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10 सितंबर 2019 की सुबह पुलिस की एक टीम ने दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के एसोसिएट प्रोफेसर हनी बाबू एमटी के नोएडा स्थित अपार्टमेंट पर छापा मारा और लैपटॉप, मोबाइल , इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों और दो किताबें जब्त कर लीं. इस टीम में पुणे पुलिस के जवान भी थे. छापेमारी छह घंटे तक चली लेकिन बाबू ने बताया कि पुलिस के पास तलाशी वारंट नहीं था.
पुलिस ने बाबू को बताया कि यह तलाशी एल्गार परिषद और भीमा कोरेगांव मामले के संबंध में है. पुलिस की टीम नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों की गिरफ्तारी का जिक्र कर रही थी जिन पर 1 जनवरी 2018 को महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में जातीय हिंसा की घटना में शामिल होने और एक दिन पूर्व एल्गार परिषद के आयोजन पर एक सामूहिक सार्वजनिक बैठक करने का आरोप लगा है. इस मामले में विभिन्न राज्यों के पुलिस अधिकारियों ने इसी तरह के छापे मारे हैं, जिनमें हैदराबाद में अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय परिसर के शिक्षक सत्यनारायण के घर और एक पादरी तथा आदिवासी-अधिकार कार्यकर्ता स्टेन स्वामी भी शामिल हैं.
कारवां के मल्टीमीडिया संपादक शाहीन अहमद और बुक एडिटर माया पालित ने बाबू से छापे और उसके बाद की घटनाओं के बारे में बातचीत की. बातचीत में जाति-विरोधी आंदोलनों और जेल में बंद प्रोफेसर जीएन साईबाबा के बचाव के लिए बनी समिति में बाबू की भूमिका पर भी बात हुई. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीएन साईबाबा को मई 2014 में माओवादियों के संबंध होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था और तीन साल बाद आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. देश भर में व्यापक स्तर पर शिक्षाविदों पर हो रहे हमलों के परिप्रेक्ष्य में बाबू ने घर पर पड़े छापे पर कहा, "मुझे लगता है कि यह कोई अलग-थलग घटना नहीं है, क्योंकि इस का मकसद ऐसा माहौल बनाना है जिसमें समाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों में सक्रिय लोगों के खिलाफ नकारात्मक छवि तैयार हो. यह तो लंबे समय से चल रहा है.”
शाहीन अहमद : 10 सितंबर को आपके घर में क्या हुआ था क्या आपको इसकी जानकारी पहले से थी?
हनी बाबू : 10 सितंबर को एक टीम सुबह सुबह मेरे घर में आई और सोते से मुझे जगा दिया. यह लोग स्थानीय पुलिस के थे और इनके साथ पुणे पुलिस के लोग भी थे. उन्होंने कहा कि वह मेरी घर की तलाशी लेना चाहते हैं, पूणे में दर्ज एक मामले कि सिलसिले में यह मामला एल्गार परिषद भीमा कोरेगांव मामला है. उन्होंने मुझसे पूछा क्या मैं इस मामले के बारे में जानता हूं. मैंने उनसे कहा कि मैं इस केस के बारे में पूरी तरह से तो नहीं जानता लेकिन यह जरूर जानता हूं कि कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया है. उन्होंने कहा कि उन्हें मेरे घर की तलाशी लेनी है. फिर इन लोगों इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, मेरे लैपटॉप, मोबाइल और कई पेन ड्राइवें, हार्ड ड्राइव जब्त कर लिया और मेरे ईमेल खातों को लॉक कर दिया. साथ ही उनकी नजर मेरी किताबों में भी गई. वे लोग किताबों के मेरे सेल्फ की सभी किताबों के शीर्षकों की जांच कर रहे थे. उस तरह की जांच नहीं थी कि लोग मेरे सभी बैगों की जांच करते और देखते कि क्या मैं कोई चीज छुपा रहा हूं. स्पष्ट था कि उन लोगों की दिलचस्पी किन्ही खास तरह की किताबों और इलेक्ट्रॉनिक सामग्री मे थी.
इसके अलावा, जिन पुस्तकों को उन्होंने अलग रखा था, उनमें से दो जीएन साईबाबा के लिए बचाव समिति से जुड़ी थीं. हमने कुछ पुस्तिकाएं निकाली हैं. एक एन वेणुगोपाल की अंडरस्टैंडिंग माओइस्ट्स, दूसरी थी यलवर्ती नवीन बाबू की वर्णा टू जाति : पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ कास्ट इन इंडियन सोशल फॉर्मेशन. मुझे आश्चर्य हुआ कि वे इन्हें क्यों ले रहे हैं, तब मुझे महसूस हुआ कि नवीन बाबू एक जाना माना नाम है इसलिए यह बहुत स्पष्ट है कि वे ऐसी किताबों की तलाश में थे जो मुझे एक खास तरह से दर्शाए. मैं इसका विरोध कर रहा था और कह रहा था, "आप इसकी फोटो क्यों नहीं ले रहे हैं. मेरे पास जो किताबें हैं उनकी सूची क्यों नहीं बना रहे है? आप इन्हीं दोनों किताबों को क्यों अलग कर जब्त कर रहे हैं. वे प्रतिबंधित किताबें नहीं हैं, वे बाजार में उपलब्ध हैं. बचाव समिति की पुस्तिकाओं का हमने स्वतंत्र रूप से वितरण किया, इसलिए आप इन्हें क्यों ले जा रहे हैं?” यह बहुत स्पष्ट था कि वे क्या करना चाहते थे.
माया पालित : आपको निशाना बनाए जाने की वजह क्या होगी? क्या साईबाबा बचाव समिति के सदस्य के रूप में आपके पिछले कामों से इसका कुछ लेना-देना है?
हनी बाबू : मुझे लगता है कि यह एक अलग-थलग चीज नहीं है क्योंकि यह पूरी तरह से सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों, खासकर विचारधारा के क्षेत्र में सक्रिया लोगों के खिलाफ नकारात्मक अभियान चलाने के लिए है. यह लंबे समय से चल रहा है. जाहिर है, यह डराने की रणनीति हैं. मैं उनसे कह रहा था, "यदि आप यह जानना चाहते हैं कि मैं क्या कर रहा हूं, तो मुझे यकीन है कि आप पर्याप्त रूप से निगरानी कर रहे हैं." इससे पहले ही पेगासस के बारे में खुलासा हो चुका गया था. (अक्टूबर के अंत में, खबर आई कि एक इजराइली कंपनी एनएसओ समूह, जो केवल सरकारी एजेंसियों और उससे जुड़ी हुई संस्थाओं के लिए ही काम करती है, ने भारत में पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर नजर रखने के लिए व्हाट्सएप पर पेगासस नामक एक स्पाइवेयर टूल डाला है.) लेकिन हम पहले से ही जानते थे कि निगरानी होगी.
अगर आप मेरा लैपटॉप और मोबाइल फोन जब्त करते हैं, तो मैं कहूंगा कि यह एक डराने वाली बात है. यह ठीक है क्योंकि वे जानते हैं कि आप एक अकादमिक को कैसे पंगु बना सकते हैं, क्योंकि पिछले दो-तीन महीनों से शिक्षण या शोध सामग्री तक पहुंच के बिना, मैं जिस कठिनाई से गुजर रहा हूं, यह वास्तविक कैद से भी बदतर है. अगर उन्होंने मुझे एक सप्ताह, दो सप्ताह, एक महीने के लिए बंद कर दिया होता और तब यह छापा मारते तो बेहतर होता. यह बहुत स्पष्ट है कि वे शिक्षाविदों पर हमला कर रहे हैं. स्पष्ट रूप से यह लोगों को डराने और चुप कराने की योजना है.
मैं जिस तरह का काम कर रहा हूं, जाहिर है कि इसका कोई लिंक होना चाहिए, क्योंकि वे लोगों को बेतरतीब ढंग से नहीं चुनते हैं. मैं भेदभाव, सामाजिक न्याय, आरक्षण से जुड़े मुद्दों पर काम करता हूं. लेकिन मुझे यकीन है, बस इस वजह से ही राज्य एजेंसियों का ध्यान नहीं खींचा होगा. इसलिए, स्पष्ट रूप से एक प्रकार का संदेश भेजा जा रहा है : आपको इस बात से सावधान रहना होगा कि आप किस तरह की गतिविधियों से जुड़े हैं.
आरक्षण के अलावा एक अन्य मुद्दा है जिस पर मैं काम कर रहा हूं. वह शिक्षा और शिक्षा-नीति में बदलाव से जुड़ी है. जब दिल्ली विश्वविद्यालय में चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम शुरू करने का प्रयास किया गया था तो हममें से कुछ ने इसका सक्रिय विरोध किया था. हम उसमें सफल रहे. इसलिए मेरे बहुत से दोस्तों को भी ऐसा ही लगता है. शिक्षा नीति को खत्म न भी किया जा सके तो भी इसे हटाने की कोशिश तो की ही जा रही है. राज्य विश्वविद्यालयों को दरकिनार किया जा रहा है और शिक्षा के प्रभाव को कम किया जा रहा है और शायद आरक्षण को खत्म किया जा रहा है. ये सब चीजें होने वाली हैं. बहुत सारे बदलाव आने वाले हैं इसलिए हो सकता है कि यह शिक्षाविदों के लिए सबक की तरह हो. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अकेले मुझ पर हमला हो रहा है. अगर आप विश्वविद्यालय में काम करते हैं और किसी तरह का राज्य की नीति का विरोध करते हैं, तो आपको निशाना बनाया जा सकता है.
मैं अब यह देख सकता हूं कि विश्वविद्यालय में मेरे कई सहकर्मी और दोस्त कुछ भी करने से पहले दस बार सोचते हैं. पहले वे राज्य की नीति के खिलाफ खुलकर बोलते थे. अगर कुछ बदलाव होता था तो खुलकर अलोचना करते थे. अब वे सोचते हैं, "आखिरकार, हम सरकारी कर्मचारी हैं." सरकारी कर्मचारी होने की यह अवधारणा पहले विश्वविद्यालय के शिक्षकों के लिए नहीं थी, जबकि अब ऐसा है. "क्या हम सरकार की आलोचना कर सकते हैं?" अब उन्हें उन नियमों के अधीन लाया जा रहा है जो सिविल सेवा (सीसीएस) के नियम हैं, जो सिविल सेवकों को नियंत्रित करते हैं. दरअसल, विश्वविद्यालय के शिक्षक इससे बंधे नहीं हैं. इसका मूल रूप से यह अर्थ होगा कि आप राज्य का विरोध नहीं कर सकते.
अगर छापे एल्गार परिषद या भीमा कोरेगांव के बारे में थे, तो मुझे यकीन है कि जो अधिकारी आए थे उन्हें अच्छी तरह से पता था कि बैठक की तैयारी के दौरान या बैठक के बाद की तस्वीर में मैं कहीं नहीं था. मैंने किसी भी बैठक में भाग नहीं लिया और न ही किसी के साथ पत्र-व्यवहार किया. मैंने कुछ भी तो नहीं किया. मुझे यकीन है कि वे यह जानते हैं. कुछ लोगों के साथ, जिन्हें गिरफ्तार भी किया जा चुका है, मेरा एकमात्र संबंध यह है कि मैं बचाव समिति की गतिविधियों में शामिल हूं. यही कारण है कि उन्होंने मुझसे पूछा, "क्या आप सुरेंद्र गडलिंग को जानते हैं?" सुरेंद्र गडलिंग गिरफ्तार हैं. वह वकील भी हैं जो नागपुर में साईबाबा के मामले के प्रभारी थे. मैं उन्हें जानता हूं क्योंकि हम बचाव समिति का हिस्सा थे. मैंने उनसे बात की है और उन्हें एक या दो बार बुलाया है. मैं उनसे एक-दो बार नागपुर में भी मिला हूं. मैंने कहा हां. "क्या आप रोना विल्सन को जानते हैं?" रोना को मैं एक दोस्त के रूप में भी जानता हूं. मैंने कहा, “हां, मैं उसे जानता हूं.” इसके बाद उन्होंने कुछ नहीं कहा. उन्हें जानना ही काफी है. उन्हें जानने से, उनके साथ आपके सहयोग से, आप हमारे लिए एक संदिग्ध बन जाते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि उनके पास कुछ सामग्री है और मैं उनसे पूछता रहा, "कम से कम मुझे बताएं कि मैं किस तरह की सामग्री से जुड़ा हूं, मैं इससे कैसे जुड़ा हूं?" उन्होंने मना कर दिया, वे कहते रहे, "हमारे पास कुछ सामग्री है, लेकिन अब हम आपके रिकॉर्ड और दस्तावेजों और सभी कुछ जांचेंगे और देखेंगे कि क्या यह कुछ पुष्टि करता है. अगर कोई पुष्टि होती है, तो हम आपको गिरफ्तार कर सकते हैं. अभी हम आपको गिरफ्तार नहीं कर रहे हैं, आप केवल एक संदिग्ध हैं, आप एक आरोपी नहीं हैं." तो यह जुड़ाव का अपराध है.
कानून स्पष्ट है कि हमारे न्यायशास्त्र में जुड़ाव का अपराध जैसा कुछ नहीं है. जबकि जांच एजेंसियां इसी के आधार पर काम करती हैं. अगर वे मुझे सजा नहीं देना चाहते हैं, तो वे मुझे कम से कम एक कॉपी दे सकते थे या मुझे सामग्री की एक प्रति लेने की अनुमति दे सकते थे. वे मेरा लैपटॉप जब्त कर लेते लेकिन वे कम से कम सामग्री की कॉपी उपलब्ध करा सकते थे ताकि मैं काम कर सकूं? लेकिन वे ऐसा नहीं करना चाहते हैं. वे कहते रहे कि आप दो महीने में सामग्री प्राप्त कर सकते हैं. दो महीने गुजर चुके हैं. मुझे यकीन है कि अगर मुझे दो साल में भी यह मिल जाए, तो मैं खुद को भाग्यशाली समझूंगा.
माया पालित : इस बात का क्या कोई खतरा है कि जब आपको सामग्री वापस मिलेगी तो वे लोग ऐसी चीजें जोड़ देंगे जिन्हें सबूतों के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है? क्या आप इससे चिंतित हैं?
हनी बाबू : हां इसका डर तो उसी दिन से है. सभी मित्र यही कहते हैं कि जांच एजेंसियां ऐसा करती हैं. ऐसा नहीं है कि इसके बारे में पहले कभी नहीं सुना गया. फिर यह आप पर होता है आप साबित करें कि वह आपकी सामग्री नहीं है. प्रक्रिया ही आपके लिए सजा बन जाती है क्योंकि आपको यह साबित करने में सालों लग सकते हैं. जब उन्होंने सामग्री जब्त की तो वे बस उसे ले गए, निश्चित रूप से इसे सील और बाकी सब कुछ कर दिया गया था लेकिन बाद में मुझे एहसास हुआ कि उन्होंने मुझे हैश वेल्यू नहीं दिया है. (हैश वेल्यू वह संख्यात्मक मान है जो विशिष्ट रूप से डेटा की पहचान करता है. डेटा में कोई भी परिवर्तन इसके हैश वेल्यू में दिखाई देगा.) उस समय मुझे नहीं पता था, ऐसा नहीं है कि मैं उनके आने और इसे लेजाने का इंतजार कर रहा था. तो उन्होंने इसे जब्त कर लिया, लेकिन बाद में जब मैं दोस्तों और वकीलों से बात कर रहा था, तो उन्होंने पूछा कि क्या मुझे हैश वेल्यू दिया गया है. मुझे बताया गया था कि हैश वेल्यू यह दिखाएगा कि किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की गई है. क्या होगा अगर वे पहले से ही इसमें कुछ छेड़छाड़ कर देते हैं और फिर कह देते कि यह आपके डिवाइस में था? मैं उस संभावना को खारिज नहीं कर सकता. यह सबसे खराब स्थिति होगी. मजाक-मजाक में मैंने दोस्तों से कहा कि मेरे कंप्यूटर से हत्याकांड का पत्र मिले तो हैरान नहीं होना चाहिए. शायद अब वे कहेंगे कि मैं हथियार खरीद रहा हूं.
शाहीन अहमद : सामग्री के बिना काम करने की अपनी तकलीफों-चुनौतियों के बारे में बताएं. इस घटना के बाद छात्रों ने एकजुटता दिखाई या आपकी खिलाफत की? आपको कैसी प्रतिक्रिया देखने को मिली?
हनी बाबू : छात्रों, विभागीय लोगों और सहकर्मियों ने तुरंत एकजुटता दिखाई. जब यह हुआ, मैंने अपने सहयोगियों से कहा कि मैंने अपनी सामग्री खो दी है, वर्कशीट नहीं हैं. फिर उनमें से कुछ ने अपने आप ही पिछले बैचों के लोगों से संपर्क किया और उनके पास जो प्रतियां थीं वह उनसे लीं. भारी समर्थन मिला है. मैंने कभी इसकी उम्मीद नहीं की थी, क्योंकि जब ऐसा हो रहा था, तो अगले दिन मैं बस बैठा रहा, मैं जो भी आ रहा था उससे बात कर रहा था. लेकिन अचानक लोगों ने कहा कि छात्र समर्थन में आगे आ रहे हैं. मैंने इस तरह का अनुमान नहीं लगाया था.
विभाग, मेरे सहयोगियों या दोस्तों का रवैया बिल्कुल भी नकारात्मक नहीं रहा. लेकिन मुझे बताया गया कि खास विचारधारा, विशेषकर दक्षिणपंथी समूहों से संबंधित कुछ शिक्षकों ने प्रेस वक्तव्य दिए हैं. मैंने यह नहीं देखा, लेकिन कुछ दोस्तों ने मुझे बताया कि कुछ हिंदी अखबारों ने यह कहते हुए रिपोर्ट छापी है कि इस डीयू शिक्षक समूह ने कहा है कि अंग्रेजी विभाग का पाठ्यक्रम वामपंथी, अतिवादी है, क्योंकि हमारे यहांं एक पेपर जाति व्यवस्था पर था.
दिलचस्प बात यह है कि जाति के पेपर को भी बदलना पड़ा था. उन्होंने हमें ऐसा करने के लिए मजबूर किया. इसे वास्तव में एक कोर पेपर के रूप में प्रस्तावित किया गया. इसे अंग्रेजी शिक्षकों के सामान्य निकाय में पारित किया था, इसे पाठ्यक्रमों की समिति द्वारा पारित किया गया था, इसे अकादमिक परिषद द्वारा भी पारित किया गया था. लेकिन इसके पारित हो जाने के बाद, एबीवीपी के छात्रों ने हमारे विभागाध्यक्ष का घेराव किया, उन्होंने विभागाध्यक्ष को यह आश्वासन देने के लिए मजबूर कर दिया कि वे इसे बदल देंगे. यह डराने जैसा था. उन पर हमला किया गया और आखिरकार पारित होने के बावजूद एसी, वीसी, सभी ने कहा, ठीक है, आप इसे रख सकते हैं लेकिन इसे एक वैकल्पिक पेपर बना दिया. बहुत सारी बातें बदलने के लिए मजबूर किया गया. तो जो हो रहा है वह बहुत स्पष्ट है : अब वैधानिक निकाय तय नहीं करते हैं, अब बाहुबली या गुंडे तय करते हैं कि क्या सिखाया जाएगा. यह अंग्रेजी विभाग और इतिहास विभाग में हुआ. दो विभाग के जो पाठ्यक्रम स्वीकृत किए गए थे उन्हें बदलना पड़ा. इस प्रकार के शैक्षणिक समूहों, राज्य एजेंसियों के बीच एक स्पष्ट सांठगांठ है (यह सुनिश्चित करने के लिए) कि किसी भी प्रकार की ऐसी सोच, जो तथाकथित ब्राह्मणवादी सोच पर सवाल उठाती है, उसे दबा दिया जाएगा.
इस छापे के बाद, मैंने भीमा कोरेगांव मामले का अध्ययन किया. मामले की चार्जशीट में एक दिलचस्प बात यह है- मुझे नहीं पता कि पुलिस वास्तव में यह कैसे कहती है - इस पूरी घटना को उन्होंने दलित समूहों और वामपंथी समूहों के बीच के गठजोड़ के रूप में चित्रित किया है. आरोपपत्र वास्तव में यह कहता है कि वामपंथी दल और दलित समूह मिलकर आरएसएस के ब्राह्मणवादी एजेंडे को चुनौती दे रहे हैं. अदालत में, सरकारी वकील ने जो बाते कहीं वे हैं : "वे फासीवाद-विरोधी मोर्चा बना रहे हैं." अगर यहां फासीवाद-विरोधी मोर्चा है, तो उन लोगों की प्रशंसा की जानी चाहिए, यह अच्छी बात है कि ऐसा मोर्चा एक लोकतांत्रिक देश में सामने आ रहा है. लेकिन राज्य इसे खतरे के रूप में देखता है.
इस पूरे प्रकरण के बाद, मुझे लगता है कि दो चीजें काफी सफल रहीं. एक तो यह कि शिक्षाविद खतरा महसूस करने लगे. लेकिन इससे भी अधिक यह कि अब तक अगर विभिन्न समूहों के बीच किसी भी प्रकार का तालमेल बैठ रहा था, जैसे कि वामपंथी दल, दलित समूह, मुस्लिम समूह, तो अब हर कोई डरा हुआ है. जैसा कि मैंने बताया, मैं ऐसे समूहों के साथ काम करता हूं जो दलित राजनीति, आरक्षण के मुद्दे, राजनीतिक कैदी के मुद्दों पर काम करते हैं, इसलिए अब मेरे कई दोस्त जो सामाजिक-न्याय मंच में हैं, ने कहा है कि अगर आप अन्य प्रकार की गतिविधियों से जुड़ते हैं तो यह खतरनाक होगा. आपको ऐसा नहीं करना चाहिए. अगर आप कश्मीर के बारे में किसी बैठक में भाग लेते हैं तो आप पर तुरंत ठप्पा लगा दिया जाएगा और आप चिह्नित हो जाएंगे. आप किसी भी समय हमले का शिकार बन सकते हैं. इस तरह का खतरा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है.
मुझे लगता है कि आखिरकार, ज्यादातर लोग सड़कों पर आने के बजाय अपने अध्ययन कक्षों के सुकून भरे, आरामदेह माहौल में काम करने से खुश हैं. लेकिन मेरे एक मित्र ने कहा कि जब आपातकाल घोषित किया गया था तब इंदिरा गांधी आश्चर्यचकित थीं कि बुद्धिजीवी वर्ग ने हाथ खड़े कर लिए. उन्होंने कभी इसकी उम्मीद नहीं की थी. उन्होंने यह खुद कहा था. आमतौर पर शिक्षाविद सामने नहीं आते. देर से सही, हम कई शिक्षाविदों को आवाज उठाते देख रहे थे क्योंकि आप जिस तरह के अन्याय को चारों ओर देखते हैं, यह बहुत ज्यादा है. लेकिन अब, अचानक एक स्पष्ट बात सामने आती है, जहां लोग कहते हैं, "ठीक है, चलो, इस सब पर ध्यान न दो, वापस अपने अकादमिक काम करो." लेकिन मुक्त सोच के बिना कोई शैक्षणिक कार्य नहीं होता है. आप अपने विचारों पर अंकुश लगाकर किस तरह का शैक्षणिक कार्य कर सकते हैं? यह एक दुखद स्थिति है.
शाहीन अहमद : नागरिक-अधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी की कुछ आलोचना या निंदा तो हुई लेकिन बावजूद इसके कोई आंदोलन नहीं हुआ. क्या यह डर का लक्षण है या कुछ और ही बात है?
हनी बाबू : संसद मार्ग, जंतर-मंतर जैसी जगहों पर दो-तीन बैठकें हुईं जिनके बारे में मुझे पता है. लेकिन हां, ऐसा नहीं है कि कोई जन आंदोलन या निरंतर गतिविधि हुई हो. मेरे घर में हुई छापेमारी के बाद भी, कला संकाय में इस बारे में बैठकें हुई हैं जिसमें छात्र समूहों के साथ कई लोग शामिल हुए. ऐसे लोग अभी भी हैं. लेकिन एक वक्त था जब हम सवाल करते थे कि अगला नंबर किसका होगा? जब हमारे कुछ दोस्त गिरफ्तार हो गए, तो हमने साफ तौर पर ऐसा महसूस किया. जब मेरे घर पर छापा मारा गया और चीजों को जब्त कर लिया गया, तो कई दोस्तों ने कहा, "अगला, नंबर हमारा हो सकता है." इस तरह की भावना तो है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि लोग झुक गए हैं और हाथ खड़े कर लिए हैं. लोग अभी भी आवाज उठा रहे हैं, उनके भीतर प्रतिरोध की चेतना है, लेकिन डर हावी हो रहा है.
शाहीन अहमद : संसद में भी नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ कई तरह की बातें बोली गईं: "राष्ट्र-विरोधी," "अर्बन नक्सल," "टुकड़े-टुकड़े गैंग," आदि. नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं को एक खतरे के रूप में दिखाने वाली इन बातों के बारे में आप क्या सोचते हैं?
हनी बाबू : मुझे लगता है कि इस तरह की तोहमत लगाना, किसी को बदनाम करने का सबसे आसान तरीका है. यहां तक कि कभी-कभी अदालती फैसलों में, आपको राष्ट्र-विरोधी जैसे शब्द मिलते हैं, हालांकि "राष्ट्र-विरोधी" होने में ऐसा कोई अपराध नहीं है. भारतीय दंड का कोई भी अनुभाग या कहीं भी ऐसा नहीं है जो राष्ट्र-विरोधी के बारे में कुछ कहता हो. अगर आप राष्ट्रगान बजने के बाद खड़े नहीं होते हैं, तो आपको राष्ट्र-विरोधी करार दिया जाता है. जाहिर तौर पर इसका एक तरह का असर है, खासकर जब लोग राय जाहिर करते हैं- वे जानते हैं, "अगर मैं यह कहूंगा, तो मैं राष्ट्र विरोधी हो जाऊंगा?" जो लोग ऐसा करते हैं, पहले तो उनके पास कोई स्पष्ट तार्किक बात नहीं होती है कि क्यों कोई बात राष्ट्र-विरोधी है या इस बात का क्या अर्थ है.
ऐसा कहने वाले लोग बिना कुछ समझे बस बोलते रहते हैं. जब आप किसी को राष्ट्रविरोधी कहते हैं तो उसकी परिभाषा क्या है? क्या इसका मतलब यह है कि अगर आप कुछ चीजों पर सवाल उठाते हैं तो आप राष्ट्र-विरोधी हो जाएंगे? राष्ट्र को कौन परिभाषित करता है? ये ऐसी चीजें हैं जिन पर बहस होनी चाहिए. लेकिन ऐसा करने वाले लोग इस मुद्दे को सामने नहीं लाना चाहते हैं. इसलिए उनके पास आसान तरीके हैं, जहां वे आपको जकड़ सकते हैं. उन्हें लगता है कि अलग-अलग तरह की सोच को रोकने के लिए यह सबसे आसान तरीकों में से एक है. यह पूछे जाने की जरूरत है, क्योंकि ऐसा नहीं है कि कोई राष्ट्रवादी होने के लिए बाध्य हो, वह किसी राष्ट्र के भीतर हो सकता है और राष्ट्र की किसी विशेष परिभाषा से सहमत नहीं हो. मुझे लगता है कि यही वह मूल चीज है जिसको वे जांचना चाहते हैं : अगर आप देश को ब्राह्मणवादी आधिपत्य के आधार पर बनाना चाहते हैं तो जाहिर है यह उपयुक्त बात नहीं है. हम अपने आस-पास यही देख रहे हैं.
संविधान हमें कभी भी गुलाम बनने के लिए नहीं कहता है. संविधान एक दस्तावेज है जो स्वतंत्र सोच को बढ़ावा देता है. स्वतंत्र सोच का मतलब अराजकता नहीं है. संविधान का सम्मान करते हुए, यह आपको इससे आगे जाने की अनुमति देता है.
माया पालित: आपने वाम और जाति-विरोधी आंदोलनों के बीच एकजुटता के डर के बारे में बोला है. क्या आपको लगता है कि भीमा कोरेगांव के बाद की घटनाओं ने नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं को बदनाम किया और जाति-विरोधी आंदोलनों को कमजोर बनाया है?
हनी बाबू : मैं ऐसा इंसान हूं जो बड़ी एकजुटता की तलाश में है, हालांकि यह आसान नहीं है. रोहित वेमुला की घटना एक खास मिसाल है जिसमें वामपंथी, दलित-बहुजन और यहां तक कि अल्पसंख्यक मुस्लिम आंदोलन एकसाथ आया था. राज्य के हस्तक्षेप नहीं होने के बावजूद उसमें भी समस्याएं थीं. लेकिन जब इस तरह की बड़ी एकजुटता कायम हो रही थी तो राज्य ने खतरा महसूस किया था क्योंकि यदि आप चार्जशीट या तथाकथित पत्रों को देखें, जिन्हें उन्होंने प्रचारित किया, तो इस तरह की तस्वीर बनाई गई कि एबीवीपी और बीजेपी के अलावा, सभी एक-दूसरे से हाथ मिला रहा हैं और हर कोई राज्य के तुकड़े करने की बात कर रहे हैं.
साफ था कि राज्य को खतरा महसूस हुआ. साथ ही मैं यह नहीं कहता कि एकजुटता आसान बात है क्योंकि जब ये ताकतें एक साथ आती हैं तो होता यह है कि वे जिन मूलभूत मुद्दों पर साथ आते हैं, वे एक अलग प्रकृति के होते हैं. उदाहरण के लिए, जाति-विरोधी समूहों के लिए, समानता का संघर्ष अभी भी एक अधूरा कार्यभार है, जिसके मायने हैं कि रोजगार, शिक्षा के लिए समान अवसर प्राप्त करना, उनके साथ भेदभाव नहीं किया जाना. यह अल्पसंख्यक और दलित-बहुजन समूहों के लिए सबसे बड़ा संघर्ष है. वाम समूहों के लिए, जो कुल मिलाकर उच्च-जाति की ताकतों द्वारा संचालित हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मुद्दे बड़े मुद्दा हैं.
मुझे लगता है कि रोहित वेमुला की घटना थोड़ी अलग थी क्योंकि यहां दलित-बहुजन छात्र समूह वास्तव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अन्य हक-हकूकों के लिए खड़े थे. इसके बावजूद, यह राष्ट्रव्यापी छात्र आंदोलन के रूप में विकसित नहीं हुआ. यह कुछ हद तक विकसित हुआ, लेकिन तुरंत इन समूहों के बीच दरारें दिखाई पड़ने लगीं.
मैं एकजुटता की तलाश करता हूं लेकिन मुझे वास्तव में इस पर संदेह है. जब तक कि सोच में कोई बड़ा बदलाव न हो यह नहीं हो सकता. यहींं पर मैं अपने कई दोस्तों से खुद को अलग पाता हूं. अक्सर ही मैं आरक्षण समर्थक बैठकों और राजनीतिक बंदियों या कश्मीर से संबंधित संघर्षों में जाया करता था. इन विभिन्न समूहों में मेरे विभिन्न प्रकार के मित्र हैं. कभी-कभी मैं सोच में पड़ जाता हूं कि मुझे खुद को कहां रखना चाहिए? पहली बार मैंने देखा कि रोहित वेमुला की घटना के बाद लोगों ने एक साथ बैठकें कीं. फिर, एल्गार परिषद में मैं देखता हूं कि जाति-विरोधी समूहों को अन्य समूहों सावधान कर रहे हैं और कह रहे हैं, "अगर हम वहां जाते हैं, तो हमें राष्ट्र-विरोधी या नक्सली या इसी तरह से समझा जाएगा." यह एक बड़ी समस्या है.
लेकिन यह केवल राज्य के हस्तक्षेप के चलते नहीं है. राज्य ने साफ तौर पर एक उत्प्रेरक का काम किया है लेकिन पहले भी दरारें और मतभेद थे. हम हमेशा एकजुटता के लिए संघर्ष कर सकते हैं. मुझे लगता है कि बड़ी एकजुटता के बिना व्यापक आंदोलनों का होना संभव नहीं है. नहीं तो हर समूह अपने-अपने इलाकों में संघर्ष कर रहा होगा. बड़ी एकजुटता का निर्माण करना होगा. मुझे लगता है कि यह एक महत्वपूर्ण कवायद है जिसे किया जाना चाहिए.
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