दिवाली की छुट्टी मनाने के बाद राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री और इस पद को संभालने वाली पहली महिला वसुंधरा राजे 14 नवंबर को फिर से विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान में उतरीं. उनकी सबसे पहली दो सभाएं जयपुर के बाहरी इलाके में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों, चक्षु और भगरू, में थीं. उनके अभियान ने बीजेपी के उनके समकक्ष नेताओं की तुलना में अधिक समर्थकों को आकर्षित किया. जैसे कि अन्य राज्यों में बीजेपी के सबसे वरिष्ठ नेता, जैसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ या असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा, जिनके भाषण आमतौर पर इस्लामोफोबिक होता हैं, उसके उलट चूरू से आते हुए हाड़ौती क्षेत्र के अंदर, जो कि राजे की जागीर है, यहां कोई बजरंग दल या भगवाधारी कैडर नहीं बल्कि सरकारी स्कूल के शिक्षकों का एक समूह उनसे मिलने का इंतजार कर रहा था.
लगभग दस लोगों के इस समूह ने मुझे बताया कि उन्हें अस्थायी अनुबंध के तहत काम पर रखा गया था और वे अपनी सेवाओं को नियमित करने की मांग कर रहे हैं. एक ने मुझे बताया, "मुख्यमंत्री बनने के बाद, उन्हें अपनी सरकार के सौ दिनों के भीतर यह काम पूरा करना होगा." ऐसा अक्सर नहीं होता है कि मतदाता वरिष्ठ नेताओं के सामने इतने खुले तौर पर मांग कर सकें लेकिन राजे ने बीजेपी के अन्य राज्य के नेताओं, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा की तरह अपने मतदाताओं के साथ एक प्राकृतिक संबंध स्थापित किया है. ऐसा कम ही होता है कि बीजेपी के नेता इस तरह की टिप्पणियां आसानी से सुनते हों या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा जैसे शीर्ष नेता के आदेशों को सीधी चुनौती देते हों.
यह तय करने के अलावा कि चुनाव संयुक्त नेतृत्व में लड़ा जाएगा, बीजेपी आलाकमान ने अभियान में राजे की उपस्थिति को कम करने के लिए भी जोर लगाया. चुनाव के लिए स्टार प्रचारकों की आधिकारिक सूची में उनका नाम काफी नीचे था, पार्टी की सफलता में मध्यम भूमिका वाले नेताओं से भी बहुत नीचे. इसे विशेष रूप से वीभत्सता के रूप में देखा गया क्योंकि 2021 में तीन उप-चुनावों में पार्टी के पोस्टरों से राजे की फोटो नहीं होने के कारण पार्टी की राज्य इकाई के भीतर बड़ा असंतोष पैदा हो गया था जिसे कई केंद्रीय मंत्रियों के साथ राजे और उनके समर्थकों को स्टार प्रचारक नामित किए जाने के बाद ही शांत किया जा सका.
इन चुनावों में राजे के वफादार माने जाने वाले कई पूर्व विधायकों को पार्टी द्वारा वितरित टिकटों की पहली सूची में जगह नहीं मिली. बीजेपी की राज्य इकाई के भीतर काफी विरोध खबरों के बाद कुछ को दूसरी और तीसरी सूची में जगह दी गई, जबकि अन्य ने कथित तौर पर निर्दलीय रह कर चुनाव लड़ने का फैसला किया है. राजे की भूमिका कम होने के कारण उन्हें जयपुर में मोदी की रैली में भाषण देने की अनुमति नहीं दी गई, जबकि वह मंच पर मौजूद थीं. इसके बावजूद अपनी रिपोर्टिंग में, मैंने देखा कि बड़ी संख्या में लोग उनसे पूछ रहे थे कि वह कब मुख्यमंत्री बनेंगी. यह एक ऐसा निष्कर्ष था जिसे उन्होंने पहले ही मान लिया था.
संविदा शिक्षकों में से एक हनुमान सिंह, जिनसे मैं उनके आवास पर मिली, ने मुझे बताया, "वह भी एक कार्यकर्ता हैं लेकिन वह बाकी लोगों से अलग हैं." सिंह ने 2008 में प्रबोधक योजना के तहत संविदा शिक्षकों की नौकरियों को नियमित करने का हवाला दिया. कांग्रेस कार्ड धारक ठाकुर शमशेर बालू खान जैसे अन्य लोग, जिनके पिता कभी कांग्रेस विधायक थे, ने राज्य के विभिन्न प्रमुख जाति समूहों को संतुलित करने की उनकी क्षमता के बारे में बताया. खान ने कहा, "उनके परिवार का जाट और गुज्जर से संबंध है और वह खुद मराठा हैं." उन्होंने बताया कि इन समुदायों के प्रभावों के मिश्रण ने राजे को अधिक मेलजोल और कम सांप्रदायिक होने वाला व्यक्तित्व दिया है. उन्होंने निष्कर्ष निकाला, "बीजेपी के दो चेहरे हैं, उदारवादी और कट्टर" और वह पहली श्रेणी में आती हैं.
अन्य लोगों ने भी इसी तरह की बातें रखीं. भगरू रैली में बीजेपी कार्यकर्ता एसके चौधरी ने मुझसे कहा, "झालरापाटन में मुसलमान भी उन्हें वोट देते हैं." राजे के करीबी सहयोगी यूनुस खान 2018 में बीजेपी का टिकट पाने वाले एकमात्र मुस्लिम थे. हालांकि इस बार वह 25 साल तक पार्टी का प्रतिनिधित्व करने के बाद निर्दलीय के रूप में लड़ने के लिए मजबूर हो गए हैं. लेकिन धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति गहरे प्रेम से अधिक अधिकांश लोग जिस बात की ओर इशारा कर रहे थे वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व के साथ राजे का लगातार झड़पों में उलझे रहना था.
दिसंबर 2003 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद आरएसएस के साथ राजे की अनबन शुरू हो गई, जब उन्होंने संघ के ऊंचे पदों पर संघ के वरिष्ठ लोगों की जगह अपने करीबी सहयोगियों की नियुक्ति की. इसी तरह की असहमति 2005 में पैदा हुई और 2008 तक लड़ाई इतनी गंभीर हो गई कि वरिष्ठ आरएसएस नेताओं ने उनकी सरकार में सलाहकार के पदों से इस्तीफा दे दिया. कथित तौर पर आरएसएस ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया था लेकिन राजे नहीं मानीं. राजे के दूसरे कार्यकाल में स्थिति और खराब हो गई, जब जयपुर मेट्रो और रिंग रोड के विस्तार के लिए जयपुर में 65 मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया. चौधरी ने हंसते हुए मुझसे कहा, "वह आरएसएस को अपने काम में हस्तक्षेप नहीं करने देतीं. वह बॉस है." तोड़े गए अधिकांश मंदिर भगरू में स्थित थे लेकिन चौधरी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा.
संभवतः ये मतभेद और मोदी के प्रति व्यक्तिगत तिरस्कार ही है जिसके कारण बीजेपी आलाकमान ने उस व्यक्ति की भूमिका को कम कर दिया जो निस्संदेह राज्य में उसकी सबसे बड़ी संपत्ति है. इस पद के लिए उनके कई दावेदार हैं. एक प्रचारक ने मुझे उन सभी के नाम अपनी उंगलियों पर गिना दिए. “लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला हैं; तत्कालीन रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव; बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी; जयपुर शाही परिवार से दीया कुमारी; मंत्री राज्यवर्धन राठौड़; अरुण सिंह मेघवाल, केंद्रीय जल मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत; नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र सिंह और बाबा बालकनाथ.” इनमें अंतिम नाम नाथ संप्रदाय के एक संत का है, जिसे बीजेपी राजस्थान के आदित्यनाथ के रूप में तैयार कर रही है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने बालकनाथ के लिए भी प्रचार किया, जो बुलडोजर में अपना नामांकन दाखिल करने पहुंचे थे. लेकिन, राजे के प्रचारकों ने मुझे बताया कि सूची में अन्य सभी नामों की तरह, बालकनाथ के पास अपने दम पर चुनाव को पलटने की क्षमता नहीं है.
मैंने बीजेपी के जिन वरिष्ठ नेताओं से बात की, सभी ने पार्टी के भीतर के प्रक्रियात्मक नियमों की बात कही, जो उन्हें चुनाव में राजे को मुख्यमंत्री पद के लिए चुनने से रोकते हैं. राजस्थान में बीजेपी के प्रभारी अरुण सिंह ने बस इतना कहा कि मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं करना सामान्य परंपरा है. उन्होंने कहा, ''यह पहली बार नहीं है. 2017 में यूपी में कोई सीएम चेहरा नहीं था. वहां भी सरकार के खिलाफ विरोध की भारी लहर थी. प्रत्येक कार्यकर्ता पार्टी का चेहरा है.” सतीश पूनिया ने कहा, ''हम 20 साल से उनके चेहरे पर ही चुनाव लड़ रहे हैं. संसदीय बोर्ड ने सामूहिक नेतृत्व पर लड़ने का फैसला किया है और यहां तक कि वसुंधरा राजे भी इससे सहमत हैं.” पूनिया के पास बेचैन होने का एक कारण था क्योंकि बीजेपी के राज्य प्रमुख के रूप में उनके कार्यकाल में ही राजस्थान में गुटबाजी बढ़ी. उन्होंने बताया, ''मेरे वसुंधरा राजे के साथ समीकरण काफी सहज है, पहले थोड़े समय के लिए कुछ चीजें हुई थीं. लोगों ने हमारे बीच दूरी पैदा कर दी क्योंकि मैं राज्य का अध्यक्ष था और यह मेरे लिए एक चुनौती थी." पार्टी के विज्ञापन में राजे की घटती भूमिका पर उन्होंने बस यह सफाई दी कि मतदाता बदल गए हैं और पार्टी भी बदल गई है. पूनिया की जगह लेने वाले सीपी जोशी को काफी हद तक एक रबर स्टांप के रूप में देखा जाता है जो 2024 के चुनावों के लिए एक प्रतीकात्मक ब्राह्मण चेहरा हैं और राज्य की गुटबाजी को पूनिया से अधिक चतुराई से संभालने वाला कोई और नहीं है.
लेकिन राजे के अभियान से यह दिख रहा था कि उन्होंने अपनी पार्टी के भीतर भी इस नए प्रतिकूल माहौल को अपना लिया है. पिछले एक दशक से राजनीति को कवर कर रहे एक स्थानीय पत्रकार ने मुझे बताया, "वह यह भी देख रही हैं कि बीजेपी शासित राज्यों में किस तरह के लोग मुख्यमंत्री बन रहे हैं." कहीं न कहीं राजे धर्म के बारे में भी बात करने की कोशिश कर रही हैं." यह राजवाड़ा पैलेस, महल रोड और जगतपुरा के निर्वाचन क्षेत्रों में उनके अभियान के दौरान दिखाई दिया, जहां दर्शकों ने "जय श्रीराम" और "भारत माता की जय" के नारे के साथ उनका स्वागत किया. उन्होंने अधिकांश रैलियों की शुरुआत और समापन स्थानीय मंदिरों के महत्व के बारे में बोल कर किया. जयपुर में उन्होंने भाषण की शुरुआत करते हुए कहा, "अक्षय पात्र कृष्ण राधा मंदिर की इस पवित्र भूमि से सभी को नमस्कार." इसके बाद उन्होंने बीजेपी की असम इकाई के एक वरिष्ठ नेता जुगल किशोर पांडे का परिचय देते हुए कहा, “मैं हर साल असम में कामाख्या मंदिर जाती हूं और मैंने जो कुछ भी हासिल किया है वह मंदिर में मेरी यात्राओं के कारण है. जुगल यहां आए हैं और हम सभी धन्य हैं.”
यहां तक कि शिक्षा और स्वास्थ्य में राज्य के निवेश का वर्णन करते समय राजे ने अपने भाषणों में उन सभी मंदिरों पर जोर दिया, जिनमें उनकी सरकार ने निवेश किया था. इसका स्पष्ट संबंध उन दर्शकों से भी है जो मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने अपने लिए बनाए हैं. जयपुर की रैली में राजे ने स्कूल नीति, स्वास्थ्य और पानी की कमी पर अपनी सरकार के काम की बात करते हुए खूब तालियों बटोरीं. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि विदेशी गणमान्य व्यक्ति राजस्थान की जल-वितरण प्रणालियों का अध्ययन करने आए. जब राजे ने कहा, ''गोनेर में मंदिर के लिए 150 करोड़ रुपए का विकास कार्य हुआ था.'' तब भीड़ उत्साहपूर्वक जयकारे लगाने लगी. उन्होंने और अधिक उत्साह बढ़ाने के लिए पूछा. “कांग्रेस की सरकार आने के बाद क्या हुआ? वे भगवान के काम पर भी पैसा खर्च नहीं कर सकते... और अचानक उन्हें याद आता है कि वे हिंदू हैं."
बड़े अंतर से जीत होने पर उनकी जगह किसी ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है जिस पर बीजेपी और आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व को अधिक भरोसा होगा. लेकिन यदि पार्टी कमजोर होती है तो बीजेपी ने कर्नाटक में येदियुरप्पा के साथ जो किया उसे दोहरा सकती है. वहां हार के बाद हाल ही में पार्टी ने अपने ही नियम को तोड़ते हुए उनके बेटे को विपक्ष का नेता बनाया.
भगरू अभियान में एक बीजेपी के कार्यकर्ता नरेंद्र सिंह ने अति उत्साह के साथ कहा, "अगर उन्होंने उन्हें मुख्यमंत्री घोषित किया होता, तो बीजेपी को 175 सीटें मिलतीं... उन्हें स्टार प्रचारकों की सूची की भी आवश्यकता नहीं होती."