12 से 14 मार्च तक पानीपत में आयोजित वार्षिक अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक प्रस्ताव पारित कर अपने कैडर को स्व-स्वार्थ की अवधारणा के आधार पर राष्ट्र के पुनरुत्थान की दिशा में काम करने के लिए कहा. संघ में निर्णय लेने वाली सर्वोच्च संस्था एबीपीएस (अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा) की बैठक के दौरान मीडिया को संबोधित करते हुए आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने स्व को "राष्ट्र की आध्यात्मिक सामाजिक सांस्कृतिक पहचान" के रूप में परिभाषित किया. उन्होंने कहा कि अगले साल आरएसएस पांच मोर्चों पर इस पुनरुत्थान की दिशा में काम करेगा : सामाजिक समरसता, परिवार प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, स्वदेशी आचरण और नागरिक कर्तव्य.
आरएसएस ने सामाजिक परिवर्तन के इन तरीकों की खोज में दशकों बिता दिए हैं. अपने सार्वजनिक आयोजनों में संघ अक्सर हिंदू परिवारों को अपने दैनिक जीवन में धर्म का पालन करने के लिए प्रेरित करता है. वह पर्यावरण संरक्षण की बात करते हैं क्योंकि वह आदिवासियों को लेकर सचेत हैं, जिन्हें वह अलग-अलग इतिहास और संस्कृतियों वाले देशी समुदायों के बजाय जंगलों मे रहने वाले हिंदू मानते हैं, जो हिंदुत्व के लिए लामबंद होने के बजाय अधिकार-आधारित आंदोलनों मे शामिल होते हैं. भले ही संघ की राजनीतिक शाखा, भारतीय जनता पार्टी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का समर्थन किया हो, पर इसकी ट्रेड यूनियन, भारतीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच ने संरक्षणवादी रवैया अपना रखा है. इन्होंने कई बार बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार की आर्थिक नीतियों का विरोध किया है. भारतीयों को धार्मिक पुस्तकों के आधार पर निषेधों के अधीन करने के लिए संघ, नागरिक अनुशासन की भी वकालत करता है. हालांकि, 1983 में सामाजिक समरसता मंच की स्थापना के बावजूद हिंदुओं के बीच "सामाजिक सद्भाव" पैदा करना, स्व-आधारित राष्ट्र के अपने लक्ष्य को प्राप्त करना आरएसएस के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है.
एसएसएम की स्थापना करने वाले आरएसएस के विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने हिंदू समाज को संगठित करने के लिए सामाजिक समरसता को एक पूर्व शर्त के रूप में माना. जाति व्यवस्था की श्रेणीबद्ध असमानता के बावजूद हिंदुओं को एकजुट करना और उन्हें लामबंद करना, संघ की राजनीति के एक बुनियादी विरोधाभास को समझने का एक प्रयास था. संक्षेप में, संघ की सामाजिक समरसता की अवधारणा उत्पीड़ित समुदायों को यह स्वीकार कराने की रणनीति है कि जाति व्यवस्था उनके ही भले के लिए है और सामाजिक-राजनीतिक दावों या संवैधानिक सुरक्षा जैसे उपायों से उनका कल्याण नहीं हो सकता है.
संघ के आदर्श समाज का गठन का कारण है, इसकी जांच करना बहुत ज्ञानवर्धक है. आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक “बंच ऑफ थॉट्स” में लिखा है कि, हमारे समाज की मुख्य विशेषता वर्ण व्यवस्था थी. ऋग्वेद द्वारा स्वीकृत समाज के चार वर्ण में विभाजन का जिक्र करते हुए वह कहते हैं, " यही ‘हमारी राष्ट्र' की अवधारणा का मूल है और जिसने हमारी सांस्कृतिक विरासत की अनूठी अवधारणाओं को जन्म दिया है." स्व , जिसके आधार पर आरएसएस अब भारत का पुनर्निर्माण करना चाहता है, इस विभाजन से जुड़ा हुआ है. ‘बंच ऑफ थॉट्स’ की प्रस्तावना लिखने वाले संघ विचारक एमए वेंकट राव स्वधर्म को चार वर्णों के संदर्भ में "विभिन्न व्यावसायिक समूहों के कर्तव्यों और अधिकारों" के रूप में परिभाषित करते हैं. गोलवलकर लिखते हैं, "यह केवल तभी होता है जब कोई राष्ट्र, एक व्यक्ति के रूप में, स्वधर्म की अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है तो चौतरफा महिमा और उपलब्धि पाता है. अपने स्वधर्म की जड़ों को उखाड़कर उसके स्थान पर कुछ और लगाने से घोर अराजकता से अध:पतन ही होगा."
भारतीय समाज को चार वर्गों में विभाजित करने की इस कल्पना में संघ परिवार आज भी स्थिर है. आरएसएस विचारक और भारतीय जनसंघ के पूर्व महासचिव दीन दयाल उपाध्याय, अपनी पुस्तक एकात्म मानववाद में चार वर्णों की तुलना शरीर के विभिन्न भागों से करते हैं. उपाध्याय का तर्क है कि जातियों के बीच संघर्ष "समाज की आत्मा" को कमजोर करेगा, जिसके परिणामस्वरूप "समाज के सभी अंग कमजोर और अप्रभावी हो जाएंगे." सामाजिक समरसता पर 1974 मे दिए एक भाषण में गोलवरकर के सरसंघचालक के उत्तराधिकारी एमडी देवरस ने कहा था कि समाज के सुचारू संचालन के लिए जाति व्यवस्था आवश्य है.
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