25 अक्टूबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पंचानवे स्थापना दिवस के मौके पर संगठन के मुखिया सरसंघचालक मोहन भागवत ने टेलीविजन के माध्यम से लोगों को संबोधित किया और एक जातिवादी धर्मशासित हिंदू राष्ट्र का दृष्टिकोण पेश किया. इसके अगले दिन समाचार पत्रों ने उनके भाषण को मुख्य पृष्ठ पर स्थान दिया लेकिन उन्होंने भारतीय सीमा में चीन की घुसपैठ, हाल ही में लागू किए गए विवादास्पद कृषि कानूनों और कोविड महामारी पर व्यक्त भागवत के विचारों को तहरीज दी. भागवत ने राष्ट्रीय प्रसारण में अप्रत्यक्ष रूप से जिस हिंदू धर्मशासन की बात की है उसके शब्दों को समझना जरूरी है. विजयदशमी का मौका होता है जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपना स्थापना दिवस मनाता है.
इस मौके पर मोहन भागवत ने कहा, “हिंदू शब्द का अर्थ है भारतवर्ष को अपना मानने वाले, उसकी संस्कृति के वैश्विक और शाश्वत मूल्यों को आचरण में उतारने वाले तथा उसकी महान पैतृक परंपरा पर गौरव करने वाले. ये बातें सभी 130 करोड़ समाज के बंधुओं को लागू होता है.” उन्होंने कहा कि इस पहचान में गैर हिंदू भी शामिल हैं क्योंकि वे भारतीय पुर्वजों के वंशज हैं. लेकिन उनकी बातें से स्पष्ट होता है कि उनके भारतीय पर्वजों का मतलब है हिंदू पूर्वज. उन्होंने साफ-साफ कहा, अपने अपने राष्ट्र का स्व हिंदुत्व हैं. भागवत के अनुसार, “देश की एकता और सुरक्षा के लिए सभी भारतीयों को हिंदू शब्द को समान पहचान के रूप में अपनाना चाहिए.” लेकिन भागवत ने यह साफ नहीं किया कि कैसे ऐसा न करने से देश की सुरक्षा को खतरा होगा.
भागवत के भाषण में भारत के प्रति संघ का दृष्टिकोण प्रतिबिंबित होता है और इस बात को बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए क्योंकि यह संगठन भारतीय राजनीति, नीति और समाज पर गंभीर असर रखता है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वयंसेवी अर्ध सैनिक दस्तों का अपंजीकृत संगठन है और यह सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का मातृ संगठन है. फिलहाल नरेन्द्र मोदी सरकार के 53 मंत्रियों में से 38 इसी संगठन की पृष्ठभूमि के हैं यानी 70 प्रतिशत से अधिक. मोदी स्वयं तीन दशकों से भी ज्यादा समय तक आरएसएस के पूर्णकालिक प्रचारक रहे हैं. इसके अलावा संघ दर्जनों अन्य संगठनों को संचालित करता है जिनमें भारत का सबसे बड़ा ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ भी है जिसका दावा है कि उसके सदस्यों की संख्या एक करोड़ से ज्यादा है. इसी तरह उसका छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद देश का सबसा बड़ा छात्र संगठन है. साथ ही, संघ की देशभर में 74 हजार से अधिक शाखाएं चलती हैं और इसके 1000 से ज्यादा एनजीओ 50000 से ज्यादा प्रोजेक्टों से जुड़े हैं. यह संगठन कम से कम 12000 स्कूलों का संचालन भी करता है.
भागवत 2009 में संघ के पांचवे सरसंघचालक बने थे लेकिन भारत के प्रति उनका दृष्टिकोण अपने उन अग्रजों से अलग नहीं है जिन्होंने 95 साल के संगठन के इतिहास में उनके जैसी ही बातें की हैं. भागवत के भाषण को संदर्भों में समझने के लिए मैंने भागवत के भाषण को अन्य चार हिंदू राष्ट्रवादी संघ के विचारकों के साथ मिलाकर पढ़ा. मैंने वी. डी. सावरकर कि 1923 में लिखी किताब एसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व, दीनदयाल उपाध्याय की 1965 में प्रकाशित किताब एकात्म मानववाद, एमएस गोलवलकर की 1966 में प्रकाशित बंच ऑफ थॉट्स और दत्तोपंत ठेंगड़ी की 1995 में प्रकाशित थर्ड वे का अध्ययन किया. इन्हें पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि भागवत भारत को एक गैर बराबरी वाले थियोक्रेटिक अथवा धर्मशासित समाज में बदलना चाहते हैं जहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता का निर्धारण व्यक्ति की जाति और धार्मिक पहचान के आधार पर होगा.
उनका भाषण भारत के संवैधानिक मूल्य के अक्कड़ तिरस्कार के लिए मात्र चिंताजनक नहीं है बल्कि हाल के घटनाक्रम इस बात की ओर इशारा करते हैं कि उनकी बातों को नीति में बदल दिए जाने की बहुत असल संभावना है. इस साल जून में मैंने कारवां में लिखा था कि कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के समय मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां ठेंगड़ी द्वारा थर्ड वे में विकसित हिंदू अर्थशास्त्र को प्रतिबिंबत करती हैं. भागवत ने अपने भाषण में भी कहा है कि भारतीय कृषि, श्रम, शिक्षा, आर्थिक और औद्योगिक कानूनों में जो हाल में बदलाव किए हैं वे आशावादी कदम हैं जो स्व को स्थापित करने के लिए लाए गए हैं. उन्होंने इस स्व को हिंदुत्व बताया. उन्होंने आगे कहा कि आरएसएस वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व से आशा करेगा कि वह स्व पर आधारित नीतियों को आकार देता रहे.
साथ ही, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित मामलों पर सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के समक्ष कहा है कि सरकार और अदालत द्वारा बुनियादी अधिकारों के पक्षों को नियंत्रित किया जा सकता है. अगस्त में मेहता ने आरएसएस की कानूनी शाखा अधिवक्ता परिषद द्वारा बुलाई गई वर्चुअल मीटिंग की अध्यक्षता की थी. इस बात को मानने से इनकार नहीं किया जा सकता कि आरएसएस की विचारधारा केंद्र सरकार के नीति निर्माण के काम को प्रभावित करती है और आकार देती है. इसलिए भागवत के भाषण का अध्ययन जरूरी है और उस भाषण में व्यक्त धर्मशासन की महत्वकांक्षा को पहचानना जरूरी है.
भागवत ने स्व की संकल्पना पर विस्तार से बात की और इसे आगे ले जाने में परिवार की भूमिका के साथ ही हिंदुत्व और हिंदू परंपरा और मूल्यों पर बात रखी. उन्होंने भारत की विदेश नीति और कोरोना वायरस महामारी पर बात की लेकिन उनके भाषण के मूल में तर्क था कि राज्य और सामाजिक नीतियों के निर्माण के लिए हिंदू तरीका सही है. जिन चार हिंदू राष्ट्रवादियों के साहित्य का मैंने उल्लेख किया है उससे आरएसएस की शब्दजाल को और इन संकल्पनाओं को समझने में मदद मिलती है.
पहले भागवत बंच ऑफ थॉट्स में उल्लेखित गोलवलकर के उन सांप्रदायिक शब्दों का खुलकर समर्थन करने से बचते रहे थे जिनमें वह मुसलमानों को शत्रु कहते हैं. भागवत पहले कहते थे कि वे विचार एक अलग संदर्भ में व्यक्त किए गए थे और उनकी प्रासंगिकता खत्म हो चुकी है. इसके बावजूद पांचों विचारकों की अभिव्यक्तिय का अध्ययन करने से पता चलता है कि संघ के बुनियादी सिद्धांत इन 100 सालों में नहीं बदले हैं जबकि उसने अपनी भाषा को अधिक उदार और संयमित बनाया है.
संघ के भीतर सावरकर को आरएसएस के संस्थापक और पहले सरसंघचालक के बी. हेडगेवार के बराबर माना जाता है. हालांकि वह कभी औपचारिक रूप से संघ के किसी पद पर नहीं रहे. उनका व्यापक आधार है क्योंकि उन्हें हिंदू राष्ट्रवाद विचार का पिता माना जाता है. हिंदू पहचान की उनकी मान्यता नस्ल शुद्धता और हिंदुओं के बीच सामान रक्त पर आधारित थी जो भागवत के हिंदुत्व के उस विचार का आधार है जो सामान्य पूर्वजों और परंपराओं की बात करता है.
दीनदयाल उपाध्याय जनसंघ के संस्थापकों में से एक थे. जनसंघ बीजेपी से पहले की पार्टी थी. गोलवलकर आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक थे. हालांकि ठेंगड़ी संघ में कभी नहीं रहे लेकिन उन्होंने संघ के मजदूर, किसान और व्यापार शाखाओं की स्थापना की. गोलवलकर, उपाध्याय और ठेंगड़ी के साहित्य में आरएसएस की हिंदू पहचान, हिंदू राष्ट्र और हिंदू समाज के विचार हर कालखंड में एक समान रहे हैं. इन तीनों ने ही राज्य को ब्राह्मणवादी ग्रंथों के अनुरूप संचालन करने की वकालत की है और समाज को जाति पर विभाजित करने पर जोर दिया है. ये विचार भागवत के भाषण में प्रतिबिंबित हुए हैं.
भागवत का यह कहना कि भारत की संपूर्ण आबादी हिंदू है बशर्ते वह भारतीय पूर्वजों पर गौरव करती हो, प्रभावकारी रूप से सावरकर के विशिष्ट हिंदू राष्ट्र के विचार का दोहराव है. 1923 में लिखी अपनी किताब एसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व में सावरकर ने लिखा है, “हिंदू वह है जो सिंधु से लेकर सिंधु तक की जमीन को अपने पूर्वजों की जमीन मानकर उससे अपना संबंध महसूस करता है.” उन्होंने कहां है कि एक हिंदू वह है जो हिंदू संस्कृति, हिंदू सभ्यता जो समान इतिहास, समान साहित्य, समान कला, समान कानून और सामाजिक न्यायशास्त्र, समान त्योहार, रीति-रिवाज और संस्कार को मानता है.
हालांकि सावरकर का विश्वास था कि भारतीय मुसलमान और भारतीय ईसाई हिंदुओं के वंशज हैं और इसलिए वे उनके नस्लीय शुद्धता की कसौटी पर खरे उतरते हैं फिर भी उन्होंने हिंदू धर्म में उनके प्रवेश से इनकार किया. उन्होंने तर्क दिया कि उनके “नायक और उनकी नायक वंदना, उनके तीज और उनके त्योहार, उनके आराध्य पुरुष और उनके जीने का तरीका अब हमसे नहीं मिलता है.” इस बात पर जोर देते हुए कि हिंदू अपने भारतीय पूर्वजों पर गर्व करते हैं, उनकी संस्कृति पर गर्व करते हैं भागवत ने सावरकर के हिंदू राष्ट्र के विशिष्ट विचार को दोहराया है क्योंकि उनके अनुसार भारतीय पहचान का मतलब हिंदू होना है.
गोलवलकर ने बंच ऑफ थॉट्स में संघ के “भारतीय पूर्वजों” के विचार को अधिक स्पष्टता से बताया है. उन्होंने लिखा है, “आइए उस गौरवशाली परंपरा को पुनर्जीवित करें जिसने वशिष्ठ, विश्वामित्र, चाणक्य विद्यारण्य, समर्थ जैसों को पैदा किया. जहां श्रीराम, चंद्रगुप्त, कृष्णदेव राय और शिवाजी का जन्म हुआ. ब्राह्मणवादी ग्रंथों के अनुसार, वशिष्ठ, विश्वामित्र, चाणक्य और विद्यारण्य सभी ब्राह्मण संत थे जिन्होंने अलग-अलग समय में अलग-अलग क्षत्रीय राजाओं के सलाहकार के रूप में काम किया था. समर्थ महाराष्ट्र के आध्यात्मिक गुरु थे. चंद्रगुप्त और कृष्णदेव राय राजा थे जिनके राज्य को हिंदू धर्म की समृद्धि के लिए जाना जाता है. राम क्षत्रिय राजा थे जिनके बारे में तुलसीदास की रामायण में बताया गया है. शिवाजी 17वीं शताब्दी के मराठा राजा थे जिन्हें मुगलों से लोहा लेने वाले हिंदू नायक के रूप में देखा जाता है.
गोलवलकर ने भारतीय शब्द को भ्रमित करने वाला और सच्चाई से दूर ले जाने वाला बताते हुए भारतीय नेताओं द्वारा इसके इस्तेमाल के प्रति आशंकाएं व्यक्त की हैं. उन्होंने लिखा है, “भारतीयों को आमतौर पर इंडियन शब्द के अनुवाद माना जाता है जिसमें मुस्लिम, क्रिश्चियन, पारसी और अन्य समुदाय भी शामिल हैं, जो इस भूमि में रहते हैं. इसलिए जब भारतीय शब्द से हम एक खास समाज को चिन्हित करते हैं तो उससे भ्रम पैदा हो सकता है. हिंदू शब्द ही एक मात्र शब्द है जो सही और पूर्ण रूप से उस अर्थ को स्पष्ट करता है जो संदेश हम देना चाहते हैं.”
भागवत ने जोर दिया कि सभी भारतीयों को अपने भारतीय पूर्वजों पर गौरव करना चाहिए. इस तरह उन्होंने उसी बात को दोहराया जो हिंदुत्व में क्षत्रिय राजाओं और ब्राह्मण पुजारियों के नायक वंदना की परंपरा है. लेकिन उन्होंने भी गोवलकर की तरह आशंकाएं व्यक्त की हैं. उन्होंने कहा, “यदि इरादा समान है तो किसी भी शब्द के इस्तेमाल पर हमें कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन देश की एकता और सुरक्षा की खातिर हिंदू शब्द को अपनाने में संघ का जोर है.” भागवत ने आगे कहा कि जो लोग समाज को तोड़ना चाहते हैं वे वही हैं जो कहते हैं कि हम हिंदू नहीं हैं. जो लोग हिंदू पहचान को अस्वीकार करते हैं उनके बारे में भागवत ने बताया कि वे “टुकड़े-टुकड़े गैंग” हैं और वे भारत के लिए चीन से ज्यादा बड़ा खतरा हैं. अंततः संघ के लिए भारतीय शब्द का एकमात्र अर्थ हिंदू और हिंदू समाज है.
भागवत का यह कहना कि सभी भारतीय एक ही पूर्वज की संतान हैं ऐतिहासिक रूप से गलत है. 2017 में मोदी ने एक 14 सदस्य समिति का गठन किया था जिसका उद्देश्य यह स्थापित करना था कि भारत में पहले पहला कर बसे लोगों के वंशज ही हिंदू हैं. रॉयटर्स समाचार एजेंसी की एक पड़ताल के अनुसार, इस समिति का जोर राष्ट्र के इतिहास का पुनर्लेखन पर था. अब यह अच्छी तरह से स्थापित तथ्य है कि भारत की वर्तमान आबादी व्यापक आव्रजन का परिणाम है. 1916 में बीआर आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में आयोजित एंथ्रोपॉलजी सेमिनार में एक पर्चे पढ़ा था जिसका नाम था “भारत में जातियां.” उसमें उन्होंने कहा था कि जाने-माने मानवजाति विज्ञानियों के अनुसार, भारत की आबादी आर्यन, द्रविड़, मंगोलियन और स्काइथियन से बनी है. आंबेडकर ने यह भी कहा था कि भारत में रहने वाले तमाम लोग अलग-अलग दिशाओं से जनजातियां अवस्था में अलग-अलग संस्कृतियों से शताब्दियों पहले यहां आए थे. भारतीयों के प्रति संघ का विचार ऐसे किसी भी संस्कृति को मान्यता नहीं देता. 2019 में प्राचीन डीएनए के अध्ययन के बाद सेल और साइंस जर्नल में प्रकाशित पेपरों में इस बात की पुष्टि की है कि भारत की बड़ी आबादी हड़प्पा सभ्यता के बाद हुए आव्रजन से बनी है.
अपने भाषण में भागवत ने स्व पर जोर दिया. उन्होंने बताया कि कैसे हिंदुत्व देश का स्व है. भागवत के अनुसार, लोगों की प्रगति तब होती है जब वे स्व सभी चीजों आधार बनाते हैं ताकि व्यक्ति अंततः परम वैभव संपन्न प्राप्त कर सके. ठेंगड़ी ने थर्ड वे में परम वैभव के विचार को समझाया है और उसे हिंदू राष्ट्र की महानता का सर्वोच्च आदर्श बताया है. भागवत ने कहा कि अपने स्व के अनुसार काम करना पुरुषार्थ है. वैदिक परंपरा के अनुसार, पुरुषार्थ के चार उद्देश्य हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष.
जबकि भागवत ने स्व और धर्म को सामाजिक आचरण के लिए उचित ठहराया जो उनके अनुसार भारतीयों को अपनाना चाहिए, इस संगठन के अन्य विचारकों के लेखन से स्पष्ट होता है कि सरसंघचालक जातिवादी, ब्राह्मणवादी आचरण का प्रचार कर रहे थे. गोलवलकर, उपाध्याय और ठेंगड़ी ने धर्म की अवधारणा को समझाते हुए गीता, महाभारत और मनु स्मृति जैसे ब्राह्मणवादी ग्रंथों से उदृरण दिए हैं. ये ग्रंथ सामाजिक आचरण बतलाते हैं जो व्यक्तियों से लेकर राजाओं तक के अधिकार और कर्तव्य को बताते हैं जिसमें उनके दैनिक आचरण से लेकर महिलाओं से पुरुषों को किस तरह संबंध स्थापित करना चाहिए बताया गया है. मनुस्मृति समाज को चार वर्गों में, ऊपर से नीचे बांटती है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र. इसमें वर्ण में जन्मे व्यक्तियों के कर्तव्य बताए गए हैं.
गोलवलकर, उपाध्याय और ठेंगड़ी ने न सिर्फ अपने लेखों में जातिवाद, जाति व्यवस्था का समर्थन किया बल्कि उसे हिंदू मूल्य को बचाने का साधन बताया है. गोलवलकर ने तो यहां तक कहा है कि जाति व्यवस्था ने भारतीयों को “विदेशी घुसपैठ के आगे घुटने टेकने से बचा लिया” और यह सामाजिक एकजुटता के लिए आवश्यक है. उन्होंने लिखा है कि स्व हमारा धर्म और संस्कृति थी और भारत को सच्चे अर्थों में स्वतंत्र बनाने के लिए दोनों की ही रक्षा और प्रचार जरूरी है. उपाध्याय ने एकात्म मनाववाद में धर्म क्या है इसे महाभारत की कथा के माध्यम से समझाया है जब लोभ और क्रोध समाज में हावी थे. उन्होंने लिखा है ऋषि लोग इससे बेचैन हो गए और वे ब्रह्मा के पास सलाह लेने गए. ब्रह्मा ने उन्हें राज्य के कानून और कर्तव्य के बारे में बताया जो उन्होंने खुद लिखे थे और तब से जीवन अच्छा हो गया.
अपने भाषण में भागवत ने कई बार स्व का उल्लेख किया जिसका अनुसरण भारतीयों को करना चाहिए. वह स्व के रूप में हिंदू संस्कृति की प्रथाओं अपनाने की बात कर रहे थे. उदाहरण के लिए भागवत ने दावा किया कि कोविड-19 प्रोटोकॉल भारतीय संस्कृति रूप है और इसलिए यह स्व को प्रतिबिंबित करता है. “हमारे घरों ने हमारी कुछ आदतें डाली है. जब भी हम बाहर से आते हैं तब किसी भी वस्तु को छूने से पहले हम अपने पैर-हाथ धोते हैं. ये छोटी-छोटी आदतें जुड़कर हमारी संस्कृति बनती है.” हालांकि भागवत ने समझाया की ये आदतें हिंदू धर्म में व्यक्त स्वच्छता का अभ्यास है लेकिन स्थापित तथ्य तो यह है कि हिंदू धर्म में स्वच्छता का मतलब शुद्धता है न कि स्वास्थ्य, जिसकी जड़ ब्राह्मणवादी जातिवादी अभ्यास है.
जो दूसरी मिसाल भागवत ने दी वह भी बताती है कि वह समाज के जाति आधारित विभाजन को मानते हैं और यह भी कि व्यक्ति का कर्तव्य उसके जन्म से निर्धारित होता है. भागवत ने कहा कि भारत के किसान अपनी आजीविका के लिए खेती नहीं करते बल्कि इसलिए करते हैं क्योंकि यह उनका धर्म है. उन्होंने कहा, “किसान खेती लाभ आर्जन के लिए नहीं बल्कि दुनिया का पेट भरने के लिए करते हैं. वे इसलिए खेती करते हैं क्योंकि खेती उनका धर्म है और समाज को भोजन उपलब्ध कराने के लिए किसानी करते हैं. उन्होंने यह टिप्पणी उन विवादास्पद किसान कानूनों को न्यायोचित ठहराने के लिए की जिनकी वजह से देश भर में किसान आक्रोशित और आंदोलित हैं. किसानों का मानना है कि लाए गए बदलावों से उनके उत्पाद को न्यूनतम समर्थन मूल्य का संरक्षण नहीं मिल रहा है.
लेकिन भागवत ने इन बदलावों को किसानी को स्वदेशी बनाने की दिशा में बताया. उन्होंने स्वदेशी की व्याख्या स्व और देशी के रूप में की. उन्होंने कहा, “देशी तो नीति है मगर स्व क्या है?” भागवत ने अपने सवाल का जवाब दिया कि किसान का स्व दुनिया को खिलाने का उसका धर्म है. किसानी के बारे में यह दृष्टिकोण जातिवादी मानसिकता को दर्शाता है जिसके अनुसार शूद्रों का कर्तव्य अपने ऊपर के तीन वर्णों की सेवा करना है.
भागवत ने कहा कि परिवार संस्था सुनिश्चित करती है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्व के अनुसार जीवन व्यतीत करे. “अब जबकि स्व, राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक मूल्यों, पर्यावरण संबंधी विचार का महत्व हमारे ध्यान में आया है तो इनके प्रति हमे कमजोरी नहीं दिखानी चाहिए और यह तभी संभव है जब पूरा समाज इसका अनुसरण करे और अपने दिनचर्या में इसको अपनाएं. प्रत्येक परिवार इसकी इकाई है.” हमें पारिवार में संवाद पर ध्यान देना चाहिए.” उन्होंने प्रत्येक घर से अपील की कि वह भजनों का आयोजन करे और खुशी के साथ साथ बैठ कर भोजन करे.
परिवार में संवाद और भजनों का आयोजन करने की बात साधारण दिखाई देती है लेकिन यह भागवत के पहले के संघ विचारकों द्वारा बताई गई सोची समझी रणनीति का हिस्सा है जो कट्टरवादी धार्मिक पहचान के इर्द-गिर्द हिंदू समुदायों को महिमामंडित करने के लिए अपनाई जाती है. यही रणनीति मोदी के नियमित रूप से प्रसारण होने वाले मासिक रेडियो कार्यक्रम मन की बात में देखी जा सकती है जिसमें वह अक्सर लोगों से परिवार के साथ संवाद करने की अपील करते हैं. उनका मकसद हिंदू विचारों के इर्द-गिर्द परिवार का निर्माण होता है. सितंबर में मोदी ने श्रोताओं से कहा था कि प्रत्येक परिवार में एक बुजुर्ग व्यक्ति होता है जो परंपराओं संस्कृति की बात करता है. जून में उन्होंने बच्चों के साथ एक साक्षात्कार में कहा था कि वह अपने दादा-दादी से पूछें कि उनका बचपन कैसा था, वे किस तरह के खेल खेला करते थे. मोदी ने कहा, “तब आपको पता चलेगा कि 40-50 साल पहले भारत कैसा था.”
गोलवलकर ने परिवार को हिंदुओं को अपने पड़ोस और समाज से "स्नेह" और "पहचान" के संबंध स्थापित करने वाला "पहला चरण" बताया. उन्होंने बंच ऑफ थॉट्स में लिखा, “हमारे लिए परिवार हमारे आत्म-विस्तार का पहला चरण है. फिर परिवार के सदस्यों के रूप में हमें विभिन्न कर्तव्यों से गुजरना पड़ता है ताकि परिवार के सदस्यों के बीच मधुर स्नेह और पहचान के नाजुक संबंध हमेशा बरकरार रहें. एक बेटे के रूप में, एक भाई के रूप में, एक पति के रूप में या किसी भी रिश्ते में, आइए हम एक पारिवारिक व्यक्ति के महान हिंदू आदर्श को बनाए रखें.”
गोलवलकर के लिए एक पारिवारिक व्यक्ति के ये हिंदू आदर्श उसके पुरुषत्व के इर्द-गिर्द घूमते थे, जिसे उन्होंने "राष्ट्रीय उत्थान" का एक स्रोत कहा. उन्होंने लिखा, "हमारी वास्तविक राष्ट्रीय उत्थान की शुरुआत 'मनुष्य' के ढलने के साथ शुरू होनी चाहिए जिसमें उसे मानवीय बुराइयों को दूर करने की ताकत और खुद के भीतर प्रेम, स्वउत्थान, त्याग, सेवा और चरित्र के पारंपरिक गुणों के रूप में हिंदू पुरुषत्व के चमकदार प्रतीक के रूप में खड़ा होना चाहिए." इसी तरह उपाध्याय ने हिंदू समाज के लिए "विराट पुरुष" उपमा का इस्तेमाल किया. उन्होंने हिंदू जातियों की पहचान ऐसे व्यक्ति के विभिन्न अंगों के रूप में की जो तभी काम कर सकते हैं जब सभी अंग अपना-अपना कर्तव्य पूरा करें.
बंच ऑफ थॉट्स में गोलवलकर ने हिंदुओं के बीच सामाजिक और आर्थिक संबंधों का भी हवाला दिया, जो निरंतर पारिवारिक बातचीत बनाए रखने के कारणों में से एक हैं. उन्होंने एक कहानी का उल्लेख किया जिसमें एक अंग्रेज ने एक परिवार के साथ संबंध बनाकर एक पूरे हिंदू समुदाय को ईसाई धर्म की ओर मोड़ दिया. गोलवलकर ने हिंदुओं से कहानी से सबक सीखने को कहा. उन्होंने लिखा, "कुछ बागान हैं जिसके मालिक अंग्रेज हैं. अंग्रेज बागान मालिक अपने कर्मचारियों के साथ कैसा बर्ताव करता है? वह उनके घरों में जाता है, उनके बच्चों को दुलारता है और व्यक्तिगत रूप से उनकी चिकित्सा जरूरतों को देखता है. वह काम करने वाले के पूरे परिवार के साथ एक मानवीय संबंध बनाता है. वह इतने पर ही नहीं रुकता. वह अपनी संपत्ति में एक चैपल या एक चर्च का निर्माण करता है ... इस तरह के प्रलोभन और अनुनय द्वारा वह अपने कर्मचारियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने में काफी हद तक सफल हुए हैं."
उन्होंने आगे कहा, “हिंदू, चाय बागानों के मालिक हैं, जिनके श्रमिकों के साथ संबंध सौहार्दपूर्ण हैं. वे केवल उन लोगों से जितना संभव हो उतना निचोड़ने की कोशिश करते हैं. श्रमिक नाराजगी और बगावत करते हैं और अधिक मजदूरी और बेहतर सुविधाओं की मांग करते हैं.” लेकिन गोलवलकर ने स्वयं कोई सबक नहीं सीखा, इस मोर्चे पर भी उन्होंने श्रमिकों के वेतन में वृद्धि करके निकट संबंध बनाने या मजदूरी संबंधी विवादों को हल करने के आधार पर समाधान का प्रस्ताव नहीं किया. इसके बजाय उन्होंने मजदूरों के साथ "मानवीय संबंध" बनाने के लिए नियमित रूप से भजनों के आयोजन का सुझाव दिया. उद्योगपतियों को संबोधित करते हुए गोलवलकर ने लिखा, "उन्हें प्रत्येक एस्टेट या मजदूर बस्ती में एक मंदिर बनाना चाहिए और साप्ताहिक भजन और पूजा, धार्मिक प्रवचन और हरिकथा की व्यवस्था करनी चाहिए," जिसके अंत में हिंदू महाकाव्यों को कहने की पारंपरा है. उन्होंने आगे लिखा है कि "हमारे दैनिक कार्यों में हिंदू मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए नियमित रूप से भजन करना महत्वपूर्ण है."
भजनों के माध्यम से हिंदुओं को एकजुट करने का गोलवलकर का दृष्टिकोण भागवत द्वारा भाषण में दिए निर्देशों से मिलता-जुलता है. आरएसएस सक्रिय रूप से हिंदू संबंधों को मजबूत करने के लिए पारिवारिक बातचीत को बढ़ावा देता है. संगठन की 2019 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, संघ कम से कम 38 प्रांतों में "कुटुंब प्रबोधन" या परिवार के उद्बोधन के नाम से कार्यक्रम चलाता है. आरएसएस के पास भारत का अपना राजनीतिक मानचित्र है जिसके तहत 41 विभिन्न प्रांत हैं. कुटुंब प्रबोधन कार्यक्रम के तहत संगठन की स्थानीय इकाइयों से जुड़े परिवार के सदस्यों को सप्ताह में कम से कम एक बार मिलना और साथ भोजन करना आवश्यक है.
भागवत ने सभी भारतीयों से सच्ची एकता बनाने के लिए "भावनात्मक एकीकरण" करने का आह्वान किया. लेकिन एक बार फिर सरसंघचालक ने कहा कि ऐसा एकीकरण तभी संभव होगा जब सभी हिंदू पहचान को अपना लेंगे. भागवत ने कहा, "भारतीयों को एक भावना में बंधना चाहिए. यहां हम इसे भावनात्मक एकीकरण कहते हैं. इस भावनात्मक एकीकरण में और भारत में सभी विविधताओं के लिए सम्मान है. उसमें जो भावना है उसके नाभी में क्या है? हिंदू संस्कृति है इसके केंद्र में है. यह हिंदू परंपरा है, यह हिंदू समाज है."
उनके भाषण में, "भावनात्मक एकीकरण" का विचार भी संदर्भ के साथ आता है जो पिछले संघ लेखन में अधिक स्पष्ट रूप से सामने आया है. गोलवलकर ने बंच ऑफ थॉट्स में "भावनात्मक एकीकरण" के लिए तीन शर्तें बताई हैं. "पहले स्थान पर भूमि के प्रति समर्पण की भावना, जो अनादि काल से है, जिसे हमने अपनी पवित्र मातृभूमि माना है. दूसरे स्थान पर भ्रातृत्व की भावना है जो इस बोध से पैदा हुई कि हम एक ही महान माता की संतान हैं. तीसरे स्थान पर समान इतिहास और परंपराओं से, समान आदर्शों और आकांक्षाओं से, समान संस्कृति और विरासत से पैदा हुए राष्ट्रीय जीवन के एक सामान्य प्रवाह की गहन जागरूकता है.” यहां आशय स्पष्ट है और भागवत के लिए भी स्पष्ट: हिंदू पहचान भावनात्मक एकीकरण के में केंद्रीय है.
मुख्यधारा के मीडिया ने भागवत के भाषण के इन पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया. शायद वे यह समझने में विफल रहे कि संघ प्रमुख खुले तौर पर राष्ट्रीय टेलीविजन पर एक हिंदू राज्य में रूपांतरण का आह्वान कर रहे थे. यहां तक कि उनके भाषण को जैसे का तैसा पेश करने का दावा करने वाले प्रकाशन भी अलग ही स्क्रिप्ट से उन्हें उद्धृत करते दिखाई दिए जिसमें उनके द्वारा कहे गए शब्दों और बातों में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए थे. लेकिन उस स्क्रिप्ट में भागवत की हिंदू राज्य की आकांक्षाओं को छिपाने प्रयास नहीं था. भागवत ने कहा, "हिंदुत्व इस देश के अस्तित्व का सार है" और प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया तथा कई अन्य मीडिया आउटलेट द्वारा इसे शब्दश: प्रकाशित किया गया. पीटीआई की रिपोर्ट और अन्य मीडिया कवरेज ने भी उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया, "हम स्पष्ट रूप से हिंदू के रूप में देश के अस्तित्व को स्वीकार कर रहे हैं."
लेकिन इन रिपोर्टों ने भागवत के उन दावों को चुनौती नहीं दी जिनमें कहा गया था कि हिंदुत्व का कोई धार्मिक या कर्मकांडिक संबंध नहीं है. उन्होंने भागवत के हिंदू शब्द को सभी भारतीयों पर थोपने को लेकर सवाल नहीं उठाया. उन्होंने भागवत की उस घोषणा पर भी आपत्ति नहीं जताई कि उन्होंने हिंदू धर्म को अपना धर्म नहीं मानने वालों को भारतीय समाज के ताने-बाने को तोड़ने वाला कहा. मीडिया ने भागवत के भाषण के एक संशोधित रूप का, जो हिंदू राष्ट्र के लिए संघ की दृष्टिकोण को दर्शाता था, बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार किया.