रॉय दंपति और एनडीटीवी की बदलती तस्वीर    

प्रणय रॉय ने 1988 में एनडीटीवी की स्थापना की थी. बीसीसीएल
20 February, 2023

{एक}  

एक बेहद रसूखदार शख्स ही अपनी व्यावसायिक उपलब्धि का जश्न राष्ट्रपति भवन में मनाने का ख्वाब पाल सकता है. 2013 में राधिका और प्रणय रॉय ने अपनी मूल कंपनी 'नई दिल्ली टेलीविजन प्राइवेट लिमिटेड' की 25वीं सालगिरह के उपलक्ष्य में राष्ट्रपति निवास में एक कार्यक्रम आयोजित किया. लेकिन यह उनके लिए कोई नई बात नहीं थी. 15 साल से भी अधिक समय पहले उन्होंने अपने 24 घंटे वाले समाचार चैनल का उद्घाटन प्रधानमंत्री के आधिकारिक निवास पर किया था. 

रॉय परिवार ने उस साल दिसंबर की एक शाम को इस भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया, जिसमें भारत के कई सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली लोगों ने भाग लिया, जिन्हें नेटवर्क द्वारा देश की “महानतम ग्लोबल जीवित हस्ती” के रूप में सम्मानित किया जा रहा था. इसमें उद्योग जगत के दिग्गज (मुकेश अंबानी, रतन टाटा, इंद्रा नूयी, एनआर नारायण मूर्ति), खेल के दिग्गज (सचिन तेंदुलकर, कपिल देव, लिएंडर पेस) और फिल्मी सितारे (अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, वहीदा रहमान, शाहरुख खान) शामिल थे. सितारों की इस महफिल में थोड़ी देर में प्रणय रॉय एक काले रंग का बंधगला पहने मंच पर आए.

चेहरे पर एक हल्की मुस्कान लिए उन्होंने आहिस्ता से बोलना शुरू किया, “कुछ दिन पहले मैंने एनडीटीवी की संस्थापक राधिका से पूछा कि एनडीटीवी 25 साल से कैसे चला आ रहा है?” चैनल का सबसे जाना-पहचाना चेहरा होने के बावजूद रॉय अक्सर लोगों को यह याद दिलाते हैं कि कंपनी की स्थापना उनकी पत्नी ने की थी और वह उनके बाद कंपनी में शामिल हुए थे. वह अपनी बात जारी रखते हुए बोले,  “उन्होंने जवाब में सिर्फ एक शब्द कहा: भरोसा. आपका भरोसा. और आज मैं यहां पूरे एनडीटीवी की ओर से आप के भरोसे के लिए आप सभी का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं.” 

दो साल बाद, यानी 8 नवंबर 2015 की शाम को दक्षिण दिल्ली स्थित एनडीटीवी स्टूडियो में अपनी एंकर डेस्क पर बैठे प्रणय एक बार फिर अपने दर्शकों के भरोसे को माप रहे थे. इस बार हालांकि वह स्पष्ट रूप से असहज नजर आ रहे थे. उन्होंने कहा, “आज मैं एक स्पष्टीकरण और एक माफी के साथ शुरुआत करना चाहता हूं.” उनके चैनल ने दो गलतियां की थी. सबसे पहले, चैनल के एग्जिट पोल ने बिहार विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन की जीत का अनुमान लगाया था, जिसे बाद में राष्ट्रीय जनता दल-जनता दल (यूनाइटेड)-कांग्रेस गठबंधन ने जीत लिया था. उलझन में दिख रहे रॉय ने उमड़-घुमड़ शब्दों में अपनी बात रखते हुए कहा, “कई सांख्यिकीय त्रुटियां हैं, जिन्हें बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए. आप कई बार सही होते हैं, कई बार गलत. यही एक पोलस्टर (पोल विशेषज्ञ) का जीवन है.” उनकी बात सही थी. एग्जिट पोल भले ही पूर्व-चुनाव सर्वेक्षणों की तुलना में स्पष्ट रूप से अधिक सटीक होते हैं, फिर भी बहुत से कारणों के चलते (सैम्पलिंग की त्रुटियां और मतदाताओं की झूठी प्रतिक्रियाओं) उनमें कभी भी फेरबदल हो सकता है.  

चैनल की दूसरी गलती कहीं अधिक गंभीर थी. उस सुबह लगभग 9.30 बजे जैसे ही वोटों की गिनती शुरू हुई थी, प्रणय ने घोषणा की कि बीजेपी के नेतृत्व वाला गठबंधन पहले ही 140 से अधिक सीटों के बहुमत के साथ जीत चुका है. इसके बाद उन्होंने अपने पैनलिस्टों के साथ इस कथित निर्णायक जीत का विश्लेषण करते हुए चर्चा मॉडरेट की. एक ही घंटे बाद यह स्पष्ट हो गया कि वह पूरी तरह गलत थे. 1980 के दशक में चुनाव विश्लेषक के रूप में पत्रकारिता में कदम रखने वाले प्रणय की यह बड़ी चूक थी. उनके पुराने दिनों के सहयोगी दोराब सोपारीवाला शो में उनके मेहमानों में से एक थे. अब प्रणय और उनके पैनलिस्टों के पास उनके द्वारा दिए गए सभी स्पष्टीकरणों को उलटने की मुश्किल चुनौती था. उस शाम एक कार्यक्रम में प्रणय ने खुद से हुई बड़ी गलती को समझाने का प्रयास किया. उन्होंने कहा, “हर मतगणना के दिन सभी समाचार चैनलों को एक एजेंसी से डेटा मिलता है. यह एक विश्व स्तर पर सम्मानित एजेंसी है. आज सुबह सभी न्यूज चैनलों पर जो पहला डेटा आया, वह पूरी तरह से गलत था.” उनका तर्क सुनने में भले ठीक लगा हो, लेकिन वास्तव में भ्रामक था. नीलसन एजेंसी (जिसकी वह बात कर रहे थे) ने प्रणय के दावे को गलत बताया. भले ही शुरू में बीजेपी की बढ़त दिखी हो, लेकिन एक चुनाव विशेषज्ञ के रूप में प्रणय इस बात से भली-भांति वाकिफ थे कि रुझान कभी भी बदल सकता है, खासकर मतगणना प्रक्रिया की शुरुआत में. अन्य चैनल, जैसे सीएनएन-आईबीएन, और यहां तक कि आमतौर पर अति-उत्साही टाइम्स नाऊ ने भी बीजेपी को विजेता घोषित करने से पहले सतर्कता बरती थी. प्रणय ने बाद में अपनी माफी के लिए सोशल मीडिया पर वाहवाही जरूर बटोरी, लेकिन हकीकत में उन्होंने अपनी गलती को स्वीकार भी नहीं किया था. 

प्रणय ने अपनी टिप्पणी को समाप्त करते हुए कहा, “एनडीटीवी का और मेरा, हमारा उद्देश्य है कि आप तक सबसे अधिक वस्तुनिष्ठ और सटीक समाचार जल्द से जल्द पहुंचाने का प्रयास करें. इसलिए हम पर भरोसा करने और हमारे साथ बने रहने के लिए आपका धन्यवाद.” एक विश्वसनीय प्रसारक के रूप में प्रणय एनडीटीवी की प्रतिष्ठा को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं बता रहे थे. यह 1980 के दशक में शुरू हुआ भारत का पहला स्वतंत्र समाचार नेटवर्क था, जिसने ऐसे समय में इस क्षेत्र में प्रवेश किया जब सरकार द्वारा संचालित दूरदर्शन का टेलीविजन सामग्री पर एकाधिकार था. दूरदर्शन पर एक शो के साथ शुरुआत करते हुए एनडीटीवी ने जल्द ही भारतीय टेलीविजन समाचारों की दुनिया में रिपोर्ताज और प्रस्तुति के अंतर्राष्ट्रीय मानकों की शुरुआत की. इस प्रक्रिया में इसने दर्शक रेटिंग में शुरुआती बढ़त हासिल की और विज्ञापन बाजार पर हावी हो गया. 2004 में कंपनी के सार्वजनिक होने के बाद एनडीटीवी ने अपनी सफलता का श्रेय शेयरधारकों को दिया. सिर्फ एक शो से लेकर कई चैनल शुरू करने तक जैसे-जैसे कंपनी का विकास हुआ, रॉय दंपति ने पत्रकारों और एंकरों के एक समूह को तैयार किया, जो आज देश के सबसे मशहूर और जाने-पहचाने टेलीविजन पत्रकार हैं. 

गहन रिपोर्टिंग, सधी हुई प्रस्तुति, खुले पूर्वाग्रह से दूर रहने जैसे अपने कई मूल संपादकीय सिद्धांतों का बड़े पैमाने पर लगातार पालन करने के बावजूद जल्द ही एनडीटीवी के संपादकीय प्रभुत्व पर खतरा मंडराने लगा था. उनके पूर्व कर्मचारियों के नेतृत्व में ही उभर रहे बहुत से प्रतिद्वंद्वी चैनल अब न केवल रेटिंग की दौड़ में उनसे आगे निकल रहे थे, बल्कि कीमती विज्ञापन राजस्व में भी सेंध लगाने लगे थे.   

अपनी जगह कायम रखने के लिए यह संघर्षरत नेटवर्क थोड़े समय बाद गहरे वित्तीय संकट की जद में भी आ गया. 2008 में जब मीडिया उद्योग वैश्विक मंदी से जूझ रहा था, एनडीटीवी ने पाया कि उनके यहां पैसे की कमी होने लगी थी. दशक के अंत तक लागत में कटौती करने के प्रयास में नेटवर्क ने सैकड़ों कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया. 

लेकिन नेटवर्क में व्याप्त गड़बड़ियों की गहरी परतों पर हाल तक किसी का ध्यान नहीं गया था. सरकारी एजेंसियां 2000 के दशक के मध्य से रॉय दंपति द्वारा किए गए वित्तीय लेन-देन की एक श्रृंखला की बारीकी से जांच कर रही हैं. यदि एजेंसियों के आरोप सही साबित होते हैं, तो वे एनडीटीवी की कड़ी मेहनत से बनाई गई प्रतिष्ठा और उस भरोसे को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचा सकते हैं, जिसे कमाने और बनाए रखने के लिए प्रणय बहुत उत्सुक रहते हैं. लेन-देन की इन श्रृंखलाओं में कम-से-कम एक कड़ी से इस बात पर संदेह जाता है कि क्या रॉय दंपति अभी भी अपने द्वारा स्थापित और निर्मित नेटवर्क के पूर्ण नियंत्रण में हैं या नहीं.  

जनवरी 2015 में संजय दत्त नाम के एक स्टॉक ब्रोकर ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और आयकर जांच महानिदेशालय के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की. दोनों ही कानून प्रवर्तन एजेंसियां हैं. ईडी विदेशी धन और मनी लॉन्ड्रिंग से संबंधित अपराधों की जांच और मुकदमा चलाने के लिए जिम्मेदार है, और आयकर जांच महानिदेशालय कर कानूनों के उल्लंघन से संबंधित है. क्वांटम सिक्योरिटीज नाम की एक वित्तीय-सेवा फर्म के निदेशक दत्त के पास एनडीटीवी में लगभग 125000 शेयर या 0.2 प्रतिशत हिस्सेदारी हैं. 2013 में उन्होंने इन एजेंसियों और अन्य सरकारी निकायों के पास शिकायत दर्ज की थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि एनडीटीवी और इसके प्रमोटरों ने कई कानूनों का उल्लंघन किया है. 2015 की रिट याचिका (एक अदालत से हस्तक्षेप के लिए अनुरोध) में उन्होंने आरोप लगाया कि दोनों एजेंसियां उनकी शिकायतों पर कार्रवाई करने में विफल रही थी. 

दत्त की याचिका में सरकारी निकायों के साथ-साथ राधिका और प्रणय रॉय को भी प्रतिवादी के रूप में नामित किया गया है. साथ ही राधिका रॉय प्रणय रॉय होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड (आरआरपीआर) को भी नामित किया गया है. यह एक इकाई है जिसे रॉय दंपति ने 2005 में स्थापित की थी, और जिसमें उन्होंने 2008 के मध्य से कंपनी के शेयर रखे थे. यह कंपनी रॉय दंपति द्वारा 2008 के बाद से किए गए लेन-देन की एक जटिल भूल-भुलैया का केंद्र साबित हुई. दत्त की याचिका के जवाब में दोनों एजेंसियों ने जो हलफनामे दायर किए हैं, वे उल्लेखनीय हैं. दोनों ने अदालत को बताया कि बीजेपी सांसद यशवंत सिन्हा की एक शिकायत के जवाब में एनडीटीवी और उसके प्रमोटरों की जांच 2011 से चल रही है. दस्तावेजों से पता चलता है कि रॉय दंपति की कर कानूनों और विदेशी धन से जुड़े कानूनों के उल्लंघन की जांच की जा रही है. 

दस्तावेजों में प्रस्तुत किसी भी उल्लंघन के लिए एनडीटीवी पर आरोप नहीं लगाया गया है. फिर भी इन जांचों से यह सवाल जरूर उठता है कि क्या एक विश्वसनीय कंपनी के रूप में प्रतिष्ठित एनडीटीवी का वित्तीय ढांचा भीतर ही भीतर सड़ रहा है? 

{दो}  

जब प्रणय छोटे थे, तो उनके दादाजी ने उन्हें “टेम्पेस्ट” बुलाया करते थे. प्रणय की चिर-परिचित शांत एंकरिंग शैली के संदर्भ में यह उपनाम थोड़ा अजीबोगरीब नजर आता है. 1988 में जब प्रणय दर्शकों के लिए अपनी और राधिका की उसी वर्ष स्थापित कंपनी द्वारा निर्मित एक नया शो लेकर भारतीय टेलीविजन स्क्रीन पर आए, तो उनका यही आत्मविश्वासी अंदाज साफ झलकता था. उन्होंने अपनी शुरुआत करते हुए कहा, “हमें उम्मीद है कि इस शो में हम आपके लिए सप्ताह की मुख्य विश्व समाचार घटनाओं, उनमें शामिल चेहरों और निश्चित रूप से खेल से जुड़ी खबरों का विश्लेषण कर पायेंगे.” सिलेटी रंग का सूट और चमकदार टाई पहने हुए रॉय टीवी स्क्रीन्स की एक पंक्ति के सामने बैठे हुए थे. यह भारतीय टेलीविजन समाचार की दुनिया का आने वाला कल था.  

‘द वर्ल्ड दिस वीक’ नामक साप्ताहिक समाचार कार्यक्रम दूरदर्शन के महानिदेशक भास्कर घोष द्वारा शुरू किया गया था. पत्रकार नलिन मेहता ने अपनी 2008 की किताब ‘इंडिया ऑन टेलीविजन’ में लिखा है कि घोष को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सार्वजनिक ब्रॉडकास्टर क्षेत्र में नई प्रतिभाओं और विचारों के माध्यम से “भारतीय टेलीविजन प्रसार की सूरत बदलने के लिए” चुना था. घोष ने रॉय दंपति को 2 लाख रुपए प्रति एपिसोड के भुगतान पर साइन किया. 

राधिका रॉय ने पहले इंडियन एक्सप्रेस और इंडिया टुडे में पत्रकारिता की थी. मनोज वर्मा/ हिंदुस्तान टाइम्स

रॉय दंपति मूल रूप से कोलकाता के रहने वाले हैं. वह एक-दूसरे से 1960 के दशक में देहरादून में अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान मिले थे. राधिका वेल्हम गर्ल्स में थी तो प्रणय दून स्कूल में. वे आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए, शादी की और फिर अपना करियर बनाने के लिए दिल्ली में बस गए. राधिका ने इंडियन एक्सप्रेस और इंडिया टुडे के लिए डेस्क पर काम किया. इस बीच प्रणय ने अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाया, और फिर अपने साथी अर्थशास्त्री अशोक लाहिड़ी और बाजार शोधकर्ताओं केएमएस अहलूवालिया और दोराब सोपारीवाला के साथ चुनाव विश्लेषण की ओर रुख किया. 

घोष के प्रस्ताव को स्वीकार करने के बाद रॉय दंपति ने मीडिया व्यवसाय में कदम रखा. तब उन्हें शायद इस कदम के पूरे भविष्य का तकाजा नहीं था. चूंकि सरकार अभी भी घरेलू समाचार प्रसारण में निजी संस्थानों को अनुमति देने में संकोची थी इसलिए केवल ‘द वर्ल्ड दिस वीक’ के पास ही अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं को कवर करने की अनुमति थी. मेहता ने प्रणय के हवाले से कहा, “वे बहुत स्पष्ट थे कि हम भारत में कुछ नहीं कर पाएंगे, कुछ क्या थोड़ा सा भी नहीं कर पाएंगे." 

मेहता ने लिखा है कि इस रोक के बावजूद शो एक “अभूतपूर्व सफलता” बन कर उभरा. उन्होंने बताया कि तब तक दर्शकों ने केवल दूरदर्शन के बुलेटिन देखे थे, जिसमें “अत्यधिक नौकरशाही अंग्रेजी या हिंदी में समाचार पढ़ने वाले कड़क समाचार प्रस्तुतकर्ता होते थे. जब समाचारों में तस्वीरों का उपयोग किया जाता था, तो यह केवल कुछ सेकंड के लिए होता था, और अक्सर ये स्टिल फोटोज होती थीं.” रॉय दंपति ने “भारतीय दर्शकों को पहली बार अंतर्राष्ट्रीय समाचार टेलीविजन प्रथाओं से रूबरू कराया.” प्रणय “प्रत्येक स्टोरी को एक आसान संवादी शैली में पेश करते थे. इसके बाद एक पूर्व-निर्मित स्टोरी पेश की जाती थी, जिसमें दृश्यों से मेल खाते वॉयस-ओवर के साथ सबसे अच्छी तस्वीरों का उपयोग होता था.” 

कंपनी की स्थापना के एक साल बाद दिसंबर 1989 में प्रणय ने एक चुनाव परिणाम शो प्रस्तुत किया, जिसे आज टीवी पर दिखाई जाने वाली संपूर्ण कवरेज का पथ-प्रदर्शक कहा जा सकता है. इसमें उन्होंने जनता दल के वीपी सिंह के नेतृत्व वाले नेशनल फ्रंट गठबंधन द्वारा राजीव गांधी की कांग्रेस की हार को ट्रैक किया. उस समय तक चुनावी परिणाम केवल समाचार के माध्यम से आधिकारिक घोषणाओं तक ही सीमित होते थे. पर प्रणय कुछ अलग कर रहे थे- उनका शो दर्शकों को देश के मिजाज से अवगत करा रहा था. 

भारतीय दर्शकों ने अब तक इस तरह की चकाचौंध करने वाली तकनीक कभी नहीं देखी थी. उस वर्ष की इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में उल्लेख किया गया था कि निर्माताओं ने स्टूडियो को “राज्यों की राजधानियों, मुख्य चुनाव अधिकारियों और प्रमुख निर्वाचन क्षेत्रों से जोड़ने के लिए” 97 हॉट-लाइन्स “की स्थापना की थी, जिससे पूरे देश में पत्रकारों के साथ 15 आउटडोर प्रसारण वैन ‘हॉट स्विचिंग’ करने में सक्षम थी.” दूरदर्शन को इस शो के लिए 2.5 करोड़ रुपए की लागत चुकानी पड़ी थी, जिसमें से एनडीटीवी को 16 लाख रुपए का भुगतान किया गया था. 

उस साल दूरदर्शन और रॉय दंपति के समझौते में भी बदलाव आया. एनडीटीवी द्वारा निर्मित प्रत्येक शो के लिए चैनल द्वारा भुगतान होने के बजाय, कंपनी खुद ही निर्माता बन गई और सीधे विज्ञापन बेचने लगी और दूरदर्शन को एक फीस का भुगतान करने लगी. इससे रॉय दंपति की प्रोफाइल किराए पर रखी गई प्रतिभा से आगे बढ़ कर मीडिया उद्यमी की बन गई. लेकिन साथ ही रॉय दंपति और कानून के बीच पहली रस्साकशी की भी शुरुआत हुई. 1997 में एक संसदीय समिति ने दूरदर्शन के खातों की जांच की और एनडीटीवी के साथ इसके लेन-देन में “अनियमितताएं” पाई- विशेष रूप से कंपनी द्वारा चैनल की तकनीक को इस्तेमाल किए जाने और विज्ञापन दरों को चार्ज करने की अनुमति देने के संबंध में. 1998 में केंद्रीय जांच ब्यूरो ने प्रणय और दूरदर्शन के अधिकारियों के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर की, जिसमें रितिकांत बसु भी शामिल थे, जो 1993 से 1996 तक चैनल के महानिदेशक थे. हालांकि 2013 में सीबीआई ने एक अदालत में क्लोजर रिपोर्ट दायर कर दी और अदालत ने उसे स्वीकार करते हुए मामले में सभी आरोपों को खारिज कर दिया गया. 

"रॉयज बॉयज" विक्रम चंद्रा योगेश चंद्रा के पुत्र हैं, जो नागरिक उड्डयन के पूर्व महानिदेशक हैं और स्वयं पूर्व गृह और रक्षा सचिव और कर्नाटक के राज्यपाल गोविंद नारायण के दामाद हैं. ग्राहम क्रोच/ ब्लूमबर्ग/गैटी इमेजिस

एनडीटीवी ने 1995 तक 'द वर्ल्ड दिस वीक' का निर्माण किया और इस समय के आसपास उन्हें एक और अवसर मिला. सरकार ने एक नया चैनल शुरू किया, जिसमें फीचर फिल्मों और डॉक्यूमेंट्रीज सहित प्रोग्रामिंग का मिश्रण था. एनडीटीवी को इसमें ‘न्यूज टुनाइट’ नामक एक दैनिक समाचार बुलेटिन बनाने के लिए अनुबंधित किया गया. रॉय दंपति ने अपना पहला शो लाइव प्रसारित किया. प्रणय ने इस साल की शुरुआत में अपने एक भाषण में बताया कि उस समय “प्रधानमंत्री कार्यालय में किसी ने ‘लाइव’ शब्द सुना और उस पर ऐसी प्रतिक्रिया दी, जैसे वह वही चार अक्षर वाला खास (अप)शब्द हो.” तुरंत ही सरकारी कार्यालयों से आदेश आने लगे कि “इस निजी समाचार को लाइव होने से रोकें.” इसके बाद एनडीटीवी ने निर्धारित प्रसारण से दस मिनट पहले शो की रिकॉर्डिंग शुरू की. 

1990 के दशक में जब भारत का मीडिया बाजार खुला तो एनडीटीवी को एक विदेशी निवेशक मिला, जिसने स्टार प्लस चैनल के लिए कार्यक्रम बनाने के लिए रूपर्ट मर्डोक के स्टार नेटवर्क के साथ करार किया. दो साल बाद एनडीटीवी और स्टार ने 24 घंटे के समाचार चैनल ‘स्टार न्यूज’ को शुरू करने और चलाने के लिए पांच साल का करार किया. इसका उद्घाटन फरवरी 1998 में, आम चुनाव से ठीक पहले, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल द्वारा किया गया था. उस वर्ष की इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इस कार्यक्रम के लिए “गुजराल ने चहकते हुए 7 रेस कोर्स रोड (अपने आधिकारिक निवास) के दरवाजे खोल दिए.” 

भारतीय नियमों के अनुसार आज भी एक विदेशी कंपनी भारत में एक समाचार चैनल में केवल अल्पसंख्यक भागीदार हो सकती है. इससे एनडीटीवी को उस समय देश की सबसे प्रमुख निजी समाचार इकाई स्टार के साथ एक ताकतवर सौदेबाजी का रास्ता मिला, जिसका नेतृत्व तब भारत में रितिकांत बसु कर रहे थे. 2002 के एक लेख में पत्रकार सुचेता दलाल ने नेटवर्क के साथ रॉय दंपति के सौदे को “स्वीटहार्ट डील” कहा था, जिसमें लागत का एक बड़ा हिस्सा स्टार द्वारा चुकाए जाने के बावजूद एनडीटीवी को “प्रति वर्ष 20 मिलियन डॉलर” का भुगतान मिला और उन्होंने “संपादकीय सामग्री पर पूरा नियंत्रण और प्रोग्रामिंग पर कॉपीराइट” भी बनाए रखा. 

एनडीटीवी ऊंचाईयां छू रहा था. स्टार के पैसे ने रॉय दंपति को आजतक और जी जैसे अन्य चैनलों से आगे खड़ा कर दिया था. इसने उन्हें बेहतर उपकरण खरीदने, आकर्षक ग्राफिक्स बनाने और सबसे जरूरी, सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को काम पर रखने का मौका दिया. रॉय दंपति की टीम में अब कई पत्रकार शामिल हो चुके थे, जो आगे चल कर एनडीटीवी के प्रमुख सदस्य बने- इन नामों में सोनिया वर्मा (अब सोनिया सिंह), विक्रम चंद्रा, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई, श्रीनिवासन जैन, विष्णु सोम और माया मीरचंदानी शामिल थे. एनडीटीवी के पूर्व कर्मचारियों ने मुझे बताया कि रॉय दंपति अपनी कंपनी को एक “परिवार” कहते थे. उनके पास कोई मानव संसाधन विभाग नहीं था और वह स्वयं ही सभी नियुक्तियां करते थे.  

इन शुरुआती कर्मचारियों को सामूहिक रूप से “रॉयज बॉयज” कहा जाता था- महिलाओं को भी. अधिकांश नाम उन परिवारों से संबंधित थे, जो लंबे समय से दिल्ली के सत्ता के हलकों में शामिल या उनसे परिचित थे. इस लेख के लिए मैंने जिन दो दर्जन पूर्व और वर्तमान एनडीटीवी कर्मचारियों से बात की, उनमें से कई ने मुझे बताया कि रॉय दंपति अपनी टीम का वर्णन करने के लिए “हमारे जैसे लोग” शब्द का इस्तेमाल किया करते थे. मेरे कुछ साक्षात्कारकर्ताओं ने भी स्वयं अनजाने में इस शब्द का प्रयोग किया. 

विक्रम चंद्रा योगेश चंद्रा के पुत्र हैं, जो नागरिक उड्डयन के पूर्व महानिदेशक हैं और स्वयं पूर्व गृह और रक्षा सचिव और कर्नाटक के राज्यपाल गोविंद नारायण के दामाद हैं. एनडीटीवी के शीर्ष व्यापार प्रमुखों में से एक, केवीएल नारायण राव, केवी कृष्णा राव के पुत्र हैं, जो सेना के पूर्व जनरल थे और जम्मू और कश्मीर और अन्य राज्यों के राज्यपाल भी रहे. राजदीप सरदेसाई क्रिकेटर दिलीप सरदेसाई के बेटे और दूरदर्शन के भास्कर घोष के दामाद हैं. बरखा दत्त की मां प्रभा दत्त वरिष्ठ पत्रकार थी. अर्नब गोस्वामी एक सेना अधिकारी और बीजेपी सदस्य मनोरंजन गोस्वामी के पुत्र हैं. मनोरंजन के भाई दिनेश वीपी सिंह सरकार में केंद्रीय कानून मंत्री थे. श्रीनिवासन जैन अर्थशास्त्री देवकी जैन और प्रसिद्ध कार्यकर्ता एलसी जैन के पुत्र हैं, जो योजना आयोग के सदस्य और दक्षिण अफ्रीका में भारत के उच्चायुक्त रहे. एक और शुरुआती कर्मचारी, निधि राजदान, एमके राजदान की बेटी हैं, जो प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के प्रधान संपादक रह चुके हैं. विष्णु सोम पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हिमाचल सोम के पुत्र हैं. प्रबंध संपादक चेतन भट्टाचार्जी पूर्व कैबिनेट सचिव और पंजाब के राज्यपाल निर्मल मुखर्जी के पोते हैं. 

संदीप भूषण ने लगभग एक दशक तक एनडीटीवी के साथ काम किया है. भूषण ने मुझे बताया कि यह महज एक संयोग से अधिक लगता है कि चैनल में इतने सारे “बाबालोग” (नौकरशाही संपर्क वाले लोग) की नियुक्त होती थी. भूषण ने कहा कि उन्होंने वर्ष 2000 के आसपास चैनल के साथ काम करने के लिए आवेदन किया और एक “बेहद अच्छा साक्षात्कार” दिया था लेकिन फिर भी उन्हें अस्वीकार कर दिया गया. उन्होंने बताया, “अगली बार मैं क्लाउट (शक्तिशाली संपर्क) के साथ गया.” एक नौकरशाह के रेफरेंस के साथ उन्होंने जल्द ही उसी पद के लिए फिर से आवेदन किया. इस बार उन्हें काम पर रख लिया गया. 

चैनल ने देश की राजनीति को आकार देने में भी भूमिका निभाई. एक वरिष्ठ पत्रकार, जो लगभग 15 वर्षों तक रॉय दंपति के न्यूज रूम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे, ने मुझे बताया कि 24 घंटे का चैनल शुरू करने के बाद एनडीटीवी को अक्सर उन राजनेताओं की शिकायतें मिलती थीं, जिन्हें इसके पैनल में आमंत्रित नहीं किया जाता था. उन्होंने कहा कि हर कोई चैनल पर दिखना चाहता था और पार्टी के नेताओं के बीच झगड़े होते थे कि एनडीटीवी के शो में कौन भाग लेगा. 

‘टेलीविजन इन इंडिया’ नामक पुस्तक के लिए एक निबंध में मेहता ने लिखा है कि चूंकि टीवी को हर कहानी के लिए एक चेहरे की आवश्यकता होती है, इसलिए कुछ नेताओं को “अपनी पार्टियों या सरकारों के विश्वसनीय प्रतिनिधियों के रूप में देखा जाने लगा, भले ही संगठन के भीतर उनकी कोई वास्तविक अहमियत न हो.” वह लिखते हैं कि टेलीविजन पर दिखाई देने से “अक्सर राजनीतिक करियर में मदद मिलती है. इससे आप कैडर और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की नजर में आ सकते हैं.” 

मेहता ने प्रणय के एक विवरण को उद्धृत किया कि एनडीटीवी राजनेताओं के लिए कितना महत्वपूर्ण हो गया था. प्रणय के अनुसार, एक बार एक वरिष्ठ मंत्री ने उन्हें राजनेताओं के एक अलिखित नियम के बारे में बताया था कि “यदि आप राजनीति में हैं, तो आपको महीने में एक बार एनडीटीवी पर आना होगा. दूरदर्शन पर आप कितनी भी बार आ सकते हैं. लेकिन एनडीटीवी में महीने में एक बार आना जरूरी है.” प्रणय का मानना था कि इसका मतलब यह था कि चैनल का वास्तविक प्रभाव था “क्योंकि वे अन्यथा अपना समय बर्बाद नहीं करते.” उन्होंने मेहता को बताया कि एक राजनेता चैनल के व्यंग्य कठपुतली शो में अपना मजाक नहीं बनाए जाने से भी परेशान थे. प्रणय बताते हैं, “उन्होंने कहा कि तुमने अब तक मुझे कठपुतली क्यों नहीं बनाया है? मैं आऊंगा और अपना वॉइस-ओवर भी खुद करूंगा.” 

अपने निबंध में मेहता ने लिखा है कि “इस नए तरह के राजनेता का एक अच्छा उदाहरण,” जिन्होंने टीवी की शक्ति को पहचाना और इसका इस्तेमाल किया, “बीजेपी महासचिव अरुण जेटली” थे. 1998 के आम चुनावों में जब वे “अपेक्षाकृत एक लाइटवेट नेता थे,” जेटली को मतगणना के दौरान “एनडीटीवी द्वारा सीधे सात घंटों के लाइव प्रसारण के लिए बीजेपी का प्रतिनिधित्व करने के लिए बुक किया गया था.” जेटली ने मेहता को बताया कि उन्हें “संक्षिप्त, करारी साउंडबाइट्स” देने की क्षमता के लिए चुना गया था. प्रणय ने जेटली से कहा था कि अन्य राजनेता लंबे-चौड़े जवाब देते हैं. जेटली ने प्रणय की बात याद करते हुए बताया, “मुझे तीन वाक्यों का जवाब चाहिए, न कि 18 वाक्यों का.” 

"रॉयज बॉयज" श्रीनिवासन जैन अर्थशास्त्री देवकी जैन और प्रसिद्ध कार्यकर्ता एलसी जैन के पुत्र हैं, जो योजना आयोग के सदस्य और दक्षिण अफ्रीका में भारत के उच्चायुक्त रहे.

एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार ने 1990 के दशक के अंत के एक किस्से को याद किया, जो इस बात का नमूना है कि कैसे भावी राजनेता अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए टेलीविजन का उपयोग करते हैं. उन्होंने बताया कि यह एक आम बात थी कि बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई द्वारा होस्ट किए जाने वाले अंग्रेजी शो “स्टार वीक” में रात 9 बजे आने वाले मेहमान आमतौर पर पंकज पचौरी और रूपाली तिवारी द्वारा होस्ट किए जाने वाले हिंदी शो “रविवार” में दिखाई देने के लिए स्टूडियो में ही रुके रहते थे. फरवरी 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की ऐतिहासिक बस यात्रा से पहले जेटली ने पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हुए स्टूडियो से अपनी बात रखी. 

सरदेसाई का शो खत्म होने पर जेटली जाने की तैयारी करने लगे. इससे परेशान पचौरी उनके पास गए और याद दिलाया कि उन्हें हिंदी कार्यक्रम में भी शामिल होना है. वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि तब जेटली ने पचौरी से कहा, “यार मैं तुम्हें हिंदी में एक बहुत अच्छा आदमी भेजता हूं.” पचौरी ने कहा कि एन मौके पर यह बदलाव उचित नहीं रहेगा. लेकिन जेटली ने उन्हें आश्वस्त करते हुए बीजेपी मुख्यालय में एक गाड़ी भेजने के लिए कहा. 

वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे बताया, “और फिर नरेन्द्र मोदी पहली बार आए.” लोकप्रिय तत्कालीन प्रधानमंत्री के नजरिए से हटकर अपनी पार्टी के अलग दृष्टिकोण को पेश करने का जो काम मोदी को सौंपा गया था, उसमें वह निडर दिखाई दिए. पत्रकार याद करते हैं कि होस्ट ने कहा, “अटल जी ने यह बोला है, अटल जी ने वह बोला है.” मोदी ने जवाब दिया, “अटल जी तो बोलते रहते हैं.” पत्रकार ने याद किया कि मोदी ने आगामी यात्रा के लिए वाजपेयी की “आलोचना” की थी. पत्रकार कहते हैं कि “वह बहुत बढ़िया थे” और शो के बाद ही उन्हें लगा था कि “यह व्यक्ति बहुत आगे जाएगा.” 

अपने शो में जगह के लिए राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के बावजूद एनडीटीवी को कभी-कभी सरकार की नाराजगी का खामियाजा भी भुगतना पड़ा है. चैनल की 2002 के गुजरात नरसंहार की कवरेज ऐसा ही एक उदाहरण है. मेहता ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि हिंसा भड़कने के बाद कई चैनलों ने बड़े पैमाने पर उस समुदाय की पहचान बताने से परहेज किया, जिसमें अधिकांश पीड़ित थे. ये प्रिंट पत्रकारिता से विरासत में मिली प्रथा थी. एनडीटीवी, जो तब स्टार न्यूज के तहत था, ने यह बताने का निर्णय लिया कि पीड़ित मुसलमान थे. बरखा दत्त, जिन्होंने हिंसा को कवर किया था, ने बाद में इस निर्णय का शक्तिशाली बचाव करते हुए कहा कि “पीड़ित समुदाय” का नाम बताना केवल स्टोरी के लिए महत्वपूर्ण नहीं था, बल्कि “यह वास्तव में खुद स्टोरी थी, जिसने उस पूर्वाग्रहित प्रशासनिक और राजनीतिक प्रणाली का पर्दाफाश किया, जो खुशी से मूक दर्शक बनकर खड़े रहे थे.”  

चैनल की कवरेज के जवाब में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात की बीजेपी सरकार ने राज्य में इसे ब्लैक आउट कर दिया था. मेहता ने एनडीटीवी के साहसिक रुख की तुलना जी से की, जिसने 1 मार्च 2002 को तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री जेटली के साथ एक साक्षात्कार प्रसारित किया, जिसमें “एंकर...ने मंत्री को अपने नेटवर्क के समर्थन का आश्वासन दिया.” पत्रिका सेमिनार में इस साक्षात्कार के बारे में अपने लेख में राजदीप सरदेसाई ने नेटवर्क को अनाम छोड़ दिया, लेकिन लिखा कि “एक चैनल ने राज्य सरकार द्वारा एक अन्य चैनल को सेंसर या ब्लैकआउट करने के फैसले का खुले तौर पर ‘जश्न’ मनाया. एंकर ने वस्तुतः इस तर्क को सही ठहराया कि मीडिया उन्माद भड़काने के लिए जिम्मेदार था.” 

2002 में स्टार के साथ अपने सौदे की समाप्ति पर एनडीटीवी नए अनुबंध को लेकर असहमतियों के चलते चैनल से अलग हो गया. रॉय दंपति ने अगले दो वर्षों में अपने 24 घंटे के समाचार चैनल को लॉन्च किया : अंग्रेजी में एनडीटीवी 24x7 और हिंदी में एनडीटीवी इंडिया. (इसके हिंदी पत्रकार भी सितारे थे, जिसमें विनोद दुआ, पंकज पचौरी, दिबांग, रूपाली तिवारी, नगमा सहर और रवीश कुमार जैसे नाम शामिल हैं.) 

वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे बताया कि इस नए उद्यम में एनडीटीवी ने काफी हद तक अपनी सालों की कमाई लगाई और मॉर्गन स्टेनली जैसे निवेशकों से भी पैसा जुटाया. पत्रकार ने कहा कि प्रसारण मीडिया उद्योग तब “सनशाइन सेक्टर” था और एनडीटीवी एक बड़ा ब्रांड था. निवेशक नेटवर्क के भविष्य पर दांव लगाने को तैयार थे. 

पैसे से लबरेज एनडीटीवी ने अपने कर्मचारियों के लिए पलक-पांवड़े बिछाए. उन्हें अपने  घरों से दफ्तर तक गाड़ियां दी जाती थीं और कार्यालय में खाने-पीने का बेहतरीन इंतजाम रहता था. (कई पूर्व कर्मचारी सफेद दस्ताने पहने वेटरों द्वारा परोसे जाने वाले क्रुसौं और मफिन के नाश्ते का जिक्र करते हैं.) कंपनी स्वास्थ्य बीमा और पेरेंटल छुट्टी भी देती थी. कार्यालय में एक क्रेच भी था. शीर्ष कर्मचारियों को सेडान गाड़ियां दी जाती और विदेशी छुट्टियों पर भेजा जाता था. गौरतलब है कि पुरुषों के वर्चस्व वाले मीडिया उद्योग में एनडीटीवी की महिला कर्मचारियों को बेहद सहायक माहौल प्रदान किया जाता था. बहुत सी महिलाकर्मियों का प्रदर्शन अपने पुरुष सहयोगियों से कहीं बेहतर रहता था. 

समाचार इकट्ठा करने के लिए भी नेटवर्क उदारता से धनराशि मुहैया कराता था. 2004 में भारत भर में इसके 20 ब्यूरो थे, जो उस समय के किसी भी प्रतियोगी से अधिक थे. नेटवर्क ने एक हेलीकॉप्टर खरीदा, जिसे लाल और सफेद रंग में रंगकर उस पर लोगो लगाया गया. (वरिष्ठ पत्रकार के अनुसार इसे दिल्ली के ऊपर उड़ान भरने के लिए हवाई यातायात नियंत्रण की मंजूरी नहीं मिली थी, और कुछ साल बाद इसे छोड़ दिया गया.) भूषण ने याद किया कि रिपोर्टर असाइनमेंट पर जाने के लिए “हवाई यात्रा करते थे” और “चार-पांच सितारा होटलों में रूकते थे, जो अनसुना था.” रॉय दंपति ने उत्कृष्ट पत्रकारिता की संस्कृति को बढ़ावा दिया. वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि पैसा और समय खर्च किए जाने के बाद भी अगर कोई स्टोरी एनडीटीवी द्वारा खुद के लिए निर्धारित मानक पर खरी नहीं उतरती थी तो, “स्टोरी को ड्रॉप किया जा सकता था.” जिन लोगों से मैंने बात की, उनमें से लगभग सभी ने मुझे बताया कि रॉय दंपति कहानियों को सही तरह से प्रस्तुत करने में विश्वास रखती थी, न कि सबसे पहले. “रॉयज बॉयज” का हिस्सा रहे एक कर्मचारी ने एक सिद्धांत बताया, जिसे रॉय अक्सर दोहराते थे : हमारी पत्रकारिता ऐसी होनी चाहिए कि “एक अंधा व्यक्ति भी देख सके.”

पैसे से लबरेज एनडीटीवी में कर्मचारियों को घरों से दफ्तर तक गाड़ियां दी जाती थीं और कार्यालय में खाने-पीने का बेहतरीन इंतजाम रहता था. कंपनी स्वास्थ्य बीमा और पेरेंटल छुट्टी भी देती थी. कार्यालय में एक क्रेच भी था. शीर्ष कर्मचारियों को सेडान गाड़ियां दी जाती और विदेशी छुट्टियों पर भेजा जाता था. जितेंद्र गुप्ता/आउटलुक

{तीन}  

एनडीटीवी के इतिहास के दौरान रॉय दंपति ने नेटवर्क की संपादकीय डोर और इसकी व्यावसायिक रणनीति पर अपना पूर्ण नियंत्रण रखा है. लेकिन 2007 में शुरू हुई लेन-देन की एक श्रृंखला, जिसका दिल्ली उच्च न्यायालय के हालिया हलफनामे में उल्लेख किया गया है, यह सुझाव देती है कि शायद समय के साथ उनका प्रभाव काफी हद तक कम होता रहा है. उस वर्ष राधिका और प्रणय रॉय ने एक अन्य शेयरधारक इकाई, जीए ग्लोबल इन्वेस्टमेंट्स की 7.73 प्रतिशत हिस्सेदारी को वापस खरीदने का फैसला किया. प्रवर्तकों के पास शेयरों को वापस खरीदने के अलग-अलग कारण हो सकते हैं- जैसे कि यदि वे अनुमान लगाते हैं कि उनकी कीमत बढ़ेगी, या कंपनी में अपनी पकड़ को और मजबूत करने के लिए. अक्सर, जैसा कि इस मामले में हुआ, सौदा बाजार दर से अधिक कीमत पर होता है. एनडीटीवी का शेयर उस समय लगभग 400 रुपए पर चल रहा था, लेकिन रॉय दंपति ने 439 रुपए पर शेयर वापस खरीद लिए. 

भारतीय शेयर बाजार के नियमों के अनुसार, इससे एक “खुला प्रस्ताव (ओपन ऑफर)” शुरू हुआ, जो अन्य शेयरधारकों को एक निर्धारित सीमा तक समान मूल्य पर प्रवर्तकों को हिस्सेदारी बेचने की अनुमति देता है. यह नियम यह सुनिश्चित करने के लिए हैं कि जब एक बड़ा शेयरधारक अपने स्वामित्व को मजबूत करता है, तो यदि अल्पसंख्यक शेयरधारकों को लगता है कि उनका निवेश प्रभावित होगा, तो उन्हें बाहर निकलने का विकल्प दिया जाता है. (ओपन ऑफर जारी होने के बावजूद रॉय दंपति ने मार्च 2008 में एक अन्य सौदे में प्रवेश किया, जिसने संभवतः पूंजी बाजार के नियमों का उल्लंघन किया. उन्होंने गोल्डमैन सैक्स के साथ एनडीटीवी की हिस्सेदारी का 14.99 प्रतिशत तक निवेश बैंक को बेचने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए. इस सौदे ने गोल्डमैन सैक्स को कंपनी में विशेष अधिकार भी दिए, जिसमें बोर्ड में एक निदेशक को नामित करने का अधिकार भी शामिल था. यह सौदा किसी भी प्राधिकरण या शेयरधारकों के लिए घोषित नहीं किया गया था और पूरे लेन-देन, जिसके परिणामस्वरूप अंततः गोल्डमैन सैक्स को एनडीटीवी स्टॉक का 14.6 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त हुआ, को खुले बाजार में बिक्री के रूप में प्रस्तुत किया गया. विचित्र रूप से एक निदेशक, जिसे गोल्डमैन सैक्स ने नामित किया था, ने स्टॉकब्रोकर संजय दत्त के एक पत्र के जवाब में एक पत्र में कहा कि वह “कंपनी में निवेश किए गए कुछ फंड्स का नॉमिनी है, जिन्हें गोल्डमैन सैक्स द्वारा प्रबंधित किया जाता है.” बैंक के माध्यम से किसका पैसा आया था, यह स्पष्ट नहीं है.) 

जब रॉय दंपति स्टॉक फिर से खरीदने के लिए तैयार हुई, तो उन्हें पैसों की कमी महसूस हुई. इस कमी को पूरा करने के लिए उन्होंने जुलाई 2008 में इंडिया बुल्स फाइनेंशियल सर्विसेज से 501 करोड़ रुपए उधार लिए. इस कर्ज से उधारी का एक ऐसा क्रम शुरू हुआ, जो आज तक रॉय दंपति के वित्तीय बही-खातों के लिए सिरदर्द बना हुआ है. बाद में आई बहुत सी समस्याओं का मुख्य कारण खराब समय का चुनाव था. जब रॉय दंपति ओपन ऑफर में व्यस्त थे, तभी आवास ऋण संकट ने संयुक्त राज्य अमेरिका को प्रभावित किया और वैश्विक बाजारों में पतन शुरू हो गया. दुनियाभर और भारत में कई अन्य कंपनियों की तरह एनडीटीवी के स्टॉक ने भी मात खाई. जुलाई 2008 के अंत में 400 रुपए से अक्टूबर के अंत तक आते-आते उनके शेयर की कीमत 100 रुपए से भी कम हो गई. रॉय दंपति ने अपने हालिया शेयरों के मूल्य को धड़ाम से गिरते देखा. मानो घर बनाने की कोशिश में उनकी जमीन ही धंस गयी थी. 

इंडिया बुल्स का कर्ज चुकाने के लिए रॉय परिवार ने आईसीआईसीआई से 375 करोड़ रुपए का कर्ज लिया, जिसकी सालाना ब्याज दर 19 प्रतिशत थी. इस कर्ज को प्राप्त करने के लिए उन्होंने जमानत (कोलैटरल) के रूप में अपनी व्यक्तिगत और आरआरपीआर की संपूर्ण शेयरधारिता की पेशकश की, यानी एनडीटीवी के स्टॉक का कुल 61.45 प्रतिशत. समाचार पत्र संडे गार्जियन में पत्रकार प्रयाग अकबर (एमजे अकबर के पुत्र, जो वरिष्ठ अधिवक्ता और बीजेपी सदस्य राम जेठमलानी के साथ इस साप्ताहिक के मालिक थे) के सह-लेखन वाली दिसंबर 2010 की एक रिपोर्ट में इस आईसीआईसीआई कर्ज को “वित्तीय छल” बुलाते हुए लिखा गया कि कंपनी “आईसीआईसीआई के साथ मिलीभगत में  वित्तीय दुराचार और कदाचार में लिप्त थी.” लेख में दावा किया गया कि गिरवी रखे गए प्रत्येक शेयर का मूल्य 439 रुपए था, जबकि वास्तव में कर्ज दिए जाने के समय ये कीमत 99 रुपए थी. इसमें आरोप लगाया गया था कि “जमानत (कोलैटरल) का मूल्य कर्ज के रूप में दी गई राशि से बहुत कम था.”

जनवरी 2011 में एनडीटीवी ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एमजे अकबर और अन्य पर मानहानि का मुकदमा दायर किया और हर्जाने में 25 करोड़ रुपए की मांग की. रॉय दंपति ने दावा किया कि उनकी जमानत आईसीआईसीआई कर्ज के मूल्य से अधिक थी. दिसंबर 2011 में अदालत ने अखबार को ऑनलाइन या प्रिंट में लेख को “पुनः प्रकाशित या पुन: प्रसारित” करने से रोक दिया. अभी भी यह यह अखबार की वेबसाइट पर अनुपलब्ध है. फिलहाल, यानी दिसंबर 2015 तक, मामला कोर्ट में विचाराधीन है. एनडीटीवी द्वारा बढ़-चढ़कर कहानी को  मानहानिकारक बताए जाने के बावजूद यह मामला अधिकारियों के संज्ञान में आ चुका था. अप्रैल 2013 में संजय दत्त ने भारतीय रिजर्व बैंक को इस विषय में एक पत्र लिखा. केंद्रीय बैंक ने अगले महीने जवाब दिया कि यह कर्ज “पहले से ही हमारी नजर में है.” 

रॉय दंपति के लिए उधारी का जो सिलसिलेवार क्रम इंडिया बुल्स के कर्ज से शुरू हुआ था, उसमें आईसीआईसीआई से लिया गया कर्ज सिर्फ एक कड़ी थी. आईसीआईसीआई का पैसा चुकाने के लिए उन्होंने 21 जुलाई 2009 को विश्वप्रधान कमर्शियल प्राइवेट लिमिटेड (वीसीपीएल) नामक एक इकाई से 350 करोड़ रुपए का एक और कर्ज लिया. इस कर्ज का मूल स्रोत मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज थी, जो एक सहायक कंपनी के माध्यम से वीसीपीएल को पैसा देती थी. प्रणय और राधिका ने आरआरपीआर के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए. वीसीपीएल की ओर से समझौते पर रिलायंस इंडस्ट्रीज के कर्मचारी केआर राजा ने हस्ताक्षर किए थे. इस कर्ज की शर्तें काफी असाधारण थी. सबसे पहले, रॉय जोड़ी को एनडीटीवी में अपने व्यक्तिगत स्टॉक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बेचने और आरआरपीआर को स्थानांतरित करने की आवश्यकता थी, जिससे कंपनी में उनकी कुल हिस्सेदारी 15 प्रतिशत से 26 प्रतिशत हो गई. फिर आरआरपीआर का नियंत्रण प्रभावी रूप से वीसीपीएल को सौंप दिया गया. (कर्ज से पहले का यह लेन-देन भी प्रोप्राइटी से जुड़े गंभीर प्रश्न खड़े करता है. जब बाजार मूल्य 130 रुपए से अधिक था, तब राधिका और प्रणय ने आरआरपीआर को 4 रुपए प्रति शेयर पर अपने शेयर बेचे थे. यदि वे इन्हें बाजार मूल्य पर बेचते, तो उन्हें बड़ा “पूंजीगत लाभ” मिलता- यानी किसी संपत्ति की बिक्री से होने वाला लाभ. इसके बदले में उन्हें कर चुकाना पड़ता. संभव है कि शेयरों को कम कीमत पर बेचने से रॉय दंपति को करोड़ों में कर की बचत हुई. रॉय दंपति ने अतीत में अपने इस फैसले का बचाव किया है. उनका दावा है कि यह प्रमोटरों के बीच एक हस्तांतरण था, और वे अपने स्टॉक को मनचाही कीमत पर बेचने के हकदार थे.)  

रॉय दंपति के शेयर आरआरपीआर को सौंपे जाने के बाद एनडीटीवी को वीसीपीएल से 350 करोड़ रुपए मिले, जिससे उन्होंने आईसीआईसीआई का कर्ज चुकाया. 9 मार्च 2010 को रॉय परिवार ने एनडीटीवी की अतिरिक्त 3.18 प्रतिशत हिस्सेदारी को आरआरपीआर को 4 रुपए प्रति शेयर पर स्थानांतरित कर दिया, जिससे कंपनी में आरआरपीआर की कुल हिस्सेदारी 29.18 प्रतिशत हो गई. वीसीपीएल ने तब आरआरपीआर को 53.85 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भुगतान किया, जिससे एनडीटीवी को दी गई कुल राशि 403.85 करोड़ रुपए हो गई. 

इस समझौते से वीसीपीएल को कर्ज को आरआरपीआर की इक्विटी के 99.99 प्रतिशत में परिवर्तित करने का अधिकार मिला- प्रभावी रूप से पूर्ण स्वामित्व- न केवल कर्ज की अवधि के दौरान बल्कि उसके बाद भी- “कर्ज की अवधि के दौरान या उसके बाद कर्जदाता की ओर से किसी कार्य (एक्ट) या विलेख (डीड) की आवश्यकता नहीं थी.” इसका एक विचित्र मतलब यह था कि वीसीपीएल पुनर्भुगतान की परवाह किए बिना आधिकारिक तौर पर किसी भी समय आरआरपीआर को अपने कब्जे में ले सकता था. सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के मद्देनजर यह एनडीटीवी की वीसीपीएल को 29.18 प्रतिशत की बिक्री थी- राधिका और प्रणय रॉय की व्यक्तिगत होल्डिंग्स की तुलना में एक बड़ा हिस्सा. समझौते के तहत आरआरपीआर में तीन निदेशक बनने थे, जिनमें से एक को वीसीपीएल द्वारा नियुक्त किया जाना था. 

एनडीटीवी वीसीपीएल की सहमति के बिना आगे इक्विटी बेच या बढ़ा नहीं सकता था, दिवालियापन के लिए फाइल नहीं कर सकता था, या ऐसा कुछ भी नहीं कर सकता था जो आरआरपीआर की शेयरधारिता को प्रभावित करे. (इसके अतिरिक्त, रॉय दंपति को कंपनी में अपने स्वयं के शेयरों को बेचने या स्थानांतरित करने से भी रोक दिया गया था.) इन शर्तों ने सुनिश्चित किया कि रॉय दंपति का अब आरआरपीआर पर कोई नियंत्रण नहीं था, जिसके पास एनडीटीवी के स्टॉक का लगभग एक-तिहाई हिस्सा आ चुका था. एनडीटीवी पर प्रभावी रूप से उनका नियंत्रण गंभीर रूप से कमजोर हो गया था. (कर्ज समझौते में बतौर राहत एक टोकन शामिल था: वीसीपीएल “एनडीटीवी की संपादकीय नीतियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था.” लेकिन जब कंपनी का अधिकांश नियंत्रण सौंप दिया गया हो, तो ऐसी बातें तकरीबन अर्थहीन हो जाती हैं.) 

वीसीपीएल के बाद से कर्ज का सिलसिला गहराता गया. कंपनी के दस्तावेजों से पता चलता है कि कर्ज से पहले एनडीटीवी के बही-खातों में कोई संपत्ति, व्यवसाय या लेन-देन नहीं था. 2010 के वित्तीय वर्ष में आरआरपीआर को उधार देने के लिए, वीसीपीएल ने खुद रिलायंस की पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी शिनानो रिटेल से 403.85 करोड़ रुपए उधार लिए थे. वीसीपीएल ने आरआरपीआर को यह पैसे एक असुरक्षित, ब्याज मुक्त कर्ज के रूप में दिए. (वीसीपीएल और शिनानो के बीच की कड़ी एक ऐसी घुमावदार सीढ़ी है, जो सीधे रिलायंस की ओर जाती है, चाहे आप कहीं से भी शुरू करें. वीसीपीएल के निदेशक अश्विन खासगीवाला और कल्पना श्रीनिवासन, दोनों रिलायंस के कर्मचारी थे. वीसीपीएल और रिलायंस की सहायक कंपनी शिनानो, जिसके पास वीसीपीएल का एक हिस्सा था, का एक ही पता था. वीसीपीएल का दूसरा मालिकाना हक भी रिलायंस की सहायक कंपनी के पास था.) दिल्ली उच्च न्यायालय में आयकर विभाग ने अपने हलफनामे में वीसीपीएल के विषय में अपनी राय स्पष्ट की थी. 

जून 2011 की अपनी पहले की रिपोर्ट का हवाला देते हुए हलफनामे में कहा गया है कि वीसीपीएल की “कोई व्यावसायिक गतिविधि नहीं है और यह वास्तविक चिंता का विषय नहीं है.” इसमें कहा गया है कि उन्होंने “कथित तौर पर बेनामी” लेन-देन में अपनी जांच का विवरण प्रासंगिक मूल्यांकन अधिकारियों को भेज दिया था. दिल्ली उच्च न्यायालय में ही एक संबंधित मामले में आयकर विभाग ने स्पष्ट रूप से उस धन के स्रोत का पता लगाया, जो वीसीपीएल ने आरआरपीआर को दिया था: “मैसर्स आरआरपीआर होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड ने मैसर्स विश्वप्रधान कमर्शियल प्राइवेट लिमिटेड से लगभग 403 करोड़ रुपए का कर्ज लिया था, जिसने मैसर्स शिनानो रिटेल प्राइवेट लिमिटेड से कर्ज लिया था और मैसर्स शिनानो रिटेल प्राइवेट लिमिटेड ने रिलायंस समूह की कंपनियों से कर्ज लिया था.” 

उस समय वरिष्ठ पत्रकार एमके वेणु और रिलायंस की लॉबिस्ट नीरा राडिया के बीच रिकॉर्ड की गई एक कॉल से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि रिलायंस ने हस्तक्षेप कर लड़खड़ाते हुए एनडीटीवी की मदद की थी. आयकर विभाग द्वारा की गई रिकॉर्डिंग अगले साल लीक हो गई थी, जिसे अब सामूहिक रूप से “राडिया टेप्स” भी कहा जाता है. 9 जुलाई 2009 को राडिया ने वेणु को बताया कि वह और मुकेश अंबानी के करीबी सहयोगी मनोज मोदी प्रणय से मिलने दिल्ली आ रहे हैं. उन्होंने कहा, “आप जानते हैं कि हमें प्रणय का साथ देने की जरूरत है. हमें लगता है कि समर्थन देने की आवश्यकता है.” 

वीसीपीएल के लेन-देन इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं कि एनडीटीवी का मालिक कौन है और कौन इसे नियंत्रित करता है. आरआरपीआर को दिए गए कर्ज का मतलब था कि रिलायंस के पास प्रभावी रूप से एनडीटीवी के 29.18 प्रतिशत शेयर थे, जबकि रॉय दंपति के संयुक्त शेयर लगभग 32 प्रतिशत तक गिर गए थे. यह प्रक्रिया पहले भी रिपोर्ट की गयी है, हालांकि मुख्यधारा के मीडिया संगठनों द्वारा नहीं. जनवरी 2015 में मीडिया-केंद्रित वेबसाइट न्यूजलॉन्ड्री ने पैसे के लेन-देन को ट्रैक करने के लिए कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय के साथ कंपनी फीलिंग्स के इस्तेमाल से बताया कि रिलायंस ने एनडीटीवी में पर्याप्त हिस्सेदारी हासिल कर ली है. 

लेकिन जब न्यूजलॉन्ड्री ने रिलायंस से इस कर्ज के बारे में पूछा, तो एक प्रवक्ता ने जवाब दिया : “आरआईएल का एनडीटीवी में कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हित नहीं है.” ज्ञात तथ्यों को देखते हुए यह एक गलत दावा प्रतीत होता है. हालांकि ऐसा लगता है कि कंपनी ने न्यूजलॉन्ड्री से सच ही कहा था. आयकर विभाग की जांच और कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय के पास उपलब्ध जानकारी से पता चलता है कि इस घटनाक्रम में आए एक रहस्यमयी मोड़ से रिलायंस और एनडीटीवी के रास्ते अलग हो गए थे. 2012 के वित्तीय वर्ष के दौरान शिनानो रिटेल- जिस पर वीसीपीएल के माध्यम से आरआरपीआर का पैसा बकाया था- ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में घोषित किया कि वीसीपीएल ने 403.85 करोड़ रुपए का अपना कर्ज चुका दिया है. 

लेकिन यह पैसा एनडीटीवी से नहीं आया था. उसी वर्ष के आरआरपीआर के रिकॉर्ड से पता चलता है कि वीसीपीएल पर तब भी 403.85 करोड़ रुपए बकाया था (कंपनी पर अभी भी यह पैसा बकाया है). इस प्रकार रिलायंस द्वारा आरआरपीआर को दिया गया पैसा वापस चुका दिया गया था, लेकिन आरआरपीआर द्वारा नहीं. यह कैसे हुआ? दस्तावेज इस राज पर कुछ प्रकाश जरूर डालते हैं, लेकिन फिर भी बहुत कुछ अस्पष्ट रह जाता है. वे बताते हैं कि 2012 के वित्तीय वर्ष के दौरान वीसीपीएल को एमिनेंट नेटवर्क्स से 50 करोड़ रुपए मिले, जो एक उद्योगपति महेंद्र नाहटा के स्वामित्व वाली कंपनी है, जो एक रिलायंस कंपनी के बोर्ड में भी शामिल हैं. इस लेन-देन से एमिनेंट को वीसीपीएल के आरआरपीआर को दिए गए कर्ज पर अधिकार मिला, जिसका मूल्य 403.85 करोड़ रुपए था. (इस साल की शुरुआत में, हालांकि, आरआरपीआर ने आयकर विभाग के कुछ प्रश्नों का उत्तर भेजा और कहा कि “कंपनी का एमिनेंट नेटवर्क्स प्राइवेट लिमिटेड के साथ कोई संबंध नहीं था.”) लेकिन यह बात सामान्य बोध की कसौटी पर खरी नहीं उतरती.  

403.85 करोड़ रुपए के कर्ज का मूल्य निश्चित रूप से 403.85 करोड़ रुपए होता है. इसमें कोई तर्क नजर नहीं आता कि वीसीपीएल इस कर्ज को एमिनेंट को मात्र 50 करोड़ रुपए में बेच देगा. इसके अलावा शिनानो ने घोषणा की थी कि उसे वीसीपीएल से पूरे 403.85 करोड़ रुपए मिले. लेकिन वीसीपीएल के खाते में उस साल केवल 50 करोड़ रुपए थे, जिसका भुगतान एमिनेंट ने किया था. यहां तक ​​कि अगर उसने शिनानो को पूरी राशि का भुगतान किया, तब भी 350 करोड़ रुपए से अधिक रुपए बकाया थे, जो कि शिनानो ने दावा किया था कि उसे कंपनी से प्राप्त हुए थे. इस विसंगति से पता चलता है कि या तो एमिनेंट ने वीसीपीएल के माध्यम से भुगतान किए गए 50 करोड़ रुपए से अधिक का भुगतान किया था, या शिनानो को उन 403.85 करोड़ रुपए से कम राशि प्राप्त हुई थी, जिसका उसने दावा किया था. वैकल्पिक रूप से देखें तो शायद एक अनाधिकारिक और अज्ञात तीसरी पार्टी ने बचे पैसों की कमी को पूरा करते हुए शिनानो को 353.85 करोड़ रुपए का भुगतान किया हो, जिससे रिलायंस और एनडीटीवी के बीच संबंध खत्म होने में मदद मिली. (उसी वर्ष वीसीपीएल का मालिकाना अधिकार भी रिलायंस कंपनियों से बदलकर महेंद्र नाहटा से संबंधित संस्थाओं के पास चला गया.) 

यदि इस पूरे प्रकरण में कोई रहस्यमय पार्टी शामिल है, तो शायद यह मानना गलत नहीं होगा कि इतनी बड़ी राशि के भुगतान के बदले में उन्हें वीसीपीएल के आरआरपीआर और रॉय दंपति के साथ हुए करार पर अधिकार मिले होंगे. इसे गहराई से समझें तो आरआरपीआर के उन सभी शेयरों पर अधिकार, जो कभी अप्रत्यक्ष रूप से मुकेश अंबानी के पास थे. सार्वजनिक रूप से कारोबार करने वाली कंपनी की प्रवर्तक इकाई बदलने पर अनिवार्य नियम के तहत एनडीटीवी को वीसीपीएल ऋण लेनदेन के बारे में सेबी को सूचित करना चाहिए था. (आरआरपीआर को एक प्रवर्तक इकाई के रूप में घोषित किया गया था और इस सौदे ने प्रभावी रूप से उसका मालिकाना हक बदल दिया था.) 

अप्रैल 2015 में संजय दत्त की एक शिकायत के जवाब में नियामक ने दावा किया कि वह वीसीपीएल और आरआरपीआर के बीच हुए कर्ज समझौते को “हासिल करने” में असमर्थ थे. यह अटपटा था: बाजार नियामक के रूप में सेबी को सार्वजनिक रूप से कारोबार करने वाली कंपनी एनडीटीवी के दस्तावेजों तक पहुंचने में सक्षम होना चाहिए था. इसके अलावा, इस समय तक दस्तावेज पहले से ही एक अन्य सरकारी एजेंसी- आयकर विभाग के पास उपलब्ध थे. एनडीटीवी ने इन लेन-देन के बारे में सूचना और प्रसारण मंत्रालय को भी सूचित नहीं किया, जबकि समाचार कंपनियों के लिए मंत्रालय को कर्ज और अन्य समझौतों के विषय में सूचित करना अनिवार्य है. (इस सौदे का प्रभावी रूप से एक बिक्री होना इस समस्या को और जटिल बना देता है.) वर्तमान में यह स्पष्ट नहीं है कि आरआरपीआर पर किस इकाई का अप्रत्यक्ष नियंत्रण है. लेकिन यह स्पष्ट है कि शेयर वापस खरीदकर एनडीटीवी पर अपनी पकड़ मजबूत करने के रॉय दंपति के कदम के चलते आज उन्हें अपनी कंपनी का नियंत्रण खोने की संभावना का सामना करना पड़ रहा है. 

{चार} 

वित्तीय उठा-पठक से जूझ रही रॉय दंपति का न्यूजरूम भी समस्याओं का सामना कर रहा था. अप्रैल 2004 में एनडीटीवी 24x7 के शुरू होने के ठीक एक साल बाद, चैनल के तत्कालीन राष्ट्रीय समाचार संपादक अर्नब गोस्वामी ने चैनल छोड़ कर एक प्रतिद्वंद्वी चैनल टाइम्स नाऊ की स्थापना की. एक साल बाद एनडीटीवी के प्रबंध संपादक राजदीप सरदेसाई ने चैनल छोड़ कर उद्यमी राघव बहल के साथ सीएनएन-आईबीएन की स्थापना की. वह अपने साथ कंपनी के मुख्य वित्तीय अधिकारी समीर मनचंदा को भी ले गए, जो 1988 से रॉय दंपति के वफादार थे. एनडीटीवी के कई पूर्व कर्मचारियों ने मुझे बताया कि गोस्वामी और सरदेसाई के चैनल छोड़ने के पीछे यह मूल भावना थी कि उन्हें उनका हक नहीं मिल रहा है. एक बात जो मैंने अक्सर सुनी, वह यह थी कि 2004 में जब पहली बार शीर्ष कर्मचारियों के वेतन को सार्वजनिक किया गया था, तो सरदेसाई को यह जान कर दुख हुआ कि लगभग पूरा न्यूजरूम चलाने के बाद भी वह सूची में सातवें पायदान पर थे. 

एक संपादक, जिन्होंने एनडीटीवी और सीएनएन-आईबीएन में सरदेसाई के साथ काम किया है, ने मुझे बताया कि एक पार्टी में कुछ ड्रिंक्स के बाद सरदेसाई ने अपनी नाखुशी जाहिर करते हुए उन्हें बताया था कि वह नेटवर्क की वरिष्ठ प्रबंधन अधिकारी स्मिता चक्रवर्ती की तुलना में कम भुगतान मिलने पर आहत थे. हालांकि, जिन लोगों से मैंने बात की, उन्होंने कहा कि उन्होंने सिर्फ इसलिए इस्तीफा दिया था क्योंकि बहल ने उन्हें अपना न्यूज रूम बनाने का मौका दिया. एनडीटीवी “परिवार” के टूटने ने रॉय दंपति पर व्यक्तिगत और पेशेवर दोनों तरह से प्रभाव पड़ा. गोस्वामी ने अपने शो “न्यूज आवर” के साथ भारत में टेलीविजन समाचार प्रोग्रामिंग को नए सिरे से परिभाषित किया. यह शो टाइम्स नाऊ पर रोज रात किसी चीखने-चिल्लाने वाली प्रतियोगिता की तरह चलता था, जिसमें गोस्वामी खुद सबसे बड़े हुल्लड़बाज की भूमिका अदा करते थे. इस शो ने टाइम्स नाऊ को रेटिंग की दौड़ में सबसे आगे खड़ा कर दिया था. वहीं एनडीटीवी ने अपने चिर-परिचित प्राइम टाइम फॉर्मैट के अनुसार बुलेटिनों, समाचारों और शांत शैली वाले वाद-विवाद कार्यक्रमों को बरकरार रखा. इस बीच सरदेसाई के जाने से न्यूज रूम में एक लीडर की कमी खलने लगी थी. अधिकांश कर्मचारियों ने बताया कि सरदेसाई सोनिया सिंह की तुलना में कहीं अधिक पसंद किए जाते थे, जिन्होंने उनके जाने के बाद से न्यूज रूम का प्रबंधन संभाला है. एक पत्रकार जिन्हें रॉय दंपति ने एनडीटीवी 24x7 की स्थापना से पहले काम पर रखा था, ने मुझे बताया कि सरदेसाई हर शो में पत्रकारों के साथ मिलकर काम करते थे, जबकि बरखा दत्त और श्रीनिवासन जैन अन्य वरिष्ठ कर्मचारी “क्षत्रप” की तरह थे और आमतौर पर अपने शो को “अपनी जागीर” की तरह चलाते थे. 

अप्रैल 2004 में एनडीटीवी 24x7 के शुरू होने के ठीक एक साल बाद, चैनल के तत्कालीन राष्ट्रीय समाचार संपादक अर्नब गोस्वामी ने चैनल छोड़ कर एक प्रतिद्वंद्वी चैनल टाइम्स नाऊ की स्थापना की. अपूर्वा सलकादे/आउटलुक

पत्रकार ने बताया कि टेलीविजन समाचार के लिए एक व्यावहारिक संपादक की आवश्यकता होती है, “जो वहां 24x7 मौजूद रहे” और सरदेसाई उस तरह के लीडर थे. राज्य ब्यूरो के एक पूर्व रेजिडेंट एडिटर ने मुझे बताया कि जब भी कोई बड़ी खबर आने वाली होती, तो सरदेसाई हमेशा ब्यूरो को एक दिन पहले बुलाकर चर्चा करते थे कि उसे कैसे पेश किया जाना चाहिए. एक व्यक्ति, जो सरदेसाई के पद छोड़ने के आसपास ही न्यूज रूम में शामिल हुए थे, ने कहा कि वह “इस बात का अभिन्न अंग थे कि पत्रकार जो भी काम कर रहे हैं, वह क्यों कर रहे हैं.” इसलिए यह हैरानी की बात नहीं थी कि उनके साथ कई अन्य लोगों ने भी चैनल छोड़ दिया था. इसमें भूपेंद्र चौबे भी शामिल थे, जो एक वरिष्ठ राजनीतिक रिपोर्टर होने के साथ अब सीएनएन-आईबीएन के राष्ट्रीय मामलों के संपादक हैं. पत्रकार ने यह भी बताया कि किसी अन्य वरिष्ठ सदस्य के न्यूज रूम से जाने का शायद इतना बड़ा प्रभाव नहीं होता, जितना सरदेसाई के जाने से हुआ था. एनडीटीवी 24×7 की शुरुआत से पहले चैनल में शामिल होने वाले व्यक्ति ने याद किया कि जिस दिन सरदेसाई ने अपना फैसला सुनाया था, उस दिन रॉय दंपति खासी “उदास” थी. न्यूज रूम में सरदेसाई की ऊर्जा बेहद सकारात्मक होती थी और उनके जाने के बाद कार्यस्थल पर मनोबल में गिरावट आ गयी थी. पूर्व ‘रॉयज बॉय’ ने बताया कि सरदेसाई के जाने के बाद रॉय दंपति ने उन पर सवालिया चिन्ह लगाते हुए यह तक कहा था कि वह गलत तरीके से न्यूज रूम चला रहे थे. उन्होंने याद किया कि कर्मचारियों से कहा गया था कि “चीजें अब बदलने जा रही हैं” और “योग्यता के आधार पर निर्णय लिए जाएंगे.” लगभग उसी समय वरिष्ठ कर्मचारियों को कंपनी में स्टॉक के उदार प्रस्ताव दिए गए, जो पिछले वर्ष सार्वजनिक हो गए थे. कई अन्य लोगों का वेतन दोगुना हो गया. न्यूज रूम के कुछ पूर्व सदस्यों ने कहा कि रॉय दंपति ने यह सारे कदम इस असुरक्षा के चलते उठाए थे कि अन्य कर्मचारी उन्हें छोड़कर न जाएं. कारण जो भी हो, किसी को भी इससे कोई शिकायत नहीं थी. 

न्यूज रूम में लगभग 15 साल बिताने वाले वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे बताया कि कुछ एंकरों का नौकरी छोड़ना भले ही सबसे अधिक चर्चित क़िस्सा रहा हो, लेकिन इससे चैनल को सबसे ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा था. उन्होंने कहा, “मनचंदा ने हमें राजदीप से बड़ी चोट दी. हम जानते थे कि हम सरदेसाई जैसा कोई नया चेहरा हूबहू तैयार कर सकते थे,” लेकिन मनचंदा का सीएनएन-आईबीएन में जाना बड़ी “समस्या थी” क्योंकि वह तमाम कॉर्पोरेट रहस्यों से परिचित थे. वह बताते हैं कि एनडीटीवी जी जैसे दूसरे नेटवर्क की तुलना में छोटा था, और ऐसे व्यवसायों में “आपके क्लाइंट ही आपकी मुख्य पूंजी हैं.” वित्त प्रमुख के रूप में मनचंदा विज्ञापनदाताओं को संभालते थे, जो कंपनी के राजस्व का मुख्य स्रोत थे. 

उन्होंने निवेशकों से बात कर व्यवसाय के विस्तार का खाका तैयार किया था और केबल ऑपरेटरों के साथ मिलकर चैनल की पहुंच बढ़ाने में मदद की थी. वरिष्ठ पत्रकार ने बताया, “वह जानते थे कि विज्ञापनों में कितना पैसा दिया जाता है, कौन लोग हैं, क्या सौदे होते हैं.” इस समय तक टेलीविजन उद्योग का व्यवसाय मॉडल भी बदल चुका था और इससे संकट और विकट हो गया था. यह डिजिटल तकनीक के आगमन के कुछ साल पहले की बात थी और चैनल दर्शकों तक पहुंचने के लिए केबल नेटवर्क पर बहुत अधिक निर्भर रहते थे. सबसे पहले केबल ऑपरेटर ग्राहकों से शुल्क लेते और फिर टेलीविजन चैनलों को उसका एक हिस्सा दे देते थे. 

लेकिन जैसे-जैसे बाजार में भीड़ बढ़ी, बैंडविड्थ की मांग बढ़ती गई. इसलिए ऑपरेटरों ने उनके लिए चैनलों को चार्ज करना शुरू कर दिया. जो चीज टेलीविजन चैनलों के लिए आय के स्रोत के रूप में शुरू हुई थी, वह अब उनके लिए एक बड़ा खर्च बन गयी. इसने विज्ञापन से होने वाली आय को और अधिक महत्वपूर्ण बना दिया. कुछ विज्ञापनदाताओं ने विशिष्ट प्रकार के चैनलों की मांग की, जिन पर एयरटाइम खरीदा जा सकता था. लेकिन कई लोगों ने टेलीविजन रेटिंग पॉइंट का बारीकी से पालन किया, और उन चैनलों को चुना जो प्रत्येक शैली के भीतर सबसे अधिक दर्शकों को आकर्षित करते थे. इन सब के बीच एनडीटीवी प्रतियोगिता में पिछड़ता जा रहा था. 

विडंबना यह है कि एनडीटीवी की पिछली सफलता ही उनके लिए बदलते बाजार के अनुकूल ढलने और दर्शकों को बांधे रखने की राह में रोड़ा साबित हुई. वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे बताया कि नए चैनल “फुर्तीले” थे और उन्होंने दर्शकों को आकर्षित करने के लिए कई प्रयोग किए, जैसे बिना किसी विज्ञापन ब्रेक के छह घंटे तक टेलीकास्ट करना. एनडीटीवी ने अपनी प्रोग्रामिंग और विज्ञापनों को पहले ही निर्धारित कर दिया था और फिर उसे प्रतिस्पर्धा के अनुकूल नहीं ढाला जा सकता था. 

उन्होंने कहा, “चैनल की समृद्धि ही समस्या बन गई थी. हम खुद को ढाल नहीं पाए क्योंकि हम पहले ही” उन विज्ञापनदाताओं को “एयरटाइम बेच चुके थे” जो नेटवर्क पर जगह पाना चाहते थे. दुनिया भर के मीडिया नेटवर्क एक सामान्य मनोरंजन चैनल से प्राप्त होने वाले राजस्व के माध्यम से समाचार संबंधित व्यय पर रियायत देने की रणनीति का सहारा ले रहे थे. रॉय दंपति ने भी 2008 में एनडीटीवी इमेजिन शुरू कर के ऐसा करने का प्रयास किया. उन्होंने मेट्रोनेशन के साथ “हाइपरलोकल न्यूज” पर भी बड़ा दांव लगाया. यह कई चैनलों का एक ब्रांड था, जो विशिष्ट शहरों पर केंद्रित थे. ये दोनों ही उपक्रम विफल रहे. चैनल शुरू होने के कुछ ही महीनों बाद 2008 की वैश्विक मंदी में जब बाजार गिरा, तो इमेजिन के वित्तीय खातों को खासा झटका लगा. 

जल्द ही रॉय दंपति द्वारा अंतरराष्ट्रीय सौदों और बॉंड्स के माध्यम से जुटाया गया शुरुआती धन बहने लगा और वे नए उद्यम के गुजारे के लिए अतिरिक्त पूंजी नहीं जुटा पाए. जो चैनल समाचार जुटाने के उद्देश्य से शुरू हुए थे, वे नेटवर्क पर बोझ बन गए. मेट्रोनेशन और इमेजिन को अगले दो वर्षों में बंद कर दिया गया. जैसे-जैसे उन पर दबाव बढ़ता गया, रॉय दंपति ने छंटनी का सहारा लिया. 2008 और 2009 के बीच नेटवर्क ने लगभग 250 कर्मचारियों, यानी अपने कार्यबल के 20 प्रतिशत हिस्से, को नौकरी से निकाला. इससे एक गिरावट की शुरुआत हुई, जिससे एनडीटीवी शायद आजतक नहीं उबर पाया है. इसके शेयर की कीमत, जो जनवरी 2008 में 511 रुपए के उच्च स्तर पर थी, 2012 में गिर कर 25 रुपए हुई और वर्तमान यानी 2015 में, 80 रुपए से 100 रुपए के बीच है. 

बाजार पूंजीकरण के हिसाब से इसका मूल्य- यानी शेयरों की कुल संख्या से शेयर मूल्य का गुणा- 2008 की शुरुआत में लगभग 3000 करोड़ रुपए से घटकर वर्तमान में 600 करोड़ रुपए से कम हो गया है. इसने आखिरी बार मार्च 2005 में 21.9 करोड़ रुपए का लाभ दर्ज किया था. इसका सालाना घाटा अब करोड़ों में है. वित्तीय वर्ष 2014 में यह घाटा 84 करोड़ रुपए और वित्तीय वर्ष 2015 में 46 करोड़ रुपए था. इस बीच नेटवर्क की संपादकीय विश्वसनीयता को भी गहरा झटका लगा है. नवंबर 2010 में पत्रिका ओपन और आउटलुक ने राडिया टेप का पहला सेट प्रकाशित किया, जिसमें एनडीटीवी की समूह संपादक बरखा दत्त थीं. (खुलासा : हरतोष सिंह बल, जो उस समय ओपन के राजनीतिक संपादक थे, अब द कारवां के राजनीतिक संपादक हैं.) 

नेटवर्क की संपादकीय विश्वसनीयता को तब गहरा झटका लगा जब नवंबर 2010 में राडिया टेप सामने आया जिसमें एनडीटीवी की समूह संपादक बरखा दत्त थीं. संजय रावत आउटलुक

लीक हुई बातचीत में दत्त का आचरण संपादकीय सत्यनिष्ठा के मानदंडों का उल्लंघन करता नजर आया. इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण है कि वह कांग्रेस पार्टी के गठबंधन सहयोगी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की ओर से राडिया से कांग्रेस तक जानकारी पहुंचाने के लिए सहमत दिखीं. 22 मई 2009 को दोनों के बीच कई बार की बातचीत में से एक में दत्त ने राडिया से पूछा, “मुझे बताओ, मुझे उन्हें क्या बताना चाहिए?” बाद में उसी दिन दत्त ने कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद और डीएमके के एम करुणानिधि का जिक्र करते हुए कहा, “मेरी एक लंबी बातचीत हुई और उन्होंने मुझसे वादा किया है कि आजाद उनसे बात करेंगे.” 

इस बातचीत के एक महीने बाद ही राडिया ने वेणु से कहा था कि वह प्रणय का “समर्थन” करने के लिए दिल्ली में उनसे मिलने जा रही हैं. इससे दो महीने पहले रॉय दंपति ने रिलायंस के कर्मचारी केआर राजा के साथ वीसीपीएल कर्ज समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. (रॉय दंपति के वित्तीय लेन-देन में शामिल कई व्यक्ति अन्य व्यावसायिक मामलों की जांच के दायरे में रहे हैं. गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय ने आईएनएक्स न्यूज प्राइवेट लिमिटेड के साथ रिलायंस के लेन-देन के लिए केआर राजा और राडिया की जांच की है. महेंद्र नाहटा, जिन्होंने 2012 वित्तीय वर्ष में आरआरपीआर का कर्ज खरीदा था, की हाल ही में 2जी स्पेक्ट्रम की बिक्री से संबंधित मामलों में सीबीआई द्वारा जांच की गई है.) 

दत्त ने बाद में इस बात से इनकार किया कि उन्होंने कांग्रेस नेताओं को कोई सूचना दी थी, लेकिन लीक हुए टेपों का उनकी और एनडीटीवी की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रभाव पड़ा. 10 नवंबर 2010 को दत्त ने एनडीटीवी स्टूडियो में एक पैनल के सामने ग़ुस्सा जाहिर करते हुए अपना बचाव किया. इस पैनल में टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संपादक दिलीप पडगांवकर, ओपन के तत्कालीन संपादक मनु जोसेफ और स्तंभकार स्वपन दासगुप्ता शामिल थे. दत्त ने यह जरूर स्वीकार किया कि उनसे राडिया के साथ अपनी बातचीत में “अनजाने में निर्णय लेने में गलती” हुई थी, लेकिन इससे आगे कुछ नहीं कहा. 

उन्होंने पूछा कि क्या उन पर लॉबिंग या पावर-ब्रोकरिंग का आरोप लगाया जा रहा है? अपनी सफाई में उन्होंने जोर देकर कहा, “जैसा कि मैंने बार-बार कहा है, मैंने वास्तव में कांग्रेस को कोई सूचना नहीं दी.” एनडीटीवी न्यूज रूम में हालांकि इस मामले पर कोई चर्चा नहीं हुई. 2010 में संपादकीय टीम का हिस्सा रहीं काजोरी सेन, जिन्होंने 2014 में चैनल छोड़ दिया था, ने कहा, “अगर उस समय आप एनडीटीवी न्यूजरूम का हिस्सा थे, तो आपको ऐसा दिखाना था कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है.” उस समय एनडीटीवी के साथ रहे सेन और कई अन्य लोगों ने मुझे बताया कि आंतरिक रूप से राडिया टेप प्रकरण को नजरअंदाज कर दिया गया था. साथ ही इस पूरे मामले पर रॉय दंपति की राय के विषय में भी कोई संवाद नहीं हुआ. चैनल के कर्मचारियों ने बस इतना ही सुना कि एक आचार समिति मामले की जांच कर रही है. लेकिन समिति की बैठकों में क्या हुआ, इसका कोई ब्योरा नहीं दिया गया. आखिरकार, समूह ने दत्त को वापस लाने का फैसला किया. किशोर भट्टाचार्जी, जो 1996 से 2012 तक एनडीटीवी के साथ थे, ने मुझे बताया कि वह इसे चैनल द्वारा गवांए गए एक अवसर की तरह देखते हैं. उन्होंने कहा, “यह ब्रांड को फिर से विश्वसनीय बनाने का मौका था.” 

लेकिन दत्त एक वरिष्ठ कर्मचारी थीं. साथ ही कुछ पूर्व कर्मचारियों ने मुझे बताया कि वह रॉय दंपति की “मंडली” का भी हिस्सा थीं. इस मंडली का हिस्सा रहे लोग लंबे समय से कार्यरत वो कर्मचारी थे, जिनके बारे में अन्य लोगों की राय यह थी कि उन्हें रॉय परिवार खास तरजीह देता है. संदीप भूषण ने मुझे बताया कि कंपनी ने अपने काम करने के तरीके में “राज्य की नकल करना” शुरू कर दिया था. कुछ लोगों को बचाया जाता और इनाम दिया जाता तो कुछ की अनदेखी की जाती थी. एक पूर्व एंकर, जिन्होंने 2015 में नौकरी छोड़ी, ने कहा कि वह उन कई लोगों में से एक थी, जिन्होंने इस्तीफा देने से पहले इस समस्या को “काफी स्पष्ट रूप” से रॉय दंपति  के सामने रखा था. उन्होंने बताया, “एनडीटीवी वरिष्ठता को बहुत गंभीरता से लेता है.” 2015 में ही नौकरी छोड़ने वाले एक अन्य कर्मचारी ने मुझे बताया कि वरिष्ठ कर्मचारियों को “ऑन-स्क्रीन भगवान” और “ऑफ-स्क्रीन भगवान” माना जाता था. पत्रकार ने कहा कि असल में उनमें से कोई भी मजबूत न्यूज रूम लीडर नहीं था और पूरी कंपनी “सितारों के बोझ” तले दबी नजर आती है. जिन लोगों ने कभी एनडीटीवी को खड़ा किया था, अब वह उन्हीं लोगों की वजह से दौड़ में पिछड़ता जा रहा था.  

{पांच}  

एनडीटीवी के व्यापारिक लेन-देन की प्रत्येक जांच कंपनी पर तनी हुई किसी बंदूक की तरह है. न्यूज रूम की अंदरूनी परेशानियों और यहां तक कि मालिकाना अधिकार के प्रश्न से भी कहीं ज़्यादा यह जांच ही कंपनी और रॉय दंपति पर मंडरा रहा सबसे बड़ा खतरा प्रतीत होती है. इनमें कई एजेंसियों द्वारा एनडीटीवी के ऑफशोर लेन-देन की जांच शायद सबसे महत्वपूर्ण है. इन मामलों की जांच पर प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग के हलफनामों में उल्लेख किया गया है कि अन्य एजेंसियों सहित सीबीआई और आरबीआई भी इन सौदों की जांच कर रही हैं. 

इनमें से बहुत से लेन-देन की जांच पहली बार 2000 के दशक के मध्य में एसके श्रीवास्तव नाम के एक आयकर अधिकारी द्वारा की गई थी, जिनसे मैं सितंबर के अंत में नोएडा में उनके कार्यालय में मिला. पतली मूंछों और लंबे कद के श्रीवास्तव एनडीटीवी, जिससे वह दिलो-जान से नफरत करते दिखते हैं, के बारे में एक भी दस्तावेज देखे बिना उसकी वित्तीय गड़बड़ियों के बारे में घंटों भाषण दे सकते हैं. उन्होंने अपनी बात की शुरुआत एनडीटीवी के कर आकलन में कथित उल्लंघनों की जांच से की. (हितों के प्रत्यक्ष टकराव में, मूल्यांकन में शामिल सुमना सेन नामक एक कर अधिकारी एनडीटीवी के पत्रकार अभिसार शर्मा की पत्नी थी. शर्मा अब एबीपी न्यूज में हैं.) श्रीवास्तव, जिन्होंने मुझे बताया कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य हैं, ने दावा किया कि उनकी जांच में कंपनी द्वारा वित्तीय कदाचार की गहरी परतें उजागर हुई थीं.  

उनका दावा है कि उन्हें इस काम का व्यक्तिगत मूल्य भी चुकाना पड़ा. उन्हें कई वर्षों के लिए नौकरी से निलंबित कर दिया गया और उन्हें यौन उत्पीड़न के आरोपों से जूझना पड़ा. उनका कहना है कि ये सभी आरोप राजनीतिकि रूप से प्रेरित थे. 2004 से 2006 तक एनडीटीवी के बहीखाते का मुआयना करने के बाद श्रीवास्तव ने आरोपों की एक सूची पेश की. गौरतलब है कि इनमें से कोई भी आरोप साबित नहीं हुआ है. उन्हें अपने अभियान के लिए वकील राम जेठमलानी और चार्टर्ड अकाउंटेंट और आरएसएस के विचारक एस गुरुमूर्ति से समर्थन मिला. जेठमलानी और गुरुमूर्ति ने श्रीवास्तव के आरोपों को दोहराते हुए और कार्रवाई की मांग करते हुए कांग्रेस नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री पी चिदंबरम और प्रणय रॉय के साथ पत्रों की एक श्रृंखला का आदान-प्रदान किया. 

दिसंबर 2013 के अपने एक पत्र में जेठमलानी ने एनडीटीवी और चिदंबरम पर लगभग 5700 करोड़ रुपए की आय छिपाने, 5500 करोड़ रुपए की मनी लॉन्ड्रिंग करने, लगभग 3500 करोड़ रुपए की कर चोरी और लगभग 1.5 करोड़ रुपए के सरकारी धन का गबन करने का आरोप लगाया. जेठमलानी ने चिदंबरम पर गरजते हुए कहा कि एनडीटीवी ने दुनिया भर में “कुल मिला कर 21 फर्जी सहायक कंपनियां” शुरू की, जिनके माध्यम से “अवैध काले धन को सफेद किया गया” और आरोप लगाया कि यह पैसा “आपका और आपके बेटे का है.” 

चिदंबरम ने 19 दिसंबर को जेठमलानी को जवाब देते हुए उनके सभी आरोपों का खंडन किया और उन्हें “अपमानजनक आरोप” करार दिया. उन्होंने लिखा कि इसके बावजूद उन्होंने पत्र और मामले के पूरे ब्योरे को वित्त-सह-राजस्व सचिव को भेज दिया है, ताकि वह इसकी “समयबद्ध तरीके से पड़ताल करें और जांच के निष्कर्ष को सीलबंद कवर में सीधे माननीय प्रधानमंत्री के पास जमा कराएं.” लेकिन जेठमलानी अपनी बात पर अड़े रहे और दस दिन बाद जवाब दिया कि वह नहीं जानते कि मंत्री के अधीनस्थ द्वारा निष्पक्ष जांच कैसे की जा सकती है? 

अपनी बात के अंत में उन्होंने कहा, “मुझे खेद है कि इस मामले को देश की अदालतों या शायद भारत के संप्रभु लोगों की अदालत में जाना होगा.” जनवरी 2014 में प्रणय और गुरुमूर्ति के बीच इसी तरह का पत्राचार हुआ. ईमेल बातचीत में प्रणय ने दस्तावेजों की मदद से गुरुमूर्ति को यह समझाने की कोशिश की, कि उनके आरोप निराधार हैं. जेठमलानी की तरह गुरुमूर्ति ने भी दस दिन बाद यह कहते हुए जवाब दिया कि वह आश्वस्त नहीं हैं. अक्टूबर 2015 की शुरुआत में एनडीटीवी की जांच कर रही एक एजेंसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे बताया कि श्रीवास्तव के आरोप उचित निशाने पर थे. जब मैंने स्वयं जांच एजेंसियों के हलफनामों को पढ़ा, तो पाया कि जांच में जो धनराशि सामने आई है, वह श्रीवास्तव के आरोपों में दिखाई गई राशि से काफी कम है. लेकिन फिर भी यह काफी धनराशि थी.  

फरवरी 2014 में आयकर विभाग 2010 के वित्तीय वर्ष की देनदारियों का पुनर्मूल्यांकन करने के बाद एनडीटीवी से 450 करोड़ रुपए की मांग कर चुका है. एनडीटीवी ने इस मांग को अदालत में चुनौती दी है. विभाग बाद के वर्षों के खातों का पुनर्मूल्यांकन भी कर रहा है. मौजूदा जांच के कई निष्कर्ष एक मीडिया व्यवसाय के लिए विदेशी पूंजी जुटाने के सवाल से संबंधित हैं. (11 नवंबर तक एक टेलीविजन समाचार कंपनी को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के माध्यम से अपनी इक्विटी का अधिकतम 26 प्रतिशत रखने की अनुमति थी. हाल ही में मोदी सरकार ने इस सीमा को बढ़ाकर 49 प्रतिशत कर दिया है.) 

ईडी के हलफनामे में कहा गया है कि एनडीटीवी ने विदेशों में पूंजी जुटाने के लिए कई पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनियों और संयुक्त उद्यमों की स्थापना की थी. यह भी कहा गया कि इनमें से कुछ ने “प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहायक कंपनियों के माध्यम से भारत में निवेश किया.” इसने दावा किया कि 2006 और 2011 के बीच “एनडीटीवी या भारत स्थित संबंधित कंपनियों” को विदेशी फंड के रूप में 648.81 करोड़ रुपए मिले. (एक अन्य जगह हलफनामे में “एनडीटीवी से संबंधित” कंपनियों में 1295 करोड़ रुपए के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का हवाला दिया गया है, हालांकि इसमें इसके लिए कोई समय सीमा निर्दिष्ट नहीं की गई है.) 

2011 की सीबीआई जांच का हवाला देते हुए हलफनामे में लेन-देन की एक खास पेचीदगी को रेखांकित किया गया. यह एनडीटीवी लिमिटेड की भारतीय सहायक कंपनी “एनडीटीवी (मीडिया) मॉरीशस लिमिटेड” से “एनडीटीवी स्टूडियोज लिमिटेड” को 387.62 करोड़ रुपए की राशि के हस्तांतरण के साथ शुरू होता है. हलफनामे में कहा गया है, “इन फंड्स  का एक छोटा हिस्सा 2009 में भारत में 6 नई सहायक कंपनियों में निवेश के लिए इस्तेमाल किया गया था,” जबकि एक बड़ा हिस्सा कंपनियों के एक घुमावदार तंत्र की दिशा में गया, जिनमें कुछ एनडीटीवी की सहायक कंपनियों के रूप में निर्धारित हैं.  

हलफनामे में कहा गया है, “एनडीटीवी स्टूडियोज लिमिटेड और इसकी छह सहायक कंपनियों का एनडीटीवी में विलय कर दिया गया था, जिससे उनकी स्थापना के उद्देश्य के साथ-साथ एनडीटीवी (मीडिया) मॉरीशस लिमिटेड के फंड के स्रोत और मॉरीशस में विभिन्न कंपनियां स्थापित करने की आवश्यकता के बारे में संदेह पैदा होता है.” चिदंबरम के खिलाफ जेठमलानी के विस्फोटक आरोपों को देखते हुए सवाल उठता है कि क्या हालिया हलफनामे में कंपनी और पूर्व मंत्री के बीच किसी तरह के संबंध का दावा किया गया है? जैसा कि पता चला है, ईडी के हलफनामे में ये नाम दिखाई देता है, लेकिन अस्पष्ट शब्दों में. 

हलफनामे में कहा गया है, “आरोप लगाया जाता है कि चिदंबरम जैसे उपनामों से निवेशकों/शेयर धारकों वाली लगभग 294 कंपनियां एनडीटीवी नेटवर्क पीएलसी”- एनडीटीवी की लंदन स्थित एक सब्सिडरि- “के परिसर से चल रही हैं.” “आरोप लगाया जाता है” वाक्यांश से यह पुष्टि नहीं होती कि क्या ईडी यह आरोप लगा रहा है, या एजेंसी किसी अन्य, संभवतः पुराने आरोप का उल्लेख कर रही है. इसके अलावा दस्तावेजों में “चिदंबरम जैसे उपनामों से” वाक्यांश के अलावा किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं लिया गया है और न ही उल्लंघन के किसी भी सटीक आरोप की पहचान की गयी है, जिससे एनडीटीवी और पूर्व मंत्री का संबंध साफ हो. ईडी के हलफनामे में लंदन की सहायक कंपनी एनडीटीवी नेटवर्क पीएलसी द्वारा जुटाए गए धन को काफी जगह दी गई है, जिसने 4 जनवरी 2007 को “भारत में गैर-समाचार क्षेत्र” में निवेश की अनुमति के लिए विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड को एक आवेदन दिया था. 

अनुमति मिलने के बाद कंपनी ने विदेशी स्रोतों से करोड़ों डॉलर की राशि जुटाई. इसमें संयुक्त राज्य अमेरिका की सबसे बड़ी मीडिया कंपनियों में से एक, एनबीसी यूनिवर्सल से जुटाई गई $150 मिलियन की राशि शामिल थी. इस राशि ने एनबीसीयू को एनडीटीवी नेटवर्क पीएलसी में 26 प्रतिशत की अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी दी. इस सौदे की घोषणा से पहले एनडीटीवी के वरिष्ठतम अधिकारियों और फर्म प्राइसवाटरहाउसकूपर्स के सलाहकारों के बीच ईमेल का सिलसिला चला, जिसमें उन्होंने इस मामले के बारे में एक प्रेस विज्ञप्ति तैयार करने पर चर्चा की. 

21 मई 2008 को विवेक मेहरा नाम के एक पीडब्ल्यूसी कार्यकारी ने लिखा, “अगर यह सवाल पूछा गया कि पैसे का इस्तेमाल किस लिए किया जाएगा ??? हमें यह तय करने की आवश्यकता है कि इस प्रश्न का सावधानीपूर्वक उत्तर कैसे दिया जाए.” अगले दिन प्रणय रॉय ने प्रेस विज्ञप्ति में “पहले जश्न” का जिक्र किया, जिसमें उन्होंने लिखा कि एनबीसीयू सौदे के परिणाम स्वरूप मूल कंपनी एनडीटीवी लिमिटेड के पास अब 150 मिलियन डॉलर का फंड था, जिसे वह “भविष्य में अधिग्रहण, समाचारों की दुनिया के विस्तार या खबरों की दुनिया से हटकर नए मौक़े तलाशने के लिए इस्तेमाल कर सकते थे.” ईमेल में विज्ञप्ति के अगले कई ड्राफ्ट्स में “समाचारों की दुनिया के विस्तार” वाक्यांश का जिक्र दिखाई देता है. हालांकि एनडीटीवी की वेबसाइट पर प्रकाशित अंतिम प्रेस विज्ञप्ति में यह दावा नहीं किया गया है कि धनराशि का उपयोग समाचारों के लिए किया जाएगा. 

ईडी ने अपने हलफनामे में कहा कि उसने अपनी जांच के तहत 2015 में एनडीटीवी के कंपनी सचिव नवनीत रघुवंशी के 17 अगस्त और 3, 4, 9, 10, 11 और 12 सितंबर को बयान लिए थे. लगभग उसी समय आयकर विभाग ने एनडीटीवी के उपाध्यक्ष केवीएल नारायण राव को तलब किया. ईडी का हलफनामा इस वाक्य के साथ समाप्त होता है: “इस मामले में आगे की जांच जारी है.” 

19 नवंबर को ईडी ने एनडीटीवी के खिलाफ मोर्चे में तेजी लाते हुए कंपनी को कारण बताओ नोटिस जारी किया. इसमें एजेंसी की तरफ से कहा गया कि उसने कंपनी द्वारा विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, या फेमा के उल्लंघन की शिनाख्त की थी. उन्होंने कंपनी के उन तमाम लेन-देन को भी सूचीबद्ध किया, जिसे आरबीआई ने फर्ज़ी बताया था. कारण बताओ नोटिस के बारे में एजेंसी के एक “नोट” में दावा किया गया है कि इसमें 2030.05 करोड़ रुपए की राशि शामिल थी. 

नोट हलफनामे को दोहराते हुए समाप्त होता है : “फेमा के तहत आगे की जांच की जा रही है.” नवंबर के मध्य में मैंने प्रणय और राधिका रॉय को 44 प्रश्नों की एक सूची भेजी, जिसमें कंपनी के मालिकाना अधिकारों, रिलायंस के निवेश और विभिन्न जांचों से संबंधित प्रश्न शामिल थे. प्रणय ने मेरे ईमेल के जवाब में दक्षिणी दिल्ली के ग्रेटर कैलाश 1 स्थित एनडीटीवी के एक कार्यालय में मुलाकात का प्रस्ताव दिया. जब हम मिले, तो उन्होंने कहा कि हमारे बीच हो रही बातचीत से कुछ भी उद्धृत (कोट) न किया जाए. हमारी मुलाकात के अंत में उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि वह एनडीटीवी की वित्तीय जांच के बारे में मेरे सवालों के आधिकारिक जवाब मुझे ईमेल करेंगे. वह ईमेल कभी नहीं आया. 

पिछले तीन महीनों में मैंने एनडीटीवी के वर्तमान और पूर्व कर्मचारियों से भी कई सवाल पूछे. उनमें से कोई भी इस बात के प्रति आश्वस्त नहीं दिखा कि सच क्या है. कई लोगों ने आरआरपीआर और रिलायंस पर न्यूजलॉन्ड्री की कहानी पढ़ी थी, लेकिन कुछ ने कहा कि उन्हें इस पर विश्वास नहीं था. मुझे उनमें से ज्यादातर से बात कर यह समझ में आया कि वे रॉय दंपति पर भरोसा करते हैं. एनडीटीवी के एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि अगर आप किसी भी न्यूज कंपनी की परतें उधेड़ेंगे, तो आपको निश्चित ही कुछ-न-कुछ संदिग्ध सौदे मिलेंगे. उन्होंने कहा कि एनडीटीवी के मामले में न्यूज रूम हमेशा व्यवसाय से अछूता रहा है. लेकिन एनडीटीवी के खिलाफ चल रही जांचों की संख्या और उनकी गहराई चिंताजनक है. केवल ईडी के कारण बताओ नोटिस में उठाया गया आंकड़ा, जो 2030 करोड़ रुपए है, एनडीटीवी के आज के मूल्य से तीन गुना अधिक है. यदि जांच में यह आरोप सिद्ध होते हैं, तो कभी भारत के सबसे सफल और सम्मानित समाचार नेटवर्क रहे एनडीटीवी के लिए इसके परिणाम विनाशकारी साबित हो सकते हैं. 

(कारवां अंग्रेजी के दिसंबर 2015 अंक की इस कवर स्टोरी का हिंदी में अनुवाद कुमार उन्नयन ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)