12 से 14 मार्च तक पानीपत में आयोजित वार्षिक अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक प्रस्ताव पारित कर अपने कैडर को स्व-स्वार्थ की अवधारणा के आधार पर राष्ट्र के पुनरुत्थान की दिशा में काम करने के लिए कहा. संघ में निर्णय लेने वाली सर्वोच्च संस्था एबीपीएस (अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा) की बैठक के दौरान मीडिया को संबोधित करते हुए आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने स्व को "राष्ट्र की आध्यात्मिक सामाजिक सांस्कृतिक पहचान" के रूप में परिभाषित किया. उन्होंने कहा कि अगले साल आरएसएस पांच मोर्चों पर इस पुनरुत्थान की दिशा में काम करेगा : सामाजिक समरसता, परिवार प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, स्वदेशी आचरण और नागरिक कर्तव्य.
आरएसएस ने सामाजिक परिवर्तन के इन तरीकों की खोज में दशकों बिता दिए हैं. अपने सार्वजनिक आयोजनों में संघ अक्सर हिंदू परिवारों को अपने दैनिक जीवन में धर्म का पालन करने के लिए प्रेरित करता है. वह पर्यावरण संरक्षण की बात करते हैं क्योंकि वह आदिवासियों को लेकर सचेत हैं, जिन्हें वह अलग-अलग इतिहास और संस्कृतियों वाले देशी समुदायों के बजाय जंगलों मे रहने वाले हिंदू मानते हैं, जो हिंदुत्व के लिए लामबंद होने के बजाय अधिकार-आधारित आंदोलनों मे शामिल होते हैं. भले ही संघ की राजनीतिक शाखा, भारतीय जनता पार्टी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का समर्थन किया हो, पर इसकी ट्रेड यूनियन, भारतीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच ने संरक्षणवादी रवैया अपना रखा है. इन्होंने कई बार बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार की आर्थिक नीतियों का विरोध किया है. भारतीयों को धार्मिक पुस्तकों के आधार पर निषेधों के अधीन करने के लिए संघ, नागरिक अनुशासन की भी वकालत करता है. हालांकि, 1983 में सामाजिक समरसता मंच की स्थापना के बावजूद हिंदुओं के बीच "सामाजिक सद्भाव" पैदा करना, स्व-आधारित राष्ट्र के अपने लक्ष्य को प्राप्त करना आरएसएस के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है.
एसएसएम की स्थापना करने वाले आरएसएस के विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने हिंदू समाज को संगठित करने के लिए सामाजिक समरसता को एक पूर्व शर्त के रूप में माना. जाति व्यवस्था की श्रेणीबद्ध असमानता के बावजूद हिंदुओं को एकजुट करना और उन्हें लामबंद करना, संघ की राजनीति के एक बुनियादी विरोधाभास को समझने का एक प्रयास था. संक्षेप में, संघ की सामाजिक समरसता की अवधारणा उत्पीड़ित समुदायों को यह स्वीकार कराने की रणनीति है कि जाति व्यवस्था उनके ही भले के लिए है और सामाजिक-राजनीतिक दावों या संवैधानिक सुरक्षा जैसे उपायों से उनका कल्याण नहीं हो सकता है.
संघ के आदर्श समाज का गठन का कारण है, इसकी जांच करना बहुत ज्ञानवर्धक है. आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक “बंच ऑफ थॉट्स” में लिखा है कि, हमारे समाज की मुख्य विशेषता वर्ण व्यवस्था थी. ऋग्वेद द्वारा स्वीकृत समाज के चार वर्ण में विभाजन का जिक्र करते हुए वह कहते हैं, " यही ‘हमारी राष्ट्र' की अवधारणा का मूल है और जिसने हमारी सांस्कृतिक विरासत की अनूठी अवधारणाओं को जन्म दिया है." स्व , जिसके आधार पर आरएसएस अब भारत का पुनर्निर्माण करना चाहता है, इस विभाजन से जुड़ा हुआ है. ‘बंच ऑफ थॉट्स’ की प्रस्तावना लिखने वाले संघ विचारक एमए वेंकट राव स्वधर्म को चार वर्णों के संदर्भ में "विभिन्न व्यावसायिक समूहों के कर्तव्यों और अधिकारों" के रूप में परिभाषित करते हैं. गोलवलकर लिखते हैं, "यह केवल तभी होता है जब कोई राष्ट्र, एक व्यक्ति के रूप में, स्वधर्म की अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है तो चौतरफा महिमा और उपलब्धि पाता है. अपने स्वधर्म की जड़ों को उखाड़कर उसके स्थान पर कुछ और लगाने से घोर अराजकता से अध:पतन ही होगा."
भारतीय समाज को चार वर्गों में विभाजित करने की इस कल्पना में संघ परिवार आज भी स्थिर है. आरएसएस विचारक और भारतीय जनसंघ के पूर्व महासचिव दीन दयाल उपाध्याय, अपनी पुस्तक एकात्म मानववाद में चार वर्णों की तुलना शरीर के विभिन्न भागों से करते हैं. उपाध्याय का तर्क है कि जातियों के बीच संघर्ष "समाज की आत्मा" को कमजोर करेगा, जिसके परिणामस्वरूप "समाज के सभी अंग कमजोर और अप्रभावी हो जाएंगे." सामाजिक समरसता पर 1974 मे दिए एक भाषण में गोलवरकर के सरसंघचालक के उत्तराधिकारी एमडी देवरस ने कहा था कि समाज के सुचारू संचालन के लिए जाति व्यवस्था आवश्य है.
ठेंगड़ी ने अपनी पुस्तक नेशनलिस्ट परस्यूट “राष्टवादी लक्षय ” में वर्ण व्यवस्था का बचाव किया है. वे लिखते हैं, "हिंदू सामाजिक संरचना इस आधार पर आधारित थी कि जब हम समाज में सभी व्यक्तियों के व्यक्तिगत कार्य के बारे में सोचते हैं तो हमें पूरे समाज की कुल आवश्यकता के साथ-साथ सभी व्यक्तियों की योग्यता के बारे में भी सोचना पड़ता है. यदि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी पसंद का काम मिले तो वह अधिक से अधिक उत्पादन करेगा. देश की कुल आवश्यकता और यह अधिकतम उत्पादन सही अनुपात में होना चाहिए. हालांकि, उन्होंने यह उल्लेख नहीं किया कि समाज की आवश्यकताओं को कौन तय करता है. - ब्राह्मण, जो सर्वोच्च वर्ण बनाते हैं और संघ के वरिष्ठ नेतृत्व पर हावी हैं, जिन्होंने परंपरागत रूप से किसी की योग्यता और व्यवसाय को तय करने के लिए धर्म की व्याख्या की है.
ठेंगड़ी द्वारा व्यक्तियों पर समाज की आवश्यकता को प्राथमिकता देने के पीछे का एक कारण यह है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जातिगत अपराध शुरू हो गए हैं. ठेंगड़ी ने आदर्श समाज की पश्चिमी अवधारणा का मज़ाक उड़ाया, जिसके बारे में उनका तर्क था कि समाज व्यक्तियों की सेवा के लिए अस्तित्व में है.
वे लिखते हैं, "आधुनिक सोच यह है कि व्यक्ति को खुश होना चाहिए, वही प्रमुख कारक है, समाज व्यक्ति के लिए है. वास्तव में समाज नामक कोई बुनियादी इकाई नहीं है; यह व्यक्ति के सुख का सहायक साधन मात्र है, क्योंकि व्यक्ति अपने आप सुख प्राप्त नहीं कर सकता. मूल व्यक्ति है, इसलिए व्यक्ति का सुख ही मुख्य है. इस तरह की सोच समाज को बस एक क्लब के रूप में देखने के बराबर है.”
संक्षेप में, संघ की सामाजिक सद्भाव की अवधारणा उत्पीड़ित समुदायों को यह स्वीकार कराने की रणनीति है कि जाति व्यवस्था उनके भले के लिए है. “एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट” में बीआर अंबेडकर लिखते हैं कि "व्यक्तिगत गुणों को जाति द्वारा विभाजित करना गलत है, क्योंकि व्यक्ति के गुण परिवर्तनशील होते हैं." वह इस तर्क को खारिज करते हैं कि जाति व्यवस्था ने लोगों को जन्म के बजाय उनके काम के आधार पर अलग-अलग वर्णों में रखा. वे लिखते हैं, "क्या एक विद्वान व्यक्ति को ब्राह्मण कहे बिना सम्मानित किया जाएगा. या एक सैनिक को क्षत्रिय कहे बिना उसका सम्मान किया जाएगा. यदि यूरोपीय समाज अपने सैनिकों और अपने सेवकों को स्थायी नाम दिए बिना उनका
सम्मान करता है, तो हिंदू समाज को ऐसा करने में कठिनाई क्यों होनी चाहिए.” वह कहते हैं कि "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लेबल ऐसे नाम हैं जो हर हिंदू के दिमाग में एक निश्चित धारणा से जुड़े हैं. वह धारणा जन्म पर आधारित पदानुक्रम की है. जब तक ये नाम जारी रहेंगे, हिंदू ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को जन्म के आधार पर उच्च और निम्न के पदानुक्रमित विभाजन के रूप में माने जाते रहेंगे और उसके अनुसार कार्य करेंगे.
जाति-आधारित समाज का विचार आरएसएस के लिए पुराना नहीं पड़ा है. अगर ऐसा होता तो संघ इसका प्रचार करने के बजाय अपने उन विचारकों को छोड़ देता, जो अभी भी जाति व्यावस्था का सम्मान करते हैं. इसके बजाय, संघ ने असमानता की बात करते समय विषमता-विव जैसे शब्द का उपयोग कर अधिक जटिल भाषा अपनानी शुरू कर दी. दिसंबर 2015में वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत ने सामाजिक समरसता पर एक भाषण दिया, जो इस बात का एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि आरएसएस जाति व्यवस्था को कैसे पवित्र मानता है. भागवत ने कहा, "एक परिवार में हर कोई एक जैसा नहीं होता हर किसी का स्वभाव, क्षमता और बुद्धि अलग होती है. इसलिए, जब परिवार में कोई बच्चा छोटा रह जाता है, तो उसे पीटकर या खींच कर लंबा नहीं किया जा सकता है. प्रकृति ने हमें जो बनाया है हम उसे नहीं बदल सकते, लेकिन सभी के साथ समान व्यवहार कर सकते हैं,क्योंकि हमारे मतभेदों के बावजूद, हम एक ही परिवार का हिस्सा हैं. उन्होंने जाति को भाषाओं, भोजन की आदतों और धर्मों के साथ-साथ भारत की विविधता के एक चिन्ह के रूप में प्रस्तुत करने और इसके आनुवंशिक होने की बात की- इस प्रकार उन्होंने इस विचार को पुख्ता किया कि किसी की जाति किसी की प्रकृति का हिस्सा है. यहां इस वास्तविकता को अनदेखा कर दिया गया है कि जाति व्यवस्था एक अप्राकृतिक, ब्राह्मणों द्वारा अपने विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए बनाया गया एक कृत्रिम पदानुक्रम है.
उसी भाषण में, भागवत ने झूठा तर्क दिया कि जाति व्यवसायों से आई है. उन्होंने कहा, "जाति कैसे अस्तित्व में आई? "वे व्यवसाय थे जो बाद मे जाति बन गए. अंबेडकर ने भी इस बात से इंकार नहीं किया था. प्राचीन भारत में किसी समय, व्यवसाय जन्म-आधारित हो गए और, किसी एक जाति से जुड़ना शुरू हो गए ,लेकिन अंबेडकर ने यह स्थापित किया कि सजातीय विवाह की ब्राह्मणवादी प्रथा ही जाति के गठन का कारण बनी.
आरएसएस की स्थापना 1925 में जोतीराव और सावित्री फुले, पेरियार, शाहू और अंबेडकर जैसे कार्यकर्ताओं के प्रयासों की बदौलत, जाति-विरोधी लामबंदी के समय हुई थी. जिनके कामों ने दोनों, कानूनी और राजनीतिक रूप से उत्पीड़ित जातियों की पीढ़ियों को हिंदू धर्म को अस्वीकार करने और जाति को चुनौती देने के लिए प्रेरित किया. अपने शुरुआती वर्षों में हिंदुओं के बीच सद्भाव बनाने के संघ के प्रयास में दलित स्वयंसेवकों के घरों में संघ नेताओं द्वारा कभी-कभी भोजन करने तक सीमित थे. 1969 में गोलवलकर के नेतृत्व में, संघ की धार्मिक शाखा, विश्व हिंदू परिषद, ने उडुपी में ब्राह्मण पुजारियों का एक सम्मेलन आयोजित किया और अस्पृश्यता की घोषणा की - जिसे संविधान ने दो दशक पहले ही एक सामाजिक बीमारी मान कर अवैध घोषित कर दिया था.
इस सम्मेलन में दो अन्य प्रस्ताव पारित किए. एक में सरकार से दलितों और आदिवासियों द्वारा धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगाने और धर्मांतरण करने वालों के लिए सकारात्मक-कार्रवाई नहीं करने के लिए कहा गया था, जिन्हें उन्होने "अवैध और देशद्रोही समूह" कहा था. दूसरे प्रस्ताव मे उन्होने हिंदू धर्म में पुन: धर्मांतरण के अभियान के लिए कहा, जिसे आज घर वापसी के नाम से जाना जाता है. सरसंघचालक के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, देवरस ने कल्याणकारी कार्यक्रमों के माध्यम से दलितों को धर्मांतरित होने से रोकने की कोशिश की. राजनीतिक वैज्ञानिक मालिनी भट्टाचार्जी लिखती हैं कि 1981 में तमिलनाडु में मीनाक्षीपुरम के सौ से अधिक दलित परिवारों के इस्लाम में परिवर्तित होने के बाद, देवरस अपने सामाजिक-कल्याण की परियोजनाओं में तेजी ले आए.
स्वयं आरएसएस की तरह ही एसएसएम की स्थापना भी जाति-विरोधी आंदोलनों पर हिंदू दक्षिणपंथियों की चिंता को दूर करने के लिए की गई थी.1981 में, गुजरात सरकार ने स्नातकोत्तर मेडिकल कॉलेजों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण लागू किया,जिसके बाद ऊंची जाति के छात्र विरोध में सड़कों पर उतर आए. इसी तरह का विरोध तीन साल पहले बिहार में भी हुआ था, जब राज्य सरकार ने ऐसा ही कदम उठाया था. संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद , दोनों आंदोलनों में शामिल रही. मंडल आयोग ने भी 1980 में शिक्षा और रोजगार में ओबीसी आरक्षण की सिफारिश की थी,लेकिन इंदिरा गांधी सरकार ने उस रिपोर्ट को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया था.
1981 के एक प्रस्ताव में, एबीपीएस ने कहा कि वह "गुजरात में विस्फोटक स्थिति से बहुत चिंतित है" और आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग की , यह वही सपना जिसे नरेन्द्र मोदी सरकार ने 2019 में 8 लाख रुपए से कम आय वाले ऊंची जाति के परिवारों के लिए कोटा लागू करके पूरा किया. एबीपीएस के प्रस्ताव में कहा गया है कि आरएसएस "प्रधानमंत्री के इस दृष्टिकोण से सहमत है कि आरक्षण एक स्थायी व्यवस्था नहीं हो सकती है और इन बैसाखियों को जल्द से जल्द दूर करना होगा इस व्यवस्था के कारण योग्यता और दक्षता को प्रभावित नहीं किया जा सकता. इंडियन एक्सप्रेस की एक समकालीन रिपोर्ट ,में इंदिरा गांधी को यह कहते हुए उद्धृत किया कि "आरक्षण नीति तब तक जारी रहेगी जब तक आवश्यक है," हालांकि "यह सुनिश्चित करने के प्रयास किए जाने चाहिए कि वास्तव में मेधावी छात्रों को नुकसान न हो या उनके साथ भेदभाव न हो."
समरसता परियोजना ने दलितों और ओबीसी के राजनीतिक दावे को बढ़ाने की कोशिश की. ठेंगड़ी अपनी पुस्तक सामाजिक न्याय में, कांशीराम के संगठित प्रयासों की सराहना करते हैं , जिन्होंने 1980 के दशक के दौरान दलितों , ओबीसी और मुसलमानों को एक साथ लाने के लिए एक राजनीतिक आंदोलन का नेतृत्व किया और मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए वीपी सिंह सरकार पर सफलतापूर्वक दबाव डाला. उनका तर्क है कि कांशीराम की सफलता प्रदर्शित करती है कि " दलितों और शोषितों की एकता के माध्यम से सत्ता में आना सामाजिक सद्भाव बनाने का पहला कदम है." हालांकि, यह कांशीराम की राजनीति का समर्थन नहीं कर रहे थे. क्योंकि ठेंगड़ी केवल संघ के उग्र हिंदुत्व के आधार पर उत्पीड़ित जातियों को लामबंद करने में रुचि रखते थे - एक ऐसी रणनीति जिसका चुनावी फाइदा मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को मिल रहा है.
एसएसएम के संस्थापक सदस्य रमेश पतंगे के अनुसार, कांशीराम ने एक आदर्श समाज के निर्माण के साधन के रूप में समानता की जगह सामाजिक समरसता पर आपत्ति जताई और सामाजिक समरसता के सिद्धांत को "एक धीमा जहर" कहा था. ठेंगड़ी लिखते हैं कि अगर कांशीराम उत्पीड़ित जातियों को एक करने की अपनी भूमिका में “कोई फेरबदल करते हैं” तो “वे सामाजिक समरसता में बाधक बन जाएंगे.” वह दलितों को जाति-विरोधी नारे लगाने और मनुस्मृति को जलाने के प्रति आगाह करते हैं, एक वार्षिक परंपरा जिसे अंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को शुरू किया था. वे मनुस्मृति को जलाने या उसकी पूजा करने पर बहस को आधुनिक समाज मे "असंगत" कहते हैं. वे लिखते हैं, ''जातिगत भेदभाव समाप्त'' का नारा बुलंद करने के बजाय, ''बदलती सामाजिक संरचना में क्या नए शुभ संकेत उभर रहे हैं और सामाजिक एकता लाने के लिए कौन से सामान्य उद्देश्य स्थापित किए जाने चाहिए, इस पर विचार करना हमारी समस्याओं को हल करने के लिए आवश्यक होगा. इसी तरह, ठेंगड़ी “भारत सरकार अधिनियम, 1935 की आलोचना करते हैं, जो "जातिवाद और क्षेत्रवाद" को बढ़ावा देने के लिए अनुसूचित जातियों के लिए प्रांतीय विधानसभाओं में सीटें आरक्षित करता है.” 2018 के भाषण में भागवत द्वारा आरक्षण के समर्थन को देखते हुए आरएसएस ने अपना रुख बदल लिया है. हालांकि, ऐसा प्रतीत होता है कि यह भाजपा के गैर- सवर्ण मतदाताओं को नाराज न करने की एक राजनीतिक रणनीति थी. जबकि अन्य मौकों पर, भागवत आरक्षण की "सामाजिक समीक्षा करने" की अपनी 2015 की मांग पर लौटते रहते है. 2019 के आम चुनाव के तुरंत बाद, उन्होंने फिर से इस मुद्दे पर बातचीत का आह्वान किया. अक्टूबर 2020 में, उन्होंने सुझाव दिया कि आरक्षण के कारण लाभार्थियों में भी विभाजन और गुस्सा पैदा हो गया, क्योंकि “जो भी प्रभावशाली होता है वह सब कुछ ले लेता है. बाकी चिल्लाते रह जाते हैं. जबकि यह एक झूठा दावा है- अन्य समुदायों के लिए आरक्षण के विस्तार के लिए आंदोलन हुए हैं लेकिन आरक्षित समूहों के भीतर कभी कोई आंदोलन नहीं हुआ.
सामाजिक समरसता हासिल करने के लिए आरएसएस ने विभिन्न रणनीतियों का इस्तेमाल किया है, उनमें दलितों के घरों में संघ के नेताओं का नियमित आना-जाना, धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन, साथ ही दलित मोहल्लों में स्थानीय नायकों और देवताओं को मनाए जाने वाले त्यौहार मे शामिल होना है. 2017 एबीपीएस में, भागवत ने सभी हिंदुओं के लिए "एक मंदिर, एक श्मशान घाट और एक जल निकाय" के नारे के माध्यम से सीमित समानता का आह्वान किया. ये प्रतीकात्मक अधिक हैं, क्योंकि वे सदियों के जाति उत्पीड़न के कारण शैक्षिक, व्यावसायिक और सामाजिक आर्थिक अभावों की उपेक्षा करते हैं – यहां तक कि संघ उत्पीड़ित जातियों द्वारा उन अभावों को दूर करने के प्रयासों की आलोचना करता है जो सामाजिक सद्भाव के लिए विघटनकारी हैं.
संघ की एक और रणनीति अंबेडकर के बारे में मिथकों को गड़ने की रही है. सामाजिक न्याय में, ठेंगड़ी ने कथित तौर पर 1956 में अंबेडकर के बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने से कुछ समय पहले उनके साथ हुई बातचीत के बारे में लिखा है. उनका दावा है कि, "अतीत में," "अस्पृश्यता के कारण अन्याय और शोषण हुआ ,लेकिन आज, हम युवा इन बुराइयों को दूर करने और एक स्वस्थ समाज बनाने की कोशिश कर रहे हैं. क्या आपने इस पर ध्यान दिया? ठेंगड़ी लिखते हैं कि अंबेडकर ने उनसे कहा कि हालांकि आरएसएस राष्ट्रहित में काम कर रहा है, लेकिन उसे हिंदू समाज में सुधार करने में बहुत समय लगेगा. इस समय अंबेडकर को डर था, दलित साम्यवाद की ओर चले जाएगे. उन्होंने कहा "याद रखें, अंबेडकर दलितों और साम्यवाद के बीच एक दीवार के रूप में खड़े हैं, जबकि गोलवलकर सवर्ण हिंदुओं और साम्यवाद के बीच एक दीवार के रूप में खड़े हैं."
एक अन्य पुस्तक, समरस हिंदू समाज में, ठेंगड़ी ने इस प्रकरण को फिर से दोहराया है- इस बार अंबेडकर और आरएसएस के वरिष्ठ नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल के बीच बातचीत थी, जिसका ठेंगड़ी भी हिस्सा थे. उन्होंने अंबेडकर को यह कहते हुए उद्धृत किया, "गोलवलकर कितनी अच्छी बातें करते हैं और उन्हें कितनी अच्छी तरह कहते हैं, लेकिन मेरे लोग उनकी बात नहीं सुनेंगे क्योंकि वह एक अनुसूचित जाति से नहीं हैं." आरएसएस के एक कार्यक्रम में अक्टूबर 2020 के भाषण के दौरान, भागवत ने यह दावा करते हुए इस कहानी को एक बार फिर से दोहराया कि ठेंगड़ी ने अंबेडकर से सवाल पूछने के बजाय केवल उनकी बातचीत को सुना था. भागवत के अनुसार, अंबेडकर ने कहा कि वह बौद्ध धर्म में परिवर्तित हो रहे थे क्योंकि उन्हें अभी भी अपनी पार्टी के लिए सवर्ण वोटों की आवश्यकता थी. सामाजिक सद्भाव के बारे में बयानबाजी के बावजूद भी संघ को हिंदुओं को एकजुट करने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस्लामोफोबिया पैदा करने पर अधिक सफलता मिली है.
चूंकि ठेंगड़ी का दावा है कि यह उनके साथ घटित एक किस्सा था, इसलिए किसी तीसरे पक्ष के लिए उनके संस्करण पर विवाद करना मुश्किल है. हालांकि, इस कहानी में किए गए फेरबदल और अंबेडकर पर उपलब्ध साहित्य का एक अवलोकन कहानी को एक स्वार्थी मिथक के रूप में उजागर करता है. अंबेडकर ने अपने किसी भी लेख में इस बातचीत का उल्लेख नहीं किया है। इसके अलावा, उन्होंने 1935 में घोषणा की थी कि वह अपनी मृत्यु से पहले परिवर्तित हो जाएंगे, जिसके लिए उन्होंने विस्तृत कारण दिए थे. उन्होंने अपने एक लेख में यह समझाते हुए लिखा कि उनका यह निर्णय जाति व्यवस्था के उत्पीड़न में निहित था. "यदि आपको इस शर्मनाक स्थिति से छुटकारा पाना है," "यदि आपको इस कलंक को साफ करना है और इस अनमोल जीवन को सुशोभित करना है, तो केवल एक तरीका है और वह है हिंदू धर्म और हिंदू समाज को त्याग देना. उनके धर्मांतरण का चुनाव या साम्यवाद के डर से कोई लेना-देना नहीं था. आरएसएस के विपरीत, वह ईसाइयों या मुसलमानों को दुश्मन नहीं मानते थे. बल्कि, उनकी राय थी कि दलितों को "विभिन्न धर्मों और उनके आध्यात्मिक या सामाजिक मूल्यों की गहन जांच करने के बाद ही धर्म परिवर्तन करना चाहिए.
ठेंगड़ी की किताबें मे अंबेडकर के विचारों को गलत ढंग से तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया हैं. उदाहरण के लिए, समरस हिंदू समाज में , वे बिना कोई सबूत दिए लिखते हैं कि अंबेडकर बहुत धार्मिक थे. वे अपने शिष्यों से कहा करते थे',कि आपकी दिलचस्पी राजनीति में है, लेकिन मुझे राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है. मुझे धर्म में दिलचस्पी है , लेकिन धर्म में आपकी कोई दिलचस्पी नहीं है. वास्तव में, अंबेडकर दो दशक से अधिक समय तक दलित वर्गों के नेता रहे, उन्हें एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित किया, उन्हें विधायिका में आरक्षित सीटें दिलाईं और स्वतंत्र भारत में उनकी स्थिति पर अंग्रेजों के साथ बातचीत की. (ठेंगड़ी की भारत सरकार अधिनियम के तहत प्रदान किए गए आरक्षण की आलोचना, जिसकी अंबेडकर ने गोलमेज सम्मेलनों में वकालत की थी, उनके झूठ को उजागर करती है.) ठेंगड़ी संविधान के प्रति अपनी निराशा के लिए भी अंबेडकर को उद्धृत करते हैं - उनका मानना था कि यह अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए पर्याप्त कदम नहीं था – यहां वे अंबेडकर की तरह दिखने के लिए अपनी कल्पना से कुछ वाक्यों को जोड़ देते हैं.
इन झूठों के पीछे का उद्देश्य अंबेडकर को ढाल बनाकर संघ के एजेंडे का प्रचार करते करना है. साम्यवाद दलितों के लिए बुरा है,धर्म राजनीति से ऊपर है, संविधान अल्पसंख्यकों की रक्षा नहीं कर सकता है. आरएसएस जानता है कि दलित और अन्य उत्पीड़ित जातियां उनके विचारों को मान लेंगी यदि उन्हें अंबेडकर के शब्दों के रूप में प्रस्तुत किया जाए. भाजपा उनके नाम पर स्मारक बनवाकर अंबेडकर को हड़पने में अपेक्षाकृत सफल रही है , जिसे पिछली सरकारों ने नज़रअंदाज़ कर दिया था. लेकिन, अंबेडकरवादी आंदोलन के निरंतर दबाव के कारण संघ को अभी भी इस कथा को सच साबित करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.
सामाजिक समरसता के बारे में अपनी सारी लफ्फाजी के बावजूद जिससे इनका मतलब अंतर-धार्मिक सद्भाव से नहीं है इस के बजाय अंतर-जाति सद्भाव है- हिंदुओं को एकजुट करने के लक्ष्य को पाने के लिए संघ ने इस्लामोफोबिया को नियोजित करने में बहुत अधिक सफलता पाई है. इज़राइली इतिहासकार ऑर्निट शनि लिखते हैं कि 1980 के दशक के दौरान, जब राम जन्मभूमि आंदोलन जोर पकड़ रहा था, आरएसएस और बीजेपी ने उत्पीड़ित जातियों को "एकात्मक हिंदू समाज" के रूप में एकजुट करने के लिए सांप्रदायिक हिंसा का सहारा लिया था. लेखक और कार्यकर्ता असगर अली इंजीनियर ने भी गुजरात में 2002 के मुस्लिम विरोधी नरसंहार के बारे में लिखते हुए यही तर्क दिया था. संघ के वरिष्ठ नेताओं पर 2000 के दशक के दौरान कई बम विस्फोट करने का भी आरोप लगाया गया था. यशवंत शिंदे आरएसएस के एक पूर्व कार्यकर्ता ने एक जिला अदालत में दावा किया कि बमबारी अभियान के पीछे मूल मकसद 2004 के आम चुनाव से पहले हिंदू वोटों को एकजुट करना था. बेशक, संघ ने कभी भी हिंसा को सामाजिक समरसता लाने की अपनी रणनीति के रूप में स्वीकार नहीं किया है .
समरस हिंदू समाज में, ठेंगड़ी अंबेडकर के 1954 में दिए एक भाषण से उद्धृत करते हैं, जिसमें उन्होंने अपना सामाजिक दर्शन स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को घोषित किया था. ठेंगड़ी आगे खुद से जोड़ देते हैं "हालांकि, कोई भी यह नहीं कहता है कि मैंने फ्रांसीसी क्रांति से अपना दर्शन उधार लिया है," मेरे दर्शन की जड़ें धर्म में हैं न कि राजनीति विज्ञान में. मैंने उन्हें अपने गुरु बुद्ध की शिक्षाओं से प्राप्त किया है." अंबेडकर ने उल्लेख किया कि बुद्ध ने "स्वतंत्रता या समानता या बंधुत्व के इनकार के खिलाफ एकमात्र वास्तविक सुरक्षा के रूप में बंधुत्व को सर्वोच्च स्थान दिया. जो भाईचारे या मानवता का दूसरा नाम है. जो धर्म का दूसरा नाम था." आरएसएस के मुखपत्र “ऑर्गनाइजर” के लिए एक लेख में पतंगे तर्क देते हैं कि अंबेडकर के दृष्टिकोण को समझाने के लिए, समाज में बंधुत्व पैदा करने के लिए सामाजिक समरसता एक साधन मात्र है. न तो ठेंगड़ी और न ही पतंगे ने इस बात का उल्लेख किया कि, उसी भाषण में, अंबेडकर ने हिंदू सामाजिक दर्शन को खारिज कर दिया था. अंबेडकर ने कहा था, "भारतीय आज दो अलग-अलग विचारधाराओं द्वारा शासित होते हैं. संविधान की प्रस्तावना में निर्धारित उनका राजनीतिक आदर्श जीवन मे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की पुष्टि करता है. लेकिन उनके धर्म में सन्निहित उनका सामाजिक आदर्श इसे नकारता है.
अंबेडकर ने अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले लिखे एक निबंध "द हिंदू सोशल ऑर्डर" में क्या हिंदू धर्म बंधुत्व को मान्यता देता है पर अपने विचार स्पष्टता से व्यक्त किए है. उन्होंने कहा कि, ईसाइयों और मुसलमानों की तरह, हिंदुओं का मानना है कि मानवता ईश्वर द्वारा बनाई गई है. लेकिन जहां ईसाई और मुसलमान इसे संपूर्ण सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं, वहीं हिंदुओं का मानना है कि यह सच्चाई का केवल एक हिस्सा है. उनके अनुसार, सम्पूर्ण सत्य के दो भाग होते हैं, पहला भाग यह है कि मनुष्य को ईश्वर ने बनाया है. दूसरा भाग यह है कि ईश्वर ने अपने दिव्य शरीर के विभिन्न अंगों से भिन्न-भिन्न मनुष्यों की रचना की. हिंदू दूसरे भाग को पहले की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण और अधिक मौलिक मानते हैं. उन्होंने पूछा, शरीर के विभिन्न हिस्सों से पैदा हुए पुरुषों के बीच सामाजिक संबंधों को प्रतिबंधित करने वाले विभिन्न धर्मग्रंथों को सूचीबद्ध कर के - जिसमें अस्पृश्यता और अंतर्विवाह और अंतर्भोजन का प्रतिबंध शामिल हैं - ऐसी भावना के साथ सामाजिक व्यवस्था में क्या भाईचारा संभव है? बंधुत्व की भावना से काम करना तो दूर,उल्टे जातियों के आपसी संबंध भ्रातृघातक हो जाते है.”