“जब हम पुलिस पर भरोसा नहीं करते हैं, तो हम उनके कैमरों पर कैसे भरोसा कर सकते हैं? यहां तक कि अंग्रेज भी दिल्ली पुलिस के मुकाबले अच्छा व्यवहार करते थे.” उत्तर-पूर्वी दिल्ली में एक अपार्टमेंट की पहली मंजिल पर बैठे एक युवा मुस्लिम व्यक्ति ने मुझसे कहा। फरवरी 2020 में किस तरह हिंदू भीड़ ने तीन दिनों में सांप्रदायिक हिंसा फैलाई थी वह इसके बारे में बात कर रहा था. उसने कहा, "मुझे दूसरी मंजिल से बच्चों, एक-दो महीने के बच्चों को भी नीचे फेंकना पड़ा, महिलाओं को दो मंजिलों से नीचे कूदना पड़ा. किसी तरह हम बच पाए." हिंदू भीड़ के साथ-साथ दिल्ली पुलिस कर्मियों पर भी मुसलमानों पर हमला करने में शामिल होने का आरोप लगाया गया था. मीडिया ने बताया कि किस तरह पुलिस ने हिंसा का नेतृत्व करने वाले बीजेपी के सदस्यों को दोषी ठहराने वाली मुसलमानों की शिकायतों के आधार पर एफआईआर दर्ज नहीं की. 53 मृतकों में से 40 मुस्लिम थे. पुलिस ने उन मामलों में भी मुस्लिम पुरुषों पर आरोप लगाए, जिनमें पीड़ित उनके ही समुदाय के थे.
12 मार्च 2020 को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा को बताया कि दिल्ली पुलिस ने हिंसा भड़काने वाले लगभग दो हजार व्यक्तियों की पहचान करने के लिए चेहरे की पहचान करने वाली तकनीक (एफआरटी) का इस्तेमाल किया था. अगले साल इस एफआरटी सिस्टम की मदद से 137 गिरफ्तारियां हुईं. हालांकि देश में इस उपकरण के उपयोग के लिए कोई कानूनी ढांचा नहीं था. 2019 तक दिल्ली में राज्य द्वारा पिचहत्तर हजार सीसीटीवी कैमरे लगाए गए थे, जबकि अन्य तीन लाख और लगाए जाने थे. सरकारों ने एफआरटी की सहायता से सीसीटीवी फुटेज से व्यक्तियों की पहचान करना शुरू कर दिया था. जब एक डिजिटल-अधिकार समर्थक समूह, इंटरनेट फ़्रीडम फ़ाउंडेशन ने सूचना के अधिकार के तहत दिल्ली पुलिस से इस प्रौद्योगिकी के उपयोग की वैधता के बारे में पूछा, तो पुलिस ने 2018 के उच्च-न्यायालय के एक फैसले का हवाला दिया, जिसमें पुलिस को लापता बच्चों को ढूंढने के लिए इसका उपयोग करने का निर्देश दिया था. आईएफएफ ने इसे चिंताजनक बताया है.
थिंक टैंक विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के वर्किंग पेपर के अनुसार, अगस्त 2021 तक, "इस तथ्य को देखते हुए कि शहर के औसत इलाकों में पुलिस की सक्रियता उन क्षेत्रों में ज्यादा है जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा रहती है. भारत में आमतौर पर और खासकर दिल्ली में, मुस्लिम समुदायों को लेकर पुलिस के ऐतिहासिक प्रणालीगत पूर्वाग्रहों को पहचानते हुए हम ठीक-ठीक यही कह सकते हैं कि दिल्ली में पुलिस प्रणाली को तेज करने वाला कोई भी तकनीकी हस्तक्षेप इस पूर्वाग्रह को बढ़ाएगा ही। इसमें कहा गया है कि दिल्ली पुलिस द्वारा एफआरटी का उपयोग, "लगभग अनिवार्य रूप से मुसलमानों को असमान रूप से प्रभावित करेगा।" ये नतीजे बेहद चिंताजनक हैं, खासकर इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि देश भर में 126 एफआरटी प्रणालियां उपयोग में हैं.
प्रौद्योगिकी विद्वान केली गेट्स ने 2011 में आई अपनी पुस्तक अवर बायोमेट्रिक फ्यूचर: फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी एंड द कल्चर ऑफ सर्विलांस में लिखा है कि एफआरटी सिस्टम का उद्देश्य चेहरे को फिंगरप्रिंट की तरह इस्तेमाल करना है.
"कंप्यूटरीकृत होने के कारण चेहरे की पहचान प्रणाली को अधिक सटीक माना जाता है और सह पूर्वाग्रहों और मानव धारणाओं की स्पष्ट अपर्याप्तताओं से कम जुड़ा होता है." हालांकि, वह बताती हैं कि अधिकांश आधुनिक एफआरटी सिस्टम "चेहरे की तस्वीरों के एक संग्रह का उपयोग करने के लिए डिजाइन किए गए हैं जो व्यक्तियों के वर्ग के मापदंडों को परिभाषित करते हैं जिन्हें सिस्टम पहचानेगा," जो अंततः संस्था द्वारा निर्धारित पहचानने के विशेष तरीके पर काम करता है.
संक्षेप में सिर्फ इसलिए कि सीसीटीवी कैमरे और एफआरटी निगरानी रखने के आधुनिक उपकरण हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि उनसे पिछली तकनीकों की तरह नुकसान नहीं हैं. इसके बजाय यह विशिष्ट समुदायों को रूढ़िवादी तरीके लक्षित करने में अपनी समान प्रौद्योगिकियों की विरासत को ही आगे बढ़ाते हैं. ऐसा मुख्य रूप से इसलिए है, क्योंकि निगरानी और डेटा संग्रह के मामले में भारत सरकार की आकांक्षाएं वैसी ही बनी हुई हैं जैसी वे ब्रिटिश राज के समय थीं.
पीढ़ियों से चली आ रही आपराधिकता की सांस्कृतिक धारणा के कारण पुलिस हाशिए पर रहने वाले समुदायों को लक्षित करने के लिए तैयार रहती है. उदाहरण के लिए, मनुस्मृति, किसी मामले की जांच कर रहे न्यायाधीश के लिए जाति और अपराध के बीच संबंध को चित्रित करते हुए, स्पष्ट रूप से कहती है, ''ब्राह्मण से 'कहो' ऐसा पूछें. क्षत्रिय से 'सच बोलो' इस तरह पूछें. 'गौ, बीज, सोना चुराने का पातक तुमको होगा' ऐसा कहकर वैश्यों से पूछें.'सब पाप तुमको लगेगा' यूं पूछ कर शूद्रों से गवाही लें.
ऐसा पूर्वाग्रह औपनिवेशिक युग के दौरान और उसके बाद भी बना रहा. कुछ स्थानीय समाचार पत्रों ने कुछ समुदायों के अपराधीकरण के लिए अभियान चलाने के बाद, जिन्हें वे नैतिक रूप से स्वच्छंद मानते थे और जन्म से बुरे व्यवहार के लिए जाने जाते थे, अंग्रेजों ने 1871 का आपराधिक जनजाति अधिनियम पारित किया. कानून में कहा गया कि अगर स्थानीय प्रशासकों के पास ऐसा मानने का कारण था कि एक खास समुदाय गैर-जमानती अपराधों का व्यवस्थित रूप से आदी था, तो वे गवर्नर जनरल की मंजूरी से समुदाय को एक आपराधिक जनजाति घोषित कर सकते थे. दंड प्रक्रिया संहिता, 1898 को भी स्पष्ट रूप से "आदतन अपराधियों" के रूप में संदर्भित किया गया है.
इतिहासकार मीरा राय वेट्स के अनुसार, औपनिवेशिक अधिकारियों का मानना था कि "यदि कोई किसी व्यक्ति के बाहरी लक्षणों को देख लेता है तो वह उस व्यक्ति के आंतरिक चरित्र और कुछ प्रकार के व्यवहार के लिए प्रवृत्ति के बारे में भी अनुभवजन्य जानकारी प्राप्त कर सकता है. दूसरे शब्दों में, ब्रिटिश उपनिवेशवादी भौतिक विशेषताओं के दृश्य विश्लेषण के माध्यम से देश में विद्रोह के रूप में जो देखते थे, उसका पता लगाने का एक तरीका खोज रहे थे. 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश प्रशासकों ने फिंगरप्रिंट और तस्वीरों सहित बायोमेट्रिक निगरानी और नृवंशविज्ञान डेटा के संग्रह की पूर्ण प्रणाली स्थापित करना शुरू कर दिया.
हालांकि इसे व्यापक रूप से लागू नहीं किया गया था, प्रोफिलोस्कोप एक महत्वपूर्ण बायोमेट्रिक तकनीक थी जो इस संदर्भ में सामने आई थी. 1930 के दशक में ब्राह्मण सांख्यिकीविद् प्रशांत चंद्र महालनोबिस द्वारा विकसित, यह एक मापक यंत्र था जिसे माना जाता है कि किसी व्यक्ति की जाति का निर्धारण करने के लिए उपयोग किया जाता है. प्रोफिलोस्कोप ने सांख्यिकीय समानता के एक मीट्रिक को तैनात किया, जो शुरू में विशिष्ट जाति समूहों के संदर्भ में तैयार किया गया था, जिसे इतिहासकार प्रोजित मुखर्जी ने नृवंशविज्ञानशास्री और औपनिवेशिक प्रशासक हर्बर्ट रिस्ले के मस्तिष्क संबंधी लेखन का उल्लेख करते हुए, "रिस्लेयन रेस-टेक्नोलॉजी" के रूप में वर्णित किया है. रिस्ले ने हास्यास्पद घोषणाएं करके उस समय की मानवशास्त्रीय प्रथाओं को प्रभावित किया, जैसे "किसी जाति की सामाजिक स्थिति उसके अनुनासिक सूचकांक के विपरीत भिन्न होती है." इतिहासकार साइमन माइकल टेलर, कलर्वो एन गुल्सन और डंकन मैकड्यूई-रा द्वारा 2021 के एक पेपर में प्रोफिलोस्कोप को "चेहरे की पहचान करने वाली तकनीक का प्रारंभिक संस्करण" कहा गया है, यह देखते हुए कि वही महालनोबिस दूरी माप समकालीन मशीन लर्निंग और एफआरटी एल्गोरिदम में एक केंद्रीय अवधारणा बनी हुई है.
2021 के इस पेपर पर समाजशास्त्री शिवांगी नारायण का तर्क है कि "निवारक पुलिस" का औपनिवेशिक चलन अभी भी चयनात्मक अपराधीकरण को संभव बनाता है. कानून द्वारा लक्षित जनजातियों से ताल्लुक रखने वाली एक वकील दिशा वाडेकर ने स्क्रॉल को बताया, 1952 में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट का आधिकारिक खात्मा सिर्फ एक "कागजी वादा" था. 1973 में अधिनियमित आपराधिक प्रक्रिया संहिता, लगभग उसी भाषा का संचालन करती है और राज्यों के पास अभी भी "हिस्ट्री-शीटर्स" पर निगरानी रखने के लिए कानूनी प्रावधान हैं. शोध और रक्षा संगठन, ट्रांसनेशनल इंस्टीट्यूट की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, व्यवहार में यह औपनिवेशिक युग के जैसे परिणाम देता है.
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