साल भर पहले राजस्थान में कांग्रेस सरकार के भीतर वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उनके पूर्व डिप्टी सचिन पायलट के बीच सत्ता संघर्ष का जो राजनीतिक तूफान उठा था उसमें हाल के हफ्तों में फिर उफान आया है. 24 जुलाई की शाम को कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के राजस्थान अध्यक्ष अजय माकन गहलोत और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा से लंबी बातचीत के लिए जयपुर पहुंचे. बैठक के बाद मीडिया से बात करते हुए माकन ने मंत्रिमंडल में आसन्न फेरबदल का जिक्र किया.
28 और 29 जुलाई को माकन ने राजस्थान विधानसभा के 119 विधायकों के साथ आमने-सामने बैठक की. अगले दिन माकन ने मीडिया से कहा कि गहलोत सरकार से "सभी विधायक संतुष्ट हैं" और वह राजस्थान में 2023 के चुनावों के लिए अपनी रणनीति पर दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को एक रिपोर्ट देंगे.
माकन ने इससे पहले गहलोत और पायलट के बीच मंत्रिमंडल में फेरबदल और राज्य में पार्टी नेतृत्व के पुनर्गठन पर किसी भी मतभेद से इनकार किया था. लेकिन स्थानीय मीडिया नए फेरबदल पर उनके बीच असहमति की खबरों से भरा हुआ है. वहीं, गहलोत कथित तौर पर उन 19 गैर-कांग्रेसी विधायकों के लिए पुरस्कार की मांग कर रहे हैं, जिन्होंने उन्हें पिछले साल सत्ता को बनाए रखने में मदद की थी. इन 19 विधायकों में निर्दलीय और बहुजन समाज पार्टी के विधायक हैं, जो कांग्रेस में चले आए थे. पायलट पार्टी में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए मंत्री मंडल में जितना संभव हो अपने समर्थकों को शामिल कराना चाहते हैं. एनडीटीवी के अनुसार पायलट ने 24 जुलाई को विधायकों के एक समूह के साथ बैठक में भाग लिया और उन्हें राज्य सरकार में शामिल कराने की मांग की.
राजस्थान में कांग्रेस के भीतर जारी गतिरोध एक अन्य संकट के बीच बढ़ रहा है. हाल ही में पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के खिलाफ चले गए थे. एक महीने के लंबे संघर्ष के बाद सिद्धू को अंततः राज्य में कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया. गहलोत-पायलट के बीच प्रतिद्वंद्विता ने दिल्ली में कांग्रेस आलाकमान के लिए मामले को बहुत जटिल बना दिया है. किसी भी समूह की नाराजगी, चाहे वह पायलट और गहलोत का खेमा हो या सहयोगी गैर-पार्टी विधायक, राज्य में पार्टी की पकड़ और 2023 में उसके प्रदर्शन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं.
गहलोत और पायलट के बीच विवाद पहली बार 2020 के मध्य में सामने आया था जब तत्कालीन उपमुख्यमंत्री पायलट कुछ विधायकों के साथ दिल्ली पहुंचे थे. मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में जाने के बाद, जिसके चलते वहां कांग्रेस की सरकार गिर गई, पायलट के दिल्ली दौरे ने एक और दलबदल की अटकलों को हवा दी. वास्तव में गहलोत ने उन पर राजस्थान में सरकार गिराने के लिए बीजेपी के साथ काम करने का आरोप लगाया था. पायलट ने उस समय स्पष्ट किया कि वह केवल राजस्थान सरकार के कामकाज पर अपना असंतोष व्यक्त कर रहे हैं. उन्होंने पार्टी के भीतर 18 विधायकों के समर्थन का दावा किया. पायलट की हरकत से नाराज कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें उपमुख्यमंत्री और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के पदों से हटा दिया.
पार्टी नेतृत्व के साथ कई दौर की बातचीत और राजस्थान विधानसभा में विश्वास मत के बाद ही संकट समाप्त हो पाया. वयोवृद्ध मुख्यमंत्री ने कई गैर-कांग्रेसी विधायकों- 13 निर्दलीय और बहुजन समाज पार्टी के छह विधायक- का समर्थन हासिल किया.
वर्तमान में राजस्थान में मंत्रिपरिषद में 9 खाली पद हैं, जबकि कई विभागों में पूर्णकालिक मंत्रियों की कमी है. दैनिक भास्कर के अनुसार पार्टी कमान महत्वपूर्ण बदलावों के साथ मंत्रिमंडल में फेरबदल करना चाहती है. पार्टी कथित तौर पर ऐसे मंत्रियों को उनकी भूमिकाओं से हटाना और उनकी जगह नए चेहरों को मौका देना चाहती है जिनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है.
दैनिक भास्कर ने आगे बताया है कि पायलट चाहते हैं कि उनके गुट के कम से कम छह विधायकों को कैबिनेट में शामिल किया जाए और अन्य को विभिन्न बोर्डों, समितियों और सरकारी संगठनों में पद दिए जाएं. इस बीच गहलोत पायलट के केवल तीन विधायकों को स्थान देने को तैयार हैं.
परबतसर निर्वाचन क्षेत्र के विधायक रामनिवास गवरिया ने मुझे बताया, “हम चाहते हैं कि सचिन पायलट सत्ता में आएं ताकि कांग्रेस राजस्थान में फिर से सरकार बना सके.” गवरिया पायलट गुट से हैं. “हम पार्टी कार्यकर्ताओं की वजह से विधायक बने हैं. उन पार्टी कार्यकर्ताओं के बिना यह कैसे हो पाता? जिन लोगों ने सरकार बनाने में मदद की है उन्हें राजनीतिक नियुक्तियों में जगह मिलनी चाहिए.”
हवा महल निर्वाचन क्षेत्र के विधायक महेश जोशी ने कहा, "अभी विचार मंथन हो रहा है और निश्चित रूप से यह फलदायी होगा." जोशी गहलोत खेमे के हैं. "फेरबदल कब होगा यह फैसला आलाकमान का है."
विश्वास मत में कांग्रेस का समर्थन करने वाले कुछ विधायकों ने भी मंत्रिमंडल में जगह की मांग को स्पष्ट कर दिया है. दैनिक भास्कर के मुताबिक निर्दलीय विधायक रामकेश मीणा ने कहा है, ''मंत्रिमंडल का विस्तार किया जाए और सरकार बचाने वाले विधायकों को इसमें जगह दी जाए.''
आउटलुक की एक रिपोर्ट के मुताबिक बसपा के पूर्व विधायक राजेंद्र सिंह गुढ़ा ने मीडिया से कहा है कि कांग्रेस आलाकमान को यह समझना चाहिए कि अगर हमने अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली सरकार का समर्थन नहीं किया होता तो अब तक वह इसकी पहली पुण्यतिथि मन चुकी होती. उन्होंने कहा कि मंत्रिमंडल में बदलाव के लिए यह "सबसे बेहतर समय" है. अगर मंत्रिपरिषद में नहीं तो कांग्रेस से जुड़े कई विधायक असंख्य सरकारी आयोगों, संगठनों या समितियों, जिनमें से कुछ का दर्जा मंत्री स्तर तक का होता है, में नियुक्ति के लिए होड़ में हैं.
साफ है कि पायलट 2023 के विधानसभा चुनाव को लेकर पार्टी आलाकमान पर दबाव बना रहे हैं. वह कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के करीबी हैं और पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं में उनका काफी प्रभाव है. हाल ही में पायलट ने मीडिया को बताया था कि उनका उद्देश्य 2023 में जीत सुनिश्चित करना है. उन्होंने कहा, "जब भी हम राजस्थान में सत्ता में आए हैं, हम इसे बनाए नहीं रख सके हैं. यह पार्टी और उसके नेताओं की सामूहिक जिम्मेदारी है." उन्होंने कहा कि सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस सरकार ने 2003 के विधानसभा चुनाव में केवल 56 सीटें जीतीं और 2013 के चुनावों में उसे कुल 21 सीटें मिलीं. दोनों बार गहलोत मुख्यमंत्री थे.
लेकिन सिद्धू के विपरीत, जिनकी पंजाब में विधायकों के बीच एक मजबूत पकड़ है जो उन्हें मोलभाव करने की ताकत देती है, राजस्थान के विधायकों के बीच पायलट की पकड़ कमजोर है. गहलोत का व्यापक आधार उन्हें पायलट पर महत्वपूर्ण बढ़त देता है और आने वाले वर्षों के लिए पार्टी की रणनीति में अनुभवी नेता गहलोत की जगह को पुख्ता कर देता है.
दि वायर के अनुसार राजस्थान में पत्रकारों और राजनीतिक पर्यवेक्षकों को लगता है कि पायलट के खिलाफ फेरबदल की संभावना है. उन्होंने कहा कि पायलट को उनके राजनीतिक कदमों, विशेष रूप से 2020 में सरकार के खिलाफ उनके विद्रोह के लिए भुगतना होगा. लेकिन इंडिया टुडे की माने तो आलाकमान पायलट को दिल्ली में पार्टी नेतृत्व में जगह देकर शांत करने का प्रयास कर सकता है. हालांकि वह इस बदलाव के खिलाफ लगते हैं. नतीजा जो भी हो राजस्थान और पंजाब की घटनाओं से एक तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आया है कि राज्यों में सत्ता में आने के लिए हमेशा प्रमुख दिग्गज चेहरों पर निर्भर रहने वाली कांग्रेस अपने युवा नेताओं की नाराजगी को दूर करने में असफल साबित हो रही है.