ओडिशा के "औरंगजेब" धर्मेंद्र प्रधान से राज्य के नेता नाराज लेकिन केंद्र के खुश

धर्मेंद्र प्रधान को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का समर्थन हासिल है. क्योंकि वह पैसा जुटाने में माहिर हैं. BJP.ORG
21 May, 2019

23 मार्च को भारतीय जनता पार्टी की ओडिशा इकाई के उपाध्यक्ष राज किशोर दास ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया. दास ने अपने इस्तीफे के लिए केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को जिम्मेदार बताया. एक स्थानीय समाचार चैनल को दिए साक्षात्कार में दास ने कहा, “जमीनी स्तर पर काम करने वाले तमाम नेताओं के खिलाफ प्रधान षड्यंत्र करने में लगे हैं... जब प्रधान को लगा कि पार्टी में मेरा कद उनसे ऊपर हो सकता है और मेरे सामने उनकी भूमिका कमजोर पड़ सकती है वह मेरे खिलाफ षड्यंत्र करने लगे.” तीन दिन बाद, 1995 से संघ के साथ रहे एक अन्य वरिष्ठ नेता सुभाष चौहान ने भी पार्टी को अलविदा कह दिया. उन्होंने भी अपने इस कदम के लिए प्रधान को जिम्मेदार बताया. इस्तीफे के दिन चौहान ने मीडिया को बताया, “पार्टी एक व्यक्ति की जेब में है और संघ परिवार उसे बचा रहा है.” इसके अगले दिन एक साक्षात्कार में चौहान ने प्रधान का नाम लेकर कहा, “एक आदमी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए पार्टी का इस्तेमाल हो रहा है. इस आदमी को मुख्यमंत्री कैसे बनाया जाए, कैसे इसे सत्ता तक पहुंचाया जाए. बस इस एक मानसिकता के साथ पार्टी काम कर रही है”.

2017 में हुए स्थानीय निकाय के चुनावों में बीजेपी ने 851 जिला परिषद सीटों में से 297 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इस सफलता के बाद चौहान को आरएसएस के उन खास लोगों में से एक माना जाने लगा जिनकी बदौलत पश्चिमी ओडिशा में पार्टी ने अपने लिए जगह बनाई. चौहान, जुलाई 2010 और अक्टूबर 2012 के बीच विश्व हिंदू परिषद की शाखा बजरंग दल के राष्ट्रीय संयोजक भी रह चुके हैं. 2014 के लोकसभा चुनावों में राज्य की 21 सीटों में से बीजेपी ने केवल 1 सीट जीती थी और चौहान बाढ़गढ़ सीट से केवल 11178 मतों से पराजित हुए थे. लेकिन उन्हें राज्य में सभी बीजेपी उम्मीदवारों से अधिक वोट मिले थे. इन दो वरिष्ठ नेताओं की पार्टी से विदाई ने राज्य में बीजेपी की जमीन हिला दी है लेकिन प्रधान ने सार्वजनिक तौर पर इस संबंध में कुछ नहीं कहा है.

गौरतलब है कि बीजेपी के भीतर प्रधान के खिलाफ विद्रोह केवल चौहान और दास तक सीमित नहीं है. राज्य में लोकसभा और विधान सभा चुनाव साथ हो रहे हैं और इसी बीच बीजेपी के कई नेता और कार्यकर्ता प्रधान के खिलाफ मोर्चाबंदी करने में लगे हैं. अप्रैल के पहले सप्ताह में बीजेपी के भुवनेश्वर कार्यालय के बाहर कम से कम दो विरोध प्रदर्शनों में मेरा जाना हुआ. इन प्रदर्शनों में प्रधान के खिलाफ नारेबाजी हुई. प्रदर्शनों में भाग लेने वाले तकरीबन 20 कार्यकर्ताओं ने प्रधान से नाराज होकर पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद एक सप्ताह तक मैं प्रधान के उत्थान और बीजेपी में उनको मिलने वाली चुनौती को समझने के लिए बीजेपी के एक दर्जन से अधिक नेताओं से मिला.

धर्मेंद्र प्रधान, 1983 से संघ परिवार के सदस्य हैं और उन्हें ओडिशा आरएसएस प्रमुख विपिन बिहारी नंदा का करीबी विश्वस्त माना जाता है. बीजेपी के कई नेताओं ने मुझे बताया कि प्रधान को अमित शाह यानी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का समर्थन हासिल है. ओडिशा में राजनीतिक दलों के नेताओं से मेरी बातचीत से मुझे पता चला कि यहां आमतौर पर माना जाता है कि अमित शाह और नंदा का समर्थन प्रधान को इसलिए है क्योंकि वह पैसा जुटाने में माहिर हैं. पैसों की बदौलत पिछले 5 सालों में पार्टी ने जमीनी स्तर पर अपने पैर मजबूत किए हैं.

राज्य में बीजेपी का विस्तार करने और पार्टी और आरएसएस के नेतृत्व के समर्थन के चलते धर्मेंद्र प्रधान ओडिशा में पार्टी का चेहरा और मुख्यमंत्री पद के मजबूत दावेदार बन गए हैं. इसके बावजूद इस पद के लिए उनके सामने कई बाधाएं हैं. हालांकि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का समर्थन उन्हें प्राप्त है लेकिन राज्य में पार्टी के नेतृत्व, खासकर पुराने नेताओं से, उन्हें गंभीर चुनौतियां भी मिल रही हैं. पार्टी के पुराने नेता इस बात से खफा हैं कि पार्टी के किसी भी पद में निर्वाचित हुए बिना प्रधान शीर्ष पर पहुंच गए हैं. प्रधान को आरएसएस के उन सदस्यों और नेताओं की नाराजगी भी झेलनी पड़ रही है जिनको उन्होंने किनारे लगा दिया है. साथ ही उन्हें बीजू जनता दल के विद्रोही वरिष्ठ नेताओं से भी चुनौती मिल रही है जो बीजेपी में अपने प्रभाव को बढ़ाना चाहते हैं. पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों के अनुसार इन्हीं आंतरिक टकरावों के कारण बीजेपी ने हाल ही में संपन्न हुए विधान सभा चुनावों में प्रधान को पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में सामने नहीं किया. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सामने रख कर बीजेपी ने अपना चुनाव प्रचार किया था.

1983 में प्रधान ने आरएसएस की छात्र शाखा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, के कार्यकर्ता के रूप में अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया था. साल 2000 में वे पल्ललहारा सीट से विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए थे. वह पहला और एकमात्र विधान सभा चुनाव था, जो प्रधान ने जीता था. 2004 में प्रधान ने देवगढ़ निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव लड़ा. इस सीट से उनके पिता देवेन्द्र प्रधान दो बार लोकसभा चुनाव जीते था. देवेन्द्र प्रधान, अटल बिहारी सरकार में राज्य मंत्री थे. हालांकि वह चुनाव प्रधान ने जीत लिया था लेकिन उससे जुड़ी कहानी आज भी राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय है. कहानी कुछ यूं है कि प्रधान ने अपने पिता पर देवगढ़ सीट खाली करने का दबाव डाला था ताकि स्वयं वहां से चुनाव लड़ सकें. देवेन्द्र ने उसी वर्ष राजनीति से सन्यास ले लिया. दास ने आरोप लगाया कि प्रधान मुगल बादशाह औरंगजेब की तरह हैं. “जिस तरह औरंगजेब ने बादशाह बनने के लिए अपने पिता को जेल में डाल दिया था, उसी तरह प्रधान ने स्वयं देवगढ़ लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के लिए अपने पिता को घर बैठा दिया.”

2004 की वह जीत प्रधान की आखिरी चुनावी फतह थी. 2009 में प्रधान ने पल्ललहारा सीट से विधानसभा चुनाव लड़ा और हार गए. यह आखिरी चुनाव था जिसमें प्रधान ने भाग लिया था. इसके बावजूद बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व में प्रधान का कद बढ़ता चला गया. वह पार्टी के राज्य इंचार्ज बना दिए गए और बिहार, झारखंड और कर्नाटक विधान सभा चुनावों में पार्टी की ओर से चुनाव प्रभारी रहे. 2010 में पार्टी ने उन्हें महासचिव बनाया और दो साल बाद उन्हें बीजेपी ने बिहार से राज्यसभा सांसद बना दिया. 2018 में राज्यसभा में उनका कार्यकाल पूरा होने के बाद वह मध्य प्रदेश से राज्यसभा सांसद बन गए.

2014 में राज्यसभा सदस्य के रूप प्रधान को मोदी सरकार में केंद्रीय पेट्रोलियम एवं तेल राज्य मंत्री बना दिया गया. राज्य मंत्री के रूप में प्रधान ने मोदी की कर्णधार योजना, प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, को सफल बनाने के लिए जम कर काम किया. यह योजना गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों की महिलाओं को एलपीजी कनेक्शन उपलब्ध कराने के लिए है. सितंबर 2017 में मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद मोदी ने प्रधान को उसी मंत्रालय में केंद्रीय मंत्री बना दिया और उन्हें कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय का अतिरिक्त कार्यभार भी सौंप दिया. खबरों के मुताबिक प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना में उनके काम के लिए उनका प्रमोशन किया गया था.

राज्य मंत्री के रूप में प्रधान के कार्यकाल में तटीय ओडिशा में 6000 करोड़ रुपए की तरलीकृत प्राकृतिक गैस टर्मिनल की स्थापना हुई. इसके तहत 13 जिलों के औद्योगिक केंद्रों और घरों में प्राकृतिक गैस की मांग की आपूर्ति की जानी है. 2016 में शुरू हुई यह परियोजना निजी-सार्वजनिक साझेदारी के मॉडल पर आधारित है जिसमें अधिकांश हिस्सेदारी अडानी एंटरप्राइजेज की है. इस कंपनी के मालिक गौतम अडानी को नरेन्द्र मोदी का करीबी माना जाता है.

जिन नेताओं से मैंने बात की उन्होंने मुझे बताया कि पेट्रोलियम मंत्री के रूप में उनके काम के कारण उन्हें अमित शाह का समर्थन प्राप्त है और उन्हें बीजेपी के अंदर पैसा जुटाने वाला आदमी माना जाता है. यह बात संभव लगती है क्योंकि प्रधान ने 2004 से एक भी चुनाव नहीं जीता है. कई नेताओं ने मुझे बताया कि पल्ललहारा में भी प्रधान का प्रभाव नहीं है. जब मैंने चौहान से पैसा जुटाने की प्रधान की क्षमता के बारे में पूछा तो वह हंसने लगे. उन्होंने कहा “वह सीएसआर से पैसा लाते हैं और कहां से लाएंगे.” सीएसआर के तहत कुछ कंपनियों को अपने कुल औसत लाभ का 2 प्रतिशत सामाजिक कार्यों में खर्च करना होता है. हालांकि कई कंपनियों ने सीएसआर फंड को सरकारी परियोजनाओं में राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए लगाया है.

हाल के चुनाव में बीजेपी की राज्य इकाई की मदद में लगे एक कंसलटेंट ने प्रधान को “कुछ भी कर देने वाला आदमी” बताया. उस कंसलटेंट ने मुझे बताया, “उनको आदमियों की पहचान है और यह भी पता है कि किसे किस काम पर लगाना है.”

2017 में प्रधान की देखरेख में भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस को पछाड़कर सत्तारूढ़ बीजेडी की मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी बन गई. भारतीय जनता पार्टी के ओडिशा में बीजू जनता दल की मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी बन जाने के पीछे दो कारण हैं. उस साल फरवरी में हुए जिला परिषद चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 297 जिला परिषद सीटें जीती थी. इसकी तुलना में 2012 में बीजेपी को केवल 36 सीटें प्राप्त हुई थी और यह सारी सीटें आदिवासी बहुल बोलांगीर, बारगढ़, मलकानगिरी, क्योंझर और मयूरभंज से मिली थी. इन जिलों को आरएसएस का मजबूत गढ़ माना जाता है. इन जिलों के स्थानीय लोगों को आरएसएस, संगठन में भर्ती कर धर्म परिवर्तन के खिलाफ परिचालित करता है. यहां दो घटनाओं का जिक्र करना जरूरी है- जनवरी 1999 में बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने क्रिश्चियन मिशनरी ग्राहम स्टाइन्स और उनके दो बच्चों को जिंदा जला दिया था और 2008 में कंधमाल जिले में हुए सांप्रदायिक हमलों में 38 ईसाइयों की मौत हो गई थी.

आरएसएस का उग्र हिंदुत्व और धर्म परिवर्तन विरोधी एजेंडा आदिवासी जिलों में बीजेपी को मिलने वाले समर्थन का मुख्य आधार है. इसी बात को ध्यान में रख कर प्रधान के खिलाफ आक्रोष को समझा जा सकता है. हालांकि आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने बीजेपी को राज्य में पकड़ बनाने में मदद की लेकिन पार्टी ने देवेन्द्र महापात्रा, पंचानन रोत और सुकांता पणिग्रही जैसे संघ के वरिष्ठ नेताओं को किनारे लगा दिया. इसके लिए प्रधान को जिम्मेदार माना जाता है. चौहान ने मुझे बताया कि राज्य के आरएसएस प्रमुख बिपिन बिहारी नंदा प्रधान के गुरु हैं. आरएसएस में शामिल होने वालों को एक वरिष्ठ सदस्य को अपना गुरु स्वीकार करना होता है और उसे अपने परिवार से अधिक महत्व दिया जाता है. चौहान के अनुसार नंदा वह व्यक्ति हैं जो प्रधान को चुनौती देने वालों को हटाने का प्रयास कर रहे हैं. दास और चौहान ने दावा किया कि वरिष्ठ संघ नेताओं का अपमान किए जाने के चलते बहुत से संघ कार्यकर्ता इन चुनावों में बीजेपी के खिलाफ काम कर रहे हैं.

जो दूसरा कारण, जिसकी वजह से बीजेपी राज्य में विस्तार कर पाई वह है जमीनी स्तर पर समितियों का विस्तार कर उन्हें वोटों में परिवर्तन कर सकना. मात्र पिछले 5 सालों में बीजेपी ने 36000 बूथ स्तरीय समितियों का गठन किया है. ओडिशा में पार्टी की कुल 92000 बूथ स्तरीय समितियां हैं. बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व इस सफलता के लिए प्रधान को श्रेय देता है. लेकिन राज्य में बहुत कम लोग हैं जो ऐसा मानते हैं. एक बीजेपी नेता ने मुझे बताया, “यह सच है कि पंचायत चुनावों के समय प्रधान ने व्यापक प्रचार-प्रसार किया था परंतु वह आरएसएस कार्यकर्ताओं की सहायता से ऐसा कर पाए थे. उन लोगों ने दशकों तक यहां काम किया है.”

2016 में जब एलएनजी परियोजना को अंतिम रूप दिया जा रहा था, तब प्रधान के राज्य बीजेपी के शीर्ष पर पहुंचने को लेकर पहली बार विवाद सामने आया था. पार्टी अपना राज्य अध्यक्ष घोषित करने वाली थी कि तभी मीडिया में यह बात आने लगी कि प्रधान और अन्य कैबिनेट मंत्री जुएल उरांव के बीच इस पद को लेकर प्रतिस्पर्धा चल रही है. दोनों ही नेता लगातार राज्य में आ-जा रहे थे और पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ बैठकें कर रहे थे. मीडिया खबरों के अनुसार, दोनों नेताओं के केंद्र सरकार के काम में व्यस्त होने के कारण वे अपने अपने उम्मीदवारों को इस पद के लिए समर्थन दे सकते हैं. उन खबरों के मुताबिक केवी सिंह देव, प्रताप सारंगी और बसंत पांडा भी इस पद की दौड़ में शामिल थे. केवी सिंह देव पांच बार विधायक रहे हैं. सारंगी दो बार विधायक रहे हैं और पांडा आरएसएस के सदस्य एवं प्रधान के करीबी माने जाते हैं. अंततः पांडा को ओडिशा बीजेपी का अध्यक्ष बना दिया गया.

जुएल उरांव के बारे में भी माना जाता है कि वह भी बीजेपी के उन वरिष्ठ नेताओं में से हैं जिन्हें प्रधान के चलते किनारे लगा दिया गया है. उरांव, ओडिशा बीजेपी के दो संस्थापक सदस्यों में से एक हैं. 1990 में बीजेपी ने ओडिशा में पहली बार चुनाव लड़ा था और जिन दो विधायकों ने चुनाव जीता था उनमें से उरांव एक थे. आदिवासी पृष्ठभूमि के उरांव को आदिवासी बहुल क्षेत्र में व्यापक समर्थन प्राप्त है और वह सुंदरगढ़ से चार बार लोकसभा सांसद रह चुके हैं. 2014 के आम चुनावों में ओडिशा से जीतने वाले वही एकमात्र सांसद थे.

इसके बावजूद 2014 के बाद से वह मुख्यमंत्री पद की दौड़ में कहीं दिखाई नहीं पड़ते. नवंबर 2018 में स्वयं उरांव ने मुख्यमंत्री पद के लिए प्रधान का समर्थन किया था. उसी महीने भारतीय प्रशासनिक सेवा की अधिकारी अपराजिता सारंगी स्वैच्छिक अवकाश लेकर अमित शाह के दिल्ली आवास जाकर पार्टी में शामिल हुई थीं. जल्द ही सोशल मीडिया में उन्हें बीजेपी की ओर से मुख्यमंत्री पद का संभावित उम्मीदवार बताया जाने लगा. दूसरे दिन उरांव ने पत्रकारों को बताया, “किसी के मन में कोई दुविधा नहीं है. धर्मेंद्र बाबू हमारे मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. मैंने पहले भी कहा था कि हम राज्य का अगला चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ेंगे.” परंतु राज्य के नेतृत्व ने उरांव की इस टिप्पणी से खुद को दूर कर लिया. प्रताप सारंगी ने इसे उरांव का “निजी विचार” कहा.

भारतीय जनता पार्टी के भीतर उरांव की भूमिका कमजोर होते जाने को पार्टी में व्याप्त ब्राह्मणवादी संस्कृति के बरअक्स रख कर समझा जा सकता है. इस संस्कृति में दलितों और आदिवासियों को सक्षम नहीं माना जाता. जब मैंने मोहंती से मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में उरांव की संभावनाओं के बारे में पूछा तो उन्होंने मुझसे कहा, “इसकी उम्मीद नहीं है”. मोहंती ने बताया कि उरांव एक विशेष प्रकार के लोगों के नेता हैं- उनका इशारा आदिवासी और दलितों की ओर था- “जो आलसी होते हैं और मेहनत नहीं करना चाहते और हिंसा में लिप्त हैं. धर्मेंद्र प्रधान को ऐसे लोग पसंद नहीं है”. उन्होंने आगे कहा कि पार्टी को वोट हासिल करने के लिए इन लोगों के नेता की आवश्यकता है.

उरांव मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं है लेकिन यह बात गौरतलब है कि हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी ने किसी को भी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया. पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को सामने रखकर चुनाव लड़ा. जिन नेताओं से मैंने बात की उन्होंने मुझे बताया कि इस पद के कई दावेदार होने की वजह से पार्टी किसी एक व्यक्ति को उम्मीदवार बना कर एकताबद्ध राजनीतिक शक्ति के रूप में चुनाव नहीं लड़ पाती.

ऐसा लगता है कि इस पद के लिए प्रधान को चुनौती देने वाले कई लोग हैं. इस साल मार्च में बीजेडी के वरिष्ठ नेता बैजयंत पांडा, जिन्हें “जय पांडा” भी बुलाया जाता है, बीजेपी में शामिल हो गए. मई 2017 में बीजेडी ने पांडा को पार्टी प्रवक्ता के पद से हटा दिया था और मई 2018 में पांडा ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. फिलहाल वह बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं. उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया जाना पार्टी में उनके महत्व को दिखाता है. पांडा की पत्नी ओडिशा टीवी की मालिक हैं, जो राज्य में सबसे अधिक देखे जाने वाले चैनलों में से एक है. पांडा का परिवार धातु और अयस्क के व्यवसाय में है जिसकी अपनी खाने हैं.

पांडा को बीजेडी के पूर्व वरिष्ठ नेता बिजॉय महापात्रा और दिलीप रे को पार्टी के करीब रखने का श्रेय भी दिया जाता है जो 2000 और 2002 में बीजेपी में शामिल हो गए थे लेकिन पिछले साल नवंबर में बीजेपी छोड़ दी थी. ये दोनों बीजेडी के संस्थापक सदस्य हैं. बीजेपी से इस्तीफा देने के बाद दोनों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा था, “हम पार्टी में सजावट की चीज बन कर नहीं रहना चाहते. हमें पार्टी का फर्नीचर नहीं माना जाना चाहिए”. मार्च में महापात्रा फिर बीजेपी में शामिल हो गए और इस बात के लिए उन्होंने पांडा का शुक्रिया किया. रे, आधिकारिक तौर पर बीजेपी में शामिल नहीं हुए हैं लेकिन अप्रैल के मध्य में उन्होंने महापात्रा से मुलाकात करने के बाद मीडिया को बताया था कि वह पटकुरा निर्वाचन सीट पर महापात्रा के लिए प्रचार करेंगे.

इस घटना के बाद पांडा को पार्टी के लिए भरोसेमंद और सफल राजनीतिक मध्यस्थकर्ता माना जा रहा है. स्थानीय पत्रकारों की मानें तो चुनाव के बाद यदि पार्टी की अच्छी खासी विधान सभा और लोकसभा सीटें आती है तो प्रधान की जगह पांडा को सामने रख कर बातचीत होगी.

लेकिन बीजेपी के चुनाव अभियान में काम करने वाले कंसलटेंट इस बात से सहमत नहीं है कि पांडा बातचीत के लिए बीजेपी की ओर से मुख्य व्यक्ति होंगे. वह कहते हैं, “मैंने भी इस बारे में सुना है लेकिन यह बात पांडा की पत्नी के टीवी चैनल ओटीवी द्वारा फैलाई जा रही है”. वहीं दूसरी ओर पांडा इस बारे में कुछ भी कहने से बचे. पांडा ने अपने आवास पर मुझे बताया, “इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि प्रधान बीजेपी के बहुत वरिष्ठ नेता हैं और उन्होंने ओडिशा में बीजेपी के निर्माण में भूमिका निभाई है. मेरा उनसे कोई मनमुटाव नहीं है. मैं उनका सम्मान करता हूं और मुझे इस बात का मलाल नहीं है”. उन्होंने यह भी कहा कि प्रधान ने ही उन्हें पार्टी में शामिल होने के लिए संपर्क किया था. बावजूद इसके, पांडा ने मुख्यमंत्री पद के लिए प्रधान के दावे का समर्थन नहीं किया. उन्होंने कहा, “इसका निर्णय पार्टी करेगी.”

हाल में एक इंटरव्यू में प्रधान ने स्वीकार किया था कि पार्टी लोकसभा और विधान सभा चुनाव में मोदी को सामने रख कर लड़ेगी. प्रधान के एक सहयोगी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि, “पार्टी के लिए हालात करो या मरो जैसे हैं”. उन्होंने आगे कहा, “राज्य में नवीन पटनायक के खिलाफ मोदी के अलावा हमारे पास कोई चेहरा नहीं है. यदि मोदी चुनाव हार जाते हैं तो मुझे नहीं लगता कि अगले एक दशक तक ओडिशा में बीजेपी की सत्ता में आने की कोई संभावना होगी”. ऐसे ही विचार दामोदर राउत के हैं. बीजेपी में शामिल होने से पहले दामोदर राउत राज्य सरकार के कृषि मंत्री थे. राउत का कहना है कि उन्हें इस बात से दुख होता है कि “बीजेपी में किसी बात के लिए उनकी सलाह नहीं ली जाती”. लेकिन वह भी मानते हैं कि मोदी के चलते ही राज्य में बीजेपी अब तक की सबसे मजबूत स्थित में है.

पुरी से कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार और पूर्व पत्रकार सत्य प्रकाश नायक ने मुझे बताया कि प्रधान को सवाल किया जाना पसंद नहीं है और वह लोगों से उम्मीद करते हैं कि बिना सवाल किए उनकी बात मानी जाए. अपने पत्रकार जीवन का एक किस्सा सुनाते हुए वे कहते हैं कि जब वह टीवी18 में काम कर रहे थे तब, “एक स्टोरी चली थी बीजेपी के कैंडिडेट प्रताप सारंगी के बारे में. उनके बारे में तो अच्छा बोला गया था लेकिन धर्मेंद्र प्रधान जी को अच्छा नहीं लगा. वहां से फोन आ गया.”

नायक का आरोप है कि प्रधान ने उनके संपादक को फोन कर उन्हें माफी मांगने को कहने के लिए कहा था. उस वक्त तक उस रिपोर्ट का एक हिस्सा ही टेलीकास्ट हुआ था और पूरा इंटरव्यू टेलीकास्ट होना बाकी था. इसके बावजूद नायक के संपादक चाहते थे कि वह इंटरव्यू टेलीकास्ट न करें और पहले प्रधान से मिले. नायक बताते हैं कि उन्होंने अपने संपादक से कहा, “मैं इंटरव्यू का प्रसारण नहीं करता. आखिर यह आपका चैनल है लेकिन मुझे एक कारण बताइए जो मैं सारंगी को बता सकूं. क्या मैं सारंगी से कहूं कि मैंने इंटरव्यू नहीं चलाने के लिए प्रधान से पैसे लिए हैं”. नायक बताते हैं कि उस घटना के बाद उन्होंने समाचार चैनल से इस्तीफा दे दिया और फिर वह इस पेशे से बाहर हो गए. मैंने टीवी18 के कार्यालय जाकर नायक के इस कथन की सच्चाई को जानना चाहा. चैनल की एक वरिष्ठ कर्मचारी ने नायक के मामले के जानकार एक बोर्ड सदस्य से बात कर मुझे इस बारे में बताया. वरिष्ठ कर्मचारी ने मुझे बताया कि नायक को इस्तीफा देने को कहा गया था लेकिन इसका धर्मेंद्र प्रधान से कोई संबंध नहीं था. चैनल के स्थानीय संपादक और नायक के बीच समस्या थी. चैनल के प्रबंधन ने दोनों को यह मामला आपस में सुलझा लेने के लिए कहा था क्योंकि इस तरह से ब्यूरो नहीं चलाया जा सकता था. मैनेजमेंट ने एक फैक्ट फाइंडिंग दल ओडिशा भेजा था और पाया कि नायक अपने संपादक की बात नहीं सुनते हैं और दंभी हैं.”

ओडिशा के पत्रकारों के बीच यह घटना बड़ी बदनाम है. कुछ पत्रकारों ने मुझे बताया कि प्रधान के साथ नायक के टकराव के बाद राज्य के पत्रकार इस बीजेपी नेता से सवाल पूछने से कतराते हैं क्योंकि उन्हें प्रधान के प्रभाव से डर लगता है.