देवेंद्र फडणवीस : जिसने मराठाओं को मात दी

शशांक परादे/पीटीआई
शशांक परादे/पीटीआई
18 October, 2019

मराठाओं और ब्राह्मणों के बीच सत्ता हासिल करने की तनातनी, मराठा साम्राज्य के समय से ही चली आ रही है. छत्रपति की उपाधि से नवाजे गए मराठा योद्धा राजा शिवाजी भोंसले प्रथम द्वारा कायम किया गया साम्राज्य साल 1750 में अपने उरूज पर था. उनकी बादशाहत तमिलनाडु में थंजावुर से लेकर पश्चिम में आज पाकिस्तान कहलाने वाले पेशावर तक तथा पूर्व में बंगाल तक, करीब 25 लाख वर्ग किलोमीटर के इलाके में फैली थी.

अठाहरवीं सदी के मध्य में उनके इस साम्राज्य का तेजी से विस्तार हुआ. इस काल को पेशवा काल भी कहा जाता है. शिवाजी की मृत्यु के कुछ दशकों बाद, मराठा छत्रपति के अधीन काम करने वाले ब्राह्मण पेशवाओं ने सत्ता पर अपना दबदबा कायम कर लिया और छत्रपति से भी अधिक शक्तिशाली बनकर उभरे. मराठा छत्रपति अब सिर्फ नाम का राजा रह गया था. ब्राह्मण पेशवा अब प्रशासन के सबसे ऊंचे ओहदों पर काबिज थे. साम्राज्य को एकजुट रखने के लिए पेशवाओं ने मराठा सेनापतियों जैसे धार के पेशवाओं, ग्वालियर के सिंधियाओं, नागपुर के भोंसलों को आधी खुदमुख्तारी दे दी. साम्राज्य अब एक राज्यसंघ बन चुका था. लेकिन आज भी ब्राहमण मंत्रियों द्वारा मराठा शासकों को सत्ता से बेदखल किए जाने का दर्द मराठा समुदाय को बेचैन कर देता है.

इस दौर के सबसे असाधारण ब्राहमण राजनीतिज्ञ शायद नाना फडणवीस थे, जो पेशवा प्रशासन में पेशकार के पद से तरक्की करते हुए मंत्री बने (फडणवीस की उपाधि पेशवाओं के बही-खातों का हिसाब-किताब रखने वालों को दी गई थी).

1760 और 1800 के बीच के इस दौर में ज्यादातर समय, नाना फडणवीस पूरे मराठा साम्राज्य में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति थे. उन्हें ही असल में राजा के रूप में देखा जाता था. 1773 में किशोर पेशवा नारायण राव की उनके चाचा रघुनाथ राव ने हत्या कर दी और खुद पेशवा बन बैठे. फडणवीस ने तुरंत 11 मंत्रियों के साथ मिलकर रघुनाथ राव को सत्ता से बेदखल कर दिया. इसे इतिहास में “बारभाई साजिश” के नाम से जाना गया – यानी बारह भाइयों की साजिश.

नारायण राव की मृत्यु के बाद शिशु माधव राव द्वितीय को फडणवीस ने गद्दी पर बैठा दिया और खुद बारभाई मंत्रिमंडल का संचालन करने लगे. मंत्रीमंडल पर आधिकारिक रूप से राज्य के सारे मामलातों को देखने की जिम्मेवारी थी. फडणवीस एक सख्त किस्म के मंत्री थे. उन्होंने अपने दुश्मनों पर नजर रखने के लिए जासूसों का व्यापक जाल बिछा रखा था. उनके तत्कालीन दुश्मनों में, लगातार प्रभावशाली होते जा रहे अंग्रेज, उत्तर में मुगल शासक, मैसूर के शासक, मराठा सेनापति महादजी शिंदे, आदि शामिल थे. उपमहाद्वीप में मौजूद उस वक्त के यूरोपीय समुदाय के लोग, फडणवीस को मराठाओं का मैक्यावली कहते थे.

बीसवीं सदी में मराठाओं के मैक्यावली का तमगा नौजवान और शातिर राजनीतिज्ञ शरद पवार को मिला. वह मराठा भी थे और 37 साल की उम्र में ही तत्कालीन कांग्रेस मुख्यमंत्री को हटाकर राज्य के मुख्यमंत्री की सीट पर काबिज हो गए. महाराष्ट्र में पवार का दबदबा दशकों तक कायम रहा. इस दौरान वह तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री तथा केंद्र में रक्षामंत्री और कृषि मंत्री के पद पर भी रहे. मई 2014 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता नरेन्द्र मोदी के उभरने से पहले पवार देश के प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखा करते थे.

आज मराठाओं के मैक्यावली पद का नया दावेदार सामने आ चुका है. अक्टूबर 2014 में हुए चुनावों में बीजेपी महाराष्ट्र की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और इसका सेहरा 44 वर्षीय देवेंद्र फडणवीस के सिर पर बांधा गया. अपने नाम के आखिर में फडणवीस होने के बावजूद, उनका पेशवा-काल के नाना फडणवीस के खानदान से कोई लेना-देना नहीं है. इस फडणवीस ने भी अपने अंदर-बाहर के सभी प्रतिदंद्वियों को मात देकर सत्ता हथियाई थी.

इस युवा को मुख्यमंत्री पद पर बिठाए जाने से बहुत से वरिष्ठ सदस्य चिढ़े रहते हैं. उन्हें लगता है राज्य के शीर्षस्थ पद के लिए फडणवीस से बेहतर दावेदार वे खुद हैं. फडणवीस ने इस मसले को पर्दे के पीछे रहकर निबटा. वह खुले में पंगा लेने से बचे. आखिर में हुआ यह कि वह राज्य में बीजेपी का चेहरा बनकर उभरे.

नाना फडणवीस की तरह ही, देवेंद्र फडणवीस के उभार को राज्य की राजनीति में मराठाओं के धीरे-धीरे हाशिए पर धकेल दिए जाने ने भी मुमकिन बनाया. बीते सालों में मराठा समुदाय ने, जिसकी संख्या राज्य में 30 प्रतिशत के आसपास है, अपने वोट को कई पार्टियों में विभाजित होते देखा है. बीजेपी द्वारा उच्च जाति के अपने मुख्य वोट बैंक में अन्य पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं को शामिल करने का लाभ राज्य के दूसरे ब्राह्मण मुख्यमंत्री फडणवीस को मिला. इसलिए मराठा फडणवीस को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं.

जून 2016 में जब यह खबर सामने आई कि बीजेपी, शिवाजी के वंशज, संभाजी राजे को राज्यसभा से नामांकित करने वाली है तो पवार ने अतीत में जाकर उस समय को याद किया जब मराठा छत्रपति, पेशवा नियुक्त करता था जो फिर अपना फडणवीस चुनता था. “मैंने तो आज तक नहीं देखा-सुना कि किसी फडणवीस ने छत्रपति नियुक्त किया हो,” उन्होंने टोंट कसा.

पेशवाओं का काल ब्राह्मण वर्चस्व और उत्पीड़ित जातियों पर क्रूरता के लिए भी जाना जाता है, खासकर, महार समुदाय पर. महार समुदाय का शानदार इतिहास रहा है. बाबासाहेब आंबेडकर भी एक महार थे. लेकिन केक के टुकड़े के लिए लड़ने वाले ब्राह्मणों और मराठाओं से अलग, इस समुदाय का इतिहास अन्यायपूर्ण जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष का रहा है. महाराष्ट्र में जाति विरोधी संघर्ष को शासक वर्ग द्वारा खतरे के रूप में लिया जाता है. इसी जाति-विरोधी संघर्ष के “आइकन”, आंबेडकर और सुधारक ज्योतिराव फूले हैं. फडणवीस सरकार के अंतर्गत जाति-विरोधी विचारधारा का दमन अभूतपूर्व है, जैसा कि पिछले साल भीमा-कोरेगांव की हिंसा और इसके बाद देखा गया.

पिछले पांच सालों से, महाराष्ट्र भयंकर सूखे और जल संकट से भी जूझ रहा है. इसका सबसे ज्यादा असर किसानों पर पड़ा. अपने शहरी वोटरों पर हमेशा फोकस करने वाले फडणवीस ग्रामीण इलाकों में रहने वाले किसानों की इन समस्याओं से निबट पाने में नाकाम रहे हैं, वहीं कमजोर विपक्ष भी इस मुद्दे को भुना नहीं पाया. जिसके चलते 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन, 48 में से 41 सीटें जीतने में कामयाब रहा.

युवा मुख्यमंत्री द्वारा एक ऐसे राज्य को, जो पारंपरिक रूप से कांग्रेस का गढ़ रहा हो, इस तरह हथियाए जाने के बाद भविष्य में उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की अटकलें भी लगने लगी हैं. वह चाहें वहां तक पहुंचे या न पहुंचे, लेकिन अठारहवीं सदी के फडणवीस की तरह महाराष्ट्र के इतिहास पर उनका अपनी गहरी छाप छोड़ जाना तो तय है.

महाराष्ट्र में फडणवीस को बीजेपी के पहले मुख्यमंत्री के रूप में देखना, मराठाओं को कतई नहीं भाया. मराठाओं का आज भी गांव से लेकर ऊपरी स्तर की राजनीति पर खासा वर्चस्व है. आखिर राज्य के 18 में से 11 मुख्यमंत्री मराठा रहे हैं.

मराठाओं का गुस्सा तब बाहर आया जब 13 जुलाई 2016 को अहमदनगर जिले के कोपर्दी गांव में तीन दलितों पर एक 14 वर्षीय मराठा लड़की के बलात्कार और हत्या का इल्जाम लगा.

इस वर्ष 25 जुलाई के दिन मैं संभाजी ब्रिगेड के पूर्व अध्यक्ष प्रवीन गायकवाड़ से मिला. यह वही मराठा संगठन है, जो पुणे में 2004 के भंडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट पर हमले के लिए जिम्मेवार था. गायकवाड़ ने याद करते हुए बताया कि कोपर्दी हादसे के कुछ समय पहले से ही उनका समुदाय गुस्से में था. “हममें से बहुत से लोग असुरक्षित महसूस कर रहे थे,” उन्होंने मुझसे कहा. “समुदाय में अधिकांश लोग सोचते थे कि ब्राहमण के मुख्यमंत्री बनने का मतलब है, मराठाओं को तंग किया जाएगा. कोपर्दी के हादसे ने हमारे सबसे बुरे खौफ पर मुहर लगा दी.”

मुख्यमंत्री ने समुदाय के जख्मों पर मरहम लगाने में देर कर दी. उन्होंने कोपर्दी का दौरा, हादसे के एक पखवाड़े बाद किया, वह भी विपक्ष की आलोचना के दबाव के बाद. फडणवीस ने अपने इस दौरे की गोपनीयता बनाए रखी. यहां तक कि जब वह पीड़ित परिवार के सदस्यों से मिले तो मीडिया भी वहां मौजूद नहीं था.

मराठाओं ने 3 अगस्त 2016 को मुंबई में विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई. लेकिन सरकार ने इसकी  इजाजत नहीं दी. तर्क दिया गया कि विधान सभा के दौरान इस तरह के विरोध प्रदर्शन से कानून और व्यवस्था की समस्या खड़ी हो सकती है. गायकवाड़ ने कहा, “हमने फिर औरंगाबाद में रैली करने का फैसला किया. हमें इस रैली में 5000 लोगों के आने की उम्मीद थी, लेकिन सोशल मीडिया की बदौलत इसमें 5 लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए. आगे की बात तो सभी जानते हैं.”

औरंगाबाद में आयोजित 9 अगस्त की मूक रैली की सफलता के बाद, मराठाओं ने महाराष्ट्र के गांव-गांव तथा शहर-शहर में भगवा झंडों को लेकर रैलियां निकालीं. यह भगवा रंग शिवाजी के “हिंदवी स्वराज्य” का पारंपरिक प्रतीक भी माना जाता है, जिसे कालांतर में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ और शिव सेना जैसे संगठनों ने अपनी हिंदुत्ववादी पहचान दर्शाने के लिए अपनाया. इन मूक प्रदर्शनों को “मराठा क्रांति मोर्चा” का नाम दिया गया और दावा किया गया कि इनमें सैकड़ों हजारों लोगों ने हिस्सा लिया और सड़कें जाम कीं. इन रैलियों के आयोजक स्थानीय मराठा संगठनों से थे, जिन्होंने राज्य के स्थापित और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं से दूरी बनाकर रखी. इन रैलियों का नेतृत्व नौजवान लड़के-लड़कियां कर रहे थे, जिनमें कॉलेज के छात्र, स्कूल-कॉलेजों के अध्यापक, डॉक्टर, वकील व्यवसायी तथा किसान शामिल थे.

जल्द ही समुदाय के प्रतिनिधि मंडल ने सरकारी अधिकारियों के सामने अपनी तीन मांगें रखते हुए ज्ञापन दिया : मराठाओं के लिए शिक्षा और रोजगार में आरक्षण, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न रोकथाम) अधिनियम के दुरूपयोग पर रोक, झूठी शिकायतें डालकर उच्च जातियों के ब्लैकमेल को रोकने के लिए कानून में संशोधन तथा कोपर्दी के दोषियों को जल्द से जल्द फांसी. उनकी अन्य मांगों में, ग्रामीण इलाकों में रहने वाले मराठा किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या की घटनाएं रोकने के लिए कदम उठाना, राज्य के कृषि संकट से निपबटने के लिए एम एस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करना तथा मुंबई तट पर अरब सागर में शिवाजी की मूर्ति स्थापित करना शामिल थीं.

नाना फडणवीस की तरह ही, देवेंद्र फडणवीस के उभार को राज्य की राजनीति में मराठाओं के धीरे-धीरे हाशिए पर धकेल दिए जाने ने भी मुमकिन बनाया. विकिमीडिया कॉमनस

गायकवाड़ ने कहा कि मराठा आरक्षण का मामला 1980 से लटका हुआ है. जून 2014 में विधान सभा चुनावों से पहले और पहली दफा मांग उठाए जाने के करीब 25 सालों बाद कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन सरकार ने शिक्षा संस्थानों तथा सरकारी नौकरियों में मुस्लिमों के लिए 5 प्रतिशत के साथ-साथ, मराठाओं के लिए भी 16 प्रतिशत आरक्षण को मंजूरी दी थी. लेकिन नवंबर 2014 में मुंबई हाई कोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया था क्योंकि इससे 50 फीसदी के दायरे में रखने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवमानना होती थी, जो इस आरक्षण के लागू होने पर 73 प्रतिशत पर पहुंचता है.

इसके बावजूद फडणवीस ने 16 सितंबर 2016 के एक टीवी इंटरव्यू में मराठाओं को आरक्षण का भरोसा दिलाया. उन्होंने कहा, “मराठा समुदाय के शक्तिशाली कुलीनों ने लंबे समय तक सत्ता का मजा लूटा है लेकिन अपने समुदाय के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए कुछ नहीं किया. उनका इशारा कांग्रेस-एनसीपी के नेताओं की तरफ था. मुख्यमंत्री इस तथ्य की तरफ इशारा कर रहे थे कि मराठा समुदाय में वे लोग भी शामिल हैं जो पुराने कुलीनों के वंशज हैं और वे भी कुनबी समुदाय से संबंध रखते हैं यानी किसान हैं.

राज्य पर मराठा समुदाय का वर्चस्व सवालों से पटा पड़ा है. पुणे के रहने वाले राजनीतिक शास्त्र के विद्वान् सुहास पल्शिकर के एक अध्ययन के अनुसार, मराठाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व हमेशा कुल जनसंख्या में उनकी तादाद से कहीं ज्यादा रहा है. उन्होंने 2003 के अपने एक शोधपत्र में लिखा, “पारंपरिक तौर पर मराठा-कुनबी, राज्य विधान सभा में करीब 45 फीसदी सीटों पर काबिज रहते आए हैं.” सरकार में मंत्री पदों पर भी उनका प्रतिनिधित्व बाकी समुदायों से अधिक रहा है. पल्शिकर ने नोट किया कि अस्सी के दशक के एक दौर को छोड़कर, राज्य कैबिनेट में समुदाय की हिस्सेदारी कभी भी 52 फीसदी से कम नहीं रही. उन्होंने 2007 में छपी अपनी एक किताब में लिखा कि राज्य में मराठा समुदाय का 54 फीसदी शैक्षणिक, 70 फीसदी सहकारी संस्थानों तथा 70 फीसदी से अधिक कृषि भूमि पर आधिपत्य है.

“सच्चाई यह है कि मराठा समुदाय के बहुत ही कम लोग जमीन के मालिक, राजनीति में रसूख वाले, सफल व्यापारी या उद्योगपति हैं,” गायकवाड़ ने कहा. “हमारे अधिकतर लोग ग्रामीण इलाकों में किसानी करते हुए संघर्ष कर रहे हैं. शहरों की तरफ पलायन, उनके कष्टों में और अधिक इजाफा कर देता है, क्योंकि वहां भी वे खुद को सामाजिक-आर्थिक रूप से सबसे नीचे के पायदान पर पाते हैं.” सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के अध्ययन ने 2014 में केवल तीन फीसदी मराठाओं को ही अमीरों की सूची में रखा था.

मराठाओं के विरोध प्रदर्शनों ने अन्य जाति समूहों खासकर दलित समुदाय की बैचेनी भी बढ़ा दी. राज्य में मराठाओं और दलितों के बीच टकराव का लंबा इतिहास रहा है, खासकर सत्तर और अस्सी के दशक में. मराठवाड़ा यूनिवर्सिटी का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने पर मराठाओं द्वारा हिंसक प्रदर्शन किए गए थे. आंदोलन शुरू होने के करीब 17 साल बाद, 1994 में तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने संस्थान का नाम बदलकर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा यूनिवर्सिटी कर दिया. इस कदम से उनके अपने समुदाय के लोग बेहद आहत हुए.

अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न रोकथाम) अधिनियम में संशोधन के प्रयास से राज्य में दलित बहुत प्रभावित हुए हैं. दलित समुदाय ने कहा कि राज्य में इस कानून का क्रियान्वयन तथा इसके तहत मिलने वाली सजा की दर पहले ही बहुत कम है. दलित समुदाय से आने वाले पूर्व राज्यसभा सदस्य बालचंद्र मुंगेकर ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा, “राज्य में 2014 में कुल 7345 मामलों में से केवल 59 मामलों (0.8 फीसदी) में ही सजा सुनाई गई.”

लेकिन महाराष्ट्र के दलित नेता, मराठाओं के खिलाफ सार्वजनिक रैलियां निकालने से बचते रहे हैं. बी.आर. आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर ने मराठाओं से पंगा लेने से बचने की सलाह दी. राज्य से दलितों के एक अन्य नेता रामदास अठवाले, जो केंद्र में सामजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्री भी हैं, ने शुरू में प्रतिरोध के संकेत दिए लेकिन बाद में वे भी गुस्से को ठंडा करने के लिए दलित-मराठा एकता की बात करने लगे.

अन्य पिछड़ा वर्ग में भी बेचैनी का माहौल है. इस वर्ग के सदस्य भी 2014 में बीजेपी नेता गोपीनाथ मुंडे की असामयिक मौत तथा मार्च 2016 में एनसीपी के छगन भुजबल को मनी लॉन्ड्रिंग केस में जेल होने के बाद नेतृत्व का संकट झेल रहे हैं. ऐसी अटकलें भी लग रही थीं कि बीजेपी नेता गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा, जो राज्य में महिला एवं बाल कल्याण मंत्री हैं, तथा फडणवीस सरकार में राजस्व मंत्री रह चुके अन्य ओबीसी नेता एकनाथ खडसे, ओबीसी वर्ग के समर्थन में उतरने की योजना बना रहे थे.

दिवाली से पहले तथा अक्टूबर 2016 में उस समय जब सरकार सत्ता में दो साल पूरे होने का जश्न मना रही थी, कई समुदायों की बेचैनी ने राजनीतिक रूप से विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी.

इन अफवाहों के चलते कि फडणवीस को मुख्यमंत्री पद से हटाया जा सकता है, उन पर दबाव बढ़ता चला जा रहा था. फडणवीस गुजरात जैसी स्थिति में आ गए लगते थे, जहां मोदी की चहेती मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को, पाटीदार, दलित एवं ओबीसी के बढ़ते असंतोष के कारण अगस्त 2016 में इस्तीफा देना पड़ा था.

लेकिन फडणवीस ने अपनी कुटिल चालें चलनी शुरू कर दीं. 13 अक्टूबर 2016 को उन्होंने राज्य कैबिनेट की एक मीटिंग में मराठा समुदाय के लिए कई कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की. इनमें आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए आर्थिक मदद तथा गरीब किसानों के बच्चों के लिए हॉस्टलों में मासिक आर्थिक अनुदान एवं खाने की व्यवस्था भी शामिल थीं.

उसी साल 5 दिसंबर को, उनकी सरकार ने बॉम्बे हाई कोर्ट में मराठाओं के आरक्षण के समर्थन में, 2800 पेज का एफिडेविट भी दाखिल किया. जिसमें गोखले इंस्टिट्यूट ऑफ पॉलिटिक्स एंड इकोनॉमिक्स की नई रिपोर्ट का उद्धरण दिया गया था. तथा इसमें आजादी से पहले के दस्तावेज भी शामिल किए गए थे, जिनमे आंबेडकर के नोट्स एवं वेदों के उद्धरण भी थे. ये दर्शाते थे कि मराठा हमेशा से ही सामाजिक रूप से पिछड़ा समुदाय रहा है.

इस दौरान मराठाओं ने दबाव बनाए रखा. उनके नेताओं ने सरकार द्वारा उनकी मांगें न मानने पर हिंसक विरोध की धमकियां दीं. यह धमकियां तब वास्तविक लगने लगीं जब जनवरी 2017 में पूरे राज्य में चक्का जाम के दौरान हिंसक वारदातें हुईं.

उस साल 30 जून को राज्य सरकार ने महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग से मराठाओं की सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक स्थिति को जानने के लिए ताजा अध्ययन करने की गुजारिश की.

इन तमाम वादों के बावजूद मुंबई में 9 अगस्त 2017 को, 58वां और अंतिम, मूक प्रदर्शन हुआ, जिसमे हजारों लोगों ने भाग लिया. जब मराठे बाईकुला में जीजामाता चिड़ियाघर से आजाद मैदान तक रैली निकाल रहे थे तो देश की वित्तीय राजधानी लगभग पूरी तरह ठप्प पड़ गई थी. 29 नवंबर 2017 को अहमदनगर सेशन कोर्ट ने कोपर्दी बलात्कार मामले में तीन लोगों को फांसी की सजा सुनाई.

बीसवीं सदी में मराठाओं के मैक्यावली का तमगा नौजवान और शातिर राजनीतिज्ञ शरद पवार को मिला. वह मराठा भी थे और 37 साल की उम्र में ही तत्कालीन कांग्रेस मुख्यमंत्री को हटाकर राज्य के मुख्यमंत्री की सीट पर काबिज हो गए. बीसीसीएल

जुलाई 2018 में अपेक्षा की जा रही थी कि फडणवीस सोलापुर जिले में मंदिरों के शहर पंढरपुर में, विट्ठल-रखुमाई की मूर्तियों के सामने महापूजा करेंगे. पंधारपुर को महाराष्ट्र की आध्यात्मिक राजधानी भी कहा जाता है. अषाढ़ी एकादशी के दिन मुख्यमंत्री और उनकी पत्नी के लिए सबसे पहले पूजा करने की परंपरा रही है. इस दिन पैदल चलकर आए लाखों की संख्या में वर्कारी कहलाने वाले तीर्थयात्री वहां एकत्रित होते हैं.

अपने पूर्ववर्तियों की भांति, फडणवीस ने भी 2015, 2016 और 2017 में इस वार्षिक पूजा में हिस्सा लिया था. लेकिन 2018 में मराठा संगठनों के दबाव में उन्होंने आखिरी मौके पर अपनी यात्रा रद्द कर दी. इसके पीछे मुख्यमंत्री ने, जिनके पास गृह मंत्रालय का भी प्रभार है, कानून-व्यवस्था की समस्या का हवाला दिया. उन्होंने मुंबई में पत्रकारों से कहा, “पुलिस के पास जो खुफिया जानकारी है उसमें श्रद्धालुओं पर सांप छोड़ने जैसी बातें की गई हैं और इससे भगदड़ की स्थिति पैदा हो सकती है.”

23 जुलाई 2018 को तब चीजें चरम पर पहुंचने लगीं, जब 28 वर्षीय मराठा प्रदर्शनकारी काकासाहेब शिंदे ने औरंगाबाद जिले के गंगापुर ताल्लुका के अंदर गोदावरी में कूद कर अपनी जान दे दी. प्रदर्शनकारियों ने लाश लेने से साफ इंकार कर दिया. उनकी मांग थी की मुख्यमंत्री तुरंत इस्तीफा दें.

फडणवीस ने शांति बनाए रखने की अपील की लेकिन आने वाले महीनों में पूरे महाराष्ट्र में हिंसा की वारदातों में 40 से ज्यादा लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. कुछ ने खुद को आग लगा ली, तो कुछ सड़कों पर होने वाली हिंसा में मारे गए. 21 नवंबर को पुणे के नजदीक वडगांव मावल में एक सार्वजनिक रैली में बोलते हुए, मराठा क्रांति मोर्चा के राज्य संयोजक शांताराम कुंजीर ने चतावनी दी कि उनके “सब्र का बांध टूट रहा है.” उन्होंने कहा कि 2019 में इस सरकार को गिरा दिया जाएगा.

एक सप्ताह बाद, 29 नवंबर की दोपहर को आजाद मैदान में अनशन पर बैठे मराठा प्रदर्शनकारियों को उस समय अचंभा हुआ जब पता चल कि फडणवीस ने विधान सभा में महाराष्ट्र आरक्षण बिल पेश किया है. उन्होंने तुरंत जश्न नहीं मनाया और अपना अनशन देर शाम को ही तोड़ा, जब यह खबर आई कि विधान सभा में ध्वनि मत से बिल पास कर दिया है. जिसके अनुसार समुदाय को शैक्षणिक संस्थानों तथा सरकारी नौकरियों में 16 फीसदी आरक्षण दिया जाना था. “जय भवानी” तथा “जय शिवाजी” के नारों से माहौल गूंज उठा. फडणवीस ने विधान सभा में कहा कि मराठाओं का आरक्षण कानून के “अपवादात्मक परिस्थितियों तथा असाधारण स्थितियों” प्रावधान के अंतर्गत आता है, जो इसे संवैधानिक और कानूनी रूप से बाध्य बनाता है.

शाम ढलने तक जब यह स्पष्ट हो गया कि उनकी मांग मान ली गई है तो उन्होंने आंदोलन में मारे गए लोगों की याद में 42 दिए जलाए. विपक्षी दल कांग्रेस-एनसीपी, यहां तक कि सरकार में रहते हुए हमेशा शिकायत करने वाली पार्टी शिव सेना के नेता भी हैरत में थे. बहरहाल, वे आजाद मैदान पहुंच कर प्रदर्शनकारियों को मुबारकबाद देने से नहीं चूके. इसके बिल्कुल उलट बिल पास होने के कुछ ही मिनटों बाद, बीजेपी कार्यकर्ताओं ने पार्टी दफ्तर के बाहर पटाखे फोड़े, आपस में गुलाल छिड़का और मिठाइयां बांटी. आखिरकार मराठाओं का दिल भी जीत लिया गया.

आरक्षण को चुनौती देते हुए हाई कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गईं, जिनमें इसे “राजनीति से प्रेरित” बताया गया. याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि सरकार ने मराठा समुदाय के लिए “सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ों” की विशेष श्रेणी बनाकर, बराबरी की अवधारणा की धज्जियां उड़ाई हैं. वहीं दूसरी तरफ, अपने फैसले को सही ठहराते हुए सरकार ने कहा, “इसका मकसद मराठा समुदाय में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन दूर करना है.”

27 जून 2019 को हाई कोर्ट ने मराठा आरक्षण को संवैधानिक वैधता प्रदान कर दी, लेकिन कहा कि आरक्षण का प्रतिशत शिक्षा में 16 फीसदी से घटाकर 12 फीसदी किया जाए और नौकरियों में 13 फीसदी आरक्षण को स्वीकार कर लिया जो महाराष्ट्र पिछड़ा वर्ग आयोग की भी मूल सिफारिश थी. कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं की उस मांग को भी ठुकरा दिया, जिसमें उन्होंने आरक्षण पर रोक लगाने की मांग की थी. हालांकि उन्हें फैसले के खिलाफ, सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की छूट दे दी गई. मुख्यमंत्री के पूर्व सहायक के अनुसार, फडणवीस ने पिछली कांग्रेस-एनसीपी सरकार की तरह पिछड़ा वर्ग आयोग को साथ लेने की गलती नहीं दोहराई और कोर्ट में आरक्षण को जायज ठहराने के लिए, वकीलों की एक पूरी सेना भेज दी.

जुलाई 2019 में, फडणवीस जब पंधरपुर लौटे तब तक गोदावरी में हजारों-लाखों गैलन पानी बह चुका था. “सरकारी महापूजा” के वक्त वहां बड़ी तादाद में मराठे और वर्कारी उनका भव्य स्वागत करने के लिए इंतजार कर रहे थे. वे एक भव्य जश्न का आयोजन करना चाहते थे लेकिन फडणवीस ने शालीनता के साथ उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया. उन्होंने पत्रकारों से कहा. “मुझे खुशी है कि मैं मराठाओं को आरक्षण दिलवा पाया, मैंने अपना कर्तव्य निभाया है.”

ऐतिहासिक रूप से कांग्रेस तथा एनसीपी के वफादार मराठा, अब बीजेपी के खेमे में थे, जिसने 2019 में पार्टी को लोकसभा चुनावों में भारी जीत दिलवाई. फडणवीस भी अब अपना कार्यकाल पूरा करने के कगार पर हैं. वे वसंतराव नाईक के बाद ऐसा करने वाले दूसरे मुख्यमंत्री होंगे. नाईक 1963 और 1975 के बीच कुल ग्यारह साल मुख्यमंत्री रहे.

मराठाओं का गुस्सा तब बाहर आया जब 13 जुलाई 2016 को अहमदनगर जिले के कोपर्दी गांव में तीन दलितों पर एक 14 वर्षीय मराठा लड़की के बलात्कार और हत्या का इल्जाम लगा. पुनीत परांजपे/एएफपी/गैटी इमेजिस

1960 के दशक में देवेंद्र के पिता गंगाधरराव फडणवीस, उस समय भारतीय जनसंघ में शामिल हुए थे जब उस पार्टी को कोई घास नहीं डालता था. यहां तक कि संघ के गढ़ नागपुर में भी इसकी कोई पूछ नहीं थी. कई शर्मनाक चुनावी पराजयों के बाद आखिरकार गंगाधर की किस्मत चमकी. पहले उन्होंने नागपुर नगर निगम का चुनाव जीता और फिर डिप्टी मेयर बने. वह नागपुर ग्रेजुएट चुनाव क्षेत्र से महाराष्ट्र विधान परिषद के लिए भी चुने गए. राज्य की राजनीति में संघ परिवार के बढ़ते रुतबे के साथ-साथ फडणवीस परिवार का सिक्का भी जमने लगा.

जुलाई में मैंने चार बार कांग्रेस के कॉरपरेटर तथा नागपुर साउथ वेस्ट से फडणवीस के खिलाफ चुनावी मैदान में उतरने वाले प्रफुल्ल गुडादे पाटिल से बात की. उनके पिता गंगाधरराव के समकालीन थे. प्रफुल्ल ने मुझे बताया, “हर नागपुरिया आपको बता देगा कि आज जहां फडणवीस बैठे हैं, उसके पीछे मेरे पिता विनोद गुडादे पाटिल का बहुत बड़ा हाथ है.”

साठ के दशक में हालांकि संघ की शाखाएं पूरे शहर में फैलीं थीं, लेकिन इसकी राजनीतिक शाखा, पहले भारतीय जनसंघ और बाद के वर्षों में बीजेपी, हाशिए पर ही बनी रही. उनके प्रत्याशी, जैसे गंगाधरराव और सुमतिताई सुखालिकर अपनी जमानत जब्त कराने के लिए ही चुनाव लड़ते थे. जनसंघ और बीजेपी पर अभी भी “भट्जी-सेठजी या ब्राह्मण-बनिया” जैसे तमगे चस्पां थे. हालांकि संघ ने सरसंघचालक बालासाहेब देवरस के नेतृत्व में अन्य समुदायों को अपनी तरफ आकर्षित करने का काम शुरू कर दिया. बालासाहेब ने 1974 में कहा था, “अगर छुआछूत गलत नहीं है तो दुनिया में कुछ भी गलत नहीं है.” लेकिन इसके बावजूद उनके लिए चुनाव जीतना दूर की कौड़ी बनी रही. नागपुर अभी भी कांग्रेस का गढ़ बना रहा.

सत्तर के दशक में नागपुर की बाहरी सीमा पर बसा जैताला मुख्य रूप से ग्रामीण इलाका हुआ करता था, जहां अधिकतर कुनबी जाति के लोग बसते थे. नौजवान विनोद भाऊ, जैसाकि उन्हें जैताला के इलाके में बुलाया जाता था, गंगाधरराव के संपर्क में आए. वह संघ में शामिल होने वाले सबसे पहले बहुजन समाज के लोगों में से एक थे. “मेरे पिता जनसंघ के टिकट पर कॉरपोरेशन का चुनाव जीतने वाले सबसे पहले व्यक्ति थे. वह नागपुर से संघ के पहले विधायक भी चुने गए,” प्रफुल्ल ने बताया.

देवेंद्र का पालन पोषण एक ऐसे परिवार में हुआ जो संघ की विचारधारा में गले तक डूबा था. उन्होंने कम उम्र में ही संघ की शाखा में जाना शुरू कर दिया था. जब वह अभी पांच साल के ही थे तब आपातकाल में सरकार विरोधी गतिविधियों के लिए उनके पिता को गिरफ्तार कर लिया गया. कहा जाता है कि अगले दिन देवेंद्र ने स्कूल जाने से इनकार कर दिया क्योंकि उनके स्कूल का नाम इंदिरा गांधी के नाम पर था जो उनके पिता को जेल भेजने के लिए जिम्मेवार थीं. उसके बाद उनका दाखिला सरस्वती विद्यालय में करवा दिया गया.

किशोर अवस्था में ही फडणवीस छात्र राजनीति में सक्रिय हो गए. वह संघ से जुड़ी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य बने. तत्पश्चात उन्होंने बीजेपी का युवा संगठन भारतीय जन युवा मोर्चा ज्वाइन कर ली.

गंगाधरराव की मृत्यु 1987 में हुई. देवेंद्र उस वक्त 17 साल के थे. मरने से पहले उनके पिता उनके लिए बहुत से राजनीतिक संपर्क छोड़ गए थे. विनोदभाऊ के अलावा देवेंद्र की विधायक चाची शोभाताई फडणवीस भी थीं. नौजवान नितिन गडकरी भी थे जो उनके पिता के शागिर्दों में से एक हुआ करते थे. गंगाधरराव की मृत्यु के बाद उनकी ही सीट से चुनकर गडकरी विधान परिषद पहुंचे.

नब्बे के दशक में बीजेपी के अप्रत्याशित उभार से फडणवीस और उनके दोस्तों को बहुत फायदा हुआ. 1992 में महज 21 साल की उम्र में फडणवीस कार्पोरेटर बन गए जबकि उन्होंने अभी कानून की पढ़ाई पूरी भी नहीं की थी. उधर विनोदभाऊ नागपुर वेस्ट से 1990 और 1995 में दो बार चुने गए. सत्ताईस वर्ष के होते-होते, फडणवीस शहर के सबसे युवा मेयर बन चुके थे. 1999 के लोकसभा और विधान सभा चुनावों में, जो महाराष्ट्र में साथ-साथ संपन्न हुए थे, विनोदभाऊ ने लोकसभा का चुनाव लड़ा और अपनी विधान सभा सीट फडणवीस के लिए छोड़ दी, जो बीजेपी के लिए अब सबसे सुरक्षित सीट मानी जाती है. जब चुनाव नतीजे आए तो विनोदभाऊ हार चुके थे और फडणवीस विजयी घोषित किए गए.

चुनाव हारने के बाद विनोदभाऊ को पार्टी के अंदर हाशिए पर धकेल दिया गया. “संघियों ने मेरे पिता का जीवन नर्क बना डाला था और उनके राजनीतिक भविष्य को खतरे में डाल दिया था,” प्रफुल्ल ने कहा. “अपनी इज्जत को मद्देनजर रखते हुए उन्होंने साल 2000 में संघ-बीजेपी का दामन छोड़ दिया.” इस मार्फत प्रफुल्ल ने विस्तार से नहीं बताया लेकिन नागपुर में बीजेपी के सूत्रों तथा पत्रकारों ने बताया कि कैसे नितिन गडकरी के चेले-चपेटों ने, जिनमें फडणवीस भी शामिल थे, पर्दे के पीछे रहते हुए गुडादे पाटिलों को उनके ही गढ़ जैताला में हाशिए पर धकेला और लोकसभा चुनावों में विनोदभाऊ की पराजय को सुनिश्चित किया. वह इस हद तक भी गए कि “विकास” के नाम पर उन्होंने उनकी बहुत सी जमीनें भी हथिया लीं.

“मेरे पिता ने देवेंद्र जी को हमेशा अपने बेटे के समान माना,” प्रफुल्ल ने कहा. “हम आज भी गंगाधरराव जी को याद करते हैं, हमें कोई शिकायत नहीं है.” अपनी पूरी कोशिश के बाद भी प्रफुल्ल, फडणवीस परिवार के साथ अपने “पारिवारिक संबंधों” में आई इस कड़वाहट को नहीं छुपा पा रहे थे. “ऐसी सफलता का क्या फायदा, जिसे हासिल करने के लिए आपको इस हद तक गिरना पड़े?”

फडणवीस का मित्र को धोखा देना कोई इकलौती घटना नहीं है.

लोगों की नजर में फडणवीस ने शुरू से ही अपनी छवि साफ बनाकर रखी है. बीजेपी और संघ के बाकी नताओं की तरह उन पर कभी सांप्रदायिकता या जातिवाद फैलाने का आरोप नहीं लगा. लंबे समय से उनको जानने वाले बताते हैं कि वह बेहद साधारण और मिलनसार व्यक्ति हैं. लेकिन तब भी उन्होंने विधान सभा में खुद को एक सफल वक्ता के रूप में स्थापित किया. उन्होंने सदन में कांग्रेस-एनसीपी के घोटालों पर आक्रामक हमले किए और अपने लिए अखबारों की सुर्खियां बटोरीं. 2004 में वह अपने चुनाव क्षेत्र से पुनः चुने गए. अगले ही साल उन्होंने नागपुर में एक्सिस बैंक की कर्मचारी अमृता रानाडे से विवाह रचा लिया.

इस बीच बीजेपी में समीकरण बदलने लगे. प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे की इच्छा के विरुद्ध, महाराष्ट्र में 1995 में जब पहली सेना-बीजेपी सरकार में गडकरी मंत्री और 2004 में बीजेपी की राज्य इकाई के अध्यक्ष बने, तो उन्होंने अपने चेले को प्रोत्साहन देना शुरू किया, जो नागपुर का ब्राहमण होने के साथ-साथ, संघ का वफादार भी था. गडकरी, गंगाधरराव का कर्ज उतारना चाहते थे, लेकिन उनके बेटे के साथ गल्बैय्यां ज्यादा दिन तक नहीं चल सकीं.

हालांकि गडकरी और फडणवीस दोनों ने मनमुटाव की अफवाहों से इनकार किया है लेकिन कई मौकों पर यह खुले रूप से सामने आती रहीं. कई लोगों का मानना है कि फडणवीस शासन में गडकरी के समर्थकों को किनारे लगाया जा रहा है. मिसाल के तौर पर पार्टी कार्यकर्ताओं को लगता है कि गडकरी के चहेते नागपुर के पूर्व मेयर अनिल सोले की जून के कैबिनेट विस्तार में शामिल होने की पूरी संभावना थी लेकिन फडणवीस ने युवा परिणय फूके को चुना, जो नागपुर से विधान परिषद के सदस्य हैं.

महाजन के अपने ही भाई के हाथों 2006 में त्रासद अंत के बाद फडणवीस, मुंडे के करीब आए. वरिष्ठ नेता मुंडे ने 2013 में गडकरी की इच्छा के विरुद्ध जाकर, जो दूसरी बार विदर्भ के सुधीर मुनगंटीवार को मौका दिए जाने के पक्ष में थे, महाराष्ट्र इकाई के अध्यक्ष पद के लिए फडणवीस को अपना समर्थन दिया. मुनगंटीवार, गडकरी के समर्थकों में थे.

बीजेपी राज्य इकाई का अध्यक्ष बनने के बाद, फडणवीस का रुतबा नाटकीय ढंग से बढ़ा. जिन बीजेपी नेताओं से मैंने बात की उनका कहना था कि हालांकि फडणवीस को शुरू में पार्टी के अंदर की गुटबाजी का फायदा मिला, लेकिन यह उनकी राजनीतिक सूझ-बूझ तथा संवेदनशील मुद्दों पर उनकी व्यवहारिक चुप्पी ही थी, जिसने उनके राजनीतिक भविष्य में सही समय पर स्थापित होने में मदद की.

2004 में फडणवीस अपने चुनाव क्षेत्र से पुनः चुने गए. अगले ही साल उन्होंने नागपुर में एक्सिस बैंक की कर्मचारी अमृता रानाडे से विवाह कर लिया. हिंदुस्तान टाइम्स

फडणवीस कैबिनेट में रहे पूर्व मंत्री ने मुझे बताया कि अगर मुंडे, जून 2014 में एक सड़क हादसे में नहीं मारे जाते तो बीजेपी उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाती. लेकिन इस त्रासद खबर के आने पर, महत्वाकांक्षी दावेदारों के उलट फडणवीस चुपचाप पर्दे के पीछे रहकर अपना काम करते रहे. उन्होंने एक बार भी सार्वजानिक रूप से अपने मुख्यमंत्री बनने की संभावना का जिक्र नहीं किया. इसके कारण केंद्रीय नेतृत्व खासकर, नरेंद्र मोदी और अमित शाह का भरोसा उन पर बढ़ा. अमित शाह, जुलाई 2014 में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके थे.

“विधान सभा चुनावों से पहले, फडणवीस का नाम अखबारों में संभावित मुख्यमंत्री के रूप में उछाला जाने लगा. 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की शानदार जीत के बाद पूरे महाराष्ट्र में “केंद्र में नरेन्द्र, प्रदेश में देवेंद्र” का नारा गूंजने लगा. पूर्व पत्रकार एवं मुख्यमंत्री कार्यालय में स्पेशल ड्यूटी कर रहे रविकिरण देशमुख से जब मैं इस साल जुलाई में मिला तो उनका कहना था, “जब उस साल मोदी ने नागपुर की एक रैली में फडणवीस की यह कहकर तारीफ की कि, “देवेंद्र देश को, नागपुर की भेंट हैं” तो इसे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद के लिए प्रधानमंत्री की प्राथमिकता का इशारा माना गया.

मुख्यमंत्री पद के मुकाम पर पहुंचने के लिए फडणवीस ने कई वरिष्ठ नेताओं को नाराज किया, जिनमें सबसे प्रमुख हैं ओबीसी नेता एकनाथ खडसे और पंकजा मुंडे. पिछले कुछ दशकों से महाराष्ट्र में बीजेपी की चुनावी सफलता के पीछे उनके समुदाय के लोगों का वोट बहुत महत्वपूर्ण रहता आया है. “अब जब भी किसी बहुजन नेता का अपमान होता है, तो हम उनके साथ सहानुभूति रखने के अलावा कुछ और नहीं कर पाते,” प्रफुल्ल गुडादे पाटिल ने बताया. “हमें पता है, ऐसा तो हमारे साथ पहले ही हो चुका है.”

जैसा कि सुहास पल्शिकर ने इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली के अपने 2014 के लेख में लिखा था, “बीजेपी ने नब्बे के दशक से सोच-समझकर कई ओबीसी नेताओं को प्रोत्साहित किया था. जब मंडल समर्थक ताकतें वाजिब वैचारिक शोर मचा रहीं थीं, महाराष्ट्र में बीजेपी ने एक नहीं, कई गैर-मराठा तथा गैर-ब्राहमण नेताओं को आगे किया. इनमें एन एस फरांडे, अन्ना डांगे, पांडुरंग फुंडकर, गोपीनाथ मुंडे, एकनाथ खडसे, सुधीर मुनगंटीवार और विनोद तावड़े शामिल थे.”

भारतीय जनसंघ के दिवंगत नेता वसंतराव भागवत ने कांग्रेस को चुनौती देने के लिए सत्तर के दशक में ओबीसी रणनीति तैयार की थी. उस समय तक, मराठा-बहुल इलाकों में कांग्रेस का दबदबा था. खुद ब्राह्मण होने के बावजूद भागवत ने माली, ढांगर और वंजारी समुदाय के कई नेताओं को दीक्षा दी, जिसे माधव फार्मूला के नाम से जाना गया. इस रणनीति ने राज्य में पार्टी के वोट बैंक को विस्तारित किया, खासकर विभिन्न ओबीसी समुदायों में.

भागवत के सबसे पुराने चेलों में मुंडे थे, जो ओबीसी समुदाय के प्रमुख नेताओं में से एक थे. मुंडे को कई ओबीसी नेताओं को प्रशिक्षित करने का श्रेय जाता है. राष्ट्रीय समाज पक्ष के नेता और महाराष्ट्र सरकार में पशुपालन, डेरी तथा मछलीपालन विकास मंत्री, महादेव जानकर के साथ गठबंधन करने का श्रेय भी मुंडे को ही जाता है. जानकर ढांगर समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो मराठाओं और दलितों के बाद महाराष्ट्र में सबसे बड़ा समुदाय है.

मुंडे की असमय मौत के बाद, कई लोग उनकी सबसे बड़ी बेटी पंकजा, जो वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री हैं और जिन्होंने मुख्यमंत्री बनने की अपनी आकांक्षा को कभी छुपाया भी नहीं, से मुंडे की विरासत को आगे बढ़ाने की अपेक्षा लगाए बैठे थे. 2014 के विधानसभा चुनावों से पहले, जब वह अभी अपने पिता की मौत के शोक से उबर ही पाई थीं, पंकजा ने अहमदनगर जिले के भगवानगढ़ नामक जगह पर अपने समर्थकों को एकत्रित किया. सनद रहे कि भगवानगढ़, वंजारी समुदाय, जिससे मुंडे आते हैं, के आराध्य संत की आरामगाह भी है. उस साल अक्टूबर में आयोजित विशाल रैली में, पंकजा की बगल में अमित शाह की मौजूदगी को उनके राजनीतिक अभिषेक के रूप में देखा गया.

लेकिन जब उन्हें नजरंदाज कर दिया गया तो वह अपनी नाराजगी छुपा नहीं सकीं. मई 2015 में, पुणे में पंकजा ने कहा कि उन्हें नहीं मालूम कि वह मुख्यमंत्री बनेंगी या बतौर मंत्री काम करती रहेंगी और उन्हें इस बात की खुशी है कि “लोगों की नजरों में” वह मुख्यमंत्री हैं. फडणवीस को उनकी बात पसंद नहीं आई और उन्होंने अपने जुलाई 2016 के अगले कैबिनेट फेरबदल में उनसे दो मंत्रालय (जल संरक्षण तथा रोजगार गारंटी मंत्रालय) छीन लिए.

नागपुर में बीजेपी के सूत्रों तथा पत्रकारों ने बताया कि कैसे नितिन गडकरी के चेले-चपेटों ने, जिनमें फडणवीस भी शामिल थे, पर्दे के पीछे रहते हुए गुडादे पाटिलों को उनके ही गढ़ जैताला में हाशिए पर धकेला. सनी शिंदे/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

इससे एक गंभीर संकट पैदा हो गया. मुंडे के समर्थकों ने उनके बीड जिले में फडणवीस का पुतला जलाया. पंकजा, जो उस वक्त जल संरक्षण के एक शीर्ष सम्मलेन के सिलसिले में सिंगापुर में थीं ने ट्वीट कर अपना विरोध दर्ज किया : “कल मैं वर्ल्ड वाटर लीडर समिट में हिस्सा लेने सिंगापुर पहुंच रही हूं. मुझे इस सम्मलेन में आमंत्रित किया गया था लेकिन अब मैं इसमें हिस्सा नहीं लूंगी क्योंकि अब यह मंत्रालय मेरे अंतर्गत नहीं आता.” फडणवीस उस समय रूस में थे. उन्होंने तुरंत ट्वीट किया कि वह महाराष्ट्र सरकार की तरफ से सम्मेलन में जरूर हिस्सा लें. इस खुली डांट के बाद पंकजा ने अपनी फेसबुक पोस्ट के जरिए स्पष्ट किया कि वह निराश नहीं हैं और उनहोंने अपने समर्थकों से शांत बने रहने की अपील की.

पंकजा की समस्याओं का अभी अंत नहीं हुआ था. 1993 से ही गोपीनाथ मुंडे अपने समुदाय को भगवानगढ़ के मंदिर में अपने शक्ति प्रदर्शन के लिए दशहरा के अवसर पर संबोधित करते आ रहे थे. इस परंपरा को पंकजा ने कायम रखा. लेकिन उत्सव से एक पखवाड़े पहले पंकजा और भगवानगढ़ के मंदिर के महंत के बीच तनातनी हो गई और समुदाय की वफादारियां बंट गईं. लिहाजा पंकजा के निर्विवाद नेता होने पर सवालिया निशान लग गए. पंकजा के नजदीकी सूत्रों ने बताया कि भगवानगढ़ रैली को पटरी से उतारने के लिए मुख्यमंत्री खेमे के लोगों ने दोनों के बीच मनमुटाव पैदा किया.

कभी हार न मानने वाली पंकजा ने भगवानगढ़ के आसपास लगाई गई निषेध आज्ञा का उल्लंघन कर अपने समर्थको को संबोधित किया. हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार उन्होंने भीड़ से कहा, “उनके पास अपना इस्तीफा लिखा रखा है क्योंकि “पार्टी के अंदर-बाहर की शक्तियां” उन्हें “जान-बूझकर निशाना” बना रही हैं. मुझे अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फंसाया जा रहा है, लेकिन मैं अपनी रक्षा खुद करूंगी,” उन्होंने दहाड़ लगाई. “मुझे किसी का डर नहीं है.”

हालांकि पंकजा ने किसी का नाम नहीं लिया, इसमें कोई शक नहीं कि उनका यह शक्ति प्रदर्शन मुख्यमंत्री को चेतावनी थी. “पंकजाताई को बुरा लगा कि उनके मंत्रालय मुख्यमंत्री के करीबी कनिष्ठ नेताओं के पास चले गए थे,” मुख्यमंत्री के करीबी ने पुणे में बताया. “लेकिन वह कुछ कर भी नहीं सकती थीं. मुख्यमंत्री के पास शीर्ष पार्टी नेताओं का समर्थन था.”

मुख्यमंत्री के खिलाफ, पंकजा के आक्रमक तेवर बीजेपी-संघ के अधिकतर नेताओं को पसंद नहीं आए. उनके साथ सिर्फ एक ही नेता खड़े थे: वरिष्ठ ओबीसी नेता, एकनाथ खाडसे, जिन्होंने कहा जनता पंकजा के साथ खड़ी है. हालांकि, फडणवीस द्वारा हाशिए पर धकेले जाने के बाद उनके समर्थन का कोई मतलब नहीं रह गया था.

मुख्यमंत्री पद के लिए खडसे भी मजबूत दावेदार थे. उनको भी फडणवीस का सीएम बनना गवारा नहीं हुआ. वह फडणवीस को अपने से कहीं जूनियर समझते आए हैं. उन्हें राजस्व मंत्री बनाया गया. मंत्रालय को कवर करने वाले पत्रकार ने मुझे बताया, “पत्रकारों से बातचीत करते हुए खडसे कहते नहीं थकते कि उन्हें सार्वजनिक जीवन में 40 साल हो गए हैं और छह बार विधायक रह चुके हैं जबकि फडणवीस को विधानसभा में आए अभी सिर्फ 15 साल ही हुए हैं.” उन्होंने कई बार मुझसे पूछा, “तुम्हारा मुख्यमंत्री कैसा कर रहा है? जिसका मकसद साफ तौर पर उन्हें नीचा दिखाना था.”

जून 2016 में, जमीन के धंधे से जुड़े एक व्यवसायी ने आरोप लगाया कि खडसे ने अपने मंत्री होने का फायदा उठाकर भोसारी औद्योगिक क्षेत्र में तीस-चालीस करोड़ रूपए की संपत्ति सिर्फ पौने चार करोड़ में हथिया ली. खडसे को इसके चलते इस्तीफा देना पड़ा. उन्होंने कुछ भी गलत न करने का दावा किया और कहा कि उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने उन्हें फंसाया है.

उस पत्रकार ने बताया, “खडसे के इस्तीफा देने से एक दिन पहले फडणवीस के कुछ वफादार लगातार पत्रकारों से पूछते रहे कि क्या उन्हें पद से हटा दिया है.” उन्होंने पूछा, “आपके पास तो खबर आ गई होगी,” और ठहाका लगाने लगे. “इसी तरह हमें पता चला कि खडसे के खिलाफ साजिश रची गई थी.”

पूर्व मंत्री के खिलाफ कुछ भी अनुचित करने का आरोप सिद्ध नहीं हो पाया. हाई कोर्ट द्वारा निर्देशित भ्रष्टाचार विरोधी ब्यूरो के मामले की छानबीन करने के बाद खडसे के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला और जून 2018 में उन्हें क्लीन चिट मिल गई. लेकिन उनके राजनीतिक भाग्य पर ताला लग चुका था.

एक पूर्व बीजेपी मंत्री ने कहा कि खडसे को इस तरह निबटाने तथा पंकजा पर लगाम कसने से फडणवीस के दुश्मनों ने चुप्पी साध ली. खडसे की तरह पंकजा पर भी स्कूली बच्चों के लिए पौष्टिक आहार के नाम पर चिक्की की खरीद में अनियमितता बरतने के आरोप लगाए गए. इसके अलावा करीब बारह ऐसे मंत्री हैं जिन पर अपने - अपने मंत्रालयों में भ्रष्टाचार तथा अनियमितता बरतने को लेकर जांच चल रही थी. पूर्व मंत्री ने बताया, “हालांकि मुख्यमंत्री ने खडसे को छोड़कर सभी को क्लीन चिट दे दी लेकिन खतरा सभी पर मंडराता रहा. सीएम के खिलाफ आवाज उठाने की किसी की हिम्मत नहीं हुई.”

1970 से 1973 तीन साल तक महाराष्ट्र ने अपने इतिहास का सबसे बुरा अकाल देखा. तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक (जो खुद भी विदर्भ से आते थे) ने इस प्राकृतिक आपदा को अवसर में बदल डाला. उन्होंने देश का पहला रोगार आधारित “सूखा राहत कार्यक्रम” चलाया. जो बाद में चलकर यूपीए सरकार का राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम का आधार बना.

हालांकि, उसके बाद प्रशासन में इस तरह की पहलें महाराष्ट्र में कम ही देखी गईं थी. सामंती जाति-आधारित राजनीति ने गहरी असमानता को जन्म दिया. यही वजह है कि राज्य के घोषित विजन और जमीन पर कड़वी सच्चाइयों में इतनी बड़ी खाई पैदा हो गई.

राजनीतिक विश्लेषक जयंत लेले ने 2009 में गोखले इंस्टिट्यूट ऑफ पॉलिटिक्स एंड इकोनॉमिक्स के अपने एक भाषण में इंगित किया था, “एक तरफ चंद लोगों के लिए तीव्रता से आने वाली समृद्धि है और दूसरी तरफ अधिकांश लोगों के लिए जानलेवा गरीबी और भुखमरी. उतनी ही तीव्र गति से लेकिन बेहद कटे-छंटे शहरीकरण की प्रक्रिया तथा प्रादेशिक असमानता भी पैदा हुई है. यह तीनों आपस में गुथी हुई समस्याएं हैं और चौथी समस्या में साफ झलकती हैं जिसने अध्येताओं और मीडिया को हाल ही में चिंतित करके रखा है- वह है नब्बे के दशक से शुरू होने वाली किसानों की आत्महत्याएं. खासकर, विदर्भ इलाके में.”

भारत के सबसे अमीर और समृद्ध राज्यों में से एक में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्याएं होती हैं. इसके अलावा यहां आदिवासियों में गरीबी, कुपोषण तथा शिशु मृत्यु दर भी सबसे अधिक पाई जाती है. कुछ सालों में इन विषयों पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में कुछ न कुछ छपता रहता है.

अब जबकि नाईक के बाद फडणवीस पहले ऐसे मुख्यमंत्री बन जाएं, जो अपना कार्यकाल पूरा करने में कामयाब रहे, वह शायद 1970-73 के बाद सबसे भयानक सूखे को झेलने वाले मुख्यमंत्री भी होंगे. इसके अलावा आदिवासी इलाका जैसे अमरावती जिले में मेलघाट, जहां कोर्कू आदिवासी रहते हैं, महाराष्ट्र का “भूख का कटोरा” माना जाता है. हालांकि फडणवीस के काम करने का तौर-तरीका, नाईक के काम करने के तरीके से कम और मोदी के तरीके से ज्यादा प्रभावित लगता है.

पद संभालते ही फडणवीस ने ऐलान किया था कि वह महाराष्ट्र को 2019 तक “सूखा-मुक्त और डिजिटल राज्य” बनाएंगे. “सीएम का मानना था कि आदिवासियों और किसानों के कर्ज माफ कर देने या उन्हें उचित दर की दुकानों से अनाज दे देने या सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में दवाइयां उपलब्ध करवाने भर से काम नहीं चलने वाला,” फडणवीस के पूर्व सहयोगी ने बताया.

2015 में अमरीका दौरे के वक्त, फडणवीस माइक्रोसॉफ्ट के चीफ एग्जीक्यूटिव सत्य नडेला से मिले और माइक्रोसॉफ्ट को मेलघाट के हरीसाल गांव को डिजिटल करने को मना लिया, जिससे सरकार ने गांववासियों के लिए शैक्षणिक, स्वास्थ्य, पोषण तथा कमाई की जरूरतों का तकनीकी हल खोजने में कामयाबी पाई.

टेलीमेडिसिन स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा में ई-लर्निंग, तथा झूम खेती करने वाले किसानों के लिए ऑनलाइन फसल सूचनाएं उपलब्ध करवाना इसका मुख्य उद्देश्य था. सफल होने पर इस प्रयोग को राज्य के अन्य कम विकसित, खासकर आदिवासी इलाकों में, लागू किया जाना था.

प्रधानमंत्री की डिजिटल इंडिया की पहल को मीडिया में खूब उछाला गया. लेकिन इस गांव और इसके 1479 निवासियों को जल्दी ही भुला दिया गया. लेकिन महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नेता राज ठाकरे ने देश के पहले डिजिटल गांव में 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले जब तथ्यों की पुष्टि को उजागर किया तो यह मुद्दा मीडिया में एक बार फिर उछल गया.

अपनी चुनाव रैलियों में ठाकरे ने विडियो दिखाया कि कैसे इंटरनेट कनेक्टिविटी तो दूर, हरीसाल आज भी बिजली की समस्या से जूझ रहा है. जर्जर इमारतों में सोलर पैनल और कंप्यूटर धूल खा रहे हैं और मेलघाट में अन्य जगहों की तरह कुपोषण की समस्या आज भी बनी हुई है. विडियो में उस स्थानीय नौजवान को भी दिखाया गया जिसे फडणवीस सरकार ने अपने चुनाव विज्ञापनों में लाभांशी दर्शाया था. उसे इस डिजिटल इंडिया पहल का कोई फायदा नहीं पहुंचा था. इस बीच सूचना के अधिकार के तहत महाराष्ट्र सरकार के अनुसार किसान आत्महत्या के मामलों में इजाफा ही हुआ था, जो 2014 में 2039 से बढ़कर 2018 में 2761 हो गईं थीं.

राज्य सरकार के इस खोखले दावे की पोल ठाकरे के विडियो ने खोल दी थी, जो कुछ समय पहले ही राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बनी थी. उन्होंने फडणवीस की अन्य महत्वकांक्षी योजना जलयुक्त शिवार अभियान की तरफ भी लोगों का ध्यान खींचा. इस अभियान को दिसंबर 2014 में शुरू किया गया था जिसका नारा था : “सभी को पानी, 2019 में महाराष्ट्र सूखा-मुक्त.” इसके तहत हर साल 5000 गांवों को पानी की कमी से निजात दिलाना था. अगले पांच सालों में 25000 सूखा ग्रस्त गांवों तक पानी पहुंचाए जाने का लक्ष्य रखा गया.

जलयुक्त शिवार अभियान एक एकीकृत वाटरशेड मैनेजमेंट कार्य्रक्रम था. यह केंद्र एवं राज्य तथा विधायक और सांसद निधि से अनुदान पाने, विभिन्न राज्य विभागों के अंतर्गत आने वाली, पहले से मौजूद 14 संरक्षण योजनओं का मिश्रण था. इसका मकसद मानसून के दौरान बेकार बहते पानी को तालाबों, परकोलेशन टैंकों, कुंओं, झरनों, चेक डैम तथा नहरों के जरिए संरक्षित करना था ताकि जल संचयन तथा भूमिगत जल की रिचार्ज क्षमता को बढ़ाया जा सके.

सरकार ने मौजूदा जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने के लिए वाटर-शेड के निर्माण और मरम्मत के लिए ग्राम समितियां गठित कीं. मुख्यमंत्री की अपील पर आमिर खान और नाना पाटेकर जैसी फिल्मी हस्तियां, मुंबई में श्री सिद्धिविनायक तथा शिरडी के श्री साईं बाबा संस्थान जैसे धार्मिक संगठन; कॉर्पोरेट जगत से, जानकी देवी बजाज ग्राम विकास संस्था, ब्रिजस्टोन तथा फॉक्सवैगन जैसी कंपनियां मदद के लिए सामने आईं.

महाराष्ट्र रिमोट सेंसिंग एप्लीकेशन सेंटर ने, योजना पर नजर रखने के लिए एक ऐप भी विकसित किया और हर गांव में पानी की उपलब्धता बताने के लिए एक पोर्टल भी बनाया. आमिर खान और किरण राव के पानी फाउंडेशन द्वारा गांवों के बीच शुरू की गई प्रतियोगिता, “वाटर कप” बेहद लोकप्रिय हुई, जिसे मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया पर जोर-शोर से प्रचारित किया गया.

नौ महीनों के भीतर 28 अक्टूबर 2015 को इकनोमिक टाइम्स को दिए इंटरव्यू में फडणवीस ने 6200 गांवों में 120000 जल परियोजनाओं के सफलतापूर्वक क्रियांवयन का दावा ठोका. उन्होंने कहा कि जलयुक्त शिवार अभियान के तहत 24000 मिलियन क्यूबिक फीट पानी का संचयन किया गया है. “इसका अर्थ है छह लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई. अगर हम इसकी तुलना पिछली सरकार से करें तो इतने ही काम करने के लिए उन्हें पांच से सात साल लगते थे और इसका अनुमानित खर्च सात से आठ हजार करोड़ रुपए होता था और वास्तविक खर्च 14000 करोड़ रुपए होता, लेकिन हमने इसे महज 1400 करोड़ रुपए में कर दिखाया.”

जून 2019 में प्रधानमंत्री ने फडणवीस को नीति आयोग के सम्मुख, जलयुक्त शिवार अभियान को लेकर एक विस्तृत प्रेजेंटेशन देने के लिए आमंत्रित किया, जिसकी अध्यक्षता वह खुद कर रहे थे. मुख्यमंत्री ने 7692 करोड़ रुपए की लागत से 16522 गांवों में 254000 मृदा एवं जल संरक्षण ढांचे बनाने का दावा किया. उनका दावा था कि इस काम से पिछले चार सालों में राज्य भर में 34 लाख हेक्टेयर भूमि सिंचाई के अंतर्गत आ गई थी.

हालांकि फडणवीस के इतना भोंपू बजाने के बाद भी लगभग आधा राज्य सूखे की चपेट में था, जो पिछले छह सालों में चौथा सूखा था. दक्षिण-पश्चिमी मानसून जिससे पूरे राज्य में 80 से 90 फीसदी बारिश का होती है, 2018 में बिल्कुल नाकाम साबित हुआ. पश्चिमी घाट पर मराठवाड़ा का इलाका बारिश की कमी से सबसे अधिक प्रभावित हुआ. इसकी तमाम नदियां, झरने, चेक डैम, और कुंए सूख गए. पश्चिमी महाराष्ट्र में कोयना तथा उज्जैनी के बड़े जलाशयों में नाममात्र का ही पानी बचा था.

पुणे के वरिष्ठ पत्रकार अरुण खोरे ने मुझे बताया, “लोगों द्वारा काम की तलाश में शहरों का रुख किए जाने की वजह से, मराठवाड़ा में गांव के गांव वीरान हो गए.” दिसंबर के मध्य में खोरे ने इलाके का भ्रमण किया था. वह कहते हैं, “बचे-कुचे लोग हाथों में प्लास्टिक की बाल्टियां लिए जिला प्रशासन द्वारा हफ्ते में दो बार भेजे जाने वाले पानी के टैंकरों के इंतजार में लगातार घर के बाहर झांकते रहते थे.”

अक्टूबर 2018 तथा इस साल फरवरी के बीच, राज्य सरकार ने महाराष्ट्र के 151 ताल्लुका और 268 राजस्व सर्कलों को जिनमें 33 में से 26 जिलों के 21000 गांव शामिल थे, सूखा-ग्रस्त घोषित कर दिया. फडणवीस ने संकट से निपटने के लिए केंद्र से 7961 करोड़ रुपए के अनुदान की मांग रखी, इसमें फसल नुकसान के लिए किसानों को दी जाने वाली प्रस्तावित 7103 करोड़ रुपए की रकम भी शामिल थी. इसके अलावा, 535 करोड़ रुपए मवेशियों के चारे तथा 325 करोड़ रुपए, जल सप्लाई पर खर्च किए जाने थे.

“2019 तक राज्य को सूखा-मुक्त बनाने का महाराष्ट्र सरकार का वादा खोखला साबित हुआ,” खोरे ने कहा. “जो बात सबसे ज्यादा परेशान करने वाली है वह यह कि सूखे और ग्रामीण इलाकों द्वारा इतनी दिक्कतें झेलने के बावजूद भी लोकसभा चुनाव नतीजों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा.”

फडणवीस ने इस भारी बहुमत के लिए इस जीत का श्रेय प्रधानमंत्री के काबिल नेतृत्व को दिया. 2014 में इस भगवा ब्रिगेड को 42 सीटें प्राप्त हुई थीं. नतीजे आने के बाद मुंबई में पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने कहा, “2014 की मोदी लहर, अब सूनामी बनकर आई है.” अपनी बात में आगे जोड़ते हुए उन्होंने माना कि जो बहुमत मिला है उससे उनकी रातों की नींद उड़ गई है क्योंकि अभी कई मुद्दे सुलझाए जाने बाकी हैं. नतीजों के बाद ईमानदारी दिखाने का वक्त था. फडणवीस ने माना, “सूखे की स्थिति गंभीर बनी हुई है.”

“सूखे की समस्या, जल संकट, कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य, बकाया गन्ने का मूल्य तथा ग्रामीण संकट जैसे मुद्दे, हिंदुत्व तथा राष्ट्रवाद के शोरगुल में दब कर रह गए,” स्वाभिमानी पक्ष के किसानों के नेता राजू शेट्टी, जिन्होंने पश्चिमी महाराष्ट्र के कांग्रेस-एनसीपी चीनी व्यापारियों को टक्कर दी ने मुझे बताया.

शेट्टी 2009 से 2019 के बीच, दक्षिण महाराष्ट्र के हटकानांगले से सांसद और 2014 तक भगवा गठबंधन के साथ थे. मोदी और फडणवीस सरकार द्वारा किसानों से किए गए वादों को पूरा न कर पाने के चक्कर में उन्होंने भगवा ब्रिगेड का साथ छोड़कर कांग्रेस-एनसीपी से हाथ मिला लिया. एक नौजवान शिव सेना प्रत्याशी के हाथों बुरी तरह पराजित होने के बाद वे अपनी निराशा छुपा नहीं पाए. उनके अनुसार ग्रामीण वोटर, पुलवामा हमले तथा पाकिस्तान के साथ झड़प के बाद भावानाओं में बह गए. विपक्ष के नेताओं ने स्वीकारा कि वे चुनाव प्रचार के दौरान, फडणवीस सरकार की असफलताओं को उजागर करने में नाकाम रहे. सरकार का विज्ञापन अभियान भी सफल होता दिखा.

मई 2015 में, पुणे में पंकजा मुंडे ने कहा कि उन्हें नहीं मालूम कि वह मुख्यमंत्री बनेंगी या बतौर मंत्री काम करती रहेंगी लेकिन उन्हें इस बात की खुशी है कि “लोगों की नजरों में” वह मुख्यमंत्री हैं. सोनू मेहता/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

2017 में फडणवीस सरकार ने मोदी सरकार की तर्ज पर अभियान चलाया, “मैं लाभार्थी हूं, यह मेरी सरकार है.” राज्य सरकार ने अपनी जलयुक्त शिवार योजना की सफलता को दिखाने के लिए, सतारा जिले की मन तहसील में पड़ने वाले बिदल नामक गांव का प्रचार किया. मुख्यमंत्री द्वारा अपलोड किए गए विडियो का टाइटल था : “जलयुक्त शिवार योजना का चमत्कार.” इसमें दिखाया गया था कि कैसे इस गांव ने ‘वाटर कप’ जीता. “बिदल गांव को जलयुक्त शिवार अभियान 2017-18 में शामिल किया गया था,” कांग्रेस विधायक जयकुमार गोरे ने बताया. “उस वर्ष बिदल के वाटर कप जीतने का सवाल ही पैदा नहीं होता था.” गोरे से मैंने इस वर्ष अप्रैल में बात की थी. 2 सितंबर को वह बीजेपी में शामिल हो गए.

जलयुक्त शिवार योजना को लेकर कई संरक्षणवादियों ने अपनी चिंता जताई. 2015 में अर्थशास्त्री और राज्य योजना बोर्ड के पूर्व सदस्य एच एम देसर्दा ने बॉम्बे हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की और योजना की खामियों की तरफ इशारा किया. याचिका में यह भी कहा गया कि कैसे पर्यावरण पर इसका विपरीत असर पड़ा है. हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को इस पर जांच बिठाने का आदेश दिया. इस काम के लिए बिठाई गई समिति ने 16511 गांवों में से केवल नौ गांवों का दौरा किया. सदस्यों के चुनाव को लेकर विवाद में आने के कारण यह समिति अपनी जांच पूरी नहीं कर पाई. एक मुख्य आपत्ति यह जताई गई थी कि इसके कई सदस्य संरक्षण विशेषज्ञ नहीं थे.

बाकि और संगठनों ने भी मामले पर गौर किया. बीड जिले के कैज ब्लॉक में जन विकास सामाजिक संस्था ने एक सर्वे कराया और पाया कि केवल 15 फीसदी ढांचे ही किसी काम के थे. “भूमि कटाव को रोकने के लिए बनाए गए मेढ़ों जैसे ढांचे टूट चुके थे,” रिपोर्ट में कहा गया. “कहीं-कहीं नहरें इतनी गहरी खोदी गई हैं कि एक्यूफायर असुरक्षित हो गए हैं, इस कारण कुंए सूख गए हैं.”

“जलयुक्त शिवार योजना धारणात्मक और तकनीकी रूप से एक दोषपूर्ण विचार है,” औरंगाबाद स्थित जल विशेषज्ञ प्रदीप पुरंदरे ने डाउन टू अर्थ पत्रिका को बताया. “एकीकृत रिज टू वैली वाटरशेड डेवेलपमेंट प्रोग्राम में जल धाराओं को खोदने और चौड़ा करने की बजाय कुछ और नहीं किया जाता.”

पुरंदरे ने जलयुक्त शिवार योजना की जड़ें 2012 के सूखे के दौरान करोड़ों रुपयों के सिंचाई घोटाले में खोजीं. “1990 और 2009 के बीच एनसीपी के नेता और तत्कालीन जल संसाधन मंत्री अजित पवार ने बड़ी सिंचाई परियोजनाओं जैसे बांध बनाने का काम ज्यादा कीमतों पर ठेकेदारों को सौंपा,” उन्होंने पत्रिका को बताया. “2012 के सरकारी आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया कि दशक के दौरान, विभिन्न परियोजनाओं पर 70000 करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद राज्य की सिंचाई क्षमता में केवल 0.1 फीसदी का इजाफा हुआ है और इस रकम का आधे से ज्यादा पैसा भ्रष्ट नेताओं की जेबों में गया है.”

पवार को भ्रष्टाचार के आरोप के चलते इस्तीफा देना पड़ा. हालांकि, कांग्रेस-एनसीपी द्वारा निकाले गए श्वेत पत्र में उनको बेगुनाह घोषित कर दिया गया, लेकिन इस घोटाले ने राज्य के लोगों में गुस्सा भर दिया था. 2014 के चुनावों से पहले पृथ्वीराज चव्हाण की डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार ने मामला सुधारने की कोशिश की. इसने शिरपुर मॉडल को अपनाया. यह मॉडल भू-विज्ञानी से जल संरक्षण के क्षेत्र में आए सुरेश खानापुरकर की धूले जिले के शिरपुर पहल पर आधारित था.

खानापुरकर ने तापी बेसिन के दो वाटरशेड में जल संरक्षण योजनाओं को लागू करने का काम किया था, जिनमें छोटी जल धाराओं को चौड़ा और गहरा करने का काम भी शामिल था. उन्होने थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सीमेंट की मेड़ें बनवाईं और नहर के पानी को इस्तेमाल करते हुए कुओं को रिचार्ज करने के काम में लिया. इसे उन्होंने “नदी की एंजियोप्लास्टी” का नाम दिया, जिससे एक्यूफायर में कम से कम तीन सालों के लिए पानी जमा किया जा सके.

मुख्यमंत्री पद के लिए एकनाथ खडसे भी मजबूत दावेदार थे. उनको भी फडणवीस का सीएम बनना गवारा नहीं हुआ. वह फडणवीस को अपने से कहीं जूनियर समझते आए हैं. पीटीआई

पुणे की सोसाइटी फॉर प्रोमोटिंग पार्टीसिपेटिव इकोसिस्टम मैनेजमेंट के सीनियर फेलो के जे जॉय ने कहा कि इस मॉडल पर आधारित कांग्रेस-एनसीपी ने 2013 में पुणे के पांच गांवों में जलयुक्त गांव अभियान शुरू किया. हालांकि इसके शुरू होने से पहले ही राज्य की कमान बीजेपी के हाथों में चली गई.

“उस वर्ष राज्य में भयानक सूखा पड़ा और फडणवीस सरकार ने इससे निबटने के लिए जलयुक्त गांव अभियान में शरण ली. फर्क सिर्फ इतना था कि “गांव” की जगह “शिवार” ने ले ली और इसका दायरा बढ़ा दिया गया,” जॉय ने बताया.

विशेषज्ञों ने चेताया कि यह मॉडल किसी एक इलाके या जिले में अपनी मिट्टी के प्रकार की वजह से बेशक कारगर सिद्ध हुआ होगा, लेकिन इसे पूरे राज्य में लागू नहीं किया जा सकता, जो अपनी फसल की पैदावार के लिए बिगड़ैल मानसून पर निर्भर है.

चेतावनी के दूसरे खतरे भी नजर आ रहे थे. सितंबर 2017 में फिक्की और एसपी जैन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड रिसर्च ने एक संयुक्त रिपोर्ट निकाली, जिसका शीर्षक था, “महाराष्ट्र 2025 : एक ट्रिलियन डॉलर की ओर छलांग.”

रिपोर्ट में कहा गया था कि महाराष्ट्र की गिनती कृषि और अन्य आर्थिक गतिविधियों को मिलाकर, चौथाई ट्रिलियन के सकल घरेलू उत्पाद के साथ, भारत के सबसे समृद्ध प्रदेशों में होती है. हालांकि, देश की जीडीपी में, कृषि क्षेत्र के 18 फीसदी योगदान के मुकाबले, राज्य के कृषि क्षेत्र का योगदान, महज 11.8 फीसदी था. वर्ष “2012-13 से 2015-16 के बीच, राज्य में कृषि वृद्धि दर अधिकतर सालों में नकारात्मक रही है,” इसमें आगे कहा गया था, “यह दर्शाता है कि सिंचाई के लिए, राज्य किस हद तक मानसून पर निर्भर है. इस तरह, पिछले दो सालों का खराब मानसून, 2015–16 की अधिकांश मुख्य फसलों की बर्बादी का जिम्मेदार रहा है.”

इस साल 21 अक्टूबर को होने वाले, विधान सभा चुनावों से पहले, विपक्ष के निर्वाचित प्रतिनिधियों ने, फडणवीस सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. विपक्ष ने सरकार पर जलयुक्त शिवार योजना में 200 करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप लगाया है. जैसा कि द हिन्दू ने रिपोर्ट की कि यह मुद्दा सबसे पहले जून 2019 में एनसीपी के विद्या चव्हाण और धनंजय मुंडे ने विधान परिषद में उठाया. उन्होंने कहा पुणे जिले के पुरंदर ताल्लुका में यह घोटाला हुआ है. सदस्यों ने इंगित किया कि राज्य कृषि कमिश्नर द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में कुछ संदेह उठाए गए हैं. एक अन्य सदस्य हेमंत टाकले ने बताया कि एक आरटीआई कार्यकर्ता ने इससे संबंधित करप्शन ब्यूरो में शिकायत भी दर्ज करवा रखी है, जो इसकी जांच कर रही है. हालांकि परिषद सदस्यों द्वारा इसकी खुली जांच की मांग को ठुकरा दिया गया. “मामले को दबाने की पूरी कोशिश की जा रही है,” टाकले ने कहा.

2 जुलाई को विधान परिषद के अध्यक्ष, रामराजे नाईक-निंबालकर ने ताल्लुका में सभी 1300 कामों की एसीबी द्वारा जांच के आदेश पारित किए. “मैंने सुना है एक कैबिनेट मंत्री ने पत्र लिखकर मामले की एसीबी द्वारा जांच को गैर जरूरी ठहराया है,” उन्होंने कहा. “अगर यह सही है तो सरकार इसका जवाब दे.”

हालांकि सरकार अगली परियोजना पर काम कर रही है. और अब वह जलयुक्त शिवार योजना की बात ही नहीं करना चाहती. सरकार ने मराठवाड़ा के वाटर ग्रिड निर्माण की योजना को पुनर्जीवित कर दिया है, जिस पर 2016 में औरंगाबाद की विशेष कैबिनेट बैठक में चर्चा की गई थी. गुजरात और तेलंगाना की समान परियोजनाओं के आधार पर निर्मित, इन परियोजनाओं का उद्देश्य भी बांधों को जोड़ना तथा कोंकण क्षेत्र से गोदावरी बेसिन में 167 हजार मिलियन क्यूबिक फीट पानी, सभी आठों सूखा-प्रभावित क्षेत्रों में उपलब्ध करवाना था.

फडणवीस के अनुसार, यह ग्रिड, “मोदी जी के जल जीवन मिशन के हिस्से के रूप में 20000 करोड़ रुपए की लागत से बनाया जाएगा और इजराइल की कंपनी, मेकोरोट इसकी प्रोजेक्ट कंसल्टेंट होगी.” इस पर हालांकि कार्यकर्ताओं ने चिंता जताई है. “यह जलयुक्त शिवार योजना की विफलता की स्वीकृति है,” जॉय ने कहा. “परंतु बांधों को जोड़ने वाली विशालकाय परियोजना से भी स्थिति में कोई सुधार नहीं आने वाला.”

जनमुखी जल नीति के लिए लड़ने के लिए एकत्रित हुए कार्यकर्ताओं के संगठन लोकाभिमुख पानी धोरण संघर्ष मंच ने भी इस परियोजना का विरोध किया है और इसके नफे-नुकसान का आकलन करने के लिए जन सुनवाई की मांग रखी है. जलयुक्त शिवार योजना और इसके जैसी अन्य योजनाएं, इस बात का सबूत हैं कि इतने विशाल भूभाग में सूखे से निपटने के लिए ऐसे तात्कालिक हल कामयाब नहीं हैं.

इसके बावजूद भी फडणवीस अधिकतर समय मीडिया से संवाद में अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाते नहीं थकते. जांच के आदेश दिए जाने के एक दिन बाद, फडणवीस ने प्रधानमंत्री द्वारा रेडियो कार्यक्रम “मन की बात” में अपनी जलयुक्त शिवार योजना पहल के जिक्र को प्रोत्साहन देने वाला बताया, जिसमे उन्होंने जलवायु परिवर्तन से लड़ने और देशव्यापी कम बारिश होने की समस्या से लड़ने में इसकी कारगरता की बात की थी.

अपना नाम न छापने की शर्त पर बीजेपी के एक शीर्ष नेता और रणनीतिज्ञ ने बताया, “बीजेपी को महाराष्ट्र में एक बार फिर जीत हासिल करने का पूरा भरोसा है और फडणवीस को चुनौती देने वाला पार्टी के अंदर और बाहर दूर-दूर तक कोई नहीं है.” उन्होंने कहा, “वह महाराष्ट्र में एनडीए के लिए अकेला मुख्यमंत्री चेहरा हैं. यात्रा इसी को पुख्ता करने के लिए की जा रही है.” वह शिव सेना की जन आशीर्वाद यात्रा की तरफ इशारा कर रहे थे, जो 18 जुलाई को शुरू की गई थी. इस यात्रा को उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य को संभावित मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करने के प्रयास की तरह देखा जा रहा था.

21 जुलाई को मुंबई में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए, फडणवीस ने एक बार फिर गठबंधन के मुख्यमंत्री चेहरे के रूप में पेश किया. “मैं पहले भी कह चुका हूं कि मैं ही दुबारा मुख्यमंत्री के रूप में आऊंगा,” उन्होंने कहा. “मैं सिर्फ बीजेपी का सीएम नहीं होऊंगा, मैं शिव सेना का भी सीएम होऊंगा, मैं राष्ट्रीय समाज पक्ष का भी सीएम होउंगा और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का भी सीएम होऊंगा,” उन्होनें घटक दलों के नाम जोड़ते हुए कहा.

मुख्यमंत्री ने 1 अगस्त को जन संपर्क हेतु महाजनादेश यात्रा पर निकलते हुए कहा कि यात्रा का मकसद लोगों को बीजेपी नेतृत्व वाली सरकार के पांच सालों में किए काम का हिसाब-किताब देना है.

फडणवीस ने दावा किया कि विदर्भ की सभी सिंचाई परियोजनाओं को पर्याप्त फंड दिया जा रहा है और कहा कि सरकार ने उनके चुनावी क्षेत्र में महत्वकांक्षी, समृद्धि कॉरिडोर का निर्माण शुरू कर दिया है, जो नागपुर से मुंबई को जोड़ेगा. यह 700 किलोमीटर लंबा एक्सप्रेस हाईवे अगले साल तक बन कर तैयार हो जायेगा. पिछले पांच सालों में सरकार ने ग्रामीण महाराष्ट्र में तीस हजार किलोमीटर सड़कें बनवाई हैं. यह देश में किसी भी प्रदेश में पांच सालों में बनाई जाने वाली सड़कों में सबसे ज्यादा हैं.

19 सितंबर को, महाजनादेश यात्रा की समापन रैली में, मोदी नासिक में मंच पर फडणवीस के साथ विराजमान थे. हालंकि मोदी का भाषण कश्मीर मुद्दे पर केंद्रित था.

“पहले नारा होता था “कश्मीर हमारा है”. इस नारे को अब बदल कर “नया कश्मीर बनाना है” कर दिया गया है. हमें दुबारा से वहां स्वर्ग बनाना है और हर कश्मीरी को गले लगाना है,” उन्होंने कहा.

मोदी, फडणवीस की तारीफ करना भी नहीं भूले. उन्होंने कहा, मुख्यमंत्री को राज्य भर से उनकी 4000 किलोमीटर लंबी यात्रा के दौरान करोड़ों लोगों ने आशीर्वाद दिया है और बीजेपी के पास पर्याप्त बहुमत न होने के बावजूद वह राज्य को एक टिकाऊ सरकार देने में कामयाब रहे.

मुख्यमंत्री ने स्वीकार किया कि मोदी के नेतृत्व में केंद्र से कई बार महाराष्ट्र को पर्याप्त आर्थिक सहायता मिली है. “सहायता के लिए केंद्र के पास जाने पर पहले मुख्यमंत्री खाली हाथ लौटा करते थे, लेकिन मोदी जी ने महाराष्ट्र की दिल खोलकर मदद की है,” उन्होंने कहा.

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने देश के पहले डिजिटल गांव में 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले जब तथ्यों की पुष्टि को उजागर किया तो यह मुद्दा मीडिया में एक बार फिर उछल गया.

पेशवा काल में दलितों के उत्पीड़न की मार्मिक कहानियां हैं. दलित समुदाय को सार्वजानिक स्थलों पर प्रवेश करने की मनाही थी और ऐसा करने पर उन्हें कड़ी सजा भुगतनी पड़ती थी. कुछ ब्यौरों के अनुसार महारों को अपने पांव के निशान मिटाने तथा अपने थूक को एकत्रित करने के लिए, अपनी पीठ पर झाड़ू तथा गले में लोटा लटकाकर चलना पड़ता था.

अपनी मुम्बई सेना के लिए जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने सिपाहियों की नियुक्ति शुरू की तो महार बड़ी संख्या में इसमें भर्ती हो गए. इस अवसर में उन्हें अपनी आर्थिक और सामाजिक मुक्ति का रास्ता दिखाई दिया.

1 जनवरी 1818 को, नाना फडणवीस की मृत्यु के करीब 18 वर्ष बाद अंग्रेजों और मराठाओं के बीच तीसरे युद्ध के दौरान, कंपनी बटालियन के महार सिपाहियों का आमना-सामना पेशवाओं की विशाल सेना से हुआ. पुणे के नजदीक कोरेगांव नामक स्थान पर होने वाले इस मुकाबले में अंग्रेजों की तरफ से लड़ने वाले महारों को विजय प्राप्त हुई. इस युद्ध के बाद मराठा साम्राज्य का अंत हुआ और लगभग पूरे उपमहाद्वीप पर ईस्ट इंडिया का कब्जा हो गया.

कोरेगांव के इस युद्ध को, अंतत: महारों ने जाति-विरोधी संघर्ष में अपनी सांकेतिक विजय के रूप में देखना शुरू किया. वे इसका जश्न मनाने लगे. 1 जनवरी 1927 को आंबेडकर के इस जगह का दौरा करने के बाद से हजारों लोग हर साल नव वर्ष के दिन यहां एकत्रित होते हैं.

अपने पूरे इतिहास में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अंधिकांश समय जाति विरोधी संघर्षों को खतरे के रूप में ही देखा है, जिसके कारण उसकी आंबेडकरवादियों से कई बार झड़पें भी हुई हैं.

वर्ष 2018 में इस युद्ध की 200वीं वर्षगांठ थी. इस मौके का महत्व इसलिए भी बढ़ गया क्योंकि राज्य में छितरी हुई दलित और वामपंथी ताकतों ने केंद्र और राज्य में बीजेपी के नेतृत्व वाली हिंदुत्ववादी ताकतों के खिलाफ मोर्चा लेने का फैसला लिया. एनसीपी की राज्य इकाई की सामाजिक न्याय सेल के मुखिया एवं पूर्व विधान परिषद सदस्य जयदेव गायकवाड़ ने बताया, “इससे हिंदुत्ववादी बुरी तरह चिढ़ गए और दंगे और हिंसा पर उतर आए.”

भीमा-कोरेगांव में एकत्रित दलितों के खिलाफ हिंसा में एक की मृत्यु हो गई, कईयों को चोटें आईं तथा सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचा. गायकवाड़ और प्रकाश आंबेडकर जैसे दलित नेताओं का मानना है कि श्री शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के संभाजी भिडे तथा हिंदू एकता अघाड़ी के मिलिंद एकबोटे ने खुलेआम नफरत फैलाने का काम किया तथा स्थानीय स्तर पर आंबेडकरवादी बुद्ध धर्म के अनुयायियों के खिलाफ धार्मिक एवं जातिगत लाइन पर ध्रुवीकरण किया.

हिंसा के बाद दलितों ने राज्य भर तथा मुंबई, पुणे और दक्षिण महाराष्ट्र में, भिडे और एकबोटे की गिरफ्तारी के लिए विशाल बंद का आह्वान किया. 2 जनवरी को दर्ज की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट पर कार्रवाई करने में फडणवीस सरकार विफल रही. इस एफआईआर में इन दोनों के खिलाफ आर्म्स एक्ट, भारतीय दंड संहिता की धारा 307 तथा उत्पीड़न अधिनियम के तहत शिकायत की गई थी. एकबोटे को मार्च में तभी गिरफ्तार किया गया, जब सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अग्रिम जमानत की अर्जी को नामंजूर कर दिया. एक महीने से कुछ ज्यादा समय के बाद वह जमानत पर बाहर आ गए. भिडे के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई.

असल में, फडणवीस ने विधान सभा में भिडे का बचाव भी किया और हिंसा का सारा दोष एल्गार परिषद पर मढ़ दिया.

इसे घटना को राज्य के खिलाफ माओवादी साजिश बताते हुए, सरकार ने देश भर में कार्यकर्ताओं की धर-पकड़ शुरू कर दी.

6 जून 2018 को पुणे पुलिस ने दलित कार्यकर्ता एवं प्रकाशक, सुधीर धावले को मुंबई से गिरफ्तार कर लिया. उनके साथ-साथ, मानव अधिकार वकील सुरेंद्र गाडगिल तथा अकादमिक शोमा सेन को नागपुर और प्रधानमंत्री की ग्रामीण विकास फेलोशिप के सदस्य तथा गड़चिरोली में आदिवासियों के साथ काम करने वाले महेश राउत और दिल्ली के कार्यकर्ता रोना विल्सन को भी हिरासत में लिया गया. 28 अगस्त को गिरफ्तारियों का एक और सिलसिला चला जिसमें पुलिस ने सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वरवरा राव, वर्नोन गोंसाल्विस तथा अरुण फरेरा को देश के अलग-अलग हिस्सों के इनके घरों से गिरफ्तार किया. पुलिस ने अन्य वामपंथियों, दलित वकीलों, कार्यकर्ताओं और स्कॉलरों के घर पर भी उनके कथित माओवादियों से संबंध रखने के जुर्म में छापे मारे, जिनमे आनंद तेलतुंबड़े भी शामिल थे.

गिरफ्तार लोग आज तक जेलों में या घरों में नजरबंद हैं. हालांकि पुणे पुलिस अदालतों के सामने अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं रख पाई है. अभी तक आरोप पत्र भी दाखिल नहीं हुए हैं लेकिन फडणवीस सरकार का कहना है कि उसके पास गिरफ्तार किए गए लोगों के खिलाफ प्रतिबंधित माओवादी संगठनों के साथ संबंध के पुख्ता सबूत हैं कि उन्होंने भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़काई और सरकार का तख्ता पलटने की कोशिश की.

इस साल लोकसभा चुनावों से पहले, प्रकाश आंबेडकर ने वंचित बहुजन अघाड़ी पार्टी लॉन्च की, जिसने राज्य के राजनीतिक हलकों में खासी भनभनाहट मचा दी. आंबेडकर नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्या के बाद तथा भीमा-कोरेगांव में दलितों पर हमले के बाद, हिंदुत्ववादी राजनीति के मुखर आलोचक रहे हैं. वह भी एल्गार परिषद के कार्यक्रम में एक वक्ता के रूप में मौजूद थे. महाराष्ट्र में दलितों के खिलाफ हिंसा को लेकर उनके आह्वाहन का असर पूरे राज्य में देखा गया और लोकसभा चुनावों से पहले लोगों की नजरें उन पर टिक गईं.

आंबेडकर की असदुद्दीन ओवैसी के साथ चुनावी सांठ-गांठ ने ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रत्याशी की औरंगाबाद लोकसभा सीट पर जीत सुनिश्चित कर दी. लेकिन इसका फायदा बीजेपी को ही पहुंचा क्योंकि इस सांठ-गांठ से कांग्रेस और एनसीपी के वोट बंट गए. वीबीए को बीजेपी की “बी” टीम का तमगा मिला. फडणवीस ने मीडिया से बात करते हुए नांदेद में यह कहकर अटकलबाजियों को और अधिक हवा दे डाली कि बीजेपी की असली लड़ाई वीबीए के साथ है और विधान सभा चुनावों के बाद सदन में विपक्ष का नेता आंबेडकर की पार्टी से ही होगा.

जब मोदी ने नागपुर की एक रैली में फडणवीस की यह कहकर तारीफ की कि, “देवेंद्र देश को, नागपुर की भेंट हैं” तो इसे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद के लिए प्रधानमंत्री की प्राथमिकता का इशारा माना गया था. प्रथम गोखले/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

राज्य में मराठाओं, पिछड़े वर्गों और, यहां तक कि हिंदू दलितों की संख्या के मुकाबले, आंबेडकरवादियों, जिन्हें नव-बौद्ध भी कहा जाता है, यह बात एक अतिश्योक्ति ज्यादा लगती है. लोकसभा चुनावों में भगवा ब्रिगेड को, गैर-बौद्ध दलितों के कुल 53 फीसदी तथा नव-बौद्धों के 7 फीसदी वोट मिले थे, जबकि दलितों के 81 फीसदी वोटरों ने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के अलग - अलग घटकों को अपना वोट दिया.

फडणवीस को मालूम है कि कांग्रेस शासन के बाद के महाराष्ट्र में उनके पास बहुत से विकल्प हैं, जहां हाल के वर्षों में कई छोटे-छोटे दल उभर कर सामने आए हैं.

एक तरफ कांग्रेस से छिटकी एनसीपी है तो दूसरी तरफ सेना से छिटकी एमएनएस है. इनके अलावा रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया से छिटके कई धड़े हैं और जैसे स्वाभिमान पक्ष और एआईएमएम जैसी कई और छोटी पार्टियां हैं जो कई सामाजिक और धार्मिक समूहों का प्रतिनिधित्व करती हैं.

“यह तथ्य कि बीजेपी इन छोटे दलों की मौजूदगी को देख पा रही थी और हाल के लोकसभा चुनावों में उसको इनका फायदा लेने में कामयाबी मिली जिसने इसकी राजनीति को राज्य में मजबूत किया है,” लोकनीति नेटवर्क से महाराष्ट्र में 2019 का राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन करने वाले राजेश्वरी देशपांडे तथा नितिन बिर्मल ने अपने चुनाव विश्लेषण में बताया. यह विश्लेषण इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली पत्रिका में छपा था, “फिर भी यह देखना बाकी है कि कुछ ही महीनों में होने वाले विधान सभा चुनावों में यह समीकरण कैसे काम करते हैं.”

जब मैं इस वर्ष जून में प्रकाश आंबेडकर से मिला तो उन्होंने फडणवीस सरकार के सामने चुनौती रखी. “महाराष्ट्र में स्थिति बेहद नाजुक हो गई है,” उन्होंने मुझसे कहा. “हम टाइम बम पर बैठे हैं. बीजेपी धार्मिक उन्माद बढ़ा रही है, जबकि हमारी लड़ाई संविधान में दिए गए अधिकारों को पाने की सामाजिक लड़ाई है.” उन्होंने कहा, “भीमा-कोरेगांव में जो हुआ वह “नव-पेशवाई” शासन का प्रतीक है.”

महाराष्ट्र में, विपक्ष के पतन के साथ ही फडणवीस का उद्भव हुआ है.

शिवाजी यूनिवर्सिटी में राजनीतिशास्त्र पढ़ाने वाले प्रकाश पवार ने बताया कि पारंपरिक तौर पर राज्य की राजनीति कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के इर्दगिर्द घूमती रही है. उन्होंने लोकसभा चुनावों के दौरान पुणे की एक घटना का जिक्र किया, जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री और राज्य में कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चव्हाण शहरी वोटरों से तारतम्य बैठाने के लिए जूझते नजर आए.

“वह देहात के लोगों को संबोधित करने में ज्यादा सहज रहते हैं, लेकिन शहरी लोगों की समस्याएं उन्हें ज्यादा समझ नहीं आतीं,” पवार ने कहा. उन्होंने आगे बताया, कांग्रेस आज तक शहरी वोटरों की पार्टी से दूरी को नहीं समझ पाई है. प्रकाश पवार के अनुसार, कांग्रेस और एनसीपी के शरद पवार जैसे ग्रामीण दिग्गज अभी भी, “कृषि अर्थव्यवस्था में अटके हैं और आज भी किसानों की स्थिति सुधारने की बातें करते हैं.”

उन्होंने कहा कि यहां तक कि मुंबई तक सीमित शिव सेना जैसी पार्टियों ने भी, अपने मराठी मानुस और शहरी वातावरण में अस्तित्व के लिए, उसके संघर्षों के बारे में बातें करना बंद कर दिया है.

कांग्रेस और एनसीपी ने एक लंबे समय तक ज्योतिराव फूले, आंबेडकर और कोल्हापुर के समाज सुधारक राजा शाहू जी के नाम पर बहुजन वोट बटोरे. यह रणनीति आज बिखरती नजर आ रही है. इन दोनों पार्टियों पर यह इल्जाम लगता है कि इन्होंने ग्रामीण कुलीनों के हितों का ख्याल रखने के अलावा और कुछ नहीं किया, जिनमें समृद्ध मराठा और कुछ अन्य रसूखदार जातियों के समूह शामिल थे.

मोदी-फडणवीस का विकास का वादा : स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन, मेट्रो रेल और फ्लाईओवर शहरी वोटर को ज्यादा सुहाता है. बीजेपी सामाजिक समरसता की बात कर, राज्य की प्रगतिशील विचारधारा को समर्थन देने का ढोंग भी करती आई है. पवार ने कहा, “यह एक बहुत सोची - समझी रणनीति है : सार्वजानिक मंच से महात्मा गांधी और डॉ बी आर आंबेडकर का सम्मान करो, सोशल मीडिया के जरिए, सेक्युलर-फेकुलर के नारे उछालो, इत्यादि. यह रणनीति उनके लिए अभी तक बहुत कारगर साबित हो रही है.”

फडणवीस को शायद पता है कि वह किसानों को खुश नहीं कर पाएंगे. यह काम जब अपने 40 सालों के शासन के बाद और ग्रामीण समाज को बेहतर ढंग से समझने वाले, चव्हाण और पवार नहीं कर पाए तो वे कैसे कर सकते हैं?

पश्चिमी महाराष्ट्र में कांग्रेस की गहरी जड़ें हैं. उसका नेटवर्क चीनी और कताई मिलों तथा दूध उत्पादन सहकारी समितियों तक फैला हुआ है. कांग्रेस शासन जबकि शुरू के सालों में तो किसानों के जीवन में समृद्धि लाने में कामयाब रहा, लेकिन भ्रष्टाचार इसके पतन का प्रमुख कारण बना. राज्य के पहले मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण के व्यक्तिगत करिश्मे और दूर दृष्टि ने उद्योगों के साथ-साथ कृषि और ग्रामीण सहकारिता को बढ़ावा दिया, जिसने इतने सालों तक, उत्तर भारत में 1967 या 1977 की उथल-पुथल के बावजूद, राज्य पर कांग्रेस के एकछत्र राज को मुमकिन बनाया. यहां तक कि राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान भी कांग्रेस के ग्रामीण वोटर उसके साथ बने रहे. हालांकि 1995 में, उसे सेना-बीजेपी से हार का सामना करना पड़ा, लेकिन 1999 में कांग्रेस ने एनसीपी के साथ अपनी वापसी की. एनसीपी, पवार ने कांग्रेस से अलग होने के बाद बनाई थी.

1978 में मराठों पर कांग्रेस की पकड़ तब कमजोर पड़ी जब इंदिरा गांधी के प्रति मराठा नेताओं की वफादरी बंट जाने से राज्य में शरद पवार के अधीन पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. संघ-बीजेपी ने इसमें अपने लिए अवसर को सूंघकर बाल ठाकरे की शिव सेना से हाथ मिला लिया. अस्सी के दशक में शिव सेना, महाराष्ट्र के बहुत से नौजवानों को आकर्षित करने लगी थी.

नब्बे के दशक में जब हिंदुत्व आंदोलन अपने चरम पर था, प्रमोद महाजन, गोपीनाथ मुंडे और ठाकरे ने एक चोट और की और मराठा नेता सेना-बीजेपी सरकार में बतौर मंत्री या राज्य निगमों और योजनाओं के प्रमुख के रूप में शामिल हो गए. प्रभुत्वशाली मराठे अब विभाजित हो चुके थे. हालांकि, वे एक बार फिर से एकजुट होकर ताकत हासिल करने की इस बंदरबांट में अपना हिस्सा सुनिश्चित करने में लग गए.

उनकी आपसी लड़ाइयां नवंबर 2010 में मुख्यमंत्री बने पृथ्वीराज चव्हाण के शासन काल के दौरान सबसे अधिक देखने में आईं. चव्हाण की साफ छवि पर उनके निष्क्रिय मुख्यमंत्री होने ने बहुत ज्यादा दाग लगाया. शरद पवार ने प्रसिद्ध रूप से कहा था, “जब फाइलों पर दस्तखत करने का वक्त आता है, तो उनके हाथ को लकवा मार जाता है.” चव्हाण सरकार की छवि को एक बार फिर जोरदार झटका लगा, जब पवार के भतीजे उप-मुख्यमंत्री, अजित पवार को सिंचाई परियोजनाओं में घोटाले के चलते इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा.

2014 के विधान सभा चुनावों से कुछ दिन पहले एनसीपी ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया. इस तरह मराठा वोट एक बार फिर विभाजित हो गया. मराठे राजनीतिक कुलीनों के आपसी झगड़ों ने उनको न केवल कमजोर किया बल्कि कांग्रेस नामक उनके चुनावी जहाज को भी डुबो दिया.

मंत्रालय कवर करने वाले बीजेपी के कई अंदरूनी सूत्रों और पत्रकारों ने मुझे पिछली चव्हाण सरकार में, फडणवीस की पीठ पीछे की जाने वाली करतूतों के बारे में बताया. बीजेपी के रणनीतिकार ने बताया, “मैं आपको दूसरे तरीके से समझाता हूं. हमारे और कांग्रेस के बीच लेन-देन का रिश्ता था, जिसने एनसीपी के भ्रष्टाचार को उजागर किया.” उन्होंने आगे कहा, “अजित पवार और एनसीपी के अन्य नेताओं तथा अन्य पार्टियों के नेताओं के खिलाफ महाराष्ट्र स्टेट कोओपरेटिव बैंक घोटाले के सिलसिले में हाल में दर्ज हुई एफआईआर इसी परदे के पीछे होने वाली राजनीति का परिणाम है.”

एफआईआर मुंबई पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा द्वारा 22 अगस्त को बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश पर दर्ज की गई थी. 2007 और 2011 के बीच एमएससीबी को एक हजार रूपए का घाटा उठाना पड़ा था और इसके लिए जिम्मेवार आरोपी नेताओं के खिलाफ पुख्ता सबूत सामने आए थे.

फडणवीस सरकार के अंतर्गत जाति-विरोधी विचारधारा का दमन अभूतपूर्व है, जैसा कि पिछले साल भीमा-कोरेगांव की हिंसा और इसके बाद देखा गया. विजयानंद गुप्ता/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

नेशनल बैंक ऑफ एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट द्वारा जांच तथा महाराष्ट्र कोओपरेटिव सोसाइटीज एक्ट के तहत अर्ध न्यायिक जांच कमीशन द्वारा दायर किए गए आरोप पत्र ने अजित पवार और अन्य आरोपियों को आर्थिक नुकसान के लिए दोषी ठहराया. नाबार्ड की ऑडिट रिपोर्ट ने भी चीनी फैक्ट्रियों तथा कताई मिलों को कर्ज देने में आरबीआई के निर्देशों को नजरअंदाज करने के जुर्म में आरोपियों को दोषी पाया.

“अजित पवार को निशाना बनाने की पूरी प्रक्रिया मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने शुरू कराई और एनसीपी नियंत्रित कोओपरेटिव बैंक के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को भंग कर उनकी जगह नौकरशाहों को नियुक्त किया,” पवार के एक सहायक ने पुणे में मुझे बताया. “हालांकि उनके कार्यकाल में जांच पूरी नहीं हुई, लेकिन बीजेपी को 2014 के विधान सभा चुनावों से पहले अच्छा मसाला मिल गया था.”

एक वरिष्ठ कांग्रेसी ने घटनाओं पर अफसोस जताया. “फडणवीस की चालों के नतीजों को पढ़ पाने में हम असफल रहे. अब शायद बहुत देर हो चुकी है,” उन्होंने कहा.

2014 के विधान सभा चुनाव नतीजों के बाद, जब फडणवीस ने अल्पमत सरकार का दायित्व संभाला, उनसे इसे बचा पाने की उम्मीद किसी ने नहीं की थी.

बीजेपी के पास 288 सदस्यों वाली विधानसभा में 122 सदस्य थे यानी साधारण बहुमत से 23 सीटें कम. 63 सीटों पर विजय हासिल करने वाली शिव सेना ने अभी अपना समर्थन देना घोषित नहीं किया था. लेकिन 41 सीटें जीतने वाले शरद पवार ने बिना शर्त अपना समर्थन घोषित कर दिया. उन्हें शायद एनसीपी राज में हुए घोटालों की जांच का डर सता रहा था. इसने सरकार को एक महीने तक जिंदा रखा. तब तक सेना ने सरकार को समर्थन देने का मन बना लिया था.

लगातार झगड़ते रहने वाली पार्टी के साथ अब फडणवीस एक ऐसी सरकार चला रहे हैं, जिसे टिकाऊ माना जा सकता है. पिछले पांच सालों में उन्होंने खुद को राजनीतिक रूप से इतना तो साबित किया है कि पार्टी ने 2016 तथा 2018 के बीच राज्य में हुए स्थानीय निकायों के चुनावों में एक के बाद एक कई जीतें दर्ज की हैं. कुछ शुरुआती अनिश्चितताओं के बाद, जब ऐसा लगता था कि सेना को साथ रख पाना संभव नहीं हो पाएगा, मुख्यमंत्री ने हालिया लोकसभा चुनावों से ठीक पहले उद्धव ठाकरे के साथ संधि करने में एक बार कामयाबी पाई.

हालिया लोकसभा चुनाव के नतीजों को राज्य में बीजेपी के बढ़ते वर्चस्व के रूप में भी देखा रहा है.

(बाएं से दाएं) गोपीनाथ मुंडे, प्रमोद महाजन, मनोहर जोशी और बाल ठाकरे. पीटीआई

देशपांडे और बिर्मल ने लिखा, “अन्य कई राज्यों की तरह महाराष्ट्र में भी ऐसा लगता है मानो राज्य-संबंधित मुद्दे, वोटरों के लिए कोई मायने नहीं रखते. फलस्वरूप, गहराते कृषि संकट, मराठाओं की समस्या एवं तुलनात्मक रूप से कमजोर प्रादेशिक पार्टी संगठन के बावजूद बीजेपी अपनी जीत दर्ज कराने में कामयाब रही.” महाराष्ट्र में, सरकार के पक्ष में वोटरों का रुझान, राष्ट्रीय मूड से मेल खाता दिखा.

बीजेपी ने अपनी ताकत, शहरी स्थानीय स्व-शासन सरकारी निकायों तथा शहरी विधान सभा क्षेत्रों, जिनके क्रमशः 80 और 60 फीसदी से ज्यादा पर उसका नियंत्रण था, से बटोरी. इसके अलावा, उसने मराठाओं को आरक्षण देकर खुश किया. फडणवीस ने आदिवासी समुदाय को कुछ फायदे पहुंचाकर ढांगरों को भी खुश कर दिया. हांलाकि सरकार उनकी अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मुख्य मांग को पूरा नहीं कर पाई.

बीजेपी-सेना ने मराठओं के 56 फीसदी वोट बटोरे; जबकि कांग्रेस-एनसीपी उनके केवल 39 फीसदी वोट बटोर पाने में सफल रही. शिव सेना को मराठआओं से ज्यादा फायदा हुआ जैसा कि कांग्रेस के मुकाबले एनसीपी को हुआ था. ओबीसी वोटरों के प्रमुख समुदायों को प्रतिनिधित्व देकर बीजेपी बहुजन समाज को लुभाने में कामयाब रही. इससे बीजेपी-सेना को ओबीसी समुदाय के तीन-चौथाई वोट प्राप्त हुए; जबकि कांग्रेस-एनसीपी उनके केवल 19 फीसदी वोट पाने में ही कामयाब रहे.

देशपांडे-बिर्मल के अनुसार नतीजे इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि “बीजेपी-शिव सेना, महाराष्ट्र की राजनीति में नए समीकरण बनाने की कोशिश में है, जो मराठा वर्चस्व के लिए चुनौती प्रदान करने वाला, लेकिन साथ-साथ उनको गैर-आक्रामक तरीके से जज्ब करने वाला भी है.”

प्रवीण गायकवाड़ ने माना कि अगर मराठा आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट की भी स्वीकृति मिल जाती है तो यह मराठा संगठनों और उनकी राजनीति का अंत कर देगा. लेकिन जैसाकि हाई कोर्ट ने भी पूछा कि सरकार ने मराठाओं को ओबीसी सूची में शामिल करने की बजाय, अलग से आरक्षण देना क्यों चुना? सुप्रीम कोर्ट भी यह सवाल पूछ सकती है.

“मराठाओं को अन्य समुदायों से पृथक करना एक चतुरता भरी चाल है,” गायकवाड़ ने कहा. “मुख्यमंत्री की इस शातिर चाल का असली इम्तिहान चुनावों के बाद सुप्रीम कोर्ट में होगा.” उन्होंने आगे कहा अगर फडणवीस सफल होते हैं, “तो हमें भी मानना पड़ेगा कि वे हम सब से ज्यादा शातिर हैं.”

बीजेपी के इस अप्रत्याशित उभार ने शिव सेना को खिन्न किया है, जो राज्य में लगातार हाशिए पर धकेली जा रही है. उद्धव ठाकरे की खीज इसका जीता-जागता सबूत है.

उद्धव के पिता बाल ठाकरे ने कांग्रेस का विकल्प बड़ी मशक्कत से खड़ा किया था. हालांकि अपने पिता की मृत्यु और पार्टी में फूट के बाद, उद्धव कांग्रेस और एनसीपी के लगातार होते ह्रास के बावजूद अपनी राजनीतिक जगह बनाने में बीजेपी से उन्नीस ही साबित हुए हैं.

फडणवीस को पता है कि शिव सेना प्रमुख सरकार की नीतियों को लेकर अपने तमाम तेवरों के बाद भी दब्बू किस्म के और समझौतावादी हैं. अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण अडवाणी के जमाने में अपने पिता के एकदम विपरीत.

मुख्यमंत्री की महा - जनादेश यात्रा से पहले कांग्रेस और एनसीपी के कई नेताओं ने बीजेपी से हाथ मिला लिया. उद्धव की पार्टी के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है, जो महाराष्ट्र में बीजेपी के बढ़ते अश्वमेघ को चुनौती देने वाली इकलौती पार्टी बची है. सेना ने भी अपना आधार बढ़ाने के लिए विपक्ष के बचे-कुचे नेताओं जैसे छगन भुजबल से हाथ मिलाना शुरू कर दिया है. अटकलें लगाईं जा रही हैं कि क्या इस बार भी बीजेपी अकेले अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरेगी.

हालांकि फडणवीस जोर देकर कहते हैं कि गठबंधन में कोई दरार नहीं है. इस साल सितंबर में इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने उनसे सामना में उनकी सरकार की लगातार आलोचना का हवाला दिया. फडणवीस ने जवाब में कहा, “दोस्त अगर पत्थर भी फेकें तो उसे फूल समझना चाहिए.”

फडणवीस सरकार में सबसे ज्यादा आहत छोटे किसान हुए हैं जो लगातार पिछले पांच सालों से अपने अधिकारों के लिए लड़ते आए हैं. फडणवीस ने अनमने भाव से उनकी मांगों को संबोधित किया है. मजबूत विपक्ष न होने के कारण उनका गुस्सा आने वाले चुनावों पर कोई खास असर डालता नहीं लगता.

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) से संबद्ध, ऑल इंडिया किसान सभा के राज्य मुख्य सचिव अजित नवाले के अनुसार, मुख्यमंत्री के कृषि क्षेत्र के संकट को हल करने के बारे में अपने विचार हैं. “कोई कर्ज माफी नहीं. उन्होंने किसानों की समस्या का पक्का हल निकालने का वादा किया है,” नवाले ने कहा. “हमने उन्हें समझाने की कोशिश की कि किसानों को कर्ज से बाहर निकालने के लिए कर्ज माफी बेहद जरूरी है. स्थायी हल बाद में खोजा जा सकता है, लेकिन वे अपनी बात पर अड़े रहे.”

इस तरह 1 जून 2017 को किसानों की अप्रत्याशित हड़ताल शुरू हुई. किसानों ने अपने उत्पाद जैसे दूध, सब्जियां और फल बाजार में लाना बंद कर दिया. जल्द ही दक्षिणपंथी ताकतों ने हड़ताल तोड़ने की साजिश की. पुराने संघ से जुड़े कुछ लोगों का एक प्रतिनिधि मंडल 3 जून को फडणवीस से उनके निवास पर मिला. हालांकि मुख्यमंत्री ने उनकी एक भी मांग नहीं मानी लेकिन प्रतिनिधि मंडल ने हड़ताल वापस लिए जाने की घोषणा कर दी.

नवाले भी उस प्रतिनिधि मंडल का हिस्सा थे. उन्होंने कहा भी कि मुख्यमंत्री ने कर्ज माफी, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने, किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए पेंशन शुरू करने समेत एक भी प्रमुख मांग नहीं मानी इसलिए हड़ताल जारी रहेगी. जब मुख्यमंत्री और संघ के चमचों ने उनकी एक न सुनी तो उन्होंने एआईकेएस के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव अशोक धावले को सुबह 3.45 बजे पर फोन लगाया और विरोध में मीटिंग से वाकआउट कर गए. वह सीएम के बंगले से बाहर निकले और बाहर इंतजार करती मीडिया को इस दगाबाजी को लेकर बयान दिया. उनके बयान पर जब मीडिया ने रिपोर्ट किया तो राज्य के किसानों में सरकार और संघ के खिलाफ जबर्दस्त रोष भर गया.

चव्हाण सरकार की छवि को एक बार फिर जोरदार झटका लगा, जब शरद पवार के भतीजे उप-मुख्यमंत्री, अजित पवार को सिंचाई परियोजनाओं में घोटाले के चलते इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा. विकास खोट/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

पिछले साल मार्च की तपती धूप में हजारों-लाखों की संख्या में, बदहाल भूमिहीन किसानों ने नासिक से मुंबई तक रैली निकाली, जो देश भर की मीडिया में सुर्खियां बनी. इस रैली में अधिकतर आदिवासी औरतें और मर्द शामिल थे, जिन्होंने तपती कोलतार की सड़कों पर नंगे पैर चलकर 200 किलोमीटर का सफर सात दिनों में तय किया और अपने लहुलुहान पैरों से देश की आत्मा को झकझोर डाला.

देश के लगभग सभी संगठन, सीपीएम और एआईकेएस के लाल झंडे के समर्थन में उतरे. बीजेपी को छोड़कर, सभी राजनीतिक दल जैसे कांग्रेस, एनसीपी, आम आदमी पार्टी, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, आरपीआई के कई घटक दल, समाजवादी पार्टी, यहां तक कि शिव सेना भी किसानों के इस लंबे मार्च में शामिल हुईं. इसने फडणवीस सरकार को झकझोर कर रख दिया.

इस संघर्षों के फलस्वरूप, लंबे मार्च के बाद प्रदर्शनकारियों और राज्य सरकार के बीच एक समझौता हुआ. अगले दिन फडणवीस ने समझौते का मसौदा विधान सभा के पटल पर रखा, जिसमें सभी मांगों को एक निश्चित समय अवधि के भीतर मानने का आश्वासन दिया गया था.

लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान, फडणवीस ने इन मांगों को माने जाने को लेकर खूब प्रचार किया और इसे अपनी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश किया. उन्होंने किसानों की कर्ज माफी, अन्य कल्याणकारी योजनाओं और ग्रामीण इलाकों में जल संरक्षण के काम की बात की. हालांकि, लोकनीति के एनईएस 2019 के आंकड़ों के अनुसार, राज्य के आधे किसान मानते हैं कि सरकार ने उनके हितों की रक्षा नहीं की है. देशपांडे और बिर्मल ने लिखा:

... सत्तारूढ़ पार्टी ने किसानों के लिए कल्याणकारी योजनाओं के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार किया. हमारे सर्वे के दौरान हमें ऐसे बहुत कम किसान मिले, जो इन योजनाओं के लाभार्थी हों. केवल तीन फीसदी किसानों को ही आमदनी योजना का फायदा मिला है; और, केवल पांच फीसदी किसानों के ही कर्ज माफ किए गए हैं. अन्य कल्याणकारी योजनाओं का फायदा भी चुनिंदा किसानों को ही मिल पाया है. लेकिन इसके बावजूद, छह फीसदी से ज्यादा किसानों ने एनडीए को अपना वोट दिया.

बीजेपी नेतृत्व वाले गठबंधन ने 49 फीसदी ग्रामीण वोट बटोरे. जबकि कांग्रेस नेतृत्व वाला गठबंधन 35 फीसदी वोट ही समेट पाया. वोट बंटने में, कांग्रेस और एनसीपी की नकारात्मक छवि एक कारण हो सकता है. कुछ लोगों के अनुसार, फडणवीस की पसंदगी ने भी इसमें अपनी भूमिका निभाई हो. “फडणवीस सरकार ने आज तक मुझ पर एक भी केस नहीं किया है, जबकि पिछली सरकार ने मुझ पर 18 मामले ठोक दिए थे,” नवाले ने कहा. उन्होंने कहा कि उन्हें मानना पड़ेगा कि फडणवीस अपने व्यवहार में अपने पूर्वजों से बेहतर हैं. “वे एक अच्छे श्रोता हैं और अपने पूर्वाग्रहों से उभरने की कोशिश करते हैं, दूसरों के नजरिए को समझते हैं.”

पिछले साल मार्च की तपती धूप में हजारों-लाखों की संख्या में, बदहाल भूमिहीन किसानों ने नासिक से मुंबई तक रैली निकाली, जो देश भर की मीडिया में सुर्खियां बनी. इस रैली में अधिकतर आदिवासी औरतें और मर्द शामिल थे. विजयानंद गुप्ता/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

किसानों का संघर्ष हालांकि जारी है. इस वर्ष 4 जून को उन्होंने ऐलान किया कि वे जापान सरकार से उस परियोजना पर अपना काम रोक देने की गुजारिश करेंगे, जिसके लिए उनकी जमीनों का महाराष्ट्र सरकार द्वारा उनकी मर्जी के विरुद्ध अधिग्रहण किया जा रहा है. इस जमीन का राज्य सरकार मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए अधिग्रहण कर रही है. एआईकेएस के समर्थन से 73 गांवों के किसानों ने, जिनमें पालघार, वसई, तलासरी, दहानू, वादा और शाहपुर बेल्ट के गांव शामिल हैं, कहा कि वे इस परियोजना को फंड करने वाली जापान इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी, से भी संपर्क साधेंगे.

पिछले साल गुजरात खेदुत समाज के बैनर तले गुजरात के किसानों ने जेआईसीए के अधिकारियों से मुलाकात की और भूमि अधिग्रहण को लेकर उन्हें अपनी समस्या बताई. महाराष्ट्र के किसानों को डर है कि गुजरात के उनके भाइयों को ज्यादा फायदा मिलेगा; जबकि उनकी मांगों को उनकी अपनी राज्य सरकार द्वारा ही नजरअंदाज किया जाता है.

फडणवीस सरकार द्वारा मामले से निबटने के तरीकों को लेकर एआईकेएस ने आपत्ति जताई है. 27 फरवरी 2017 को गृह विभाग द्वारा मुख्यमंत्री की अगुवाई में बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट को लेकर किए जाने वाले अध्ययन के सिलसिले में उपसमिति बिठाने का सर्कुलर जारी किया गया. छह महीने बाद 12 सितंबर को गृह विभाग ने एक और सर्कुलर जारी कर बताया कि प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी गई है. “हालांकि आरटीआई की मार्फत पता चला कि इस उपसमिति की कभी कोई बैठक संपन्न हुई ही नहीं है,” नवाले के बताया. “न तो मुख्यमंत्री और न ही अधिकतर वरिष्ठ मंत्रियों की कोई ग्रामीण पृष्ठभूमि है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें हमारी मांगों को इस तरह नजरअंदाज कर देना चाहिए.”

इस साल 3 अगस्त को एआईकेएस ने, कई जिलों के किसानों के साथ मिलकर जिला कलेक्ट्रेट तथा तहसील दफ्तरों तक रैलियां ले जाकर कर्ज माफी, उचित दर, सूखा राहत और फसल बीमा, इत्यादि के मुद्दों को लेकर प्रदर्शन किया. इससे पहले जुलाई में उन्होंने आदिवासी जिलों में वन अधिकार अधिनियम के पक्ष तथा इसमें संशोधन किए जाने के विरोध में रैलियां निकालीं थीं. नासिक जिले के कलवां नामक जगह पर इन रैलियों का समागम हुआ, जिसमें 20000 आदिवासियों ने भाग लिया.

ग्रामीण महाराष्ट्र आज भी असंतोष की आग में उबल रहा है. लेकिन मजबूत विपक्ष की कमी के कारण यह आबादी बेजुबान नजर आती है. कुछ को उम्मीद है कि एक दिन इस बहुजन किसान और अनौपचारिक तबके में काम करने वाले मजदूरों का वामपंथी रुझान जागेगा, कि लोग अपने सामाजिक-आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर वोट देंगे, न कि अपनी धार्मिक या जातिगत पहचान के आधार पर, किसानों और मजदूरों के साथ काम करने वाले एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने मुझसे कहा.

इस साल 6 जनवरी को संपन्न हुए सोलहवें विश्व मराठी सम्मलेन में एक इंटरव्यू के दौरान मुख्यमंत्री से पूछा गया कि क्या 2050 तक देश को कोई मराठी प्रधानमंत्री देखने को मिल पाएगा.

“क्यों नहीं?” उनका जवाब था. “मुझे पूरा यकीन है कि 2050 तक हमें एक नहीं बल्कि एक से ज्यादा मराठी प्रधानमंत्री देखने को मिलेंगे.” उनका इशारा शायद गडकरी और अपनी तरफ था. “हमारे पास अट्टोक तक पहुंचने की क्षमता है,” अठारहवीं सदी में मराठाओं द्वारा जीते गए शहर की ओर उनका इशारा था. यह शहर अब पाकिस्तान में है.

फडणवीस उस काल की बात कर रहे थे जब मराठा साम्राज्य अपने उत्कर्ष पर था. लेकिन अगर वह इतिहास से सीख ही लेना चाहते हैं तो उन्हें उन बातों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए जो मराठाओं के पतन का कारण बनी.

फडणवीस द्वारा बिठाए गए शिशु राजा, माधवराव द्वितीय, 1790 तक जवान हो चुके थे और अपने को स्थापित करना चाहते थे. 1794 में ग्वालियर के महादजी शिंदे की मौत के बाद फडणवीस का उनकी ताकत पर कोई नियंत्रण नहीं रहा. उन्होंने नौजवान पेशवा पर अपना शिकंजा और कस दिया. लोगों पर पेशवा से मिलने की पाबंदी लगा दी गई. कुछ वृतांतों के अनुसार, 21 साल की उम्र में माधवराव द्वितीय की आत्महत्या का कारण भी फडणवीस थे.

हालांकि, यह गैर-इरादतन हुआ था. सिंहासन पर बैठने वाले अगले हकदार रघुनाथ राव के बेटे, बाजीराव द्वितीय थे. यह वही रघुनाथ राव थे जिनको बाराभाई षड्यंत्र में फडणवीस ने अपदस्थ किया था. 1796 में बाजीराव द्वितीय ने जब गद्दी संभाली, फडणवीस को धीरे-धीरे प्रशासन से अलग-थलग कर दिया गया. वर्ष 1800 में उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेजों की शातिर चालों के चलते सेनापतियों में फूट पड़ गई. उत्पीड़ित महारों ने अंग्रेजों की तरफ से लड़ाइयां लड़ीं और एक दो दशक बाद मराठा साम्राज्य का सूरज डूब गया.

नाना फडणवीस की तरह आधुनिक मैक्यावली ने भी संक्रमण काल में सत्ता संभाली है. ब्राह्मण पेशवाओं की भांति उन्होंने भी सत्ता मराठाओं से हथियाई है और इस समय सापेक्षिक स्थिरता से सत्ता चला रहे हैं. लेकिन जिन अंतर्विरोधों ने मराठा साम्राज्य का अंत किया, वे अंतर्विरोध आज के प्रशासन के सामने भी बाकायदा मौजूद हैं. यानी सत्ता लोभ, अत्यधिक नियंत्रण रखने की प्रवृत्ति और उत्पीड़न करने वाले कुलीन वर्ग के खिलाफ उफनता बहुजन असंतोष हमला करने को तैयार बैठा है.

अनुवाद: राजेंद्र सिंह नेगी

(द कैरैवन के अक्टूबर 2019 अंक में प्रकाशित. अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)