We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing
हिंदुस्तान में घुमंतू समुदायों की आबादी लगभग 10 फीसदी है यानी 13 करोड़ से अधिक, लेकिन पिछले 70 सालों में सरकारों की नीतिगत शून्यता और संस्थागत विफलता ने इस समाज की परेशानियों को चरम पर पहुंचा दिया है. इस रिपोर्ट के पहले हिस्से में मैंने जारी कोरोना लॉकडाउन का भारत के अलग-अलग हिस्सों के घुमंतू समुदायों पर पड़ रहे असर के बारे में लिखा था. लेकिन उनकी हालत सिर्फ लॉकडाउन के चलते खराब नहीं हुई है बल्कि उनकी स्थिति में गिरावाट दशकों से जारी है जिसके चलते यह समाज हर मामलों में भारत के अन्य समुदायों से बहुत ज्यादा पिछड़ गया है. इस समाज की अवहेलना के लिए एक या दो सरकारें नहीं बल्कि आजाद भारत की तमाम सरकारें दोषी हैं.
ब्रिटिश सरकार ने 1871 में आपराधिक जनजाति अधिनियम बनाया था जिसके तहत घुमंतू समुदायों को जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया गया था. इनके पारंपरिक कामों पर रोक लगा दी गई थी और इनकी स्वतंत्र चहलकदमी को प्रतिबंधित कर दिया गया था. होता यह था कि इन्हें नजदीक थानों में जाकर हाजिरी लगानी पड़ती थी.
भारत को 1947 में आजादी मिली किंतु घुमंतू समुदायों को 31 अगस्त 1952 को इस कानून से मुक्त किया गया. लेकिन मुख्य भारत से पांच साल की देरी से मिली आजादी भी झूठी निकली. भारत सरकार ने इनके सर दूसरा अधिनियम बांध दिया यानी अभ्यस्त अपराधकर्ता अधिनियम, जो पहले वाले कानून से थोड़ा हल्का है लेकिन अंग्रेजो वाले भेदभाव को जारी रखता है. यह कानून आज तक लागू है. भारत सरकार ने 1972 में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम पारित किया जिसके बाद सांप पकड़ने, भालू और बंदर का खेल दिखाने तथा जोंक रखने पर रोक लगा दी गई. जंगल की बाड़बंधी कर दी गई और जंगल के अंदर प्रवेश करने पर रोक लग गई. मेडिकल प्रैक्टिशनर अधिनियम, क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट कानून, ड्रग एंड कॉस्मेटिक कानून और अन्य कानून इनके जड़ी बूटियों के प्रयोग तथा चिकित्सा के इनके परंपरागत तरीकों को अवैध बनाते हैं. 1982 में नट के रस्सी पर करतब दिखलाने पर रोक लगा दी गई. 1995 में बंजारों को नमक बेचने से रोक दिया गया.
2005 में यूपीए सरकार ने रैनके आयोग का गठन किया था जिसके अध्यक्ष बालकृष्ण रैनके थे. इस आयोग का कार्य घुमंतू समुदायों की स्थिति का पता लगाना और उनके उत्थान हेतु सुझाव देना था. इस आयोग ने 2008 में अपनी रिपोर्ट तत्कालीन केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय को सौंपी. 2009 से लेकर 2014 तक केंद्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन या यूपीए की सरकार थी लेकिन उस रिपोर्ट को संसद के पटल पर बहस के लिए नहीं रखा गया. 2014 में केंद्र में सरकार बदल गई और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या एनडीए की सरकार बनी. नई सरकार ने जनवरी 2015 में भीखूराम इदाते की अध्यक्षता में एक नए आयोग का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट 2019 में सौंप दी. इदाते आयोग ने अपनी रिपोर्ट का आधार रैनके आयोग की रिपोर्ट को बनाया था लेकिन दोनों आयोग सरकारी समय और संसाधन की बर्बादी साबित हुए.
2019 के बजट में केंद्र सरकार ने एक नया आयोग और राज्यों में घुमंतू बोर्ड बनाए जाने की घोषणा की और नीति आयोग के अंतर्गत घुमंतू समुदायों के उत्थान हेतु एक पद सृजित कर उसका अध्यक्ष भीखूराम इदाते को बना दिया.
किंतु आज तक ना नीति आयोग ने कुछ किया और ना इदाते ने. लॉकडाउन के दौरान मैंने इदाते को फोन किया, तो इदाते ने सरकार को जिम्मेदारी से मुक्त करते हुए दावा किया, “घुमंतुओं के उत्थान का काम समाज को करना चाहिए, इसमें सरकार क्या कर सकती है?” मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने आज तक नीति आयोग, केंद्र सरकार को क्या सुझाव दिए हैं, तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.
राज्य सरकारों की स्थिति भी केंद्र से बेहतर नहीं है. मिसाल के लिए, राजस्थान की पिछली गहलोत सरकार ने घुमंतू बोर्ड बनाया था जिसका बजट पचास लाख रुपए रखा था. उसके बाद वसुंधरा राजे सिंधिया की सरकार बनी. उन्होंने एक बोर्ड बना कर अध्यक्ष और सदस्य नियुक्त कर दिए. अध्यक्ष को राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया. किंतु उस बोर्ड के लिए बजट आवंटन नहीं किया गया. अब राजस्थान में फिर से गहलोत सरकार सत्ता में है किंतु बोर्ड की स्थिति का कुछ पता नहीं है.
राजस्थान सरकार ने लॉकडाउन के एक महीने पहले अपना वार्षिक बजट पेश किया. राजस्थान की कुल जनसंख्या लगभग सात करोड़ है जिसमें घुमंतू लोगों की आबादी लगभग 60 लाख है. फिर भी इस आबादी के लिए बजट में एक भी प्रावधान नहीं है.
इस बजट के ठीक दो महीने पहले प्रख्यात भाषाविद गणेश देवी ने मुख्यमंत्री गहलोत को चिट्ठी लिख इस बारे में सुझाव दिए थे लेकिन मुख्यमंत्री ने बजट में उनके लिए प्रावधान नहीं किया. यदि इनके लिए कार्यक्रम बनते तो आज घुमंतू समाज की लाखों महिलाएं देह व्यापार के कगार पर बैठी ना होतीं.
अन्य राज्यों में भी घुमंतू बोर्डों की यही स्थिति है. बिहार व उत्तर प्रदेश सहित अधिकांश राज्यों में घुमंतू बोर्ड नहीं हैं और हरियाणा जैसे राज्य में जहां ये बोर्ड हैं वहां उन्हें बजट आवंटन नहीं दिया गया है.
मध्य प्रदेश में 61 घुमंतू समुदाय हैं जिनकी आबादी 70 लाख के करीब है. मध्यप्रदेश सरकार ने अपने बजट में घुमंतू समुदायों को कुछ नहीं दिया. बिहार और उत्तर प्रेदेश राज्यों में इन समुदायों की जनसंख्या 50 लाख से ज्यादा है किंतु वहां भी बजट में कोई प्रावधान नहीं हैं और ना कोई उत्थान का कार्यक्रम है. केरल को छोड़कर सभी राज्यों की यही हालत है.
राजस्थान और मध्य प्रदेश के इन 10 फीसदी लोगों के पास बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) राशन कार्ड तक नहीं हैं. इनके बुजर्गों और विधवा महिलाओं को पेंशन नहीं मिलती. कानूनन प्रावधान है कि जहां भी 150 से ज्यादा लोगों की बस्ती हैं वहां आंगनबाड़ी केंद्र होना चाहिए. इनके टोलें में 150 से ज्यादा सदस्य रहते हैं लेकिन इनके टोलों में एक भी आंगनवाड़ी नहीं हैं.
हिंदुस्तान भर में आदिवासियों के लिए खास स्कूल हैं लेकिन घुमंतू समुदायों के लिए एक भी समर्पित स्कूल नहीं है जबकि हिंदुस्तान में 1200 से ज्यादा घुमंतू समुदाय हैं जो ज्ञान के खास प्रकार हैं, जीवन के अलग-अलग नजीरिए हैं. इनकी अपनी अलग भाषा, रीति-रिवाज और जीवन शैली हैं. ये असाधारण लोग हैं.
अकेले अजमेर जिले में घुमंतू समुदायों के 12 हजार से ज्यादा बच्चे स्कूलों से बाहर हैं. 2018 में एक अध्ययन के दौरान मैंने और मेरे साथियों ने इन आंकड़ों को तत्कालीन राज्य सरकार को भेजा था. जिला अधिकारी को भी बताया था. जब कुछ नहीं हुआ तो उच्च न्यायलय को चिट्ठी भी लिखी. वह चिट्ठी जिला लीगल अथॉरिटी के पास आई और 2019 में हमें बताया गया कि हमारी चिट्ठी पर काम हो गया है और पता चला है कि बच्चे ही स्कूल नहीं जाना चाहते. अकेले राजस्थान में 6 लाख घुमंतू बच्चे स्कूल से बाहर हैं. अनुमान है कि पूरे भारत में यह आंकड़ा 80-85 लाख के पास पहुंचता है.
अकेले राजस्थान में 90 फीसदी घुमंतू लोग बीपीएल राशन कार्ड की श्रेणी से बाहर हैं. यही हालत मध्य प्रेदेश समेत उत्तर प्रेदेश, बिहार और महाराष्ट्र की है. इनके पास जमीन का पट्टा ना होने और स्थायी आवास ना दिखा पाने से जाति प्रमाण पत्र नहीं बनता. बिना जाति प्रणाम पत्र के इनको सरकारी सुविधाओं का लाभ भी नहीं मिलता. राजस्थान में पिछले डेढ़ सालों में घुमंतू समुदायों को दस जिलों से उजाड़ा गया है. कभी गोचर भूमि का हवाला देकर तो कभी सरकारी जमीन का नाम लेकर. इन उजाड़े गए तंबुओं की संख्या 10 हजार से भी ज्यादा है. एक तंबू में सामान्यतः 12-15 लोग रहते हैं यानी कि 1 लाख से ज्यादा लोगों को उजाड़ गया है.
राजस्थान सरकार के कला एवं संस्कृति मंत्रालय ने कोरोना संकट से उभरने हेतु राजस्थान के लोक कलाकारों को मदद देने हेतु एक योजना निकाली हैं. मुख्यमंत्री लोक कलाकार प्रोत्साहन योजना. जिसके तहत ग्रामीण लोक कलाकार को सहायता के रूप में 2500 रुपए दिए जाएंगे. इस योजना में कहा गया है कि ग्रामीण लोक कलाकार को 15 से 20 मिनट का वीडियो बनाकर अपनी ईमेल आईडी से भेजना होगा.
इस योजना को बनाने वालों ने यह भी नहीं सोचा कि गांवों में रहने वाले लोक कलाकार 15 से 20 मिनट का वीडियो कैसे बनाएंगे? यदि किसी की मदद से बनवा भी लिया तो इतनी बड़ी फाइल भेजेगा कैसे? ईमेल से इतनी बड़ी फाइल नहीं जा सकती लेकिन गाइडलाइंस में साफ-साफ लिखा है कि अपनी ईमेल आईडी से भेजें. राजस्थान के 98 फीसदी लोक कलाकार अनपढ़ हैं जो नाम तक लिखना नहीं जानते. इसके अलावा लॉकडाउन में ई-मित्र सेवा भी बंद थी.
योजना में कहा गया है कि जहां तक संभव हो एकल परफॉरमेंस हो और सोशल दूरी का पालन किया जाए. लोक कला में ऐसी कितनी परफॉर्मिंग आर्ट हैं जो 10-20 लोगों के बगैर संभव नहीं हैं. कर्फ्यू और लॉकडाउन में इतने लोग एकत्रित कैसे होंगे? यदि चोरी से एकत्र हो भी गए तो सामाजिक दूरी का पालना करना होगा और स्टेज कम से कम 100 मीटर का बनाना होगा. इतना बड़ा स्टेज कैसे बनेगा?
सबसे जरूरी कि बात जिन परफॉर्मिंग कलाओं में कलाकारों का जमघट बनाना पड़ता है, वे सीधे-सीधे इस योजना से बाहर हो गए हैं क्योंकि यदि करेंगे तो सामाजिक दूरी के उल्लंघन में जेल जाएंगे और यहां सेलेक्ट भी नहीं हो पाएंगे. उदहारण के तौर पर जो आदिवासी अपने लोक नृत्य में मगरमच्छ-शेर की आकृति बनाते हैं, माता को विराजमान दिखाते हैं, वे लोग इस कला का प्रदर्शन कैसे करेंगे? उनके ये लोक नृत्य सदियों से चले आ रहा हैं. बेड़िया घुमंतू जाति राई लोक नृत्य करती है. उस नृत्य में 10-12 लोग घेरा बनाते हैं. उस घेरे में वे नृत्य करते हैं क्योंकि उस नृत्य के स्टेप्स उस घेरे पर टिके हैं. ऐसे ही कालबेलियों के नृत्यों में भी होता है.
कहा गया है कि योजना ग्रामीण लोक कलाकारों के लिए है. लोक कलाकार का कोई भूगोल तो है नहीं, तो यह कैसे तय होगा कि कौन सी लोक कला ग्रमीण है और कौन सी शहरी? इस योजना से होगा यह कि जो लोक कलाकार शहरी क्षेत्रों के होटलों में कला का प्रदर्शन कर अपना गुजारा चलाते हैं और शहर का आधार कार्ड रखते हैं, उनको योजना का लाभ नहीं मिलेगा. अनुमान है कि अकेले जयपुर में 10 हजार से ज्यादा लोक कलाकार होटल और टूरिस्ट स्थानों में अपनी कला से कमाकर खाते हैं. जैसलमेर, जोधपुर इत्यादि सभी शहरी क्षेत्र इस योजना से बाहर हैं. यहां तक कि बांदीकुई जैसे क्षेत्र को शहरी क्षेत्र माना हैं.
हिंदुस्तान के इतिहास में आज तक ऐसा नहीं हुआ है कि कोई योजना चल रही हो जिसकी ना कोई शुरुआत की तारीख हो और ना अंतिम दिन का पता हो. यह पहली ऐसी अनूठी योजना हैं. जिसमें कहीं कोई तारीख का जिक्र तक नहीं हैं. कब तक चलेगी? कब तक अप्लाई कर सकते हैं? यह प्रोत्साहन योजना कम और प्रतिस्पर्धा ज्यादा लग रही है. जो कलाकार नहीं जीत पाएगा वह योजना से बाहर हो जाएगा.
लॉकडाउन की मुश्किल घड़ी में राजस्थान सरकार घुमंतू लोक कलाकारों की मदद सीधे-सरल तरीकों से भी कर सकती है. मिसाल के लिए, इस काम में जवाहर कला केंद्र का बजट लगाया जा सकता है क्योंकि अभी एक वर्ष तक तो यहां कार्यक्रम होंगे नहीं, इसलिए इस पैसे को लोक कलाकारों में बांट दिया जाना चाहिए.
उधर मध्य प्रेदेश सरकार के कला एवं संस्कृति मंत्रालय ने भी इन समाजों के लिए कुछ नहीं किया और ना ही लोक कला को समर्पित विश्व प्रसिद्ध भारत भवन ने कुछ किया जबकि वे अपने इस साल के बजट को लोक कलाकारों को दे सकते थे क्योंकि लोक कलाकारों में 80 फीसदी लोग घुमंतू समुदायों से ही संबंधित लोग हैं.
भारत सरकार के अंतर्गत छह जोनल केंद्र हैं. जैसे पश्चिमी सांस्कृतिक केंद्र उदयपुर में है. ऐसे ही एक इलाहाबाद में हैं. इनका काम कला एवं संस्कृति को सहेजना, लोक कला को बचाना, उसे संरक्षित करना, आगे बढ़ाना और लोक कलाकारों के हितों का संरक्षण करना है. किंतु ऐसा करना तो दूर रहा, लॉकडाउन और उसके बाद किसी जोनल केंद्र ने ना कोई मदद का कार्यक्रम चलाया है और ना ही कोई हेल्पलाइन नंबर जारी किया.
इस तरह राजस्थान और मध्य प्रदेश के शिल्प एवं माटी कला बोर्डों ने इस संकट के समय माटी और शिल्प पर आश्रित समुदायों के लिए कुछ नहीं किया. मिट्टी का काम केवल कुम्हार ही नहीं करते बल्कि उनके अलावा भी ऐसे समुदाय हैं जो बिना चाक की मदद से मिट्टी का काम करते हैं. राजस्थान में ऐसे लोग मानसून से पहले और मानसून के बाद माटी का त्योहार मनाते हैं. ये समुदाय हैं : कुचबंदा, गिलारा, तुरी और अन्य.
यह समय सरकार के लिए बड़ी संभावना भी लेकर आया था. इस समय उस ज्ञान को सहेजने का उसके पास सुनहरा अवसर था क्योंकि सभी लोग अपने घरों में थे और सरकारें आसानी से उनकी कलाओं को एकत्र कर सकती थीं. इसी के जरिए इन लोगों को संबल देने का अवसर था. उन कलाकारों से तसल्ली से काम करवाया जा सकता था. यहां किसी तरह की हड़बड़ी या जल्दबाजी नहीं थी. इससे कलाओं को भी मरने से बचाया जा सकता था. यह एक अजीब विडंबना है कि जब कला मर रही होती है तब उस पर कोई बात नहीं करता लेकिन जब कला मर जाती है तो उसे बचाने के लिए बड़े टेंडर जारी होते हैं. जिसे “डाइंग आर्ट्स” को बचाना कहा जाता है. यह समय इन मृतप्राय कलाओं को जिंदा करने का था, उन्हें सहेजने का था लेकिन सरकारी संस्थाओं और सरकारों ने यह अवसर गंवा दिया.
राजस्थान सरकार ने अगले दो महीनों के लिए राशन सहायता हेतु एक पत्र जारी किया है जिसमें बाकायदा समाजों के नाम लिखकर कहा गया है कि अगले दो महीनों तक इन लोगों को पांच किलो अनाज और एक किलो चना मिलेगा. उसमें किसी घुमंतू समुदाय का नाम या घुमंतू शब्द का जिक्र तक नहीं था. मेरी रिपोर्ट छपने के बाद उस पत्र में घुमंतू शब्द जोड़ा गया किन्तु जरूरी कागजात के अभाव में अधिकांश घुमंतू लोगों को राशन नहीं मिल रहा. राजस्थान में ये समुदाय भुखमरी के कगार पर आ गए हैं. जोधपुर, जैसलमेर, जालौर, बारां, पाली, टोंक ओर अजमेर ऐसे तमाम जिलों से जो खबर आ रही हैं वे बहुत परेशान करने वाली हैं. लॉकडाउन के दौरान भी इन जिलों की हालत को मैंने व्यक्तिगत तौर पर जाकर देखा था. यहां केवल एक-दो उदाहरण बता रहा हूं.
जोधपुर के सुगनाराम भोपा की बस्ती, कालबेलियों की बस्ती और बंजारों की बस्ती से निरंतर सूचना मिल रही थी हालत गंभीर हैं. जब मैंने वहां जाकर देखा तो पाया कि चूल्हा जले दिन बीत जा रहे थे. मैंने जब बीडीओ, एसडीएम और डीएसओ को फोन किया तो फोन बंद थे. कलेक्टर ने फोन नहीं उठाया. कलेक्टर को व्हाट्सअप भेजा. कलेक्टर ने उसे पढ़ा लेकिन कोई रिप्लाई नहीं किया, कोई सहायता नहीं भेजी. आधिकारिक वेबसाइट पर बताए गए नंबर भी बंद थे. फिर संभाग कमिश्नर को फोन किया तो जाकर उनको राशन मिला.
जयपुर में बस्सी, सांगनेर और बिलुवा फाटक के पास हजारों की संख्या में घुमंतुओं के डेरे हैं. पूरे लॉकडाउन में सरकर की ओर से यहां कोई राशन नहीं पहुंचा. पहले 30 दिन तो इन लोगों ने सुबह-शाम मंदिर से मिलने वाली खिंचड़ी खाकर बिताए. इन लोगों ने मुझे बताया कि सरकार के हेल्पलाइन 181 नंबर पर कॉल करने से कोई जवाब ही नहीं मिला. जब कभी उन लोगों ने नाम नोट भी कर लिए तो भी सप्लाई नहीं आई.
जैसलमेर की तपती रेत में 45-48 डिग्री तापमान पर घुमंतू लोगों को रोक कर रखा उन्होंने दो महीने कैसे जीवन जिया यह सोचने वाला सवाल हैं. ना पानी, ना पेड़ और ना कोई पक्का मकान. वे लोग सर्दी के मौसम में वहां जाते हैं क्योंकि इस दौरान वहां पर्यटक आते हैं. वे वहां से मार्च में लौटते हैं. बाड़मेर में सिणधरी तहसील में भाटों के वास में घुमंतू टोले तंबू डालकर रह रहे हैं. उनको राशन मिलना तो दूर, हालत यह है कि ये लोग पिछले एक महीने से होदी का गंदा पानी पी रहे हैं.
50 साल के मंशी नाथ ने बताया कि लॉकडाउन लगने से पहले गांव वाले पानी दे देते थे लेकिन “लेकिन लॉकडाउन के इन दो महीनों में कुतों, बकरियों, गधों और हमने एक साथ सड़े हुए पानी से भरी होदी से पानी पिया है.” उन्होंने मुझे बताया, “लॉकडाउन खुलने के बाद भी हमें कोई गांव में घुसने नहीं देता. पहले-पहले यहां एक सामाजिक संस्था ‘उड़ान’, जो कमजोर समुदायों के उत्थान के लिए काम करती है, ने हमे पानी दिया लेकिन पिछले एक महीने से हमारी स्थिति बहुत खराब हो गई है.”
यहां तकरीबन हर घुमंतू समुदाय की यही स्थिति है. मैंने एसडीएम सिणधरी से इस बारे में बात की. उन्होंने फोन पर कहा, “ये लोग गोचर भूमि पर बैठे हैं, हम इनको पानी नहीं दे सकते.” घुमंतुओं के पास अपनी भूमि नहीं है. इनके डेरे तो सदियों से इसी भूमि पर लगते आए हैं.
भारत के घुमंतुओं का जीवन ऐसा हादसा बन गया है कि जिसमें जीते जी ही नहीं बल्कि मरने के बाद भी सुकून नहीं हैं. किसी भी व्यक्ति के मरने पर उसके धर्म और मान्यताओं के अनुसार उसका अंतिम संस्कार किया जाता है, यह अधिकार है. उच्चतम न्यायालय का भी मानना है कि भले ही वह व्यक्ति अपराधी रहा हो लेकिन उसे भी अपनी अंतिम यात्रा उसकी मान्यताओं के अनुरूप करने का अधिकार है.
लेकिन यह बात घुमंतुओं पर लागू नहीं होती. इनके पास शमशान भूमि नहीं होती इसलिए ये लोग जहां होते हैं वहां की शमशान भूमि में अपने मृतकों को दफनाते हैं. लेकिन गांव वाले अक्सर इन्हें अंतिम संस्कार करने नहीं देते जिसके चलते ये लोग मृत देह को लेकर इधर से उधर घुमते रहते हैं कई बार तो तीन-चार दिनों तक लेकर घुमते रहते हैं. ऐसे मामले एक या दो नहीं हैं बल्कि पिछले दो सालों में ही ऐसे सैंकड़ों मामले मेरे सामने आए हैं जिनमें जिला प्रशासन ने मृत देहों का अंतिम संस्कार करवाया.
यह स्थिति कालबेलियों, रंगा स्वामी और मुस्लिम कूचबंदा समुदाय के साथ ज्यादा त्रासदीपूर्ण हैं क्योंकि वे अपने मृतकों को दफनाते हैं. डूंगरपुर के 75 साल के जोरानाथ कालबेलिया का कहना है, “हम लोग जिंदा रहते हुए ही अपनी कब्र की व्यवस्था में लग जाते हैं. क्या करें कोई दफनाने नहीं देता. जब ऐसा होता है तो दूर गोचर भूमि, जहां कोई देखे ना, बिना कोई आवाज किए चुपचाप दफना देते हैं. यदि किसी को पता चल जाता है तो हमें कोई दफनाने नहीं देता. हम तो अपने लोगों को आंसू भी नहीं दे पाते. हमारे आंसुओं पर भी हमारा हक नहीं है.”
अभी कुछ दिनों पहले मैं शोध के सिलसिले में पाली जिला गया था. वहां मोग्या घुमंतू समुदाय की महिला मिश्रनी, जिसकी उम्र करीब 40-45 वर्ष थी, की मौत हो गई. उसके घर वाले उसके शव को नजदीक के शमशान लेकर गए, तो वहां के गांव वालों ने उस शमशान में उसका अंतिम संस्कार करने नहीं दिया. वे लोग दूसरे गांव ले गए और वहां भी मना कर दिया गया. उसके बाद वे उसे कंधे पर ही उठाए-उठाए तीसरे गांव ले गए और वहां भी मना कर दिया. अंत में वे उसे वापस अपने टोले में ले आए और अगले दिन उसके मृत शरीर को कलेक्टर दफ्तर में ले गए. जब प्रशासन उनकी मदद के लिए आगे आया तो गांव वाले नहीं माने और भारी विरोध का सामना करना पड़ा. शव को शाम को जंगल की भूमि में दफनाया गया किंतु वहां भी लोगों ने भारी विरोध किया. तीन दिन तक वहां पुलिस ने पहरा दिया. पूरे राजस्थान भर में सभी जातियों की अपनी शमशान भूमियां हैं किंतु घुमंतुओं के लिए कोई भूमि नहीं है.
राजस्थान के घुमंतू समुदाय वर्ष भर घुमते रहते हैं और साल के अंत में पुष्कर में एकत्र होते हैं. इसलिए पुष्कर का मेला इन समुदायों के मिलने का और अपना दुख-सुख साझा करने का एक अवसर था. यहीं से इनकी शादियां तय होती थीं, यहीं से इनकी सांस्कृतिक गतिविधियां तय होती थीं. पुष्कर मेला इस सामाजिक ज्ञान को अगली पीढ़ी को सीखाने और पीढ़ियों के सीखे हुए ज्ञान को सहेजने का एक अवसर था. घुमंतू अपने खास पशुओं को मेले के माध्यम से ही बेचते हैं. अर्थात यह मेला उनकी आर्थिक गतिविधियों का केंद्र भी है.
राजस्थान सरकार ने पुष्कर मेला इवेंट कंपनी को दे दिया और मेले के सारे इवेंट वे ही रखे गए जो उसको इनाम दिला सकते थे. मेले से घुमंतू समुदायों के कार्यक्रमों को हटा दिया गया. वहां विदेशी लोगों के लिए सिर पर साफा बांधने और दौड़ के कार्यक्रम आयोजित हुए और कॉलेज की लड़कियों से घूमर नृत्य करवाकर गिनीज बुक में नाम दर्ज करवाया गया.
मेले की परंपरा में ऊंटों पर नगाड़ा आता था. शाम को भोपा पाबूजी की फड़ बाचते थे. कालबेलिया लहरिया बजाते थे. इसी लहरिया से कालबेलिये लड़के-लड़कियां एक दूसरे को पसंद करते थे. यहां सभी अपनी जड़ी-बूटियां साझा करते थे. सभी समुदाय पशुओं का शृंगार करके लाते थे. उनकी प्रतियोगिता होती थी. पिछले वर्ष यह सब बंद कर दिया गया. ऊंट बिठाने वाली जगह को पक्का कर दिया गया और वहां हैलीपेड बना दिया गया. जंगल की बाड़बंदी कर दी गई. घुमंतू लोगों को मेला मैदान से बाहर कर दिया.
Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute