Thanks for reading The Caravan. If you find our work valuable, consider subscribing or contributing to The Caravan.
नरेन्द्र मोदी 2014 में पिछड़ी जाति का होने का ढिंढोरा पीट कर प्रधान मंत्री बने. वे खुद को अन्य पिछड़ी जाति का प्रतिनिधि बता रहे थे. कईयों ने इस दावे की गहराई में जाए बिना ही स्वीकार कर लिया. मोदी के जाति समूह, गुजरात के मोध घांची, पर गहरी नजर डालें तो उनके इस दावे को हमें शक की नजर से देखना चाहिए.
ऐतिहासिक रूप से मोध घांची खाने का तेल बनाने और बेचने का व्यापार करते आए हैं. हाल के वर्षों में वे किराने की दुकानें भी चलाने लगे हैं. यह उन्हें अन्य शूद्र जातियों से साफ तौर पर अलग करता है, जो अधिकांशत: खेती और मजदूरी का काम करते है. ब्राह्मणवादी सोच की नजर में एक नीच काम.
वर्ण व्यवस्था पेशे से निर्धारित होती है और इसके अनुसार व्यापार करने वाले लोग तीसरे स्थान पर वैश्य जाति का हिस्सा हैं.
मोध घांची समुदाय की व्यापारिक गतिविधियों में हिस्सेदारी उनके वैश्य होने की निशानी है. उन्हें गुजरात में नीच जाति नहीं समझा जाता. समुदाय की शाकाहारी आदतें भी उनके वैश्य होने की तरफ इशारा करती हैं न कि शूद्र. मोध घांची पारंपरिक रूप से साक्षर होते हैं, जैसा कि व्यापारियों को होना चाहिए. उनके शूद्र न होने का यह एक अन्य संकेत है. जाति के नियमों के अनुसार शूद्रों पर लिखने-पढ़ने की पाबंदी है और इस नियम का उल्लंघन करने पर सख्त सजा के प्रावधान हैं. जब पहली बार मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं, मोध घांची इस सूची में नहीं थे. गुजरात सरकार ने उन्हें अन्य पिछड़ी जाति का दर्जा 1994 में दिया और केंद्र सरकार ने 1999 में उन्हें इस सूची में शामिल किया. इसके दो साल बाद मोदी गुजरात के मुख्य मंत्री बने. राज्य के 2002, 2007 और 2012 के विधान सभा चुनावों में मोदी ने खुद को पिछड़ा दिखाने में कोई फायदा नहीं समझा. तब उन्होंने खुद को एक बनिए के रूप में पेश किया. चूंकि बनिया समुदाय देश का अब तक का सबसे ताकतवर औद्योगिक और व्यापारिक समुदाय है, उसने मोदी को अपने में से ही एक माना और उनका स्वागत दोनों बाहें फैला कर किया. यह सिर्फ 2014 के आम चुनावों के दौरान हुआ कि मोदी को अचानक अपने पिछड़े होने का ख्याल आया.
नरेन्द्र मोदी एकमात्र ऐसे भाजपा नेता नहीं हैं जिन्होंने पिछड़े होने की श्रेणी का सामरिक इस्तेमाल किया है. सुशील कुमार मोदी, जो अब बिहार के उप मुख्यमंत्री हैं, एक बनिया परिवार में जन्मे जिसे अब अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल कर लिया गया है. कई राज्यों, खासकर उत्तर भारत में, बनियों के कुछ तबकों ने खुद को इस सूची में डलवाने में सफलता हासिल की है. यह एक रहस्य ही है कि कैसे इन समुदायों ने खुद को इस सूची में शामिल करवा लिया, जबकि वर्ण, संपत्ति, पेशे, और साक्षरता के हिसाब से ये समुदाय इस श्रेणी में नहीं आते. बनियों को एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनाने के पीछे यह एक चुनावी रणनीति भी हो सकती है.
सभी शूद्रों की इससे आंखें खुल जानी चाहिए. ओबीसी श्रेणी उन लोगों के लिए बनाई गई थी जो वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर थे ताकि उनके असल सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को संबोधित किया जा सके. लेकिन कुछ समूह इसे अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. शूद्रों को इस भुलावे में रखा जाता है कि उनका नेतृत्व वे नेता और पार्टियां कर रही हैं जिनका उनकी परेशानियों, हितों और संस्कृति से कोई सीधा संबंध नहीं है और इसी वजह से वास्तविक शूद्रों के प्रतिनिधियों को सत्ता से दूर रखा जाता है.
शूद्रों के बीच एक समतुल्य रुझान देखने को मिलता है, जिसमे अंत: वर्ण वर्गीकरण में नीचे के स्तर पर कुछ जातियां अनुसूचित जातियों का दर्जा चाहती हैं ताकि उसके साथ आने वाले सरकारी फायदे उन्हें भी मिल सकें. उनके दावों को विवेचनात्मक नजरिए से देखने की जरूरत है, खासकर दलितों के, ताकि दलित जातियों पर शूद्रों की ताकत को थोपने से बचाया जा सके. शूद्रों के दलितिकरण के रूप में जो उच्च शूद्रों में बिल्कुल उल्टी दिशा में संस्कृतिकरण की तरफ जा रहा है, यह जरूरी हो जाता है कि इससे जातिगत टकराव न बढ़ें बल्कि इसका इस्तेमाल जाति के खिलाफ संघर्ष में एकजुटता बढ़ाने के लिए हो.
मोदी के नेतृत्व में 2014 में बीजेपी की जीत का मतलब था कि राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था पर अब बनिए काबिज हो चुके थे. मोदी का समर्थन बनिए उद्योगपति जैसे गौतम अडानी और अंबानी कर रहे थे और उनकी सरकार भी बदले में उन्हें बढ़ावा दे रही थी. मोदी के नंबर दो आदमी अमित शाह, को भाजपा का अध्यक्ष बना दिया गया जिसका मतलब था कि अब बनिया एक सत्तारुढ़ पार्टी का सर्वोसर्वा था. अगर भाजपा पहले एक “ब्राह्मण-बनिया” पार्टी के रूप में मशहूर थी तो अब उसने खुद को एक “बनिया-ब्राह्मण” पार्टी के रूप में स्थापित कर लिया है.
इस योजना में शूद्रों की स्थिति को समझने के लिए हम एम वेंकैया नायडू के साथ किए गए बर्ताव को देख सकते हैं जिन्हें 2017 में कई महत्वपूर्ण कैबिनेट पदों से इस्तीफा देने को मजबूर किया गया और उपाध्यक्ष के औपचारिक पद तक सीमित कर दिया गया. आज वे सरकार में सबसे प्रमुख शूद्र चेहरे के रूप में अपनी भूमिका तो निभा रहे हैं लेकिन उनसे तमाम शक्तियां छीन ली गई हैं. या हम इसकी मिसाल एन चंद्रबाबू नायडू, आंध्र प्रदेश के शूद्र मुख्यमंत्री, में भी देख सकते हैं. उन्होंने भी 2014 में नई सरकार की खूब बढ़-चढ़कर पैरवी की थी जिसके बदले में उनके राज्य को विशेष दर्जा दिए जाने का वादा किया गया था. लेकिन सत्ता में एक बार काबिज हो जाने के बाद मोदी-शाह ने अपना वादा नहीं निभाया और उन्हें भी दुत्कार दिया. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कुछ ऐसा ही करार, मोदी-शाह के साथ किया और अब वे भी बेइज्जत होने की कतार में हैं.
(द कैरवैन के अक्टूबर 2018 अंक में प्रकाशित कवर स्टोरी का अंश. पूरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)