“सफदर के कत्ल ने देश के अंतर्मन को छू लिया”, नाटककार और लेखक की 31वीं बरसी

साभार लेफ्टवर्ड बुक्स
02 January, 2020

संवाददाता सम्मेलन के बाद हम मे फिर अस्पताल की तरफ चल पड़े. उस दिन सर्द शाम को भी बहुत सारे लोग वहां मौजूद थे और भीड़ बढ़ती जा रही थी. जोगी, बृजेन्द्र और जनम के साथियों के साथ मैं भी बैठा रहा. बहुत सारे लोग आकर, खासतौर से बृजेन्द्र से बात करते थे. इस चक्कर में उस बेचारे को न जाने कितनी बार अपनी यातना के ब्यौरे दोहराने पड़े होगे. शुक्र है कि लोगो नें मुझे अकेला छोड़ दिया था. जब-तब बृजेश आईसीयू से बाहर आता और माला से व सफदर के भाई सुहेल से बात करता. सुहेल भी शाम को ही त्रिवेंद्रम से लौटे थे.

उस रात को शायद साढ़े दस बजे बृजेश आखिरी बार आईसीयू से बाहर आया. उसके पास खबर थी.

सफदर नहीं रहा.

कुछ मिनटों तक एक संनाटा पसरा रहा. फिर किसी ने दबी-सी आवाज में नारा लगाया, “कॉमरेड सफदर अमर रहें!” इस नारे का किसी ने जवाब नहीं दिया. फिर उसने एक और नारा लगाया, “खून का बदला खून से लेंगे!” माला ने उसे तीखी नजरों से देखा और हाथ उठाकर चुप कराया. वो शख्स चुपचाप पीछे हट गया.

मैं जहां बैठा था वही बैठा रहा. सुन्न. शून्य में ताकता. थोड़ी देर बाद माला हमारे पास आई. “जाओ, थोड़ी देर सो लो. कल सुबह पार्टी ऑफिस आना.”

बृजेन्द्र उस रोज थोड़ी देर पहले घर चला गया था. ललित, जोगी और मैं डीवाईएफवाई के दफ्तर गए. हममें से किसी ने कोई बात नही की. ललित लगातार सिगरेट फूंके जा रहा था. हम तीनो बैठे दफ्तर की दीवारो को घूरते रहे. कुछ देर बाद ललित उठा. गालियां बकता हुआ बाहर निकल गया. जोगी और मैं वही पड़े एक कंबल में सिमट गए. फिर नीद ने मुझे अपनी आगोश में ले लिया.

2 जनवरी 1989. माला

2 जनवरी की सुबह माला घर गई थी. नौ बजे तक वह अस्पताल लौट आई. उसको अंदाजा हो गया था कि सफदर बचने वाला नही है. एक सीनियर डॉक्टर ने उसको ये बात बता दी थी. शायद न्यूरोलॉजी डिपार्टमेंट के प्रमुख ने. माला को याद पड़ता है कि डॉक्टर एक शांत स्वभाव के और संतुलित व्यक्ति थे. उन्होंने कह कि सफदर के बचने की उम्मीद बहुत कम है मगर वे लोग हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं. सफदर के सिर में लगी चोटों की किस्म और गहराई को देखते हुए सर्जरी करना मुमकिन नहीं था. डॉक्टर ने कहा कि अगर परिवार के लोग और किसी तरह का इलाज चाहते हैं तो उन्हें कोई ऐतराज नही होगा. माला ने दूसरे किसी इलाज से इनकार कर दिया.

उस दिन अस्पताल में बहुत लोग आए. कुछ माला से जाकर मिले. माला को याद है कि किस तरह बूटा सिंह को लोगो ने आईसीयू में घुसने ही नहीं दिया. दूरदर्शन के भी बहुत सारे कर्मचारी अस्पताल आए थे. सफदर की ये दोस्तियां तब की थीं जब उसने कुछ साल पहले दूरदर्शन के लिए कुछ लघु वृत्तचित्रों पर काम किया था. कलाकार तो दिन भर आते ही रहे. माला को याद है कि उस दिन भीष्म साहनी आए थे, इब्राहिम अल्काजी भी आए थे. सुहेल और माकपा के दिल्ली सचिव जोगेंद्र शर्मा त्रिवेंद्रम से रात को पहुंचे थे.

पूरा दिन इंतजार में गुजरा. सफदर की बहनों, शबनम और शहला ने खाने- पीने का बंदोबस्त किया. दिन में एक दफे अम्माजी और माला को थोड़ी देर के लिए आईसीयू में जाने दिया. वे सफदर को एक फासले से देखकर लौट आई थी. सफदर उस समय वेंटीलेटर पर था.

बीते दिन जनम को तीन जगह नाटक खेलना था इसलिए माला उस स्कूली किताब की पांडुलिपि साथ लेकर गई थी जो वह लिख रही थी. उसे उम्मीद थी कि नाटक खेलने के बीच यहां-वहां उसे कुछ लिखने का समय मिल जाएगा. अब उसका ख्याल पांडुलिपी पर भटका – जाने उसका झोला उसे कभी वापस मिलेगा या नही? मगर शाम को जब वह पार्टी ऑफिस गई तो उसे किसी ने पांडुलिपी सहित झोला थमा दिया.

फिर बृजेश ने सफदर की मौत का ऐलान किया. पर माला अभी घर नहीं गई. उसे सफदर की आंखें दान करनी थी. वह चाहती थी कि सफदर के अंग दान कर दिए जाएं और उसका शरीर चिकित्सकीय शोध के लिए दे दिया जाए. मगर इसमें कानूनी अड़चनें थी, सो ये नहीं हो पाया.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने वही दोहराया जो हमने मोहन नगर अस्पताल में देखा था. कि, उसके कानो, नाक, और गले से बहुत खून बहा था. रिपोर्ट में कहा गया था कि उसके सिर पर भोथरे हथियारो से बने “गहरे घाव” थे. उसके “सिर पर लोहे की छड़ों से कम से कम बीस वार किए गए थे.”

3 जनवरी 1989. अंतिम विदाई

सुबह वी.पी. हाउस स्थित पार्टी ऑफिस में सफदर का पार्थिव शरीर आने से पहले ही विशाल जनसमूह दफ्तर के बाहर जमा हो चुका था. जब सफदर का शव लाल झंडे में लपेट कर पंडाल में रखा गया तब तक कई हजार लोग जमा हो चुके थे.

अपनी यादों के साउंडट्रैक पर मुझे उस दिन की दो आवाजें आज भी सुनाई पड़ती हैं. गगनभेदी नारे और विलाप. मैं रेड वॉलंटियर्स में से एक था. मैं सफदर के शव के साथ खड़ा था. एक मुस्तैद प्रहरी की तरह. मैंने एक ढीली सी लाल शर्ट पहनी थी जो पार्टी ऑफिस में किसी ने मुझे दी थी. मेरे बगल से लोग कतार में गुजरते जा रहे थे. बहुत सारे विपक्ष के नेता थे. वी. पी. सिंह भी आए थे जो उसी साल बाद में प्रधानमंत्री बने. तरह-तरह के लोग सफदर को श्रद्धांजलि देने आए थे. नहीं आए तो सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के नेता नही आए.

कांग्रेस ने ये कहकर पल्ला झाड़ लिया कि ग़ुंडो में उनका कोई आदमी नहीं था.

जब सफदर की अंतिम यात्रा शुरू हुई तो वॉलंटियर्स की कतारें आगे-आगे चल रही थी. पुरुषों ने लाल कमीजे पहनी थी और महिला कॉमरेडो ने लाल किनारी वाली सफेद साड़ियां. हाथो में आधे झुके हुए लाल झंडे थे. वॉलंटियर्स की इन कतारों के पीछे टेम्पो में सफदर की अर्थी रखी गई थी. सुहेल, रैना, भीष्म साहनी, माला, माला के पिता और अम्माजी टेम्पो पर थे. इनके अलावा दिल्ली माकपा के भूतपूर्व, तत्कालीन और भावी सचिव, क्रमशः प्रकाश करात, जोगेंद्र शर्मा और पीएमएस (‘पुशी’) ग्रेवाल भी टेम्पो पर थे. मैं और जनम के अभिनेता टेम्पो के पीछे जनम का बैनर थामे चल रहे थे. हमारे पीछे लोगो का एक हुजूम चला आ रहा था. इस जुलूस में कम से कम पंद्रह हजार लोग रहे होगे. मुझे अंदाजा भी नहीं है कि उनमें से ज्यादातर लोग थे कौन. बहुत सारे तो हिंदी और अंग्रेजी के तमाम राष्ट्रीय दैनिक अखबारों में छपी खबर पढ़ कर पहुंचे थे. सदमे और शोक की भावनाओं से जूझते हुए धीरे-धीरे मैं इस बात को समझने लगा था कि सफदर के कत्ल ने देश के अंतर्मन को छू लिया है. यह बात जनम के वजूद, सफदर की ज़िदगी, और वामपंथ की चिताओं से कहीं ज्यादा बड़ी थी. ऐसा लग रहा था कि इस घटना में वह असंतोष और ग़ुस्सा एक शक्ल ले रहा है जो आने वाले चुनावो में कांग्रेस को धूल चटाने वाला था.

शवयात्रा रफी मार्ग स्थित वी. पी. हाउस से शुरू हुई और संसद मार्गसे कनॉट प्लेस से बाराखंभा रोड, मंडी हाउस, आईटीओ और बहादरशाह जफर मार्ग स्थित अखबारो के दफ्तरो के सामने से होते हुए फिरोजशाह कोटला और उसके बाद गांधी समाधि और रिंग रोड पर बढ़ते हुए आखिर में निगम बोध घाट स्थित विद्युत शवदाह गृह पहुंची. जिस समय हम बहादरशाह जफर रोड से गुजर रहे थे, मुझे 43 भाग एक अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस हुआ. मैंने पीछे मुड़ कर देखा. एक अजनबी था. वह कोई बैंक क्लर्क या किसी अखबार के दफ्तर के कारिंदे जैसा लग रहा था.

“एक्सक्यूज मी, मैं आपसे कुछ पूछ सकता हूं?”

“जी, कहिए.”

“क्या तकरीबन एक महीने पहले कनॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क में आप लोग ही गीत गा रहे थे?”

“जी हां.”

“तो उस दिन ये भी गा रहे थे?” उसने टेम्पो की तरफ इशारा करके कहा.

“जी हां.”

“असल में उस दिन मैं भी वहीं था. मुझे मालूम नहीं था कि आप लोग कौन हैं. मगर हाश्मी साहब की पर्सनेलिटी मेरे जेहन में बस गई थी. मैंने बहुत सारे लोगो को उनके बारे में बताया था. मैंने किसी को वैसे गाते नहीं देखा जैसा ये गाते थे. आप प्लीज अपना काम मत छोड़िएगा. हम आपके साथ हैं. मैं सिर्फ इन्हें श्रद्धांजलि देना चाहता था.”

जैसे वो आदमी आया था, वैसे ही नागाह भीड़ में गायब हो गया.

जब सफदर का पार्थिव शरीर बिजली की भट्ठी में रखा गया, माला ने हमें बुलाया.

“कुछ लोगो का सुझाव है कि कल हमें झंडापुर में हल्ला बोल परफॉर्म करना चाहिए. तुम लोग क्या कहते हो?”

हम सबने निःशब्द हामी भर दी.

“ओके, तो फिर कल सुबह रिहर्सल के लिए मिलते हैं.”

उस रात मैं अपने घर गया. जब मैंने अपने कपड़े उतारे तो अहसास हुआ कि मेरे स्वेटर और जैकेट पर सफदर के खून के निशान थे. उस रात तीन दिन बाद मैं नहाया. फिर मैं अपने बिस्तर में गया और रोता रहा.

4 जनवरी 1989. परफॉर्मेंस

सफदर की मौत के बाद अड़तालीस घंटे से भी कम समय के भीतर हमने झंडापुर में उसी जगह वो नाटक फिर से खेला जो उस दिन रोक दिया गया था. मेरे ख्याल में यह भारतीय रंगमंच के इतिहास में किसी भी नुक्कड़ नाटक की सबसे महत्तवपूर्ण प्रस्तुति थी.

उस दिन हम सुबह तालकटोरा रोड पर इकट्ठा हुए जहां सीटू का केंद्रीय कार्यालय था. इसी के लॉन में हम अपने नुक्कड़ नाटको की रिहर्सल किया करते थे. जिस वक्त नाटक को रोका गया था उस वक्त जो-जो साथी परफॉर्म कर रहे थे आज उन्हीं को फिर से नाटक करना था. सिर्फ एक बदलाव हो गया था. उस दिन विनोद को नौकरी के इंटरव्यू के लिए जाना था. चकिूं मुझे उसकी लाइनें और मूवमेंट मालूम थे इसलिए उसकी जगह मुझे चुना गया. ये इत्तेफाक ही था कि पहली तारीख को मैं झंडापुर में था जबकि उस दिन वहां मुझे जाना नहीं था और चार तारीख को एक बार फिर इत्तेफाक से ही मुझे परफॉर्म करने का मौका मिल रहा था.

सबने फटाफट अपनी लाइनें दोहराईं. परफॉर्मेंस से पहले लोगो को संबोधित करने का जिम्मा आज भी मुझे सौपा गया.

रिहर्सल के बाद हम भाड़े की बस में झंडापुर के लिए रवाना हुए. जब हम मंडी हाउस पहुंचे तो मैंने पाया कि लोगो को झंडापुर ले जाने के लिए और भी बहुत सारी बसें तैयार थी. मेरी गिनती के हिसाब से पंद्रह बसें तो जरूर थी. शायद और भी रहीं हो. किसी बस में पांव रखने की जगह नहीं थी. सब ठसाठस भरी हुई थीं. झंडापुर में सैकड़ो मजदूर पहले से जमा थे. उस दिन वहां उन संकरी गलियो में पांच हजार से ज्यादा लोग जमा थे. उनमें से बहुत सारे कलाकार, लेखक, कार्यकर्ता, और पेशेवर थे. उस दिन बहुत-से जाने-पहचाने चेहरे मौजूद थे मगर ज्यादातर अब धुंधला गए हैं. जो एक शख्स वहां नहीं था वो था सुहेल हाश्मी. सफदर का बड़ा भाई. मुझे दशको बाद ये बात मालूम हुई कि उसे उस दिन ऑफिस में रुकने के लिए कहा गया था ताकि वह पत्रकारो और अन्य लोगो के फोन कॉल्स अटैंड कर सके. इसके लिए पार्टी को किसी सीनियर और जिम्मेदार साथी की जरूरत थी. जाहिर है कि उस समय मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे. मगर ये फैसला सिरे से बेमानी साबित हुआ. सारे पत्रकार तो झंडापुर पहुंचे हुए थे. सुहेल को एक भी कॉल अटैंड नही करना पड़ा. वहां सारे दिन खाली बैठा रहा.

खैर, पहले हमने बस्ती में खामोश जुलूस निकाला. हम राम बहादर के घर के आगे से गुजरे. हमने उसको श्रद्धांजलि दी. महज एक-सवा साल पहले इस नौजवान की शादी हुई थी. कुछ ही माह पहले उनका बच्चा हुआ था. बाद में मुझे पता चला कि इस दौरान माला कुछ देर राम बहादर की पत्नी पवित्रा और उनके शिशु के पास भी रही.

सफदर के पुराने दोस्त काजल घोष की अगुआई में ‘परचम’ ने दो गीत गाए.

एक तू जिदां है, तू जिंदगी की जीत पर यकीन कर

अगर कही है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर

और

लाल झंडा लेकर, कामॅरेड, आगे बढ़ते जाएंगे

तुम नहीं रहे, इसका गम है पर, फिर भी लड़ते जाएंगे

उस वक्त मुझे इल्म नही था कि सफदर ने ‘लाल झंडा’ का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद किया था.

जब परचम के साथियो ने ‘हजार भेष भर के आई मौत तेरे द्वार पर / मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हार कर’ गाया तो उनके सुर में सुर मिलाते मेरा गला रुंध गया.

हर तरफ लोग ही लोग थे. हर कोने, हर दरवाजे पर आंखें हम पर लगी थी. छतो पर, कूड़े के ढेर तक पर लोग जमा थे. मैंने इतने दर्शक पहले कभी नही देखे थे. बहुत सारे लोग हाथ से बनी तख्तियां लेकर आए थे जिन पर “सफदर जिंदाबाद” और “सफदर तेरी कुर्बानी बेकार नहीं जाएगी” जैसी इबारतें लिखी थीं. हर तरफ लाल झंडे दिखाई दे रहे थे.

जब मैं बोलने के लिए खड़ा हुआ तो मेरा दिमाग बिल्कुल सुन्न था. और फिर ना जाने कैसे और कहां से शब्द निकलने लगे.

“आज हम अपना अधूरा नाटक पूरा करने आए हैं. हम अपने दर्शकों से किया गया अपना वायदा पूरा करने आए हैं. हम यहां ये ऐलान करने आए हैं कि वे हमें मार सकते हैं मगर हमें रोक नही सकते. हम यहां कॉमरेड राम बहादर को श्रद्धांजलि देने आए हैं. हम यहां ये बताने आए हैं कि कॉमरेड सफदर हाश्मी की मौत नहीं हुई है. वे यहां जीवित हैं, हम सब में, और देश के बेशुमार नौजवानो की जिदंगियों में ज़िदा हैं.”

नाटक एक उदास अंदाज में शुरू हुआ. हम मशीन के पुर्जों की तरह अपने- अपने किरदार निभा रहे थे. हल्ला बोल नाटक के पहले कुछ मिनटो में काफी हंसी-मजाक है. इन पंक्तियो के दौरान खुद हमें भी हंसना होता है. पर उस दिन कौन हंसता. सब तो सदमे और शोक में डूबे हुए थे. इसके बाद नाटक में एक मुकाम आता है जहां नाटक रोकने के लिए आए सिपाही को देखकर सारे किरदार कोने में एक घेरा बनाते हैं और मशविरा करते हैं कि अब उन्हें क्या करना है. जब हमने ये झुंड बनाया तो मैं माला के ठीक सामने था. उसने पैनी निगाहो से हमें देखा.

“क्या हुआ है तुम सबको? अरे हंसो!”

झुंड जब खुला तो वह झूम कर पीछे मुड़ी और उसने जोर से ठहाका लगाया. मानो उसने हमें ग्लूकोज का इंजेक्शन लगा दिया. नाटक में जान पड़ गई. कुछ ही लम्हों में दर्शक भी ठहाके लगाने लगे.

अगले दिन इस परफॉर्मेंस और उसमें अभिनय करती माला की तस्वीरें देश भर के अखबारो की सुर्खियों में थीं. जहां उसका कॉमरेड और दोस्त, उसका महबूब शहीद हुआ था, वही हम सबको ले जाकर नाटक खेलने के इस साधारण-से कृत्य ने उसे एक ऐतिहासिक किरदार बना दिया था. आने वाले दिनो में देश भर के छोटे-बड़े शहरो, कस्बों, और गांवों में न जाने कितने विरोध प्रदर्शन हुए. माला ने बम्बई, त्रिपुरा, केरल, और ना जाने कहां-कहां जाकर विशाल जनसभाओं को संबोधित किया. जनवरी के आखिर में वह कलकत्ता गई जहां कुछ दिनो बाद हल्ला बोल नाटक खेलने के लिए हम लोग भी पहुंच गए थे. कलकत्ता विश्वविद्यालय की ओर से सफदर को मरणोपरांत डी.लिट. की उपाधि से सम्मानित किया गया. वहां हुई प्रस्तुति के बाद हमें छात्र-छात्राओ ने घेर लिया था. मेरी जिंदगी में ये अकेला ऐसा मौका था जब मैंने ऑटोग्राफ बुक्स पर हस्ताक्षर किए हों.

हमारे इस टूर की आखिरी प्रस्तुति सॉल्ट लेक स्टेडियम के बास्केट बॉल कोर्ट में हुई जहां तकरीबन पच्चीस हजार लोग हमारे साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिए आए थे. देश भर में सफदर और माला के बारे में कविताएं, गीत और नाटक लिखे व खेले गए. कलाकारो ने पेंटिंग और पोस्टर बनाए और बुद्धिजीवियो व कार्यकर्ताओं ने भाषण दिए. 4 जनवरी की परफॉर्मेंस के महज कुछ दिनों के भीतर सफदर हाश्मी मेमोरियल कमेटी का गठन हुआ जो सफदर हाश्मी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) के गठन की दिशा में पहला कदम था. आने वाले वक्त में इसी सहमत ने सांप्रदायिकता तथा हिदूं दक्षिणपंथ के उभार के खिलाफ कलाकारो और बुद्धिजीवियों को एकजुट और गोलबंद करने में अभूतपूर्व भूमिका अदा की.

सत्यजीत रे हो या रवि शंकर, अडूर गोपालकृष्णन हो या उत्पल दत्त, कृष्णा सोबती हो या राजेंद्र यादव, छोटे-बड़े, जाने-अंजाने, न जाने कितने कलाकारों, बद्धिुजीवियों, और साहित्यकारों ने सार्वजनिक रूप से एकजुटता व समर्थन व्यर्थक्त किए. यह एक असीम फेहरिस्त थी. इसी क्रम में एक साहसिक कदम उठाते हुए एक जनवरी को शबाना आजमी ने दिल्ली में चल रहे अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव के मंच से सफदर की हत्या के खिलाफ एक विरोध वक्तव्य पढ़ा. हॉल के बाहर मौसम बादलों से मटमैला हो चला था. सर्द तेज हवाएं चल रही थी. और दिलीप कुमार सफदर की तस्वीर लिए प्रदर्शनकारियों की कतार में खड़े थे. अगले दिन देश भर में सुनियोजित विरोध कार्यक्रम आयोजित किए गए. कुछ महीने बाद, 12 अप्रैल को सफदर का जन्मदिन था जिसे कलाकारो के आह्वान पर राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक दिवस के रूप में मनाया गया. देश भर में उस दिन तीस हजार से ज्यादा नुक्कड़ नाटक खेले गए.

सहमत की स्थापना के समय से ही उसके मुख्य संगठनकर्ताओं में शामिल राजेंद्र प्रसाद (“राजन”) ने सालों बाद मुझे बताया कि, उनके हिसाब से, अगर माला ने उस दिन झंडापुर में अधूरे नाटक को पूरा करने का हौसला ना दिखाया होता तो सहमत अस्तित्व में नहीं आ पाता.

ये सच्ची बात है. उस दिन माला एक निःशब्द अवहेलना की जीती-जागती तस्वीर बनी हुई थी. मुझे उसकी आंखो के वो तेवर याद हैं – अपने इरादे पर अटल, उस शोक की झलक भी नहीं जो उसकी आत्मा को चीर रहा था. ऐसा लगता था कि उसकी दुबली-पतली काया में फौलाद की रीढ़ थी. वह बिल्कुल सतर, चट्टान की तरह सिर उठाए खड़ी थी. उसकी साधारण सी कद-काठी उस दिन अविश्वसनीय रूप से विराट लगने लगी थी.

और वो आवाज!

साफ, गूंजती हुई, खनकती, दर्शकों के ऊपर तैरती, उनके दिलों में उतरती वो अविस्मरणीय आवाज.

यह अंश हल्ला बोल : सफदर हाश्मी की मौत और जिंदगी किताब से लिया गया है. किताब का संपादन सुधन्वा देशपांडे ने किया है और इसका हिंदी अनुवाद योगेंद्र दत्त ने किया है. प्रकाशन : लेफ्टवर्ड बुक्स