पहचान को लेकर संघर्ष से जूझ रही एक मुस्लिम महिला के रूप में, मैंने इस धारणा के आधार पर विकास क्षेत्र में शामिल होने का फैसला किया कि यह एक समतावादी जगह है जहां मैं उन लोगों में से हूंगी जो वास्तव में कमजोर समुदायों के लिए संरचनात्मक समानता की परवाह करते हैं. हकीकत में, मुझे एक भ्रामक पाखंड का पता चला जहां सामाजिक-न्याय के मुद्दों पर काम करने के बावजूद, मेरे आसपास के कई लोगों की राजनीति इनके उद्देश्यों से जुड़े सिद्धांतों से दूर रही. एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो अपनी धार्मिक पहचान को चिन्हों के जरिए उजागर नहीं करना चाहता है, मेरा अनुभव "मुस्लिम की तरह न दिखने" के बारे में कथित सहज टिप्पणियों से लेकर उन स्थितियों तक था जहां लोगों ने साफ-साफ अपनी मुस्लिम विरोधी मानसिकता जाहिर की थी. जवाब में मैंने चीमड़ हो जाना, काम करती रहने के लिए अनसुना करना सीख लिया.
2018 में भारत के सामाजिक क्षेत्र में अनुभव रखने वाले प्रोजेक्ट मैनेजर और सार्वजनिक नीति पेशेवर बेन्सन नीतिपुडी ने द वायर में बताया कि कैसे भारत के विकास क्षेत्र में विविधता की समस्या थी. "यह विशेष रूप से निराशाजनक है कि हालांकि यह क्षेत्र हर समय दलित, बहुजन और आदिवासी समुदायों के साथ काम कर रहा है लेकिन उन समुदायों के पेशेवरों को इस क्षेत्र और इसके निर्णय लेने में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है." उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर बहुत कम चर्चा हुई. उन्होंने लिखा, "इसे ठीक करने की कोई भी कोशिश इस बात की जांच करके शुरू करनी होगी कि इस क्षेत्र में आने वाले उम्मीदवारों के लिए बनी पाइपलाइन अनजाने में उन सामाजिक समूहों के लोगों को कैसे बाहर कर देती है जो ज्यादातर इसी के घटक हैं." इस विषय पर उपलब्ध अध्ययन बहुत कम हैं. एक अध्ययन में, वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता बी कार्तिक नवायन ने अपने कर्मचारियों में सामाजिक विविधता के संबंध में विकास क्षेत्र के 34 संगठनों का एक छोटा अध्ययन किया था. केवल दस ने जवाब दिया. तीन ने जानकारी दी, जिनमें से दो नाकाफी थीं; बाकी ने जवाब दिया कि वे सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत नहीं आते.
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के एक वरिष्ठ फेलो पार्थ मुखोपाध्याय ने इस कम प्रतिनिधित्व के लिए दो कारण बताए: इस क्षेत्र में नौकरी पाने के लिए जरूरी डिग्री और योग्यता तक पहुंच की कमी और विकास क्षेत्र में ज्यादातर नौकरियों की कम भुगतान वाली प्रकृति. उन्होंने मुझसे कहा कि कम भुगतान के चलते "इन नौकरियों के लिए कम प्रोत्साहन मिलता है, भले ही आप उसकी जरूरतों को पूरा करते हों," खासकर परिवार चलाने जैसी जिम्मेदारियों के साथ- जो कि पहली पीढ़ी के ज्यादातर शिक्षार्थियों के लिए सच है.
मानवाधिकार, समानता और लैंगिक न्याय पर काम करने वाली दूसरी पीढ़ी की दलित-नारीवादी कार्यकर्ता प्रियंका सैमी ने मुझे बताया, “ज्यादातर संगठनों में, आप देखेंगे कि जमीन पर काम करने वाले लोग हाशिए पर रहने वाले समुदायों से होंगे. लेकिन शीर्ष नेतृत्व, यहां तक कि सामाजिक-न्याय आंदोलनों के भीतर भी, जो अधिकारों और हकों तक पहुंच पर काम कर रहे हैं, बहुमत कुलीन सवर्ण पृष्ठभूमि से होगा.” अनुदानदाता संगठनों के साथ मिल कर काम करने के बाद, सैमी ने कहा कि प्रतिनिधित्व की इस तरह की कमी से इस बात पर असर पड़ता है कि "संसाधन कैसे इस्तेमाल होते हैं और किस तरह के काम को और किस समूह के लोगों को वित्त पोषित किया जाता है." विविधता, समानता और समावेशन पहल को आगे बढ़ाने के लिए संगठनों में हालिया दबाव के बावजूद-वास्तविक प्रणालीगत परिवर्तन अभी भी एक दूर की कौड़ी है. हालांकि कागजों में यह राजनीतिक शुद्धता का अस्पष्ट पालन सुनिश्चित कर सकता है लेकिन संगठनात्मक संस्कृति के भीतर वास्तविक परिवर्तन अभी तक नहीं देखा गया है.''