जब वीपी सिंह ने लड़ाया मुफ्ती को यूपी से चुनाव, बनाया पहला मुस्लिम गृहमंत्री

1989 में प्रधानमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह ने मुफ्ती मोहम्मद सईद को गृहमंत्री बनाया. इस पद को हासिल करने वाले वो पहले मुस्लिम थे. हिंदुस्तान टाइम्स

1989 के आम चुनाव में मुफ्ती मोहम्मद सईद ने उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर से चुनाव लड़ा था. ईमानदारी से कराया गया कोई भी चुनाव सईद ने नहीं जीता था. उत्तर प्रदेश में, वीपी सिंह की लोकप्रियता की लहर के चलते उनके लिए कश्मीर में किस्मत आजमाने से बेहतर, उत्तर प्रदेश माकूल जगह थी और वाकई, जनता दल को उत्तर प्रदेश में भारी सफलता हासिल हुई. कुल 85 सीटों में से, सईद 54 सीटों पर जीत हासिल करने वालों में से एक थे.

जनता दल के नेतृत्व में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के समागम से, जिसको वामपंथी दलों और बीजेपी का बाहर से समर्थन भी प्राप्त था, केंद्र में राष्ट्रीय फ्रंट की सरकार काबिज हो गई. वी.पी. सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. सरकार में दूसरे नंबर के ताकतवर समझे जाने वाले पद, यानी, गृहमंत्री के पद पर सईद को बिठा दिया गया. सईद इस मंत्रालय का कार्यभार संभालने वाले पहले मुसलमान थे. सिंह के नजदीकी साथी और अनौपचारिक सलाहकार मोहन गुरुस्वामी के मुताबिक सरकार को धर्मनिरपेक्ष दिखाने का यह सिंह का अपना तरीका था. गुरुस्वामी ने बताया, “वी.पी. सिंह यह भी संदेश देना चाहते थे कि उन्हें बीजेपी के बाहरी समर्थन की परवाह नहीं है”. सईद ने भी इस राजनीतिक दृष्टि के समर्थन में बोला. शपथ ग्रहण के बाद इंडिया टुडे को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने कहा, “साम्प्रदायिकता और चरमपंथ से लड़ना मेरा पहला मकसद है.” “जबकि हमारा विश्वास है कि ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे बातचीत से नहीं सुलझाया जा सकता, लेकिन हम देश को बांटने वालों के साथ किसी किस्म का समझौता नहीं करेंगे.”

अपने खुद के राज्य में कलह की वजह से भी, सईद के सामने भारी चुनौतियां थीं. तब तक जम्मू और कश्मीर अलगाववादी दहशतगर्दी की जद में पूरी तरह से आ चुका था. कई हथियारबंद संगठन जन्म ले चुके थे जिनके सदस्य बॉर्डर पार कर पाक-अधिकृत कश्मीर में जाने लगे थे. वे वहां से ट्रेनिंग लेने के बाद वापस आते और राज्य में हिंसा फैलाते. नई-नई बनी कमांडो यूनिट के डिप्टी सुपरिंटेनडेंट ने मई 1989 में इंडिया टुडे को बताया, “वे अपना डर गंवा चुके थे.” “वे सीधे आपकी बंदूक की नाल के आगे खड़े हो जाते हैं और आपको गोली चलाने के लिए ललकारते हैं. ऐसे लोगों से आप कैसे लड़ सकते हैं? पहले ज्यादा से ज्यादा वे पत्थरबाजी करते थे, या देसी बम आप पर फेंककर छिप जाते थे. यह बिलकुल नया बर्ताव है, जो बिलकुल कश्मीरियों जैसा नहीं है.”

होनी को कुछ और ही मंजूर था. भारत के गृहमंत्री के रूप में सईद का पहला संकट व्यक्तिगत भी था. शपथ ग्रहण करने के महज छह दिन बाद उनकी छोटी बेटी रूबैया, जो उस वक्त ‘मेडिकल इंटर्न’ थी, को श्रीनगर में जेकेएलएफ ने अगवा कर लिया. जेकेएलएफ ने उसकी सुरक्षित वापसी के लिए श्रीनगर में कैद पांच उग्रवादियों की रिहाई की मांग रखी. गुरुस्वामी, जो सईद से इस दौरान उनके 10 अकबर रोड स्थित निवास पर मिले, ने बताया वे बिलकुल चुप रहा करते थे "जबकि उनके इर्दगिर्द के लोग खूब बतियाते. उन्हें पता था कि लड़के, उनकी बेटी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगे और उसका अच्छा ख्याल रखेंगे."

फारूक ने बतौर मुख्यमंत्री अपहरणकर्ताओं के आगे किसी भी कीमत पर न झुकने का फैसला लिया. उन्होंने मीडिया को बयान दिया कि अगर उनकी अपनी बेटी को भी उठा लिया जाता तो भी वे उग्रवादियों को छोड़ने के लिए राजी नहीं होते. खैर, छह दिन बाद 13 दिसंबर 1989 को सभी पांच उग्रवादियों को रिहा कर दिया गया. पूरे श्रीनगर ने उनकी रिहाई का जश्न मनाया.

सईद ने हमेशा यही कहा कि उग्रवादियों को छोड़ने का फैसला राज्य सरकार का था. जनवरी 1990 में उन्होने इंडिया टुडे से कहा, “मेरा और केंद्र का, राज्य सरकार की कैबिनेट द्वारा लिए गए के इस फैसले में कोई दख्ल नहीं था.” लेकिन हाल ही में, दिल्ली में दुल्लत की किताब के विमोचन के मौके पर, फारूक ने इस घटना के मुताल्लिक एक अलग ही तस्वीर पेश की: उन्होंने कहा कि इस दौरान केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान और आई.के. गुजराल रिहाई का विरोध करने पर उन्हें सत्ता से बेदखल करने श्रीनगर आए थे. “मैंने उनसे कहा, यह फैसला भारत के ताबूत में आखिरी कील साबित होगा,” फारूक ने खुलासा किया.

गुरुस्वामी ने कहा कि “बतौर गृहमंत्री उनके पास मौका था कि वे न कह सकते थे और एक लौह पुरुष की तरह उभर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.” कैदियों को छोड़ने के इस फैसले ने उग्रवादियों के हौसले बुलंद कर दिए. “ये एक निर्णायक मोड़ था,” वरिष्ठ पत्रकार युसूफ जमील ने मुझे बताया. “इसे भारत सरकार और इसके सुरक्षा बलों पर कश्मीरियों की फतह के रूप में देखा गया. इसका जबरदस्त असर हुआ.”

प्रधानमंत्री का मानना था कि इस संकट को फौजी कार्रवाई से हल नहीं किया जा सकता. वी.पी. सिंह ने इस संकट से निपटने के लिए रेलमंत्री जॉर्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में कश्मीर मामलों की समिति का गठन किया. इंडिया टुडे की रिपोर्टों के अनुसार, सईद ने इसका विरोध किया. संकट की इस पृष्ठभूमि के बावजूद भी वे अपनी सियासी बिसात को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे. यही वजह थी कि उन्होंने राज्य के मामलातों में दखल देना जारी रखा. “रेलमंत्री और गृहमंत्री के बीच मतभेदों की खाई बढ़ती चली गई. रेलमंत्री ने गृहमंत्री पर आरोप लगाया कि वे भ्रम फैलाकर, कश्मीर समस्या के अंत का प्रतिरोध कर रहे हैं,” सीमा मुस्तफा ने सिंह की राजनीतिक जीवनी, द लोनली प्रोफेट में लिखा. मुस्तफा ने लिखा कि फर्नांडीस उग्रवादियों से वार्ता के पक्ष में थे और कुछ से उन्होंने संपर्क भी साध लिया था, लेकिन सईद ने उन्हें आजादी से काम नहीं करने दिया.

जम्मू और कश्मीर की बगावत ने और भी अधिक भयानक मोड़ ले लिया जब उसे दबाने के लिए सरकार ने क्रूर दमन का सहारा लिया. दमन की इस प्रतिक्रिया को अपनाए जाने के पीछे, सईद की बहुत बड़ी भूमिका थी. मुस्तफा ने लिखा कि एक बिंदु पर जब राज्य में हिंसा काफी बढ़ गई तो सिंह ने जगमोहन को गवर्नर नियुक्त करने की सोची, क्योंकि उनकी छवि एक सख्त प्रशासक की थी जो मुश्किल हालातों को काबू में ला सकते थे. सिंह को तुरंत ही वामपंथी सांसदों से इस फैसले का विरोध झेलना पड़ा. मुस्तफा ने लिखा कि आरोप लगाया कि सिंह मुसलमान विरोधी हैं. यह सुनकर सिंह ने अपना मन बदल लिया. लेकिन सईद और अरुण नेहरू ने बीच में पड़कर यह सुनिश्चित किया कि सिंह के मूल प्लान को ही अमल में लाया जाए. जनवरी 1990 में जगमोहन को एक बार फिर गवर्नर बनाकर कश्मीर भेज दिया गया. फारूक, जिन्होंने इस कदम का विरोध किया था, ने इसमें राज्य छोड़ने का मौका देखा.

जगमोहन के अधीन जम्मू और कश्मीर ने बेलगाम दमन के दौर में प्रवेश किया. उनके आने के दो दिन बाद ही, घाटी ने बगावत के बाद अपना पहला कत्लेआम देखा. सीआरपीएफ की फायरिंग, जिसे आज गावकदल कत्लेआम के नाम से याद किया जाता है, में पचास प्रदर्शनकारी मार दिए गए. हवाल और बीजबेहारा में भी कत्लेआम हुए. उग्रवादियों ने कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया, जिसकी वजह से लाखों की तादाद में पंडितों को घाटी छोडना पड़ा.

बतौर गृहमंत्री सईद ने इस खूनखराबे के निजाम को अंजाम देने में अहम किरदार निभाया. उन्होंने जून 1990 में, इंडिया टुडे को दिए साक्षात्कार में, हत्याओं और कत्लेआम को नजरंदाज करते हुए जगमोहन को कश्मीर में नियुक्त किए जाने के फैसले का समर्थन किया. “जगमोहन को कश्मीर भेज कर हमें बहुत फायदा हुआ है,” उन्होंने कहा. “उन्होंने (जगमोहन ने) प्रशासनिक शून्य को भरने के लिए अधिकारियों का मरकज तैयार किया और हमने वहां राज्यसत्ता को कायम किया.”

सईद ने 5 जुलाई 1990 को राज्य में ‘आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स’ कानून लागू कर दिया. इस काले कानून ने सुरक्षा बलों को बेलगाम शक्तियां प्रदान कर दीं. इसकी वजह से सालों तक घरों पर धावे, गिरफ्तारियां और यंत्रणाओं का दौर चला. मैंने कश्मीर टाइम्स के पूर्व संपादक और सईद के करीबी दोस्त वेद भसीन से पूछा कि इस कानून के प्रभावों को देखने के बाद क्या कभी सियासतदानों को अपने इस फैसले पर पछतावा हुआ. “वे इस क़ानून से बहुत खुश थे क्योंकि इसने उनकी ताकत को मजबूत किया था,” भसीन ने बताया.

जल्द ही बतौर गृहमंत्री सईद की आलोचना होने लगी. “मुफ्ती वास्तव में अपने मंत्रालय में कभी जमीन से ऊपर उठ ही नहीं पाए,” जुलाई 1990 में इंडिया टुडे पत्रिका में सीमा मुस्तफा ने लिखा. “वे एक ऐसे गृहमंत्री के रूप में उभरे हैं जो कश्मीर के परे देख ही नहीं पाता.” उनके कार्यकाल में, एक बार संसद में उनके भाषण के दौरान तीखे सवाल-जवाब भी हुए. जनता दल के पचास सांसदों ने मिलकर उनको बर्खास्त किये जाने को लेकर मेमोरेंडम भी दिया.

इस दौर में सईद के सही-सलामत बने रहने के पीछे एक वजह यह थी कि सिंह को अब भी लगता था कि उनकी सरकार को धर्मनिरपेक्ष दिखाने के लिए मुसलमान मंत्री का होना बेहद जरूरी था. जैसा कि एक कैबिनेट मंत्री ने इंडिया टुडे से कहा, “देश की धर्मनिरपेक्षता इस बात पर टिकी है कि वह कश्मीर को साथ रखने में कामयाब रहे. और वी.पी. सिंह की धर्मनिरपेक्षता इस बात पर निर्भर है कि वे मुफ्ती को नार्थ ब्लॉक में रख पाते हैं या नहीं.” सिंह के साथ सईद की घनिष्टता ने भी इसमें उनकी मदद की. "वे वी.पी. सिंह के पास तरह- तरह के किस्से-कहानियां ले जाते थे," गुरुस्वामी ने बताया. “वे असली दरबारी हैं."

हालांकि, सिंह के राजनीतिक सितारे अब अपने ढलान पर थे. सईद अगले कुछ सालों तक जनता दल में ही बने रहे. 1996 में लालू के बुलावे पर सईद ने बिहार के कटिहार से लोक सभा चुनाव लड़ा. उस चुनाव में सईद तीसरे नंबर पर आए.

उसी साल उन्होंने जनता दल से अपना नाता तोड़कर वापस कांग्रेस ज्वाइन कर ली. वापस उसी पार्टी में लौट आने के साथ ही जहां से उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी, वे एक असाधारण प्रोजेक्ट में कूद पड़े. सालों की हिंसा के बाद, लहुलुहान जम्मू और कश्मीर में जम्हूरियत जिलाने की जरूरत थी. उन्हें राज्य में बोगस चुनावी प्रतिद्वंद्विता दिखाने के लिए जम्हूरियत का मुखौटा खड़ा करना था.

(द कैरवैन के जनवरी 2016 अंक में प्रकाशित रिपोर्ट का अंश. पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें.)