क्या है राफेल विवाद?

2013 में बेंगलुरु में आयोजित एयरो इंडिया प्रदर्शनी में राफेल विमान को देखने आया लोगों का हुजूम. एजाज राही/एपी फोटो
13 February, 2019

2015 में बतौर प्रधानमंत्री अपनी पहली फ्रांस यात्रा में नरेन्द्र मोदी ने पूर्व सरकार की खरीद प्रक्रिया को पूरी तरह से दरकिनार कर फ्लाई-अवे कंडीशन यानी तैयार हालत में 36 राफेल विमानों को खरीदने की घोषणा की.

मोदी की इस घोषणा के 13 दिन पहले उद्योगपति अनिल अंबानी के रिलायंस समूह ने रिलायंस डिफेन्स लिमिटेड नाम से एक नई कंपनी का पंजीकरण करवाया. मोदी की फ्रांस यात्रा के वक्त अनिल अंबानी फ्रांस में मौजूद थे. अभी हाल में शिपयार्ड के रखरखाव वाले सैन्य अनुबंधों में बड़ा ठेका लेने के अलावा रक्षा क्षेत्र में रिलायंस के अनुभव का कोई इतिहास नहीं है. इस कंपनी के लिए रक्षा क्षेत्र बिलकुल नया है. राफेल करार में हस्ताक्षर के 10 दिन बाद डसॉल्ट और रिलायंस समूह ने नई कंपनी डसॉल्ट रिलायंस एयरोस्पेस लिमिटेड के गठन की घोषणा की. इसमें रिलायंस समूह की रक्षा कंपनियों में से एक रिलायंस एरोस्ट्रक्चर लिमिटेड की अधिकांश हिस्सेदारी होगी. अचानक ही रिलायंस कंपनी को, जिसका एयरोस्पेस सिस्टम से कुछ लेनादेना नहीं था, हजारों करोड़ रुपए का काम सौंप दिया गया.

इस करार की घोषणा के साथ ही इसकी शर्तों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का ऐसा सिलसिला शुरू हो गया जो अभी तक जारी है. कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बनने के कुछ ही दिन पहले 2017 में, राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि मोदी सरकार ने एक उद्योगपति को लाभ पहुंचाने के लिए राफेल करार को पूरी तरह से बदला दिया है. जुलाई 2018 में, अविश्वास प्रस्ताव पर बहस से पहले, गांधी ने विमानों की कीमत की गोपनीयता के सवाल पर सरकार को घेरा. कांग्रेस का कहना है कि कीमत को बहुत ज़्यादा बढ़ाया गया है. पार्टी का दावा है कि उसकी सरकार ने 136 राफेल विमान 10 अरब 20 करोड़ डॉलर में खरीदने का करार किया था जबकि मोदी सरकार 8 अरब 70 करोड़ डॉलर में महज 36 विमान खरीद रही है. कांग्रेस का आरोप है कि दोनों करारों की तुलना करने पर पता चलता है कि मोदी सरकार प्रत्येक विमान की खरीद पर 1670 करोड़ रुपए यानी पुरानी कीमत से तीन गुना अधिक खर्च कर रही है.

मोदी की पेरिस घोषणा के बाद भारत और फ्रांस के पक्षों ने एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया और कहा कि विमान और उससे संबंधित तंत्र और हथियार, पहले की चयन प्रक्रिया के आधार पर, उसी रूप में सौपे जाएंगे जिसकी जांच और स्वीकृति भारतीय वायुसेना ने दी है. इस समझौते पर सवाल उठाए जाने के दिन से ही सरकार यह दावा कर रही है कि नए करार की शर्तें पुराने समझौते से बहुत अलग हैं और विमान में कई नए तंत्र जोड़े गए हैं और भारतीय विशेषताओं के आधार पर विमानों में सुधार किया गया है. और इसलिए दोनों मूल्यों की तुलना नहीं की जा सकती. अपने दावे को साबित करने के लिए सरकार ने कोई जानकारी नहीं दी है और इससे यह करार और अधिक संदिग्ध बन गया है.

पिछले साल कांग्रेस ने जब राफेल समझौते पर सवाल उठाए तो निर्मला सीतारमण ने, जिन्हें हाल में रक्षा मंत्री बनाया गया है, वादा किया था कि वह कीमत की जानकरी मीडिया को देंगी और यह भी दावा किया कि ''वह सटीक आंकड़ा देने से बचने की कोशिश नहीं कर रही हैं.'' लेकिन उनके मंत्रालय ने भारत और फ्रांस सरकार के बीच गोपनीयता की शर्तों का हवाला देकर जानकारी देने से इनकार कर दिया.

इस साल जुलाई में सीतारमण ने इसी शर्त का हवाला देकर मूल्य को लेकर सरकार की खामोशी का बचाव किया. लेकिन इसी साल मार्च में रक्षा राज्य मंत्री सुभाष भामरे ने संसद को बताया कि नए समझौते के अंतर्गत प्रत्येक राफेल विमान की कीमत अनुमानित 670 करोड़ रुपए है और इसमें एडऑन को नहीं जोड़ा गया है.

कीमत के खुलासे को लेकर चल रही बहस पेचीदा हो गई है. जुलाई में संसद में बहस के बाद  बाद फ्रांस के विदेश मंत्री ने पुष्टि की कि 2008 के राफेल समझौते में गोपनीयता का प्रावधान है जो दोनों देशों को साझेदार मुल्क द्वारा दी गई गोपनीय जानकारी को सार्वजनिक करने से कानूनन रोकता है.

रक्षा जानकार डी. रघुनंदन ने ऑनलाइन मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि राहुल गांधी ने सरकार पर यह आरोप लगाकर कि गोपनीयता का कोई प्रावधान करार में नहीं है राजनीतिक गलती की है जिसका खंडन सरकार कर पाई. इस सब में यह बात गायब हो गई कि गोपनीयता की शर्त सिर्फ उन पक्षों से सम्बंधित है जिनसे राष्ट्रीय सुरक्षा या विमान की कार्य क्षमता पर असर पड़ सकता है. इस पर कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि यह शर्त कीमत के खुलासे को रोकती है. जब मैंने कीमत की जानकारी के लिए सूचना के अधिकार के तहत आवेदन किया तो मुझे जवाब मिला कि मांगी गई जानकारी गोपनीय प्रकृति की है और इस से जुड़े खुलासे का सीधा असर सुरक्षा और सामरिक हितों पर होगा. मार्च में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने एक साक्षत्कार में बताया कि यदि भारत सरकार विपक्ष के साथ ऐसी जानकारी साझा करती है जो बताई जा सकती है तो उन्हे कोई आपत्ती नहीं है. मार्च में ही, एक प्रकार के दैवीय हस्तक्षेप के चलते, डसॉल्ट ने 2017 की अपनी वित्तीय रिपोर्ट में खुद ही राफेल करार की कीमत का खुलासा कर दिया: 36 विमानों की कीमत है 55 हजार करोड़ रुपए याने 7 अरब 40 करोड़ डॉलर.

अगस्त में भारतीय जनता पार्टी के दो पूर्व मंत्री अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा और प्रख्यात अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने एक प्रेस कॉन्फ्रेन्स में इस समझौते को बड़ा घोटाला, विशेषाधिकारों का भयानक दुरुपयोग और भीषण आपराधिक कृत करार दिया और इसकी जांच की मांग की थी. उनका कहना था कि दुरुपयोग की जबरदस्त प्रकृति को देखते हुए यह देश की सुरक्षा को दावं पर लगाने जैसा है.

दोनों समझौतों में कीमतों और शर्तों पर पूरी तरह से स्पष्टता न होने के बावजूद राफेल मामले में अब तक जो कुछ भी सामने आया है वह इस समझौते की गंभीर जांच के लिए पर्याप्त आधार देता है. असल समझौते के रद्द किए जाने से पहले इस बात की सहमति थी कि 126 जेट विमानों में से 18 की खरीद सीधे डसॉल्ट से होगी और शेष 108 विमानों का निर्माण डसॉल्ट की देखरेख में एचएएल करेगा. इसका फायदा यह होता कि ये बेशकीमती तकनीक भारत को हासिल हो जाती. अब नए करार में पुनर्निवेश की शर्त के बावजूद, डसॉल्ट सभी 36 विमान फ्रांस में बनाएगा. नए करार में प्रोद्योगिकी हस्तांतरण का कोई उल्लेख नहीं है.

हैरान करने वाली बात है कि भारत ने एक ऐसा बड़ा मौका हाथ से जाने दिया जिससे घरेलू रक्षा निर्माण को फायदा मिलता. इससे अजीब क्या होगा कि ऐसा खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देखरेख में हुआ. वर्तमान सरकार ने मेक इन इंडिया अभियान के स्वदेशी निर्माण को बढ़ावा देने के प्रयासों के तहत, विशेष रूप से विदेशी निवेश और साझेदारी के जरिए, रक्षा निर्माण को बहुत महत्व दिया है. लेकिन मोदी ने अपनी ही पहल पर, उनके अधिकारियों की हैरान प्रतिक्रियाओं को यदि सही माने तो, सार्वजनिक रक्षा निर्माण कंपनी के हाथों से शायद इतिहास के सबसे बड़े रक्षा सौदे को छीन लिया और उसके बदले ऐसा करार किया जिससे आगे चलकर निजी कंपनी को ही फायदा होगा.

(कारवां के सितंबर 2018 अंक में प्रकाशित कवर स्टोरी का अंश. पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें.)