मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पूरे चुनावी अभियान के दौरान पार्टी एक जरूरी बुनियादी सवाल को हल करने में नाकाम रही. एक ऐसा सवाल जिसका जवाब वह राष्ट्रीय स्तर पर भी देने में असमर्थ रही है. भारतीय जनता पार्टी की सफलता कांग्रेस की विफलताओं, उसके समझौतों और उसके पाखंड का नतीजा थी. क्या पार्टी ने लगातार हार से कुछ सीखा है? अगर वह सत्ता में आई तो क्या अलग करने का लक्ष्य रखेगी?
मध्य प्रदेश में पार्टी ने एकमात्र जवाब यह दिया है कि वह भगवा पार्टी की तरह बन कर बीजेपी से मुकाबला करेगी. मैं 2000 के दशक में राज्य में पत्रकार था. मैंने 2003 के चुनावों को कवर किया था जिसमें उमा भारती ने दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस को हराया था. तब से कांग्रेस पार्टी ने कमोबेश यही एकमात्र रणनीति अपनाई है.
2003 में, कांग्रेस नेतृत्व में सिंह, जो एक राजपूत हैं, और कमल नाथ, जो एक बनिया हैं, शामिल थे. वे अब भी हैं लेकिन उन्होंने भूमिकाओं की अदला-बदली कर ली है. दो बड़े नेताओं की बदौलत पार्टी के विकास में आई यह रुकावट अनिवार्य रूप से केंद्र की ही स्थिति को दोहराती है. राष्ट्रीय स्तर पर गांधी परिवार की मौजूदगी के चलते 1980 के दशक की शुरुआत से पार्टी में अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह और वाईएस राजशेखर रेड्डी जैसे जमीनी नेताओं का उभरा रुक गया है. अब पार्टी में ऐसा नहीं हैं जो अपने दम पर ऊपर उठे हों. इससे पार्टी बदलती हकीकत को समझ पाने में नाकामयाब है.
मध्य प्रदेश में कांग्रेस की विफलताओं की कहानी, शायद उसकी राष्ट्रीय विफलता का सबसे अच्छा सारांश है. इसकी शुरुआत अपनी ताकतों को विकसित करने में विफलता से होती है और बीजेपी के विचार के आगे आत्मसमर्पण के साथ खत्म होती है.
अगर हम नर्मदा के मार्ग को राज्य से होकर गुजरने वाली रेखा के रूप में मानें, तो जैसे-जैसे हम उत्तर की ओर उत्तरपश्चिम में चंबल या उत्तरपूर्व में उत्तर प्रदेश की ओर बढ़ते हैं, दलित आबादी की सघनता लगातार बढ़ती जाती है जो कुल आबादी का लगभग 17 फीसदी है. 1990 के दशक में कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी ने उस वोट में काफी सेंध लगाना शुरू कर दिया था जिसे कांग्रेस अपना ही मानती रही थी. इस बढ़ते दबाव के चलते कांग्रेस सरकार को 2002 में भोपाल घोषणा के हिस्से के रूप में एक दलित एजेंडा तैयार करना पड़ा. इसके अलावा दिग्विजय सरकार ने चरनोई योजना शुरू की, जो भूमिहीन दलितों और आदिवासियों के बीच गांव की चरागाह भूमि को पुनर्वितरित करने का एक कदम था. यह हिंदी क्षेत्र में भूमि पुनर्वितरण कार्यक्रम का एकमात्र हालिया उदाहरण है.
पार्टी ने 2003 के नतीजों को अन्य पिछड़ा वर्ग, जिनमें से कई भूमिधर जातियां हैं और राज्य की आबादी का लगभग 50 फीसदी हैं, की ओर से चरनोई योजना को पीछे धकेलने के रूप में देखा. इसके अलावा 2003 के चुनावों से पहले, मायावती ने कांशीराम के विश्वासपात्र फूल सिंह बरैया को निष्कासित कर दिया जिन्होंने आगे चल कर अपनी पार्टी बनाई. इसके बाद से बीएसपी के वोट शेयर में लगातार गिरावट आई है और कांग्रेस फिर कभी भोपाल घोषणा पर नहीं लौटी.
हालांकि इस अवधि के दौरान बीजेपी के ओबीसी समर्थन में इजाफा किया लेकिन ऐसे किसी भी विश्लेषण में कभी भी इस बात को ध्यान में नहीं रखा गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ओबीसी के बीच पहले से ही कितना काम किया है. विपक्ष में दो कार्यकाल के दौरान जब कांग्रेस के दिग्विजय सिंह सत्ता में थे, बीजेपी बड़ी संख्या में ओबीसी नेता तैयार करने में सक्षम रही. उमा भारती और शिवराज सिंह चौहान दोनों ही राज्य के ओबीसी के बीच संघ के किए कार्यों का फल हैं.
ऐसे कार्यों की बदौलत राज्य में बीजेपी के पास स्पष्ट रणनीति है. हिंदू उच्च जाति की आबादी, जो राज्य की आबादी का दस फीसद से ज्यादा नहीं है, इसका मूल है. यह पार्टी को वित्तीय और धार्मिक समर्थन प्रदान करती है. इसने राज्य में संघ की एक मजबूत उपस्थिति बना दी है. इंदौर और उसके आसपास फैला हुआ मालवा क्षेत्र एक समय ब्रिटिश प्रांत मध्य प्रांत और बरार से जुड़ा हुआ था, जिसका मुख्यालय नागपुर में था. 1925 में अपनी स्थापना के बाद से, संघ यहां फला-फूला है. इस तरह, यह देश के उन क्षेत्रों में से एक रहा है जहां बीजेपी के पूर्ववर्ती जनसंघ की पर्याप्त पकड़ थी.
यह ऊंची जाति का नियंत्रण राज्य में बड़ी ओबीसी आबादी के साथ मिल कर काम करता है. उत्तर प्रदेश या बिहार में यादव जाति की तरह संख्यात्मक रूप से प्रभावशाली एक भी ओबीसी जाति की गैरमौजूदगी में, जो केंद्र बन सकती है और जिसके चारों ओर उच्च जाति की राजनीति के लिए चुनौती की कल्पना की जा सकती है, राज्य में ओबीसी राजनीति को संघ के ब्राह्मणवाद के जरिए प्रसारित किया गया है. व्यक्तिगत ओबीसी नेताओं के उभरने के बावजूद राज्य में ऊंची जाति के वर्चस्व को कोई चुनौती नहीं मिली है.
कांग्रेस सुभाष यादव के अलावा किसी भी ओबीसी नेता को तैयार करने में असमर्थ रही है. यादव दिग्विजय सिंह की सरकार में उपमुख्यमंत्री थे. लेकिन वह भी इन दो बड़े नेताओं की छाया में ही रहे. बीस साल बाद पाटीदार नेता जीतू पटवारी ने जब भी खुद को साबित करने का प्रयास किया इन दोनों नेताओं ने उन्हें कमजोर किया. इससे हुआ यह कि कांग्रेस को “हिंदू” हो कर बीजेपी की पिच पर ओबीसी वोट के लिए लड़ने के लिए मजबूर हो पड़ा है.
पार्टी राहुल गांधी के सामाजिक-न्याय के मुद्दे के प्रति नए प्रेम को कांग्रेस खूब प्रचारित करती है क्योंकि वह मध्य प्रदेश और राजस्थान में रैली के बाद जाति जनगणना पर जोर दे रहे हैं. लेकिन जाहिर तौर पर उन्हें अब भी राज्य के बारे में बहुत कुछ सीखना बाकी है. जाति जनगणना उत्तर प्रदेश और बिहार में बहुत मायने रखती है लेकिन अभी तक मध्य प्रदेश में इसका कोई मतलब नहीं है, जहां मंडल के बाद भी ओबीसी के बीच सामाजिक जागरूकता कभी नहीं बढ़ी. इसका असर तभी हो सकता है जब इसे सामाजिक न्याय के कार्यक्रम से जोड़ा जाए जिसे कांग्रेस के अपने ओबीसी नेताओं द्वारा ओबीसी के बीच ले जाने की जरूरत है. इसके उलट जीतू पटवारी जैसे व्यक्ति को भी सामाजिक न्याय के बजाए हिंदू धर्म के प्रति अपनी भक्ति की घोषणा करनी पड़ती है.
आश्चर्य की बात नहीं है कि जाति जनगणना किसी भी राज्य के नेता की बयानबाजी का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं रही है. इसके बजाए उन्होंने पूरी सावधानी से आयोजित मंदिर दौरे करने पसंद किए, जैसा राहुल कर रहे हैं. जैसे ही मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में चुनाव प्रचार शुरू हुआ राहुल खेमे ने अपने नेता के केदारनाथ की यात्रा के वीडियो जारी किए. शिव के प्रति इस नई भक्ति का उनके लंबे राजनीतिक करियर में कहीं कोई सुराग नहीं है. लेकिन पिछले कुछ सालों से हिंदुत्व के जोर के चलते यह भक्ति सामने आई है. इसमें कमलनाथ से लेकर भूपेश बघेल तक के नेता रामायण के उन पहलुओं को शामिल कर रहे हैं जो उत्साही भक्तों को भी भ्रमित कर सकते हैं.
नाथ और बघेल दोनों का ही दावा है कि राम के वनवास के दौरान अपनाया गया सटीक मार्ग उनके अधिकार में है और दोनों ने इसे विकसित करने का वादा किया है. नाथ ने बाबरी मस्जिद के अवैध विध्वंस के बाद राम मंदिर के निर्माण का श्रेय कांग्रेस को दिया है. उन्होंने ऑन रिकॉर्ड कहा है कि पूरी प्रक्रिया के लिए मुख्य प्रेरणा उनकी पार्टी द्वारा प्रदान की गई थी जब पार्टी ने 1989 में विवादित स्थल पर ताले दोबारा खोले थे.
कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों से बात करें तो वे वही दोहराते हैं जो पार्टी नेता शशि थरूर अक्सर कहते हैं कि हिंदू धर्म एक बहुलवादी, खुला, विविध दृष्टिकोण है जो किताबी धर्मों के साथ-साथ हिंदू धर्म के संघ के उस संस्करण के उलट है जिसे संघ हिंदुत्व कहता है. इसे ध्यान में रखना होगा कि इस तरह की संकीर्ण स्वार्थी भावना बड़ी संख्या में अल्पसंख्यकों की विश्वास प्रणाली को संरक्षण प्रदान करती है, और साथ ही, उस प्राथमिक शर्मिंदगी से भी बचती है जो हिंदू धर्म के मूल में है यानी जाति की.
यही है नई कांग्रेस जो बिल्कुल पुरानी कांग्रेस की तरह है जिसे इंदिरा गांधी ने आपातकाल के बाद अपनी हार से उबरने के बाद बनाया था. 1980 से 1990 के दशक में,ॉ उन्होंने और उनके बेटों ने सांप्रदायिक राजनीति को पोसा, जिसने सिख और हिंदू कट्टरपंथ दोनों को बढ़ावा दिया. अकालियों को सत्ता से हटाने के लिए सिख कट्टरवाद के साथ कांग्रेस के गठजोड़ या बाबरी मस्जिद विवाद में उसके हस्तक्षेप के बिना न तो पंजाब काबू से बाहर होता, न ही हिंदू दक्षिणपंथ उस तरह समृद्ध होता जैसा कि हुआ है.
जिस मुस्लिम समर्थन को पार्टी सहज मान कर ही चल रही थी उसके बदले में पार्टी ने उसे क्या दिया? मुसलमानों में कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने पर संघ के संगठनों और दूसरे हिंदुत्व समूहों से खतरे का डर था. इस अवधि के दौरान, विकास, शिक्षा या प्रतिनिधित्व के मुद्दों पर कोई ठोस प्रयास नहीं किए गए. इसने कांग्रेस के हित में काम किया कि अशरफ मुसलमानों की एक छोटी मंडली को पूरे समुदाय के लिए बोलने दिया, उसी तरह जैसे उनका मानना था कि बड़े पैमाने पर उच्च जाति का हिंदू पार्टी नेतृत्व भारत की विविधता की नुमाइंदगी कर सकता है.
निस्संदेह, हिंदू दक्षिणपंथ से खतरा वास्तविक है और सुरक्षा की असल में जरूरत है. लेकिन कांग्रेस उसी पुराने ढर्रे पर चलने पर आमादा दिख रही है. अगर वह सत्ता में वापस आती है, तो भी वह हिंदू दक्षिणपंथ की लगातार बढ़ती ताकत में थोड़ी भी कमी सुनिश्चित नहीं कर सकती है.
वास्तव में अगर इसे कुछ करना चाहिए तो यही कि ओबीसी के बीच सामाजिक न्याय के लिए एक प्रशंसनीय दृष्टिकोण को परिभाषित करे और फिर उसे संप्रेषित करे, साथ ही उस समर्थन को मजबूत करे जो इसे कभी दलितों और आदिवासियों के बीच हासिल था. मध्य प्रदेश में आदिवासी वोट, जो आबादी का 21 फीसदी है, दोनों पार्टियों के बीच बंटता रहा है लेकिन फिर भी, कांग्रेस के पास देने के लिए कुछ भी नहीं है. इसका घोषणापत्र पेसा कानून लागू करने की बात करता है लेकिन जैसा कि कारवां की एक रिपोर्ट में बताया गया है, पार्टी पहले ही प्रमुख प्रावधानों को कमजोर करके छत्तीसगढ़ में पेसा लागू करने के अपने वादे से मुकर गई है.
सामाजिक न्याय के लिए स्पष्ट रूप से सोचे-समझे कार्यक्रम के अभाव में राहुल का मध्य प्रदेश के अपने भाषणों में जाति जनगणना का समर्थन करना अस्थिर है. इसे गहराई की जरूरत है और इस वक्त इसी का अभाव है. इसे संदेश के साथ जुड़े रहने की क्षमता की जरूरत है. यह सुविधा की बात नहीं हो सकती, जो कि राज्य के उनके दौरों के बाद अडानी या आरएसएस पर उनके हमलों से प्रतीत होता है. उन राज्यों में जहां कांग्रेस को अडानी की कृपा का लाभ मिल रहा है, जो नाथ से शुरू होकर गहलोत तक जाता है, इस मुद्दे को किनारे कर दिया गया है. जहां आरएसएस सबसे मजबूत स्थिति में है, राहुल आरएसएस का ठीक उसी जगह जिक्र करने से बचते रहे.
कांग्रेस को यह समझना होगा कि उसके पास ऊंची जाति के वोटों में सेंध लगाने का कोई मौका और कोई साधन नहीं है. और जब तक यह मामला है, वह खुलेआम मंदिरों में घूम-घूम कर बीजेपी के लिए ओबीसी समर्थन को नहीं तोड़ सकती. राज्य चुनाव के नतीजे, अगर वास्तव में कांग्रेस के पक्ष में आते हैं, तो भी यह बीजेपी से दूर जाने के किसी वास्तविक दीर्घकालिक संकेत का सुझाव नहीं देता है. यह तब दिखाई देगा जब पार्टी राष्ट्रीय चुनावों में उतरेगी.
पार्टी को यह समझना चाहिए कि हिंदुत्व का दृश्य प्रतीकवाद ओबीसी के बीच आरएसएस के काम का केवल एक हिस्सा है और नकल के जरिए इसका मुकाबला करने की उम्मीद नहीं की सकती. ऐसा करने से केवल यही साबित किया जाता है कि आरएसएस का कैडर आज किसी भी बातचीत में खुलेआम दावा करता है कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस बिल्कुल वैसी ही कांग्रेस है जिसकी आरएसएस हमेशा मांग करता रहा है.