2019 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत को जाति की राजनीति पर राष्ट्रवाद की राजनीति की जीत की तरह परिभाषित किया जा रहा है. बीजेपी यह बता रही है कि वह राष्ट्रवाद की विचारधारा को मानती है जो विभिन्न अंतरविरोधों को पाटने में सक्षम है. यह दावा कितना सही है? इसे समझने के लिए स्वतंत्र पत्रकार एजाज अशरफ ने दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर सतीश देशपांडे से बात की. देशपांडे ने जाति पर विस्तृत शोध किया है. उनका मानना है कि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी का सत्ता में आना भारतीय राजनीति में “नेहरू युग की वापसी” है क्योंकि नेहरू युग सत्ता में ऊंची जातियों के वर्चस्व का युग था.
एजाज अशरफ: 2019 के चुनाव परिणामों का असर जाति की सियासत पर क्या दिखाई दे रहा है, खासकर हिंदी पट्टी में?
सतीश देशपांडे: अकादमिक अध्ययन पुनरावलोकन पद्धति से होता है. इस लिहाज से 2019 के लोकसभा चुनावों के असर को थोड़े समय बाद समझ पाएंगे. इसके बावजूद मैं यह कहना चाहूंगा कि जाति की सियासत में भूमिका परिपक्व हो रही है, वह ज्यादा धारदार हो रही है.
अशरफ: मीडिया में जिस तरह से बताया जा रहा है उसके उलट जाकर आप कह रहे हैं कि जाति अभी सियासत में जिंदा ही नहीं सक्रिय भी है?
देशपांडे: जी हां बिल्कुल ऐसी ही बात है और यदि ऐसा नहीं है तो यह बड़ी चौंकाने वाली बात होगी क्योंकि जाति हमारे समाज को आकार देती है और जो चीज समाज के लिए महत्वपूर्ण है वह राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण होगी ही. लेकिन आधुनिक भारत में, खासकर उसकी राजनीति में जाति को व्यवस्थित तरीके से गलत रूप में पेश किया गया है. मीडिया में यही दिखाई दे रहा है.
अशरफ: गलत प्रस्तुति से आपका क्या तात्पर्य है?
देशपांडे: अधिकांश राजनीतिक चर्चाओं में जाति का मतलब नीची जातियों से होता है. ऐसा दिखाया जाता है कि जैसे ऊंची जातियां जातिवाद से मुक्त हैं बावजूद इसके कि इनको मिलने वाले जातीय लाभ जारी हैं. स्वतंत्र भारत में जाति व्यवस्था का यही एक हिस्सा अधिक दिखाई देता है, जबकि दूसरा हिस्सा अदृश्य है. ऊंची जातियों ने अपनी उपस्थिति की दृश्यता को नियंत्रित रखा है. जबकि नीची जातियों की उपस्थिति हाइपर विजिबल (अति गोचर) है. यह इसकी गलत तस्वीर है जो व्यवस्थित तरीके से बार-बार दिखाई जाती है.
अशरफ: इस गलत प्रस्तुतीकरण की शुरुआत कैसे हुई?
देशपांडे: वास्तव में, भारत की आजादी अंग्रेज संभ्रांतों से भारतीय संभ्रांतों को सत्ता का हस्तांतरण था. यह क्रांति नहीं थी. हमें आजादी मिली लेकिन कोई बड़ा सामाजिक या आर्थिक ढांचा परिवर्तन नहीं हुआ. चूंकि आजादी के आंदोलन को मुख्य रूप से ऊंची जातियों ने नेतृत्व दिया था इसलिए सत्ता पर उनकी दावेदारी को चुनौती नहीं मिली.
कानूनी तौर पर जातीय भेदभाव को खत्म कर दिया गया लेकिन ऐसा व्यवहार में नहीं हुआ. जाति एक सामाजिक बुराई मात्र नहीं है, जैसा कि अक्सर बताया जाता है, यह एक सामाजिक व्यवस्था है यानी जीने का तरीका. इसलिए जीने के तरीके को बदलना तब तक मुमकिन नहीं है जब तक इसके आधार को खत्म नहीं किया जाता. जीने का तरीका केवल हमारे दिमाग की चीज नहीं है. इसका मजबूत भौतिक आधार होता है. इसलिए जाति जीवित है और एक जैविक वस्तु की तरह व्यवहार करती है. हम जीवन पद्धति के रूप में जाति को खत्म नहीं कर सके. हम इसे केवल रूप में खत्म कर पाए हैं.
अशरफ: क्या नेहरू युग में जाति को खत्म करने के प्रयास शुरू हुए थे?
देशपांडे: जी हां जाति का औपचारिक खात्मा नेहरू के युग में हुआ. उस वक्त जो भी जाति की बात करता था उसे पिछड़ा समझा जाता था. लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जाति ने काम करना छोड़ दिया था. इसका प्रभाव कम नहीं हुआ था. मुख्य रूप से ढांचागत गैर बराबरी जारी थी. फिर कुछ दशकों बाद गैर बराबरी और बहिष्करण ने ऐसा आकार ले लिया कि राजनीति में इसे खारिज नहीं किया जा सकता था. इसलिए 1990 में मंडल का विस्फोट हुआ. जाति के सवाल पर नेहरूवादी खामोशी को, इससे पहले भी 1970 के दशक में दलित पैंथर और ग्रामीण भारत में जातिवादी अत्याचार और नरसंहार की खबरों ने तोड़ा था. इसका यह अर्थ नहीं है कि पहले जातिवादी अत्याचार नहीं हो रहे थे. लेकिन इन्हें पहले उपद्रव की तरह देखा जाता था लेकिन अब उसे एक नाम मिल गया थाः “जातीय अत्याचार”.
लेकिन प्रभुत्वशाली जातियों के गठजोड़ ने यह भ्रम बनाए रखा की जाति की बुराई दूरदराज के गांवों तक सीमित है. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि तथाकथित विचारवान भारतीय जो अधिकतर ऊंची जाति का होता था वह जाति को नहीं देख पा रहा था, खासकर स्वयं की जाति को.
अशरफ: क्या राजनीति का सच भी यही है?
देशपांडे: निश्चित तौर पर. नेहरू युग के अध्ययन से पता चलता है कि उस दौर में अधिकांश मुख्यमंत्री ब्राह्मण थे. इसके बारे में कहा जाता था कि ऐसा परिस्थितवश है. लेकिन यह भी उतना ही सच है वाम से लेकर दक्षिणपंथी तक, सभी राजनीतिक दलों का नेतृत्व मुख्य रूप से ब्राह्मण कर रहे थे. इसलिए राजनीति में जाति हमेशा से उपस्थित रही है.
दबंग या प्रभुत्वशाली जाति शब्द उस खास मानसिकता को दर्शाता है जिसके बारे में मैं बात कर रहा हूं. ऐसा नहीं है कि कुछ जातियां पहले प्रभुत्वशाली नहीं थीं लेकिन पहले राजपूत, ब्राह्मण और अन्य दबंग जातियां को अपने प्रभुत्व के नामकरण की जरूरत नहीं थी. “गलत लोगों” के सत्ता में आने के बाद दबंग जातियों को यह नाम ग्रहण करने की जरूरत आ पड़ी.
अशरफ: क्या “गलत लोग” से आपका तात्पर्य 1960 की हरित क्रांति के बाद पिछड़ी जातियों के राजनीतिक ताकत बन जाने से है?
देशपांडे: जी हां. हमारी राजनीति के परिपक्व होने की प्रक्रिया तब शुरू हुई जब इस बात का आभास हुआ कि जनता का शासन है. यानी कम से कम इस बात का कि जनता तय करती है कौन शासन करेगा. हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी निचली जातियां हैं और 15 से 18 फीसदी वाली ऊपरी जातियां वास्तव में अल्पसंख्यक हैं. नेहरू काल की सफलता यह थी कि किसने अल्पसंख्यक ऊंची जातियों को बड़ी संख्या की निचली जातियों पर शासन की पुरानी परंपरा को बनाए रखा हालांकि इसने आधुनिक लोकतंत्र के आवरण में ऐसा किया. राज्य स्तर पर जनता यह पूछने लगी कि सत्ता पर ऊपरी जाति के चंद लोग ही विराजमान हैं. लोग सवाल करने लगे कि सरकार किसकी है? जनता कौन है? और देश किसका है?
1960 और 70 के दशक में बिहार में कर्पूरी ठाकुर, कर्नाटक में देवराज उर्स और गुजरात में माधव सिंह सोलंकी जैसे चतुर, मेहनती और सक्षम नेताओं ने ये सवाल उठाए. देखा जाए तो यह वह क्रांति थी जो आजादी के समय नहीं हो सकी थी. इसके बावजूद इस राजनीति को राष्ट्र के केंद्र में आने में दो दशक और लगे जब 1990 में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू हुआ.
जब हम इस तरह की बात सुनते हैं की जाति से राजनीति बर्बाद हो रही है तो इसका संदर्भ मंडल दौर से होता है जिसमें ओबीसी दो-तीन दशक तक देश को चला रहे थे. मंडल दौर जातीय राजनीति का चेहरा था. जब ओबीसी जातियां सत्ता में आईं तो उन पर दबाव पड़ा. उनके बीच पहले से ही उपस्थित खाई- आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सत्ता में आने के बाद चौड़ी हो गई. इसी को परिपक्व होने की प्रक्रिया कहते हैं. अब केवल एक दलित या पिछड़ी जाति के नाम पर परिचालन करना संभव नहीं रहा है ये फुटकर समूह बन गए.
अशरफ: फुटकर से आपका क्या मतलब?
देशपांडे: प्रत्येक जाति में विभाजन होता है. यह विभाजन उप जातियों तक सीमित न होकर वर्ग, क्षेत्र या आजीविका के संसाधन या अन्य विषयों का होता है और यहीं से राजनीतिक ऊर्जा पैदा होती है. राजनीति विलय और विभाजन है. दलितों से महादलित श्रेणी का जन्म हुआ. अन्य पिछड़ा वर्ग से अति पिछड़ा समुदाय आया. बहुमत प्राप्त करने के लिए इन छोटे समूह और जातियों को उच्च स्तर पर मिलाना होता है और इसके लिए विलय और विभाजन आवश्यक होता है. जातिय राजनीति के परिपक्व हो जाने का अर्थ है कि छोटी-छोटी इकाइयों में बंट कर जाति अधिक शुद्ध रूप में सामने आ रही हैं.
अशरफ: इस संदर्भ में 2019 के चुनाव परिणाम क्या दर्शाते हैं?
देशपांडे: परिणाम साबित करते हैं कि बीजेपी तोड़ने और जोड़ने (विलच और विभाजन) में अधिक कामयाब रही. इसने बड़े समूह में अंतर्विरोध की पहचान की और जारी परिस्थिति से असंतुष्ट लोगों से वादे किए. बीजेपी ने परिस्थिति का बेहतर मूल्यांकन किया और अधिक शुद्ध, लक्षित रूप से जाति की राजनीति की. इसलिए यह कहना गलत होगा कि बीजेपी की जीत से यह साबित होता है कि जाति अब प्रासंगिक नहीं रह गई है. पुलवामा हमला और बालाकोट कार्रवाई बीजेपी की जीत के लिए प्रासंगिक थे. लेकिन यह कहना गलत होगा कि इन घटनाओं ने जाति को कमजोर कर दिया.
अशरफ: जाति हमारी राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा है. क्या राष्ट्रवाद जाति से अलग होता है?
देशपांडे: हमारे राष्ट्रवाद में जातिजन्य गैर बराबरी हमेशा रही है लेकिन औपचारिक तौर पर इसे खारिज किया जाता रहा है. मैं नेहरू काल का उत्पाद हूं. मेरे पिता एक स्टील संयंत्र में इंजीनियर थे जो पहले बिहार में आता था. इस संयंत्र के सभी इंजीनियर ऊंची जाति के थे और अधिकतर बिहार के बाहर से आए थे.
यदि 1960 में कोई कहता कि स्टील संयंत्र में काम करने वाले सभी पेशेवर लोग ऊंची जाति के हैं तो उस पर वैसे ही प्रतिक्रियाएं आतीं जैसी पुलवामा हमले में मरने वाले जवानों की जाति वाले कारवां में प्रकाशित आपके लेख पर आईं थीं. इसके खिलाफ एक गुस्सा था जो काफी हद तक ईमानदारी से प्रकट किया गया था.
आज यदि आप सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में जाति संरचना के बारे में लिखेंगे तो इस पर गौर किया जाएगा. 1960 और 70 के दशक में कोई समाचार पत्र ऐसी खबरों को प्रकाशित नहीं करता था क्योंकि तब स्टील संयंत्रों को आधुनिक भारत का मंदिर माना जाता था. नेहरूवाई राष्ट्रवाद ने जातिजन्य गैर बराबरी को बढ़ने दिया और साथ ही ईमानदारी से राष्ट्र निर्माण भी होता रहा.
सामूहिक तौर पर, हमें अपने जीवन को सहज रूप से जीने के लिए स्वयं को धोखा देना पड़ता है. इसलिए हम ईमानदारी से यह मानना चाहते हैं कि सही जगह पर सही लोग परिस्थितिवश ऊंची जाति के थे. यह कोई डिजाइन नहीं था और न इसका व्यवस्था से कोई लेना देना था. लेकिन यह भ्रम अनंत काल तक जारी नहीं रह सकता था.
अशरफ: आज राष्ट्रवाद कैसे काम कर रहा है? क्या हम आज भी खुद को धोखा दे रहे हैं?
देशपांडे: हां, सच तो यह है कि राष्ट्रवाद का निर्माण ही समाज में व्याप्त अंतरों और गैर बराबरी के बावजूद राष्ट्र को एक रखने के लिए किया गया है. लेकिन अलग-अलग संदर्भो के यह अधिक या कम नशीला होता है.
आज, भूमंडलीकरण के कारण राष्ट्रों का अपने अर्थतंत्र और समाजों पर नियंत्रण पहले से कम है. आज राष्ट्रीय निर्णय पहले के मुकाबले कम लिए जाते हैं. यह राष्ट्रवाद के विचार से मेल नहीं खाता. इसलिए राष्ट्र का विचार अधिक से अधिक अस्पष्ट और सवाल पूछे जाने से बचने के लिए अधिक से अधिक हठी और तीखा हो गया है. इसने कुतर्क का स्वरूप ग्रहण कर लिया है. जब भी कोई सवाल पूछता है तो उसका जवाब होता है “सियाचिन में हमारे जवान मर रहे हैं”. लक्ष्य होता है कि वाजिब सवालों को नारों की ऊंची आवाजों में दबा दिया जाए. तो आज का राष्ट्रवाद गैर बराबरी, जाति एवं वर्ग के विभाजन को और क्षेत्र और धर्म के विभाजन को अधिक तीव्रता से छिपा रहा है.
अशरफ: क्या पुलवामा में मरने वाले जवानों की जाति वाले लेख पर इसलिए हंगामा हुआ क्योंकि इसने सामाजिक विभाजन से पर्दा उठाया था?
देशपांडे: हंगामा बिलकुल इसीलिए हुआ था. राष्ट्रवाद को पवित्र माना जाता है और लेख में जाति जैसी एक गिरी हुई चीज को इससे जोड़ा गया था. यह गुस्सा इसी की प्रतिक्रिया थी. ऐसी प्रतिक्रिया सोचने से रोकती है. समाज हमें प्रतिक्रिया करना सिखाता है. लेकिन समय-समय पर हमें खुद को धोखे में रखना होता है. क्योंकि ऐसा न करने से सच्चाई का सामना करना कठिन हो जाता है. सवाल है कि किस कीमत पर? और कौन इसकी कीमत चुकाएगा? क्या इसकी कीमत वे लोग भी बराबरी से चुकाएंगे जो राष्ट्रवाद के नारे ऊंचे स्वरों में लगाते हैं?
अशरफ: आज राष्ट्रवाद की कीमत कौन चुका रहा है?
देशपांडे: मैं समझता हूं सभी लोग इसकी कीमत चुका रहे हैं. लेकिन इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकाने वाले या जो चुकाएंगे वे युवा लोग होंगे. सच कहूं तो बड़ी आबादी के लिए भविष्य अंधाकारमय है. इस अंधकार में रहना मुश्किल है.
अशरफः क्या राष्ट्रवाद इस कदर नशीला है कि लोग अपने वर्तमान और भविष्य के अंधकार को भुला देते हैं.
देशपांडे: हां. लेकिन यह कहना कि राष्ट्रवाद नशे के समान है इसका अर्थ होगा कि इसकी जरूरत नहीं है और इसे त्याग देना चाहिए. एक प्रकार से राष्ट्रवाद पानी की तरह होता है. आपको इसकी कुछ बूंदों की आवश्यकता होती है ताकि आप कठोर वास्तविकता का सामना कर सकें. समस्या तो तब आती है जब आप राष्ट्रवाद के जहरीले नशे में फंस जाते हैं और जब इसका इस्तेमाल भय और घृणा के निर्माण के लिए किया जाता है न कि विविधताओं में एकता स्थापित करने के लिए.
अशरफः बीजेपी का पितृ संगठन राष्ट्र स्वयंसेवक संघ में ब्राह्मणों का वर्चस्व है जो जाति की श्रेष्ठता पर विश्वास करते हैं? निचली जातियों को आकर्षित करने के लिए आरएसएस ने अपने दृष्टिकोण में क्या बदलाव किए हैं?
देशपांडे: सिर्फ आरएसएस को ही नहीं बल्कि साम्यवादियों सहित हर राजनीतिक विचारधारा को जाति के अपने परहेज को दूर करना पड़ा. 1990 तक आरएसएस अन्य जातियों को आकर्षित करने के लिए अपनी राजनीतिक शैली और भाषा में बदलाव लाने का इच्छुक नहीं था. इसका ब्राह्मण नेतृत्व ईमानदारी से मानता था कि वह सभी की भलाई के लिए काम कर रहा है और उन्हीं के पास देश को चलाने का सामर्थ्य है. वह ओबीसी और दलित राजनीति से वास्ता नहीं रखना चाहता था.
आरएसएस के इस रवैये को 1930 के दशक में उसमें आए रत्नागिरी और नागपुर लाइनों के विभाजन में देखा जाना चाहिए. रत्नागिरी या हिंदू महासभा लाइन का प्रतिनिधित्व वीडी सावरकर करता था. हिंदू महासभा हिंदू राष्ट्रवादी राजनीतिक संगठन था. इसके कट्टर विचार थे. यहां तक कि उसके विचार आरएसएस के लिए भी कट्टर थे. उसकी एकमात्र शर्त थी कि प्रत्येक बच्चे की जाति को जन्म के समय हिंदू घोषित किया जाए. वह मुस्लिम और खासकर ईसाइयों के कट्टर तौर पर खिलाफ था. यहां तक कि गांधी सहित अन्य लोगों से इतर वीडी सावरकर दलित और गैर दलितों के बीच अंतरजातीय विवाह का भी पक्षधर था. महाराष्ट्र के रत्नागिरी तट के बड़े मंदिरों के भीतर पवित्र स्थलों में दलितों के प्रवेश के लिए सावरकर ने आंदोलन चलाए. हिंदुओं को एक करने के लिए सावरकर जाति के खात्मे के लिए भी तैयार था. लेकिन नागपुर वाले निचली जातियों को बच्चों की तरह देखते थे जिनकी देखभाल का जिम्मा ऊपरी जाति पर था.
इसके बाद 1948 में गांधी की हत्या कर दी गई. इसके तार हिंदू दक्षिणपंथ से जुडे़ थे. महासभा और आरएसएस के पीछे राज्य पड़ गया. एक लंबे समय तक दोनों संगठन राजनीति से दूर रहे. जब राजनीति में वापसी हुई तब तक महासभा कमजोर हो चुकी थी. आरएसएस इसलिए उठ पाया क्योंकि वह कम कट्टर था. यह पारंपरिक संस्थाओं जैसे कि जाति, नातेदारी या पड़ोस में मनाए जाने वाले त्योहारों और मेल-मिलाप वाले कार्यक्रमों में शामिल हो सकता था. यह बहुत अधिक बदलाव की बात नहीं करता था और अपनी ऊंची जाति वाली संरचना को छिपाता नहीं था. वह चाहता था कि सभी लोग इसे अपना लें. उत्तर भारत की भाषा में कहें तो वह चाहता था कि सभी लोग अपनी-अपनी औकात के हिसाब से रहें.
दूसरी ओर भारत में ऐसे बहुत कम सार्वजनिक संगठन हैं जिसमें लोग सालों तक निस्वार्थ भाव से काम करते हों और पैसा न मांगे. कम्यूनिस्टों की भांति आरएसएस में भी ऐसे बहुत सारे लोग होते हैं. यह उनकी सांस्कृतिक पूंजी है जिसे वह अब निचली जाति के मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए कर रहा है. यह उन लोगों के लिए एक चुनौती है क्योंकि उनका आधार ऊपरी जातियों में है और उनके इतिहास के चलते जो चुनावी और लोकप्रिय राजनीति के प्रति उदासीन रही है.
अशरफः 2014 के बाद आरएसएस-बीजेपी की पंहुच निचली जातियों में इतनी अच्छी क्यों बन सकी?
देशपांडे: पहली बात तो यह कि आरएसएस केवल एक संगठन नहीं है. हालांकि अब उससे जुड़े चहरे एक दिखाई देने लगे हैं. जहां तक निचली जातियों का संबंध है उसके आरएसएस-बीजेपी के साथ हो जाने का कारण वही है जो ऊपर कहा गया था यानी बड़े जातीय समूहों को खंड-खंड कर सकना.
इसमें एक योगदान “मोदी इफेक्ट” का है जो निरंतर बदल सकने वाले मोदी और उनके व्यक्तित्व से जुड़ा है. 2014 से पहले कितने लोगों को पता था कि मोदी पारंपरिक रूप से तेल निकालने वाली घांची जाति के हैं. आज इस बात को सभी जानते हैं. आरएसएस से जुड़े होने के कारण उन्होंने पहले संघ में अपनी स्वीकारिता बनाई और फिर मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे और तीसरे कार्यकाल में उद्योगपतियों का समर्थन प्राप्त कर लिया.
अशरफः क्या मोदी की पिछड़ी पहचान ने बीजेपी आरएसएस को ओबीसियों में विस्तार करने में मदद की है?
देशपांडे: मुझे नहीं लगता कि मोदी की पिछड़ी जाति का बहुत मतलब है. ऐसा नहीं है कि वह अपनी जाति के हितों को बढ़ावा दे रहे हैं. इंदिरा गांधी के महिला होने भर से जेंडर राजनीति नहीं बदली. इंदिरा गांधी लिंगमुक्त (डीजेंडर्ड) महिला थीं और मोदी जाति से बाहर (डीकास्ट) के व्यक्ति हैं. मोदी के लिए आरंभ था, ऊंची जातियों में उनकी स्वीकारिता. इसके बाद उन्हें अंबानी, अडानी, टाटा और अन्य निवेशकों और उद्योगपतियों का समर्थन प्राप्त हुआ. इन चीजों को हटा दें तो मोदी कुछ भी नहीं हैं.
आज अंबानी और अडानी के बीच का संबंध पूरी तरह से बदल चुका है. मोदी के संबंध आरएसएस सहित सभी के साथ बदल गए हैं. उन्होंने हिंदुत्व का खेल उलट दिया है. अब हिंदुत्व आरएसएस के नहीं मोदी के पीछे चल रहा है. 1971 के बाद जो काम इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के साथ किया था वही काम मोदी ने बहुत कम समय में बीजेपी के साथ कर दिया है. वह हर तरह से इंदिरा गांधी से आगे निकल गए हैं. आपातकाल आज की तुलना में बौना लगता है. इंदिरा सरकार ने 1975 में राष्ट्र से स्पष्ट तौर पर कह दिया था, “हम सभी नागरिक अधिकार और स्वतंत्रताओं को निलंबित कर कर रहे हैं”. आज जहां हम हैं वहां ऐसी घोषणा की आवश्यकता तक नहीं है.
अशरफः भारतीय राजनीति में यह विचार हावी रहा कि अधिनस्थ जातियां ऊपरी जातियों के प्रभुत्व के खिलाफ एक हो जाएंगी. महत्वकांक्षाओं को बढ़ावा देने और आगे बढ़ने के प्रस्ताव ने इस प्रक्रिया पर असर डाला?
देशपांडे: हम अक्सर भूल जाते हैं कि यह देश विशाल और जटिल है. यह आशा करना कि अधिनस्थ जातियां ऊपरी जातियों के खिलाफ परिचालित होंगी, तार्किक है. आमतौर पर हमें ऐसा होने की आशा रहती है. लेकिन ये परिस्थितियां प्रत्येक समूह के भीतर उपस्थित अंतरों के चलते जटिल हो जाती हैं. कोई भी पहचान आज एक या एक-समान नहीं है, भीतर ही भीतर कई पहचानें हैं. इसलिए इसके पूरे प्रभाव की भविष्यवाणी करना बेहद कठिन है. इसलिए आपके इस बड़े सवाल का जवाब देना कठिन है. लेकिन ऐसा भी नहीं लगता कि हाल की हिंदुत्व की सफलता भविष्य में निचली जातियों के उदय को रोके रखेंगी.
यह एक वैचारिक लड़ाई है. आप विचारधारा पर उस हद तक विश्वास कर सकते हैं कि उसमें वास्तविकता की टकराहट से पार पाने की शक्ति होती है. जमीन में पटक सकने की वास्तविकता की ताकत और हवा में उछालने के विचार की ताकत के बीच हमेशा तनाव रहता है. यह परिस्थितिजन्य होता कि कौन जीतता है.
मोदी सरकार विचार की ताकत को उछालने में सफल है. वह ऐसे कि वर्तमान और आने वाले भविष्य का अंधकार दिखाई नहीं दे रहा. यह नेता का गुण होता है. इस लिहाज से मोदी बहुत सफल हैं. इसलिए हिंदुत्व की आवाज बहुत तेज और तीखी है क्योंकि इसे बहुत कुछ छिपाना और ध्यान से भटकाना है.
यहां क्या याद रखना चाहिए कि जैसा नेहरू युग की तरह ही हम जाति से ऊपर नहीं गए हैं. लोकप्रिय रूप में जो लोग कहते हैं कि वे जाति की राजनीति का अंत करना चाहते हैं, वे वास्तव में नीचे की जातियों की राजनीति का अंत करना चाहते हैं. हिंदुत्व ने ऊंची जाति की राजनीति के लिए बहुत कुछ ऐसा किया है जो पहले असंभव लगता है.
अशरफः समाज विज्ञानी क्रिस्टोफर जेफललोट और जाइल वरनियर ने लिखा है कि 2014 और 2019 में बीजेपी की जीत ने लोकसभा में हिंदी पट्टी की ऊपरी जातियों का वर्चस्व बना दिया है.
देशपांडे: यह समाजवाद और धर्मनिर्पेक्षता, कल्याणकारी राज्य और गुटनिरपेक्ष के बिना नेहरू युग की वापसी है. लेकिन कौन शासन करेगा यह विचार वही पुराना है. नेहरू युग की पुरानी मानसिकता बरकरार है. आरएसएस में मोदी ने ब्राह्मणों की पकड़ एक हद तक कमजोर कर दी है. लेकिन यह भी गौरतलब है कि मोदी ने संघ के खिलाफ कुछ नहीं कहा है. वह कुछ करेंगे भी नहीं.
अशरफः विभिन्न जातियों के बीच काम करने के लिए आरएसएस ने एक शब्द गढ़ा है, “सोशल इंजिनियरिंग”. क्या सोशल इंजिनिरिंग बिना सांप्रदायिक धुव्रीकरण के संभव है?
देशपांडे: इनकी राजनीति को दोनों की आवश्यकता है. सवाल है कि क्या ये लोग इन दो घोड़ों पर एक साथ सवारी कर सकते हैं? प्रयास हो रहा है कि मुस्लिमों को नया दलित बना दिया जाए. मैं बहुत तीखे शब्दों में, बेअदबी से, ऐसा कहा रहा हूं कि आरएसएस सभी को मुस्लिमों से बेहतर बन जाने का मौका दे रहा है. दलित कह सकेंगे कि वे हिंदू हैं, कम से कम मुस्लिम तो नहीं हैं. यही उनका इरादा लग रहा है. लेकिन इसके सफल होने की गारंटी नहीं है. क्या दलित बड़ी संख्या में यह निमंत्रण स्वीकार करेंगे? हम अभी स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कह सकते.
लेकिन ऐसी जातियां भी हैं जिन्हें हम बीच वाली या निचली से ऊपर वाली जातियां कहते हैं जो खुद और खुद के नीचे वाली जातियों से ऊपर देखती हैं. ये लोग सामाजिक दूरियों को बचाए रखना चाहते हैं. एक ओर दलितों को इतिहास में जगह दी जा रही है और उन्हें बराबरी का स्थान दिया जा रहा है जिसकी कीमत मुसलमानों का विरोध करना है. दूसरी ओर ऐसी जातियां हैं जिनके लिए दलितों से बराबरी अमान्य है. हिंदुत्व की योजना मुस्लिम विरोध का ऐसा प्रोजेक्ट तैयार करना है जिसमें सभी लोग शामिल हो सकें. वह इसे सभी जातियों का राष्ट्रीय प्रोजेक्ट बना देना चाहता है. यह आसान काम नहीं है.
मोदी ने आर्थिक अवसरों का वादा कर अपने प्रोजेक्ट की शुरुआत की थी. यदि आर्थिक अवसर का वादा पूरा नहीं होगा तो ऊपरी संरचना यानी हिंदुत्व पर दबाव पड़ेगा. यह इन लोगों को हिंदुत्व को और उग्र रूप से पेश करने के लिए विवश कर देगा.
अशरफः क्या हम अब भी बीजेपी को ब्राह्मण-बनिया पार्टी कहेंगे या हमें किसी और परिभाषा की जरूरत है?
देशपांडे: यह ब्राह्मण-बनिया साझेदारी वाली कंपनी से सार्वजनिक कंपनी बन कर शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनी बन गई है. जब तक यह सिर्फ एक साझेदारी कंपनी थी तब तक किसी को संशय नहीं था कि इसके मालिक कौन लोग हैं. लेकिन सर्वाजनिक बन जाने के बाद यह अपारदर्शी हो गई है. इस कंपनी के सीइओ और सीएफओ की जाति वही है लेकिन मालिकाने को नियंत्रण में बदल दिया गया है. यह एक अलग बात हुई है और चुनावी राजनीति का स्टाक मार्केट है जो अनंत संभावनाओं का स्रोत है. लेकिन इस खेल में बर्बाद भी तो हो सकते हैं.