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गीता पाठ के तीसरे दिन कथावाचक गोविंद मुदगल शास्त्री ने अपने झूमते हुए भक्तों से कहा कि जो कान गीता को नहीं सुनते, वे कान सांप के बिल के समान होते हैं. यहां शास्त्री मध्यकालीन ब्राह्मण कवि तुलसीदास रचित रामचरितमानस को उद्धृत कर रहे थे. इसके तुरंत बाद उन्होंने व्यास रचित महाभारत के हवाले से भक्तों को कहा कि, "तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं होती. कोई कुछ कहता है और तुम उसमें अगर बार-बार तर्क करते रहोगे, तो तर्क वास्तव में अंत ही नहीं लेता." इस तरह वह भक्तों को समझा रहे थे कि गीता को अपने जीवन में अपनाने के लिए तर्क जरूरी नहीं है. फिर शास्त्री ने कृष्ण की कहानी को आगे बढ़ाया.
उनकी कहानियों में राजा है; उनकी आज्ञाकारी पत्नियां हैं; पिता और उनकी बेटियां हैं जिनमें से एक को प्यार मिलता है दूसरी को नहीं और गुरु-शिष्य हैं. ऐसे दर्जनों चरित्र एक के बाद एक कथानक में आते हैं. गीता के साथ-साथ शास्त्री अलग-अलग साहित्य से कई ऐसी ही कहानियां अपनी कथा में समाहित कर लेते हैं. मगर गौर से सुनें, तो इन कहानियों के दो सार समझ आएंगे. पहला यह कि, हर पात्र एक रूढ़िवादी समाज से आता है जो उस समाज में हर वर्ग के लिए निर्धारित नियमों से बंधा है. मिसाल के लिए अगर एक पत्नी है, तो उसके लिए पति की हर बात को मानना ही धर्म है. एक ब्राह्मण है तो समाज के सारे लोग उसे गुणी, धनी और चरित्रवान ही मानेंगे, और एक राजा है तो उसके लिए ब्राह्मण गुरु के आदेश पर चलाना ही आदर्श शासन है. दूसरी बात उनकी कथा में यह है कि उसके पात्रों के सभी दुखों और हर उलझन का समाधान ब्राह्मण गुरु के पास है. गीता का यह पाठ हाल ही में बिहार के नालंदा जिले में सात दिन तक चला. हर रोज शहर के कई निवासी शास्त्री की कथा में शामिल हुए और जिस तरह वे दोनों हाथ जोड़े शास्त्री को घंटो सुनते रहे, यह उम्मीद करना गलत नहीं होगा कि वे अपने घर जा कर उन नियमों को अपने जीवन में उतारते होंगे.
गीता पाठ का यह आयोजन लोक जनशक्ति पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष रजनीश सिंह और उनकी पत्नी निधि सिंह करवा रहे थे. उनकी पत्नी निधि सिंह हाल ही संपन्न हुए नगर निकाय चुनाव में उप महापौर की प्रत्याशी थीं. हालांकि वह चुनाव हार गईं मगर उन्हें बीस हजार मत प्राप्त हुए जो एक प्रत्याशी के लिए अच्छा प्रदर्शन माना जा सकता है. सिंह ने कहा कि उन्होंने अपनी पत्नी के समर्थकों का धन्यवाद करने के लिए गीता का पाठ करवाया. उन्होंने कथावाचक शास्त्री के साथ उनके पिता मुदगल शास्त्री को भी वृंदावन से बुलवाया था.
कथावाचक आम तौर पर हिंदू धर्म साहित्यों के जानकार ब्राह्मण होते हैं जो इनका प्रचार-प्रसार या तो निजी तौर पर करते हैं या इस तरह के बुलावे पर. मुदगल शास्त्री ने गीता पाठ का आयोजन कराने के पीछे की वजह बताते हुए कहा कि सिंह दंपति धार्मिक विचारों के व्यक्तित्व हैं और क्योंकि वे जनता के प्रतिनिधि हैं तो उन्होंने समाज में भी अपने विचारों को फैलाने का सोचा. कथा के दरम्यान भी गोविंद ने रजनीश को यह कहते हुए धन्यवाद दिया कि वह बड़े यशश्वी हैं क्योंकि उन्होंने चुनाव हार कर भी कथा का आयोजन करवाया. शास्त्री के पाठ के बीच में रजनीश के राजनीतिक व्यक्तित्व की तारीफ करना उनकी पत्नी के लिए बेशक समर्थन बढ़ाने में मददगार होगा. सिंह के गीता पाठ के कार्यक्रम में नव निर्वाचित मेयर अनीता देवी और उनके पति मनोज तांती भी शामिल हुए. तांती सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) के बुनकर मोर्चा के अध्यक्ष भी हैं.
पाठ का आयोजन निकाय चुनाव के दो सप्ताह बाद मकर संक्रांति के दिन शुरू हुआ था. पहले दिन सिंह दंपती ने अपने सिर पर मटक रख कर शहर में घूम कर गीता पाठ के शुरू होने का प्रचार किया था. सिंह दंपति से सप्ताह भर पहले ही शहर के भारतीय जनता पार्टी के विधायक सुनील कुमार ने भी गीता पाठ का आयोजन शहर के दूसरे कोने में किसी और कथावाचक से करवाया था. कुमार ने अपने गीता श्रवण की तस्वीर अपने फेसबुक पर लगाते हुए लिखा कि वह ऐसा "समाज और राष्ट्र की शांति के लिए" कर रहे हैं.
सत्तारूढ़ हो या विपक्ष के नेता दोनों ही नालंदा में हिंदू धर्म का लगातार प्रचार प्रसार कर रहे हैं. नालंदा के सभी प्रमुख दल के नेताओं की गतिविधियां सिर्फ गीता के पाठ तक सिमित नहीं है. ये सभी नेतागण सालों भर हिंदू देवी-देवताओं की पूजा, ब्राह्मणों को दान, धार्मिक विचारों का प्रचार-प्रसार, मंदिरों का पुनःनिर्माण और हिंदू त्योहारों के आयोजन से लेकर उनमें स्वयं बढ़-चढ़ कर कर हिस्सा लेने का काम भी करते हैं. नालंदा एक प्रकार से केंद्र में बैठे ब्राह्मणवादी विचारधारा की सत्तारूढ़ बीजेपी दल के नेताओं का प्रतिबिंब ही है. ये सब काम स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी साल भर करते हैं और ऐसा करते हुए वह यह भी कोशिश करते हैं कि मीडिया के माध्यम से उन्हें पूरा देश देखे. मोदी ने एक गणतांत्रिक सरकार में हिंदू धर्म को खुले रूप से सरंक्षण देने वाले देश के मुखिया के रूप में अपनी अलग पहचान स्थापित की है. हालांकि केंद्र और नालंदा के सत्तारूढ़ दल में फर्क यह है कि केंद्र की बीजेपी को अपने ब्राह्मणवाद विचारधारा से परहेज नहीं है, जबकि नालंदा की जदयू या लोजपा खुद को क्रमश: समाजवादी और सामाजिक न्याय की विचारधारा वाली पार्टियां मानती हैं.
फिलहाल इस लेख का विषय यह है कि नालंदा के प्रशासनिक कार्यालय बिहार शरीफ में किस तरह लगातार हिंदू धर्म और रूढ़िवादी विचारधारा को राजनीतिक सरंक्षण और वैधता मिल रही है. इसकी जिम्मेदार पिछले सात सालों में केंद्र की बीजेपी सरकार की हिंदू धर्म को भारतीय राजनीतिक विचारधारा में स्थापित करने की नीति है या नहीं, ये कहना मुश्किल होगा. क्योंकि बिहार शरीफ में 2015 से पहले करीब दो दशकों तक ना बीजेपी के विधायक रहें ना उनके सांसद. यहां की नगरपालिका में भी जदयू का हमेशा से प्रभाव रहा. बिहार शरीफ के वर्तमान विधायक सुनील कुमार 2020 में चौथी बार चुने गए. अपनी विधायकी के पहले दो कार्यकाल उन्होंने जदयू में रह कर ही पूरे किए थे. इस तरह यहां के राजनीतिक दल की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि वे अपने हिंदू होने का प्रमाण साबित करके ही सत्ता में आ सकते हैं. बिहार शरीफ में मुस्लिम आबादी भी लगभग 33 प्रतिशत है जबकि अनुसूचित जाति करीब 8 प्रतिशत. जैसा की मैंने अपने पिछले लेख "अछूत भारत से अमृत महोत्सव तक" में लिखा था कि अनुसूचित जाति अपने आप में एक अलग वर्ग है जो हिंदू हो कर भी हिंदू समाज का हिस्सा पूरी तरह नहीं होता और उनके पूजा पाठ सवर्ण हिंदुओं से पृथक होते हैं. ऐसे में हिंदू धर्म को राजनीतिक विचारधारा में जोर शोर से शामिल करना, इसे संरक्षण देना, बिहार शरीफ में लगभग 40 प्रतिशत आबादी को राजनीतिक रूप से अनदेखा करने जैसे होगा. उनकी संस्कृति, खान पान, त्योहार, शिक्षा, संपत्ति, शादी व्याह से जुड़े निजी पारंपरिक कानूनों, इत्यादी को राजनीतिक तबज्जो नहीं दी जाएगी क्योंकि सत्ता में रहने वाले हर दल सिर्फ हिंदुओं के हित की परवाह करेंगे. संवैधानिक तौर पर भी किसी विशेष धर्म को राजनीतिक सरंक्षण देना गैर कानूनी है. संविधान की अनुछेद 25-28 में भारत के प्रत्येक नागरिक के धार्मिक आजादी का उल्लेख है. ये अनुछेद सरकार को किसी एक विशेष धर्म की तरफदारी या पक्ष लेने से मना करता है. संविधान सरकार को हर धर्म के प्रति समान दृष्टिकोण रखने की इजाजत देता है. ऐसे में बिहार शरीफ में किसी भी धर्म को राजनीतिक सरंक्षण मिलना संवैधानिक मूल्यों का भी उल्लंघन है.
बिहार शरीफ के राजनीतिक विचारधारा के परिवर्तन की कहानी में इसके बुद्धिस्ट इतिहास का जिक्र जरूरी है. इस शहर से बमुश्किल 30 किलोमीटर पर स्थित है राजगीर, जो 2500 साल पुरानी मौर्या साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था. उस समय यह पूरा क्षेत्र मगध के नाम से जाना जाता था. मौर्या साम्रज्य में बुद्धिज्म को राजनीतिक सरंक्षण दिया गया था. इसके अलावा राजगीर और बिहार शरीफ के बीच 5वीं/7वीं सदी का प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय भी स्थित है. इसी विश्वविद्यालय के विदेशी विद्यार्थियों ने बुद्धिज्म को पुरे दुनिया में फैलाया था. बिहार शरीफ का जिक्र संविधान निर्माता बी. आर. आंबेडकर भी अपने लेख "बुद्धिज्म का उत्थान और पतन" में करते हैं. वह लिखते हैं कि मुसलमानों के भारत में आगमन से पहले बिहार शरीफ बुद्धिज्म का गढ़ हुआ करता था. एक सवाल हो सकता है कि अगर मगध में कभी बुद्ध धर्म को राजनीतिक सरंक्षण था तो हिंदू धर्म को वैसा ही सरंक्षण मिलना गलत कैसे? इसका जवाब आसान है. पहले तो हम 2000 साल पुरानी शासन और समाज की तुलना अभी के शासन व्यवस्था और समाज से नहीं कर सकते. दूसरा, दुनिया के ज्यादातर सभ्य समाज 21वीं सदी में धर्म निरपेक्ष जनतंत्र से चलती है नाकि धर्म आधारित ग्रंथ से. इसके अलावा, मेरे निजी विचार में बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म की तुलना राजनीतिक दर्शन के परिपेक्ष्य में भी न्यायसंगत नहीं है. क्योंकि जैसा आंबेडकर ने अपने लेख "बुद्ध और कार्ल मार्क्स" और फिर "हिंदू धर्म के दर्शन" में लिखा है कि, जबकि बुद्ध के दर्शन के केंद्र में समानता है, वहीं हिंदू धर्म के केंद्र में वर्ण व्यवस्था जैसा सामाजिक अलगाव. हालांकि आंबेडकर के विचार को हिंदू धर्मी व्यक्ति-निष्ठ मान सकते हैं मगर तथ्य यह है कि उन्होंने दोनों धर्मो का विश्लेषण प्रमाण के साथ किया था.
मुद्दे की बात यह है कि बिहार शरीफ की ऐतिहासिक विरासत समानता और अहिंसा की रही है. वर्तमान कि अगर बात करें तो आजादी के बाद बिहार शरीफ से, 2015 से पहले सिर्फ एक बार 1990-95 में बीजेपी के विधायक हुए, जबकि 1972-77 में एक बार जनसंघ के विधायक चुने गए थे. बिहार शरीफ, नालंदा लोक सभा का हिस्सा है. नालंदा से आजादी से आज तक एक बार भी बीजेपी के सांसद नहीं हुए. पिछले 25 सालों में नालंदा लोकसभा पर जदयू का कब्जा है. बिहार शरीफ में ही बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडेस के साथ मिल कर समता पार्टी का निर्माण किया था. फर्नांडेस नालंदा से 1996 से लेकर 2004 तक सांसद रहे. फिर 2004 में नीतीश कुमार नालंदा लोकसभा से चुने गए और केंद्र में मंत्री भी बने. बिहार शरीफ की ऐसी राजनीतिक पृष्ठभूमि में हिंदू धर्म को राजनीतिक सरंक्षण मिलना अटपटा सा लगता है. यहां के राजनीतिक दल अब क्यों हिंदू धर्म का प्रचार प्रसार कर रहें हैं, इसका प्रमाणित जवाब मेरे पास नहीं है, मगर बिहार शरीफ का निवासी होने के नाते मैं यह कह सकता हूं कि ब्राह्मणवाद का एक आवेग यहां के समाज में लोगों के रहन सहन में हमेशा से रहा है. बहरहाल हमें समझना चाहिए कि किस तरह राजनीतिक दल और उनके नेता हिंदू धर्म को नालंदा के विचारधारा में स्थापित कर रहें हैं.
गोविंद शास्त्री की उम्र 20-25 के बीच होगी. लेकिन उनकी सभाओं में आने वाले ज्यादातर लोग अधेड़ और शादीशुदा औरतें होती हैं. जब वह स्टेज पर जा रहे होते हैं तो ये अधेड़ उम्र के भक्त उनके पैरों को छूने के लिए आतुर रहते हैं. तीन-चार घंटे के पाठ के दौरान औरतें सिर पर पल्लू रखे, हाथ जोड़े, थोड़े-थोड़े हिलते हुए, शास्त्री की बातों को सुनती रहती हैं. पाठ के अंत में सीनियर शास्त्री (मुदगल शास्त्री) करीब एक दर्जन भक्तों को गीता को प्रणाम करने के लिए बारी-बारी से स्टेज पर बुलाते हैं. मंच पर आने वाले भक्त गीता को प्रणाम कर, दोनों शास्त्री के पैर छूते, फिर अपनी जेबों से 500 के नोट निकाल कर गोविंद के पैरों पर दक्षिणा स्वरुप रख देते. रजनीश ने शास्त्री के लिए अपने घर के ही पास करीब 2-3 कट्ठा जमीन पर पंडाल बनवाया था. पंडाल में सामने के स्टेज पर एक सिंहासन था जिस पर शास्त्री सीनियर बैठे होते, जो बीच में सिर्फ “राधे-राधे” बोलते थे. उनके बगल में एक गद्देदार जगह होती जिस पर शास्त्री जूनियर बैठ कर कथा करते. शास्त्री जूनियर के लिए दो माइक लगे थे और दो मसलंद तकिए. उनके पीछे फूलों से बना एक चक्राकार हेलो भी था. शास्त्री जूनियर की कथा को सपोर्ट करने के लिए बैकग्राउंड में लगातार बांसुरी का संगीत चलता रहता. उनके स्टेज के किनारों पर बड़े-बड़े साउंड बॉक्स लगे थे जिससे कभी इंस्ट्रुमेंटल, तो कभी भक्ति गाने बजते. ये गाने बॉलीवुड गानों की धुन पर बने होते मगर इनके बोल बदले होते. शास्त्री की कथा का फॉर्मेट ऐसा था कि हर 15 मिनट में वह कथा कहते हुए रुक जाते फिर गाने चला दिए जाते. गाने बजते ही भक्त झूमने लगते. भक्त सभी जमीन पर ही बैठे होते. एक तरफ औरतें तो एक तरफ आदमी. आदमी के साइड में आगे की पंक्ति में कुछ सोफे लगे थे जिस पर रजनीश और उनके राजनीतिक मित्र, शासन और प्रशासन के लोग आकर बैठते.
हर रोज पाठ की शुरुआत रजनीश और निधि द्वारा गोविंद की आरती उतारने से होती. आरती के समय बैकग्राउंड म्यूजिक लगा होता जबकि शास्त्री के दो चेले उनके पीछे खड़े होते. जब शासन प्रशासन के लोग सभा में आते तो वे भी दोनों शास्त्री के पैर छूते, उनके सामने हाथ जोड़े खड़े रहते और फिर दक्षिणा भी देते. पाठ के तीसरे दिन नव निर्वाचित मेयर अनीता देवी और उनके पति तांती आए तो उन्होंने भी दोनों शास्त्री के पैर छुए, उन्हें दक्षिणा दी और हाथ जोड़े उनके सामने खड़े रहे. चौथे दिन जब मैं पहुंचा तब कई पुलिस अधिकारी भी शास्त्री के दर्शन को आए थे. पाठ के सातवें दिन रजनीश ने भंडारा रखा था. उस दिन मेयर अपने पति तांती के साथ फिर आईं. उनके अलावा, राजगीर के विधायक कौशल किशोर और नालंदा लोक सभा के सांसद कौशलेन्द्र कुमार भी आए.
मेयर, विधायक, सांसद ये सभी संवैधानिक पद हैं जिनकी निष्ठा सिर्फ संविधान के प्रति होनी चाहिए है. उनका किसी धर्म प्रचारक के आगे इस तरह झुकना उनकी संवैधानिक गरिमा को कमजोर करता है. भारत धर्म प्रधान नहीं, बल्कि एक धर्म निरपेक्ष संघ है. फिर भी खुलेआम बिना किसी भय के तीनों संवैधानिक प्रतिनिधियों ने शास्त्री के पैर छू कर जनता में संदेश दिया कि गोविंद और मुदगल शास्त्री उनसे भी ऊपर है. उनका कृत्य शास्त्री की रूढ़िवादी बातों को भी वैधता प्रदान करता है. सीनियर शास्त्री ने लोकल मीडिया को दिए अपने एक इंटरव्यू में कहा कि वे दोनों पिता-पुत्र बिहार शरीफ में वही काम कर रहें हैं जो धर्म के द्वारा एक ब्राह्मण को अनुमोदित है. उन्होंने कहा कि, "ब्राह्मण के छह कर्म होते हैं : यज्ञ करना, यज्ञ कराना, विद्या पढ़ना, विद्या पढ़ाना, दान देना और दान लेना." जब मैं चौथे दिन पाठ सुनने गया तो लोगों के व्यवहार को देख कर लगा कि सीनियर शास्त्री ने अपने भक्तों के बीच संपूर्ण ब्राह्मण समुदाय के लिए इज्जत बढ़ा दी थी. उनके द्वारा कहे हुए शब्दों से भक्त बार-बार अपना सिर झुका कर सहमति जताते दिखे.
दैनिक भास्कर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, पाठ के तीसरे दिन जूनियर शास्त्री ने भक्तों से कहा कि कलयुग चार स्थानों में रहते हैं. कलयुग को हिंदू धर्म में बुरे कालखंड से जोड़ा जाता है जिसमें नैतिकता खत्म हो जाती है. भास्कर के मुताबिक, शास्त्री ने कलयुग के बसने की चार जगहों में एक जगह "स्त्री गमन" को कहा. स्त्री गमन किसी स्त्री से यौन संबंध रखने को कहते हैं. शास्त्री का कहना था कि स्त्री से यौन संबंध रखने का निर्णय किसी पुरुष को हस्तानांतरित कर देता है. अविवाहित स्त्रियों के साथ संबंध रखने को भी कलियुग माना जाएगा. भारतीय संविधान भारत के व्यस्क नागरिकों को आपस में अंतरंग संबंध बनाने की पूर्ण आजादी देता है. यह किसी को नियंत्रित नहीं करता है. शास्त्री ने यह भी कहा कि जो लोग मांसाहारी होते हैं वे दयालु नहीं हो सकते. धर्म के हवाले से दी गई उनकी यह सीख भी किसी नागरिक के खाने-पीने के विकल्प को नियंत्रित करती है जो संविधान के खिलाफ है. जब भी इसकी सीख शास्त्री लोगों को देते तो साथ में धर्म के उन श्लोकों का भी उद्धरण कर देते जिनमें ब्राह्मण गुरुओं को सर्वोपरि माना गया है ताकि उनकी वाणी से निकली किसी बात पर न विरोध हो और न तर्क-वितर्क. शास्त्री ने कहा कि अगर परमात्मा का सानिध्य चाहिए तो संत से लगाव रखना चाहिए. वह कहते है कि जो धर्म को पकड़ लेते हैं उनके पास यश खुद ब खुद आ जाता है. धर्म को पकड़ने से उनका अभिप्राय धर्म के नियमों को मानने से है. अगर शास्त्री की बातों को जीवन में उतारा जाए तो औरतों और पिछड़ी जातियों के तमाम मनवाधिकार जो संविधान हर नागरिक को बिना भेदभाव देती है वे ब्राह्मण और अन्य ऊंची जातियों के हाथों में चले जाएंगा.
इस विश्लेषण में पाठक इस बात पर विरोध दर्ज कर सकते हैं कि मैं सिर्फ शास्त्री की कुछ बातों का उद्धरण कर रहा हूं जबकि उनके पूरे पाठ का सार शायद कुछ और रहा होगा. पाठकों की संतुष्टि के लिए मैं शास्त्री के सातों दिन के पाठ का दीर्घ वर्णन तो नहीं कर सकता, मगर मेरे विचार में कोई भी ऐसी बात जो किसी दूसरे मनुष्य को उसकी जाति या लिंग के आधार पर अलग करती है तो वह अपने आप में अमाननीय है चाहे उसके साथ दस अन्य दूसरी बात कही जाए. सीनियर शास्त्री से जब स्थानीय पत्रकार ने पूछा था कि गीता सुनने से क्या फायदा होता है तो उन्होंने कहा, "यह जीवन में संस्कार बनाती है". ऐसे संस्कार मेरे विचार में एक समतामूलक समाज का निर्माण नहीं कर सकते हैं. मैं अपनी बहस को आंबेडकर के हवाले से सिद्ध करूंगा. संविधान निर्माता आंबेडकर ने अपने लेख, रिवोल्यूशन एंड काउंटर रिवोल्यूशन इन एनशिएंट इंडिया, में गीता को ब्राह्मणवाद स्थापित करने वाला एक साहित्य बताया है. उनके अनुसार, ब्राह्मणवाद एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य समाज के लोगों को विशेष प्रकार के अधिकार और प्रतिरक्षा प्रदान करती है. ऐसी व्यवस्था जो स्त्रियों और शूद्रों का शोषण करती है, जो जन्म आधारित सामाजिक अनुक्रम को मान्यता दे कर एक श्रेणीकृत यानी ग्रेडिड असमानता का निर्माण करती है. इसी व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था कहते हैं.
आंबेडकर लिखते हैं कि गीता में दिए सिद्धांतो को दर्शनशास्त्र से पूर्व के ब्राह्मण लेखकों ने बड़ी चतुराई से जोड़ दिया. वह मानते हैं कि गीता की ऐसा व्याख्या गलत है और गीता का जीवन दर्शन से कोई लेना देना नहीं है. इन लेखकों में वे बल गंगाधर तिलक को सबसे ज्यादा जिम्मेदार ठहराते है. आंबेडकर लिखते हैं कि गीता में दिए कर्म सिद्धांत का संबंध मनुष्य के गतिविधि या उनके काम करने से बिलकुल भी नहीं है. बल्कि, कर्म का मतलब कर्मकांड से है. जैसे यज्ञ करना और करवाना. शास्त्रों में, आंबेडकर लिखते हैं कि, आर्य संस्कृति में 21 तरह के यज्ञों का जिक्र है. उनमे सबसे बड़ा यज्ञ इंसानों की बलि देने वाला होता था, जबकि दूसरे नंबर का घोड़ों की जिसे अश्वमेध यज्ञ भी कहते थे. आंबेडकर लिखते हैं कि गीता में दिया कर्म शब्द का संबंध इसी कर्मकांड से है. उसका दर्शनशास्त्र से कोई लेना देना नहीं है. वह यह भी लिखते हैं कि गीता में दिए ज्ञान मार्ग के सिद्धांत का संबंध भी कोई सचमुच की ज्ञान प्राप्ति से नहीं है, बल्कि वेद-पुराणों और ब्राह्मण साहित्यों के पढ़ने को ज्ञान कहा गया है. आंबेडकर लिखते हैं कि गीता अपने असल रूप में एक तरीके से जैमिनी की पूर्वमीमांसा का ही नया संस्करण है. गीता में कर्म या ज्ञान के सिद्धांत को दर्शनशास्त्र से ब्राह्मण लेखकों के द्वारा बाद के दशकों में जोड़ा गया जो असल में बुद्ध धर्म के विचार थे.
आंबेडकर के अनुसार, गीता किसी एक लेखक द्वारा लिखी कोई एक किताब नहीं है. बल्कि कई लेखकों के द्वारा अलग-अलग कालखंड में लिखी गई रचना है जिसके विकास को मोटे तौर पर तीन चरणों में समझा जा सकता है. पहले चरण में गीता सिर्फ दो भाइयों के बीच एक युद्ध की कहानी हुआ करती थी जिसे आम जान मानस आपस में कहते सुनात थे. दूसरे चरण में ब्राह्मण लेखकों ने इन किंवदन्तियों में सामाजिक प्रतिबंध और नियम जोड़ दिए ताकि वे नियम लोगों की चेतना में कहानियों के जरिए स्थापित कर दिए जाएं. इन नियमों से उच्च जातियों को फायदा होता था. और तीसरे चरण में उन्होंने उपदेश और दर्शनशास्त्र भी जोड़ दिए जो आंबेडकर के मुताबिक असल में बुद्ध धर्म की किताबों से लिए गए थे. आंबेडकर लिखते हैं कि गीता ने लोगों के ऊपर दो प्रतिबंध लगाएं हैं : पहला यह कि कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी जन मानस में कर्मकांड के खिलाफ कोई शंका पैदा न करे, कर्मकांड के मानने में वर्ण व्यवस्था को मानना भी शामिल है, और दूसरा प्रतिबंध यह कि सभी लोगों को अपनी जाति धर्म का जरूर पालन करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से ही मोक्ष मिलेगा. आंबेडकर का यह मूल्यांकन और भी प्रासंगिक हो जाता है जब उनके द्वारा बनाए गए संविधान के प्रतिनिधि नालंदा में गीता की वैधता को पुनः स्थापित करने में लगे हैं.
मजे की बात यह है कि नालंदा में ब्राह्मणवाद या हिंदू धर्म को सरंक्षण देने वाले लगभग सभी पिछड़ी जाति के नेता है. सिंह दंपति यादव समाज से आते हैं और शहर के खानदानी रईसों में हैं. निधि झांसी की रहने वाली हैं और उनके पिता श्याम सूंदर सिंह यादव समाजवादी पार्टी से उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य रह चुके हैं. रजनीश उर्फ राजू का खानदान दर्जनों कट्ठा जमीन के मालिक रहे हैं. इनके बाप दादा ने शहर को सबसे पुराना सिनेमा हॉल, कुमार सिनेमा, दिया था. लोग आज भी राजू को कुमार सिनेमा के मालिक के नाम से जानते हैं. सिंगल स्क्रीन की लोकप्रियता कम होने के साथ कुमार सिनेमा अब उतना मशहूर नहीं रहा, मगर सिनेमा के मालिक ने आसपास की जमीन शॉपिंग मॉल को बेच दी जिससे उन्हें सालाना करोड़ों की आमदनी होती है. राजू सिंह की पत्नी को बीजेपी के अनुसांगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद का भी समर्थन प्राप्त था. निधि सिंह का चुनावी कैंपेन शहर में बजरंग दल वालों ने मिल कर किया था. यह अजीब बात थी क्योंकि बीजेपी के मेयर और उप मेयर प्रत्याशी कोई और थे. बिहार में लगभग 15 सालों से महिलाओं को नगरपालिका और ग्राम पंचायत चुनाव में 50 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है. मगर जमीनी हकीकत यह है कि लगभग सभी महिला प्रत्याशी और चुने हुए प्रतिनिधि सिर्फ नाम के लिए ही हैं. उनका सभी काम उनके पति ही करते हैं. राजनीति में इसे ऐसी मान्यता मिली है कि अब उनके पीछे खड़े मर्द को मेयर प्रतिनिधि, विधायक प्रतिनिधि, सांसद प्रतिनिधि जैसे पद से भी बुलाया जाता है. जैसे पूरे कैंपेन में रजनीश को ही लोग असल प्रतियाशी मानते रहे. इसी तरह नवनिर्वाचित मेयर अनीता के पति तांती को मेयर प्रतिनिधि कहा जाता है और मेयर के लगभग सारे आधिकारिक काम वही करते हैं. अनीता के मेयर चुने जाने के कुछ दिन बाद ही तांती बिहार शरीफ नगरनिगम का "निरिक्षण" कर रहे थे. उप मेयर आयशा शाहीन के पीछे की असली ताकत उनके पति दानिश मालिक है जो हर आधिकारिक काम को शाहीन की जगह अंजाम देते हैं. यह बिहार शरीफ के पितृसत्तात्मक समाज की एक झलक है जिसे समाज भी बहुत सहजता से स्वीकार करता है. बहरहाल हमारे इस लेख में बहस इस बात को लेकर है कि ब्राह्मणवाद को बिहार शरीफ में राजनीतिक सरंक्षण मिल रहा है.
मेयर अनीता और उनके पति तांती अति पिछड़े वर्ग से आते हैं. अगर उनकी पिछले एक साल की राजनीतिक गतिविधियों पर नजर डालें तो दिखेगा कि वह अपनी राजनीति से लगातार हिंदू धर्म का समाज में प्रचार प्रसार करते रहें हैं. दिसंबर में निकाय चुनाव में प्रचार की शुरुआत उन्होंने शहर के शीतला मंदिर में पूजा करने के बाद की थी. सिंह दंपति ने भी शहर में रोड शो शीतला मंदिर से ही शुरू किया था. नवंबर में होने वाले शहर के प्रमुख छठ पूजा में भी तांती दंपति ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. उन्होंने शहर के लगभग आधे दर्जन घाटों पर लोगों के खाने पीने का बंदोबस्त किया. वे हर महीने किसी न किसी मंदिर, कभी शनि देव तो कभी मोरा तालाब यक्ष भगवान, में सार्वजानिक रूप से पूजा करते नजर आते हैं. फिर अपनी पूजा की तस्वीर अपने सोशल मीडिया पर भी डालते हैं. नवंबर में ही, तांती अपनी पार्टी के जिला प्रवक्ता सतीश कुमार के यहां आयोजित सत्य नारायण स्वामी की पूजा में शामिल हुए. तांती ने इसकी तस्वीर भी अपने फेसबुक पर डालते हुए लिखा कि उन्होंने पूजा लोगों की सुख और समृद्धि के लिए की. मैंने पूर्व के अपने लेख में लिखा था कि विश्व हिंदू परिषद लगातार नालंदा के स्थानीय गुरु और त्योहारों को जरिया बना कर समाज में ब्राह्मणवाद फैला रहा है. उसी में मैंने लिखा था कि विहिप के इस अभियान को शहर के एक व्यवसायी प्रफुल्ल पटेल फाइनेंस करते हैं. पटेल पिछड़े वर्ग से आते हैं और पटेल समाज के अध्यक्ष भी है. पटेल ने निकाय चुनाव से पहले तांती की पत्नी अनीता को अपने समर्थन देने की घोषणा कर दी थी और पटेल समाज से अपील की कि वे उन्हीं को वोट करें.
बिहार शरीफ से चार बार विधायक रहे सुनील कुमार कुशवाहा समाज से आते हैं, जो एक पिछड़ा वर्ग है. कुशवाहा तांती की तरह नियमित सार्वजानिक पूजा पाठ और हिंदू त्योहारों के इंतजाम में संलग्न तो रहते ही हैं, उसके अलावा वह बीजेपी के नेता होने के नाते ब्राह्मणवाद को बढ़ाने के लिए हर गैर राजनीतिक काम भी करते हैं. जैसे जनवरी 2021 में बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित राम मंदिर के लिए चलाए भारत व्यापी चंदा अभियान को कुमार ने नालंदा में खूब चलाया. आरएसएस विहिप और बीजेपी दोनों की मातृ संगठन है. यह लगभग 90 साल पुराना एक ऐसा संगठन है जिसका मकसद समाज में पुनः वर्ण व्यवस्था को स्थापित करना है. यह पूरे देश में लगभग 70000 शाखा चलाते हैं जहां युवाओं को अर्धसैनिक ट्रेनिंग दी जाती है और उन्हें हिंदू धर्म को देश में स्थापित करने के लिए प्रेरित किया जाता है. 15 जनवरी 2021 को कुमार आरएसएस के चंदा अभियान कार्यक्रम में शामिल हुए. यह कार्यक्रम शहर के एक पुराने मठ, धनेश्वर घाट, में रखा गया था और इसे आरएसएस ने निधि समर्पण दिवस का नाम दिया था. कुमार ने उस साल अगले महीने अपने फेसबुक पर शहर के एक डॉक्टर से राम मंदिर के लिए 1 लाख रुपए का चंदा प्राप्त करते हुए भी तस्वीर डाली. कुमार नालंदा में पुराने तीर्थस्थान का हिंदुकरण के लिए भी जिम्मेदार है. वह तीर्थस्थलों को हिंदू टूरिस्ट प्लेस की तरह विकसित करवाते हैं. दिसंबर 2018 में उन्होंने शहर के एक पुराने गुरु समाधी को मंदिर की तरह विकसित करवा दिया. इसी साल जनवरी में उन्होंने जिले में एक दलित बस्ती का भी दौरा किया. कुमार ने उनके मोहल्ले में एक मंदिर के पुनर्निर्माण का आश्वासन दिया है. दलितों को हिंदू धर्म से जोड़ने की आरएसएस की बहुत पुरानी योजना रही है. 80 के दशक में इसके लिए उन्होंने सेवा भारती नाम से अलग संस्था बनाई जिनका लक्ष्य दलितों को कुछ आर्थिक मदद देकर उन्हें किसी तरह हिंदू धर्म से जोड़ना था. ऐतिहासिक रूप से अनुसूचित जाति हिंदुओं से एक अलग वर्ग रही है. इसका विस्तार से वर्णन मैंने अपने पुराने लेख “अछूत भारत से अमृत महोत्सव तक” में किया है.
बात अगर मंदिरों के पुनर्निर्माण की हो तो जदयू के सांसद भी पीछे नहीं है. अक्टूबर 2022 में नालंदा के सांसद कौशलेंद्र कुमार ने डिहरा गांव में देवी मंदिर का पुनर्निर्माण करवा कर स्थानीय लोगों को सौंप दिया. कुमार अपने नेता मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तरह कुर्मी समाज से हैं. वह नीतीश और जॉर्ज फर्नांडेस दोनों के करीबी रहे हैं. नीतीश के बाद नालंदा लोकसभा संसदीय क्षेत्र जो जदयू का गढ़ रहा है, कौशलेंद्र के पास ही रहा है. पिछले चार महीनों में कौशलेंद्र नालंदा जिले के बिहार शरीफ, नूरसराय , गिरियक जैसे शहरों में मंदिरों में पूजा, दशहरा में जागरण महोत्सव और पूजा पंडालों का उद्घाटन कर चुके हैं. मई 2022 में कौशलेंद्र ने बिंद प्रखंड में एक हिंदू संघठन द्वारा आयोजित किसी मंदिर में भूमि पूजन किया और कलश यात्रा निकाली. उसी महीने अस्थामा प्रखंड में नालंदा सांसद ने "अखंड कीर्तन" करवाया और इस्लामपुर प्रखंड में गीता पाठ में भी शामिल हुए. सितंबर 2022 में कौशलेंद्र ने नीतीश सरकार द्वारा बनवाए रबर डैम का प्रचार अपने फेसबुक पर किया. इस डैम की खास बात यह है कि पूरा डैम सिर्फ हिंदू धर्मियों के कर्म कांड को आसान बनाने के लिए बनाया गया है. नीतीश सरकार ने इस पर 334 करोड़ रुपए खर्च किए हैं. दरअसल, नालंदा के पड़ोसी जिले गया में हर वर्ष हिंदू लोग फल्गु नदी के किनारे अपने पूर्वजों को दान देने के लिए इकठ्ठा होते हैं. इसे पितृ पक्ष के नाम से जाना जाता है. यह एक कर्मकांड है जिसमे हिंदू अपने पूर्वजों के नाम से नदी किनारे पूजा कराते हैं और फिर मिट्टी के बर्तन में कुछ चावल बहा देते हैं. मिट्टी के बर्तन में चावल को बहाने को तर्पण कहते हैं. कौशलेंद्र ने अपने फेसबुक पर लिखा कि डैम के बनने से "तर्पण के दौरान होने वाली समस्या” नहीं रहेगी. डैम का उद्घाटन करते हुए नीतीश कुमार ने कहा था कि "श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए अब फल्गु नदी में सालों भर पानी रहेगा". फल्गु प्राकृतिक रूप से एक भूमिगत नदी है. इसकी धारा खिसकती रहती है और पानी घटता-बढ़ता रहता है. कर्मकांडो के लिए नीतीश सरकार ने करोड़ों खर्चे और नदी का स्वाभाविक रूप भी बदल दिया. हिंदू धर्म के प्रति इतनी शिद्दत कई बार बीजेपी और कांग्रेस जैसे सवर्ण दलों में भी देखने के नहीं मिलती है. मगर नालंदा के पिछड़े नेताओं में खुद को हिंदू हितैषी साबित करने की होड़ लगी है.
इस साल जनवरी में सिंह दंपति के गीता पाठ के भंडारे में कांग्रेस के नालंदा जिला के अध्यक्ष दिलीप कुमार और लोजपा के जिला अध्यक्ष सत्येंद्र मुकुट भी शामिल हुए. कुमार कुर्मी है जबकि मुकुट और राजगीर के विधायक कौशल किशोर दोनों दलित हैं. इसके अलावा पूर्व उप मेयर शंकर साहू अपनी पत्नी फूल कुमारी के साथ भंडारे में शामिल हुए. साहू पिछड़े वर्ग से आते हैं. पिछड़े वर्ग के कई वार्ड पार्षद और उनके पति भी भंडारे में शामिल हुए. बिहार शरीफ पिछड़ों की राजनीतिक पृष्ठभूमि रही है. यहां न दलित राजनीतिक रूप से कभी एकजुट रहे, न सवर्ण समाज. राजनीतिकमजबूरी न होते हुए भी बिहार शरीफ और नालंदा जिले के पिछड़े नेताओं का हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार करना राष्ट्रीय राजनीतिक माहौल से प्रेरित लगता है. मगर पूरी तरह राष्ट्रीय राजनीतिक माहौल को दोष देना सही नहीं होगा. नालंदा की सामंतवादी और पितृसत्तात्मक सोच भी एक वजह हो सकती है.
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