढांचा तैयार किया है जो मान्यता, पहुंच और प्रभाव के मामले में सबसे बड़ा है. इसमें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बड़ी संख्या में ब्लू टिक वाले या सत्यापित नेता और व्हाट्सएप का बड़ा नेटवर्क शामिल है. बीजेपी और उसकी सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) भी सरकारी विज्ञापनों के वित्तीय प्रोत्साहन का उपयोग कर यह सुनिश्चित कर पाए हैं कि मुख्यधारा की मीडिया उनके बारे में सकारात्मक रिपोर्ट दे. बीजेपी सोशल मीडिया विज्ञापनों पर अन्य राजनीतिक दलों से ज्यादा खर्च नहीं करती है लेकिन वह तीसरी पार्टी द्वारा तैयार कंटेंट का भी लाभ उठाती है जो पार्टी के अनुरूप नैरेटिव बनाते हैं. डिजिटल अभियान भारत के अभियान वित्त कानूनों में कई प्रमुख बदलावों पर प्रकाश डालता है.
सोशल मीडिया पर बीजेपी के प्रभुत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य के कम से कम 23 बीजेपी नेताओं ने ट्विटर और फेसबुक अकाउंट ब्लू टिक वाले हैं. इसमें सुशील मोदी, संजय जायसवाल, केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद और सांसद गिरिराज सिंह एवं राज्य मंत्रिमंडल के कई सदस्य शामिल हैं. अपनी प्रामाणिकता के चलते एक सत्यापित अकांउट के सोशल मीडिया में भारी संख्या में फॉलोवर होते हैं. यह राजनीतिक नैरेटिव को आकार देने में अधिक प्रभावी है. इन 23 बीजेपी नेताओं की फेसबुक और ट्विटर पर फॉलोइंग करोड़ों में है.
सोशल और मुख्यधारा की मीडिया के बीच फीडबैक लूप यह सुनिश्चित करता है कि बीजेपी नेताओं के सत्यापित अकाउंटों से हुई पोस्ट मुख्यधारा की मीडिया द्वारा उठाई गई हैं जिन्हें बदले में इन अकाउंटों से प्रेस पिकअप के रूप में फिर से पोस्ट किया जाता है. यह एक ऐसी स्थिति की ओर ले जाता है जहां बीजेपी अपने चुनावी कवरेज में मुख्यधारा के मीडिया द्वारा चर्चा किए जाने वाले एजेंडे को निर्धारित करने में काफी प्रभाव डालती है.
इसके विपरीत बिहार की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी आरजेडी के केवल पांच वरिष्ठ नेताओं के ट्विटर और फेसबुक अकाउंट ही सत्यापित हैं. ये पांचों लालू प्रसाद यादव के परिवार के सदस्य हैं. संजय यादव, तनवीर हसन, शैलेश कुमार और नवल किशोर जैसे अन्य राजद नेताओं में से कुछ के ट्विटर तो नहीं लेकिन फेसबुक अकाउंट सत्यापित हैं. इसी तरह बिहार के मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार, एकमात्र जेडी (यू) नेता हैं जिनके दोनों अकाउंट सत्यापित हैं. यहां तक कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं. जैसे पार्टी अध्यक्ष बशिष्ठ नारायण सिंह के पास सत्यापित अकाउंट नहीं हैं. विपक्षी दलों के महागठबंधन की सदस्य पार्टी कांग्रेस की हालत भी ऐसी ही है. बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष मदन मोहन झा, अभियान समिति के अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह और कांग्रेस के राष्ट्रीय मीडिया पैनलिस्ट चंदन यादव ही उन वरिष्ठ नेताओं में हैं जिनके फेसबुक और ट्विटर दोनों पर सत्यापित अकाउंट हैं.
यह स्पष्ट नहीं है कि सोशल मीडिया प्लेटफार्मों की तरफ से बिहार के राजनीतिक परिदृष्य में सत्यापित अकाउंटों का असमान वितरण जानबूझकर किया गया है या राजनीतिक संदेश के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करने में बीजेपी की शुरूआती बढ़त और अनुकूल स्थिति का परिणाम है. ट्विटर का अकाउंट सत्यापित करने का कार्यक्रम फिलहाल रुका हुआ है. सत्यापित अकाउंटों के असमान वितरण के बारे में पूछे जाने पर ट्विटर के एक प्रवक्ता ने कहा, "हमारे उत्पाद और नीतियां कभी भी राजनीतिक विचारधारा के आधार पर विकसित या कार्यांवित नहीं की जाती हैं ... हम उम्मीदवारों, निर्वाचित नेताओं और संबंधित पार्टी के अधिकारियों को सत्यापित करने के लिए उन सभी भारतीय राजनीतिक दलों के साथ काम करते हैं जिनके अकाउंट सक्रिय होते हैं." इस सवाल का जवाब फेसबुक के प्रवक्ता ने स्पष्ट नहीं दिया.
डेटा विश्लेषक शिवम शंकर सिंह, जो पहले बीजेपी के लिए काम करते थे, और अब महागठबंधन के लिए काम करते हैं ने मुझे बताया, ''सोशल मीडिया से मुख्यधारा की मीडिया में रूपांतरण ट्विटर पर बीजेपी के लिए काफी प्रभावी है और बिहार में कोई अन्य मुख्यधारा का नेता इसे प्रभावी रूप से नहीं कर रहा है. सुशील मोदी कोई प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हैं और मीडिया इससे अपनी स्टोरी तैयार करता है. बाकी सभी को इसे संपादक को भेजना पड़ता है, फिर उसे कॉल करना और कहना पड़ता है.”
बिहार में कांग्रेस के नेताओं को भी लगता है कि सोशल मीडिया पर उनकी सापेक्षिक अनुपस्थिति के अलावा उन्हें मुख्यधारा के मीडिया में कम कवरेज मिल रहा है. "अगर मीडिया भी सुनने को तैयार नहीं है तो किन्हीं मुद्दों पर किसी का क्या रुख है कैसे पता चल सकता है?," बिहार युवा कांग्रेस के अध्यक्ष गुंजन पटेल सवालिया अंदाज में कहा. फिर कहा, “हम अपना नजरिया स्पष्ट करने के लिए मुख्यधारा के मीडिया कार्यालयों में प्रेस विज्ञप्ति भेजते रहते हैं लेकिन हमें चार लाइन की कवरेज पाने के लिए जैसे जूझना पड़ता है. ज्यादातर अखबार बीजेपी और सरकार के समर्थक हैं.” पटेल का ट्विटर पर सत्यापित अकाउंट है. वह बिहार में एकमात्र युवा कांग्रेस नेता है जिसका अकाउंट है. लेकिन उनका फेसबुक अकाउंट सत्यापित नहीं है.
बीजेपी के पूर्व नेता और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्रीय वित्त मंत्री रह चुके पूर्व नेता यशवंत सिन्हा ने मुझसे कहा, "सोशल मीडिया और मुख्यधारा की मीडिया (प्रिंट और टेलीविजन) पर आपका प्रभाव आप जितने संसाधनों को तैनात कर सकते हैं उसके सीधे आनुपातिक होता हैं." सिन्हा ने 2018 में पार्टी छोड़ दी और तब से वे इसके प्रमुख आलोचक बन गए हैं. वह यूनाइटेड डेमोक्रेटिक एलायंस की चेयरपर्सन हैं. 17 छोटे दलों का यह गठबंधन बिहार चुनाव में सत्ताधारी और विपक्षी गठबंधन से स्वतंत्र चुनाव लड़ने की योजना बना रहा है. "हमारे समय की त्रासदी यह है कि मुख्यधारा की मीडिया भी चुनाव के समय को कमाई के समय के रूप में देखती है," उन्होंने कहा. “जिनके पास सरकारी शक्ति है वे विज्ञापन जारी कर सकते हैं. दूसरी बात यह कि बीजेपी जैसी धनवान पार्टी सोशल मीडिया सहित संसाधनों के इस्तेमाल में अन्य सभी दलों से आगे हैं. इससे बराबरी के स्तर पर चुनाव लड़ना पूरी तरह से असंभव हो गया है.”
ऑनलाइन न्यूज पोर्टल फर्स्ट बिहार के मुख्य संवाददाता शशि भूषण ने बताया, ''चुनावी साल में टेलीविजन चैनलों का ध्यान विज्ञापन के जरिए ज्यादा से ज्यादा कमाई करने पर होता है. क्या सरकारी विज्ञापन लेकर सरकार के खिलाफ बोलना संभव है? बहुत कम चैनलों में ऐसी हिम्मत है.” फर्स्ट बिहार राजनेताओं की घोषणाओं के लिए सोशल मीडिया और खास तौर से ट्विटर पर नजर रखता है.
बिहार का सत्तारूढ़ गठबंधन और अधिक सकारात्मक कवरेज पाने के लिए अधिक पारंपरिक तरीकों का उपयोग करने में भी सक्षम है. भूषण ने मुझे बताया कि नीतीश सरकार की विज्ञापन राजस्व नीति के कारण कोई भी अखबार सरकार के खिलाफ लिखने को तैयार नहीं है. “बिहार में यह समझा जाता है कि अगर आप सरकार के खिलाफ लिखते हैं तो आपको विज्ञापन मिलना बंद हो जाएगा. फिर क्षेत्रीय टेलीविजन चैनल ही बचते हैं. जिनमें तीन मुख्य हैं : कशिश न्यूज, न्यूज18 बिहार-झारखंड और जी बिहार-झारखंड. मैंने दोनों में काम किया है.” बिहार में चुनाव को प्रभावित करने के लिए मुख्यधारा का मीडिया अभी भी महत्वपूर्ण है क्योंकि राज्य में स्मार्टफोन की पहुंच केवल 30 प्रतिशत है.
मुख्यधारा की मीडिया में व्यापक प्रभाव के अलावा व्हाट्सएप पर बीजेपी स्थानीय समूहों का एक अनूठा नेटवर्क बनाने में सफल रही है. कारवां में प्रकाशित मेरी पिछली रिपोर्ट में मैंने बताया था कि बीजेपी ने बिहार में एक लाख से अधिक व्हाट्सएप ग्रुप बनाए हैं जो राज्य के लगभग 72000 मतदान केंद्रों से अधिक हैं. पार्टी बिहार में बूथ और पंचायत स्तरों पर व्हाट्सएप समूह भी बना रही है और इन्हें चलाने के 9500 लोगों का समूह तैयार किया गया है. इसने पार्टी को महामारी में भी अप्रभावित तरीके से मतदाताओं से सीधे संवाद करने में सक्षम बनाया है.
राज्य के अधिकांश अन्य राजनीतिक दलों की व्हाट्सएप पर बीजेपी जितनी पहुंच नहीं है. कांग्रेस के आईटी सेल प्रमुख संजीव सिंह के अनुसार, बिहार में कांग्रेस के केवल 3800 व्हाट्सएप समूह हैं. शिवम ने मुझे बताया, "इस समय नए व्हाट्सएप ग्रुप बनाना लगभग असंभव है क्योंकि चुनाव इतने करीब हैं. अगर आपने पिछले 5 सालों में ऐसा नहीं किया है तो आप इसे अगले दो महीनों में नहीं कर सकते.”
बीजेपी की सहयोगी जदयू भी अपने लिए सोशल मीडिया इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने के लिए संघर्ष करती नजर आ रही है. जदयू के जल संसाधन मंत्री और नीतीश कुमार के करीबी विश्वासपात्र संजय झा ने कहा, "हमारी पार्टी का स्वभाव डिजिटल नहीं है." मुख्यमंत्री के बारे में बोलते हुए, उन्होंने कहा, “हमारी जमीनी राजनीति है और डिजिटल उनके स्वभाव और राजनीति के अनुकूल नहीं है. ट्विटर और फेसबुक पर हम थोड़ा-बहुत थे लेकिन महामारी ने सब कुछ बदल दिया है. जदयू डिजिटल पर इतना केंद्रित नहीं थी इसलिए हमारे पास सत्यापित अकाउंट वाले बहुत लोग नहीं हैं.” झा ने कहा कि जदयू ने हाल ही में भाषणों को प्रसारित करने के लिए एक वेबसाइट शुरू की थी जो "दस लाख लोगों को समायोजित कर सकती है."
बीजेपी को भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किए जाने वाले विज्ञापन का बड़ा फायदा मिलता है. ये कई तीसरे पार्टियों के विज्ञापनदाताओं के विज्ञापन हैं जो विपक्षी दलों के विरोध में विज्ञापनों को चला रहे हैं जिससे बीजेपी और सत्तारूढ़ गठबंधन को मदद मिलती है. फेसबुक में विज्ञापनों के एक डेटाबेस फेसबुक ऐड लाइब्रेरी के अनुसार, 2 जुलाई और 29 सितंबर के बीच बिहार में राजनीतिक विज्ञापनों पर सबसे बड़ा खर्च करने वाली इंडियन पोलिटिकल एक्शन कमेटी थी जो एक राजनीतिक एडवोकेसी और परामर्श समूह है. आईपीएसी ने अपने 'बात बिहार की’ मुहिम को बढ़ावा देने के लिए 367 विज्ञापनों पर 26.96 लाख रुपए खर्च किए. जेडीयू ने 480 विज्ञापनों पर 10.82 लाख रुपए खर्च किए, जबकि कांग्रेस के बिहार शाखा ने 2388 विज्ञापनों पर 8.14 लाख रुपए खर्च किए. बीजेपी ने अपने फेसबुक पेज से 479 विज्ञापनों पर 4.08 लाख रुपए खर्च किए.
बिहार में बीजेपी आईटी सेल के संयोजक मनन कृष्ण ने मुझे बताया कि फेसबुक और व्हाट्सएप पर बीजेपी के विज्ञापन "पूरी तरह से पॉजिटिव" हैं. बीजेपी बिहार के विज्ञापनों का अध्ययन इसकी पुष्टि करता है. हालांकि इसमें तीसरी पार्टी के विज्ञापनों के बारे में नहीं बताया गया है जैसे एक विज्ञापनदाता राजद विरोधी विज्ञापन चला रहा है. उसके फेसबुक पेज का नाम राष्ट्रीय जंगल दल है. उस पेज पर आए एक विज्ञापन में कहा गया है कि राजद के एक विधायक शाहबुद्दीन ने हिंदू डॉक्टरों का अपहरण कर लिया था. विज्ञापन में कहा गया है, “क्या तुम उन दिनों को भूल गए हो? हिंदुओ, क्या तुम्हारा खून ठंडा हो गया है?" पेज पर एक अन्य विज्ञापन में तेजस्वी यादव को अनपढ़, गंवार और अपराधियों के साथ षड़यंत्र करने वाले के रूप में चित्रित करने की कोशिश की गई. पेज के लिए फेसबुक की पारदर्शिता रिपोर्ट बताती है कि इसने 8 फरवरी, 2019 से 19 सितंबर, 2020 के बीच 48253 रुपए खर्च किए हैं.
समाचार-वेबसाइट Ozy.com की एक खोजी रिपोर्ट बताती है कि किस तरह ऑनलाइन नरेन्द्र मोदी की छवि को बढ़ाने के भारी खर्च करने वाले और संदिग्ध तीसरी पार्टियां फेसबुक के पारदर्शिता नियमों के लूपहोल (खामियों) का फायदा उठा रहे हैं. अभियान कानूनों का लिजलिजा कार्यांवयन इसे और मदद करता है. रिपोर्ट बताती है, "फेसबुक पर भारत के दस सबसे बड़े राजनीतिक निवेशकों में से तीन और शीर्ष 60 में से 8 का बीजेपी समर्थक होने का पता लगाना मुश्किल है. एक साथ मिलकर वे डेढ़ साल में लगभग 800000 डॉलर से अधिक खर्च कर चुके हैं जबकि बीजेपी ने 680000 डॉलर ही खर्च किए हैं." यह भारत के अभियान वित्तपोषण नियमों में एक प्रमुख कमी को उजागर करता है जो पैसे वाली पार्टियों को अपने प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में कहीं अधिक कवरेज प्राप्त करने के लिए तीसरे पक्ष और सोशल मीडिया का उपयोग करने की मौका देता है.
शिवम ने बताया, ''फिलहाल बिहार में असली चुनाव अभियान चलाने वाली एकमात्र पार्टी बीजेपी है. वह सोशल मीडिया वगैरह पर कुछ न कुछ करती रहती है, प्रेस विज्ञप्ति भेजती है. अन्य सभी दल ग्राफिक्स पोस्ट करते हैं लेकिन कोई पहुंच नहीं है. किसी के पास बीजेपी के जितने फेसबुक पेज या व्हाट्सएप समूह नहीं हैं और चूंकि महामारी के कारण विपक्ष जमीन पर बहुत कुछ नहीं कर रहा है इसलिए कोई नैरेटिव गढ़ना और सोशल मीडिया पर इसे आगे बढ़ाना बहुत मुश्किल है. ”
शिवम ने मुझे बताया कि राजद को नापसंद करने वाले लोगों के लिए नेरेटिव बनाया जा रहा है कि "अगर राजद सत्ता में आती है तो मुसलमान सत्ता में आ जाएंगे." उन्होंने आगे कहा, “फिर आप सोशल मीडिया पर प्रसारित होने वाली स्टोरी बनाते हैं. उदाहरण के लिए, दिल्ली दंगों के मामले में स्टोरी रही कि अशांति फैलाने के लिए मुसलमान और कम्युनिस्ट साथ आ गए.”
यहां तक कि जनसंपर्क विशेषज्ञों का भी मानना है कि बीजेपी सोशल मीडिया का उपयोग करने में व्यवस्थित और कुशल रही है. पूर्व पत्रकार और जनसंपर्क एजेंसी ग्रे-मैटर्स के संस्थापक निदेशक नवनीत आनंद ने 2019 के आम चुनावों में बीजेपी बिहार की सोशल मीडिया रणनीति तैयार की थी. आनंद ने मुझे बताया, "सुशील मोदी मुख्य संदेशों को बढ़ाने और नीतिगत पहलों को बढ़ा कर व्यापक रूप से एजेंडा सेट करने के लिए ट्विटर का उपयोग कर रहे हैं." आनंद के अनुसार, लोगों की मीडिया उपभोग की आदतों में समग्र रूप से बदलाव आया है. जहां पहले 60 प्रतिशत मीडिया समाचार पत्र के रूप में था अब डिजिटल प्लेटफॉर्म के विस्फोट के बाद घटकर 20 प्रतिशत रह गया है. आनंद ने कहा, "कोई भी स्मार्ट रणनीतिकार प्रिंट में जो कुछ भी प्राप्त करता है उसे बढ़ाने के लिए डिजिटल का उपयोग करेगा."
उन्होंने कहा, “अगर मुझे प्लेटफार्मों को रेट करना हो तो ट्विटर नैरेटिव तैयार करता है और राजनीतिक माहौल के एजेंडे को आकार देता है क्योंकि मीडिया और नीति प्रभावित करने वाले लोग ट्विटर पर हैं. लेकिन मतदाता बड़े पैमाने पर फेसबुक का उपयोग कर रहा है.” उन्होंने बताया कि बिहार के अन्य नेता कैसे सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे थे. "नीतीश कुमार अपने ट्विटर फीड पर बड़े पैमाने पर मुख्यमंत्री के रूप में काम कर रहे हैं. उनके भाषणों में राजनीतिक हमले हो रहे हैं जबकि तेजस्वी ने मुख्यमंत्री और जदयू पर हमले तेज किए हैं. अगर वह गांव कनेक्शन की कहानी साझा करते हैं तो वह अपने दर्शकों के साथ जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं जो ज्यादातर ग्रामीण हैं."
मैंने शिवम से पूछा कि वह खुद बिहार के लिए डिजिटल अभियान कैसे तैयार करेंगे. "मुझे लगता है कि बिहार में 1.5 करोड़ स्मार्ट फोन उपयोगकर्ता हैं और फेसबुक पर एक अच्छे अभियान के लिए इसकी कीमत 5 रुपए प्रति उपयोगकर्ता होगी. समझिए कि सभी के पास यह ऐप है तो यह 7.5 करोड़ रुपए होता है. यह केवल उपयोगकर्ता को अपना संदेश पहुंचाने के लिए है. संदेश बनाना एक अलग कहानी है. फेसबुक पर आप अलग-अलग समूहों के लिए अलग-अलग विज्ञापन बनाते हैं. नीतीश कुमार को नापसंद करने वाले लोगों के लिए आपका विज्ञापन होगा कि नीतीश बिहार के लिए अच्छे नहीं हैं.''
डिजिटल अधिकार की हिमायती गैर लाभकारी संस्था इंटरनेट फ़्रीडम फाउंडेशन के निदेशक अपार गुप्ता कहते हैं, "इसमें कोई शक नहीं है कि बीजेपी ने डिजिटल संचार और प्रचार में एक व्यापकता दिखाई है और मौजूदा वास्तविकताओं के कारण उसे इसका लाभ मिलेगा. यह उम्मीदवारों और तीसरे पक्ष द्वारा वित्तीय व्यय को उजागर करने के संबंध में विनियमन, पारदर्शिता और प्रवर्तन की कमी के बारे में भी बोलता है. अभियान की वित्तीय सीमाएं जो डिजिटल विज्ञापन खर्चों को निर्धारित करती हैं, वे भी काफी कम हैं.”
17 जुलाई को महागठबंधन की पार्टियां राजद, विकासवादी इंसान पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी-लिबरेशन) और लोकतांत्रिक जनता दल ने मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा को डिजिटल चुनाव प्रचार के बारे में आशंका व्यक्त करते हुए एक ज्ञापन सौंपा. ज्ञापन में कहा गया है, ''सत्ताधारी पार्टियों ने अपने वर्चुअल हमले शुरू कर दिए हैं, जबकि चुनाव आयोग ने अभी डिजिटल चुनाव अभियान की खर्च की सीमा तय नहीं की है. यह चुनाव आयोग का संवैधानिक कर्तव्य है कि वह सभी प्रतिभागियों और राजनीतिक दलों के लिए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करे.”
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम बताता है कि भारत में चुनाव कैसे कराए जाएं. यह कानून राज्य और राष्ट्रीय चुनावों के लिए उम्मीदवारों की व्यय सीमा को निर्दिष्ट करता है. वर्तमान में चुनाव आयोग द्वारा सोशल मीडिया खर्च को इस राशि के भीतर कवर किया जाना माना जाता है. गुप्ता ने कहा, "लेकिन इन सीमाओं का पालन नहीं किया जाता है और चिंता की बात यह है कि यह अपारदर्शी है." मैंने बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी एचआर श्रीनिवास की टिप्पणी के लिए कई फोन कॉल, टेक्स्ट मैसेज और ईमेल किए लेकिन उन्होंने जवाब नहीं दिया.