सिद्धू मूसेवाला : पतनशील सामंतवाद का प्रतिनिधि गायक

मूसेवाला का 29 मई को मानसा के नजदीक गांव जवाहरके में कत्ल कर दिया गया था. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के मुताबिक मूसेवाला के सिर, पैर, पेट और छाती पर 24 गोलियां लगी थीं. सौजन्य जसप्रीत सिंह

पंजाब के मानसा जिला के एक साधारण गांव मूसा में गमगीन लोगों के बीचो-बीच रोती और विलाप करती मां ने अपने मृत बेटे का जूड़ा बनाया; रोते हुए पिता ने बेटे को मैरून रंग की पगड़ी बांध कर उसका शादी का सेहरा सजाया. 5911 ट्रैक्टर के शौकीन मृतक पुत्र की अंतिम यात्रा ट्रैक्टर पर निकाली गई. पुत्र की तस्वीरों और हारों से सजे ट्रैक्टर पर सवार होकर माता-पिता ने पुत्र की अंतिम अरदास के लिए उमड़ी भीड़ के आगे हाथ जोड़े. पिता ने अपनी पगड़ी उतार कर लोगों का अभिनंदन किया और कहा, "मेरे पुत्र को इतना प्यार देने के लिए मैं आपका शुक्रगुजार हूं."

इस भावुक दृश्य को स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया ने बड़े स्तर पर कवर किया. इस दृश्य को देख कर हर आम-ओ-खास की आंखों से आंसू छलके, चाहे वह उस बेटे का फैन था या आलोचक.

यह अत्यंत दुखदाई दृश्य मशहूर पंजाबी गायक, गीतकार, रैपर और नेता सिद्धू मूसेवाला के अंतिम संस्कार के समय उसके पैतृक गांव मूसा का था. मूसेवाला को 29 मई को मानसा के नजदीक गांव जवाहरके में कत्ल कर दिया गया था. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के मुताबिक मूसेवाला के सिर, पैर, पेट और छाती पर 24 गोलियां लगी थीं. छाती में लगी गोलियां उसके फेफड़ों और जिगर में घुस गई थीं जिसके चलते अधिक खून बहने से उसकी मौत मौके पर ही हो गई थी. उसके साथ उसके दो साथी भी जख्मी हुए थे.

मूसेवाला की मौत के बाद पंजाब की आम आदमी पार्टी सरकार और राज्य के सुरक्षा प्रबंधों पर सवालिया निशान उठे. मूसेवाला की मौत से एक दिन पहले ही पंजाब की भगवंत मान सरकार ने राज्य के जिन राजनेताओं, डेरा प्रमुखों, सेवामुक्त सिविल और पुलिस अफसरों, तख्तों के जत्थेदारों और कुछ नामचीन हस्तियों समेत 424 लोगों की सुरक्षा में कटौती की थी उनमें सिद्धू मूसेवाला भी था. इस सुरक्षा कटौती के बाद पंजाब सरकार ने इसे वीआईपी कल्चर खत्म करने की ओर बढ़ाया गया कदम बता कर मीडिया में खूब प्रचार किया. जिनकी सुरक्षा में कटौती की गई थी मीडिया में उनके नाम भी उजागर हुए थे. आम आदमी पार्टी के कई नेताओं ने उन 424 लोगों के नाम सोशल मीडिया पर साझा भी किए थे. राज्य के डीजीपी का कहना था कि यह सुरक्षा कटौती ब्लूस्टार ऑप्रेशन की वर्षगांठ को ध्यान में रख कर पुलिस बंदोबस्त पुख्ता करने के लिए की गई थी. विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि सुरक्षा कम करते समय यह समीक्षा क्यों नहीं की गई कि किस व्यक्ति की सुरक्षा में कटौती की जानी चाहिए और किसकी में नहीं और यदि यह अस्थाई कटौती थी तो मीडिया में वाहवाही बटोरने की क्या जरूरत थी.

मूसेवाला को विधानसभा चुनावों के समय आठ सुरक्षाकर्मी मिले थे, चुनावों के बाद उसे चार सुरक्षाकर्मी दिए गए. वर्तमान कटौती के बाद मूसेवाला के पास दो सुरक्षाकर्मी रह गए थे. कत्ल वाले दिन उसके सुरक्षाकर्मी उसके साथ नहीं थे और न उस दिन उसने बुलेटप्रूफ जैकेट पहनी थी, न ही बुलेटप्रूफ गाड़ी में था.

मूसेवाला के कत्ल वाले दिन ही लॉरेंस बिश्नोई गैंग के सक्रिय सदस्य गोल्डी बराड़, जो फिलहाल कनाडा रहता है, ने इस कत्ल की जिम्मेवारी ली. गोल्डी के मुताबिक यह कत्ल बिश्नोई ग्रुप से जुड़े और बाद में अकाली दल के नेता बने विक्की मिडूखेड़ा के पिछले साल हुए कत्ल का बदला लेने के लिए किया गया था. मिडूखेड़ा के कत्ल में सिद्धू मूसेवाला के मैनेजर शरनप्रीत का नाम आया था जो फिलहाल ऑस्ट्रेलिया है. गोल्डी बराड़ का कहना है कि अपने मैनेजर को ऑस्ट्रेलिया भेजने में मूसेवाला का हाथ है और मूसेवाला को मिडूखेड़ा के कत्ल की जानकारी थी और वह इस कत्ल की साजिश का हिस्सा था. दिल्ली की तिहाड़ जेल से पंजाब पुलिस द्वारा प्रोडक्शन वॉरेंट पर गिरफ्तार कर पंजाब लाए गए लॉरेंस गैंग के प्रमुख लॉरेंस बिश्नोई द्वारा भी कई अहम जानकारियां मिली हैं. पुलिस के अनुसार लॉरेंस बिश्नोई ही इस पूरे घटनाक्रम का मास्टरमाइंड है, उसने पंजाब समेत अन्य राज्यों में गायकों, अदाकारों और कारोबारियों से फिरौती ली है. लॉरेंस बिश्नोई ने पुलिस को बताया कि वह तिहाड़ जेल से ही मोबाइल फोन पर सिग्नल ऐप के जरिए कनाडा बैठे गैंगस्टर गोल्डी बराड़ के संपर्क में था. पुलिस जांच में सामने आया है कि मूसेवाला को मारने की योजना जनवरी में बनाई गई थी पर उस समय विधानसभा चुनाव में वह मानसा विधान सभा क्षेत्र से कांग्रेस का उम्मीदवार था और हर समय उसके पास सुरक्षा कर्मी होते थे इसलिए हत्या नहीं हो सकी. दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार प्रियावर्त ऊर्फ फौजी, केशव कुमार और कशिश ने भी यह माना है कि वे गोल्डी बराड़ के संपर्क में थे. 3 जुलाई की रात को दिल्ली पुलिस ने दो अन्य आरोपितों को गिरफ्तार किया. इनमें से एक मूसेवाला को बिलकुल नजदीक से गोली मारने वाला शूटर अंकित है, जिसकी उम्र सिर्फ 18 साल है. दूसरा सचिन भिवानी है जिसने शूटरों को शरण दी थी. इनका भी संबंध बिश्नोई और गोल्डी बराड से बताया जा रहा है.

विक्की मिडूखेड़ा की हत्या बंबीहा गैंग द्वारा की गई थी और सिद्धू मूसेवाला को बंबीहा गैंग के नजदीक बताया जाता है. माना यह भी जाता है कि मूसेवाला द्वारा गाया गया ‘बंबीहा’ गीत, बंबीहा गैंग की शान में था. मूसेवाला की हत्या के बाद बंबीहा गैंग ने उसकी मौत का बदला लेने का भी ऐलान किया है. 20 जून को मूसेवाला की रेकी करने वाले संदीप केकड़ा की जेल में बंबीहा गैंग द्वारा पिटाई भी की गई.

मूसेवाला कत्ल मामले में हालांकि अभी पुलिस जांच चल रही है. पुलिस इस मामले को गैंगवॉर के रूप में देख रही है पर पंजाब सरकार द्वारा सुरक्षा कटौती को सार्वजनिक करने, पुलिस प्रशासन व इंटेलिजेंस एजेंसियों की नाकामी भी इसमें नजर आती है. मूसेवाला के प्रशंसक और उसके पिता इसे सियासी बदले से प्रेरित मानते हैं. उनका कहना है कि उनके बेटे की कामयाबी बहुतों से बर्दाश्त नहीं हो रही थी. उन्हें अब तक की पुलिस जांच से भी तसल्ली नहीं है.

 

सिद्धू का अंतिम संस्कार 31 मई 2022 को उनके पैतृक गांव मूसा में किया गया, जहां लाखों युवा प्रशंसक रैपर को श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्र हुए. सौजन्य जसकरन सिंह / विकीमिडिया कॉमन्स

पंजाब में गैंगवार की घटनाएं पहले भी होती रही हैं. गैंगस्टर कल्चर पंजाब के पुराने वैली (बदमाश या लंपन) का आधुनिक रूप है. इन्हें सियासी पार्टियों और नेताओं की पूरी शह मिलती रही है. यह गुंडा-सियासी-पुलिसिया गठबंधन इतना मजबूत है कि जेल में बैठे गैंगस्टर वहीं से अपने गैंग चलाते हैं. पंजाब के लोगों में यह धारणा आम है कि प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने गुंडों के अपने गिरोह पाले हुए हैं जो नौजवानों को अपने स्वार्थी हितों के लिए इस्तेमाल करते हैं और जब जरूरत खत्म हो जाती है तो ऐसे नौजवानों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है या कत्ल तक करवा दिया जाता है. पूर्व गैंगस्टर लक्खा सिधाना अक्सर ही अपने भाषणों और इंटरव्यू में कहता है कि वह कई बड़े नेताओं के लिए काम करता रहा है और जरूरत पूरी होने पर उन्होंने उसे छोड़ दिया. मिडूखेड़ा जैसे गैंगस्टर राजनीतिक पार्टियां भी ज्वाइन करते हैं. 2002 से 2007 तक की कैप्टेन अमरिंदर सिंह सरकार के समय यह बात आम चर्चा में थी कि कांग्रेस के कुछ नेताओं ने अपने नाजायज कामों के लिए गैंगस्टर पाल रखे हैं. 2007 से 2017 तक के अकाली-बीजेपी शासन के दौरान इन गैंगस्टर गिरोहों की गिनती में बढ़ोतरी हुई. अकाली दल का कौन सा नेता गैंगस्टरों से अपने नाजायज काम करवाता है यह बात किसी से छिपी नहीं थी. 2017 से 2022 तक के कांग्रेस सरकार के समय भी गैंगों की गतिविधियां नहीं रुकीं.

इन गिरोहों से सियासी नेता नाजायज कब्जे, फिरौती, नशे का व्यापार, अपने विरोधियों को किनारे लगाना, सामाजिक कार्यकर्ताओं से मारपीट और जन आंदोलनों को दबाने जैसे काम लेते हैं. पंजाबी के मरहूम विद्वान एवं लेखक प्रिंसिपल संत सिंह सेखों कई जगह अपने भाषणों में कहा करते थे, “जो लोग शैक्षणिक संस्थानों में वामपंथी विद्यार्थी संगठनों के कार्यकर्ताओं से लड़ते हैं वही आगे चल कर पंजाब पर राज करते हैं”.

प्रमुख पार्टियों की विद्यार्थी और नौजवान शाखाएं भी गिरोहों में गुंडों की भर्ती के कोचिंग सेंटर बन चुके हैं. पंजाब के जानेमाने समाजशास्त्री प्रोफेसर बावा सिंह का पंजाब में गैंगस्टर कल्चर के बारे कहना है, “जागीरदारी शासन व्यवस्था और समाज एक तरह का गैंग समाज था, जिसे जागीरदार अपनी बाहरी धार्मिकता और थोड़ी बहुत दयालुता दिखाने के ढंग-तरीकों से कायम रख कर मान-सम्मान वाले होने का दावा करते थे. जागीरदारी व्यवस्था के टूटने के बाद गैंग बनने शुरू हुए जिन्होंने अपराध की दुनिया के जरिए ताकत और धन हासिल किया. पंजाब के मौजूदा गैंग पुराने डाकुओं और फिरौती लेने वाले गिरोहों का ही बदला हुआ रूप हैं. पंजाब में इनकी आमद उत्तर प्रदेश के फिरौती लेने वाले गिरोहों के रास्ते हुई."

सिंह आगे बताते हैं, "पंजाब में गैंगों की आमद 2004-05 से शुरू होती है और 2010 तक शिखर पर पहुंचती है. अकाली दल का छात्र संगठन सोई (एसओआई) इनकी भर्ती का अड्डा बना. इसी छात्र संगठन से बहुत सारे गैंग निकले जो पंजाब में सरगर्म रहे और अब भी हैं. जब इन गिरोहों की कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में चलने लगी, बड़े नेताओं के साथ इनकी फोटो छपने लगी, थानों में इन्हें पूछा जाने लगा तो कॉलेजों में पढ़ने वाले 18-19 वर्ष के युवाओं के लिए ये गैंग और इनके नेता ग्लैमर बन गए. किसी कारण हीन-भावना के शिकार नौजवानों को भी लगने लगा कि इससे समाज में हमारा रौब बनेगा और लड़कियां उनकी ओर आकर्षित होंगी. सबसे पहले पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ और चंडीगढ़ के कॉलेज इन गैंगों का अड्डा बने. अकाली छात्र संगठन सोई ने पंजाब यूनिवर्सिटी के छात्र संघ चुनावों में अपना आधार मजबूत किया. अकाली सरकार का उन्हें पूरा समर्थन था. सुखबीर बादल के इस विश्विद्यालय में अक्सर दौरे होते और वह ‘सोई’ की बैठकों को संबोधित करते. पंजाब के बाकी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में कई सालों से छात्र संघ चुनाव नहीं हुए पर अकाली सरकार की सहायता प्राप्त गिरोहों ने अपनी तरफ से कॉलेज अध्यक्ष बनाने शुरू कर दिए. इससे पंजाब के ग्रामीण वर्ग के नौजवानों का एक हिस्सा इन गैंगों की तरफ आकर्षित हुआ. पंजाब की विरासत में हथियारों को शूरवीरता का प्रतीक माना गया है. इसका कारण पंजाब का भौगोलिक वातावरण भी है. यही कारण है कि पंजाब के नौजवानों को हथियार ज्यादा आकर्षित करते हैं. मेरी अपनी धारणा बनी हुई है कि पंजाब के युवा के हाथ में हथियार चाहे संत भिंडरावाला पकड़ा दे, चाहे नक्सली या गैंगस्टर पकड़ा दे, युवा उसी की ओर खिंचा चला जाता है. पूंजीवादी दौर के मानसिक तनाव, बेरोजगारी और सिस्टम के प्रति उदासीनता भी नौजवानों को इस रास्ते पर चलने को मजबूर करती है.”

गैंगों की आपसी तकरार, एक दूसरे को धमकियां देने और कत्ल करने तक का सिलसिला चलता रहता है. पिछले सालों में गैंगस्टरों के कत्ल ज्यादातर आपसी रंजिश या ग्रुपबाजी के चलते हुए हैं.

गैंगों की गिरफ्त से पंजाबी संगीत और फिल्म इंडस्ट्री भी नहीं बच पाई. पंजाबी कलाकारों से गैंगस्टरों के याराने किसी से छिपे नहीं हैं. कलाकारों द्वारा गैंगस्टरों के जरिए प्रसिद्धी पाने, अपने शो करवाने, अपने गीतों में किसी खास गैंग या उसके किसी नेता को हीरो बनाने और गैंगस्टरों से सुरक्षा लेने जैसी बातें चर्चा का विषय बनी रहती हैं. कई गैंगस्टर कलाकारों को जबरन वसूली के लिए डराते-धमकाते भी हैं. ऐसी खबरें भी आती हैं कि धमकी के बाद कई कलाकार उन्हें पैसे दे देते हैं. कई ऐसा करने से मना करते हैं और पुलिस के पास शिकायत दर्ज करवाते हैं.

कई गायकों पर हमले भी होते रहे हैं. सुप्रसिद्ध पंजाबी गायक और अदाकार परमीश वर्मा पर अप्रैल 2018 में मोहाली में गोलियां चलीं जिसकी जिम्मेवारी गैंगस्टर दिलप्रीत ढाहां ने ली और हमले के महीने भर बाद गायक ने बताया कि यह हमला जबरन वसूली के लिए किया गया था. उसी साल गैंगस्टर दिलप्रीत ढाहां ने गायक गिप्पी ग्रेवाल को जबरन वसूली की धमकी दी. जून 2019 में करन औजला (गायक व रैपर) पर कनाडा के शहर सरी में हमला हुआ जिसकी जिम्मेवारी पहले पंजाब से संबंधित एक गैंग ने ली लेकिन बाद में उसने फेसबुक पर पोस्ट डाल कर इससे इनकार किया. अगस्त 2021 में गोलियां मारकर कत्ल किए गए अकाली नेता व लॉरेंस गैंग के सदस्य रहे विक्की मिडूखेड़ा के दोस्त गायक मनकीरत औलख को साल 2022 में कथित धमकियों की खबरें भी सामने आईं. सिद्धू मूसेवाला को भी जबरन वसूली के लिए धमकियां मिलती रही हैं.

एक फिल्म निर्देशक ने अपना नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया, “कई बार अकेले गायक को ही नहीं निर्देशक को भी धमकियां मिलती हैं. पंजाबी संगीत और फिल्म इंडस्ट्री में पैसा बहुत है. कलाकार अक्सर सॉफ्ट टारगेट होते हैं जिन्होंने न लड़ना होता है, न ही विरोध करना होता है. अपराधी किस्म के लोग इनसे पैसा कमाना चाहते हैं.”

नाटककार और फिल्मकार प्रोफेसर पाली भूपेंदर कहते हैं, “धमकियों और हमले जैसी घटनाएं सिर्फ उन गायकों के साथ घटित होती हैं जो खुद विवादित बातें करते हैं. जिनके साथ ऐसा हुआ है उनका अपना व्यवहार कलाकारों वाला कम और विवादित ज्यादा होता है.”

पंजाबी संगीत और फिल्म इंडस्ट्री के बाद कबड्डी खेल में भी गैंगस्टरों की पकड़ मजबूत हुई है. कुछ महीने पहले कबड्डी खिलाड़ी संदीप नंगल अंबीआं का कत्ल हुआ जिसके पीछे भी गैंगवार को कारण बताया जा रहा है.

किशोरों और नौजवानों का एक बड़ा हिस्सा सिद्धू मूसेवाला की गायकी का दीवाना है, वहीं एक हिस्सा उन लोगों का भी मौजूद है, जो उसकी गायकी को हिंसा, हथियारों और गैंग कल्चर को बढ़ावा देने वाली कह कर उसकी आलोचना करता है. मूसेवाला की मौत के बाद मीडिया द्वारा उसके प्रति हमदर्दी का माहौल बनाया गया. इसी माहौल में पंजाब के वे लोग जो पहले उसकी गायकी की आलोचना करते थे या फिर ध्यान नहीं देते थे खुल कर मूसेवाला की गायकी और उसकी निजी शख्सियत की तारीफों के पुल बांधने लगे. कोई उसे पंजाबी संगीत को दुनिया के कोने-कोने में पहुंचाने वाला ‘पंजाबी पुत्त’ की तरह देखने लगा, कोई कहने लगा कि उसने दुनिया में पगड़ी और सिख धर्म की शान बुलंद की है. अकाल तख्त के जत्थेदार ने सिद्धू के पिता के साथ दुख बांटते हुए कहा कि सिक्खी स्वरूप वाले नौजवान पर कौम को मान रहेगा. मूसेवाला के भोग पर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की तरफ से कीर्तन किया गया और कीर्तनी जत्थों ने कहा कि नेक कमाई करके जाने वाले का इतिहास गवाह बनता है. पंजाब के कुछ विद्वानों ने उसे पुरातन पंजाबी कल्चर को प्रकाश में लाने वाला कलाकार बताया. कुछेक ने तो उसे मिर्जा और दुल्ला भट्टी की तरह बगावती व स्थापना-विरोधी योद्धा के रूप में देखा. ऐसी सोच रखने वालों में लिबरल तबका, कुछ कांग्रेसी विद्वान, दीप सिद्धू को ‘कौम’ का नायक कहने वाले खालिस्तानी ग्रुप, जो पहले मूसेवाला को गालियां देते थे, खालिस्तान में इंकलाब के सपने देखने वाला माओवादी सोच का एक छोटा हिस्सा और खालिस्तानी विचारों के समर्थक सिमरनजीत सिंह मान (मूसेवाला की मौत से कुछ दिन पहले चर्चा थी कि संगरूर लोकसभा उपचुनाव में मूसेवाला सिमरनजीत सिंह मान के लिए चुनाव प्रचार करेंगे. संगरूर लोकसभा जीत के बाद मान ने अपनी जीत का श्रेय मूसेवाला को भी दिया) शामिल हैं.

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सिद्धू के संगीत वीडियो के कुछ पोस्टर. उनके गीत जट्ट वर्चस्व, मर्दानगी, बंदूक, धन और अहंकार से भरे हुए हैं. उनकी माने तो हिंसा एक जट के खून में बहती है.

11 जून 1993 को मानसा जिले के मूसा गांव में साधारण जट्ट परिवार में पिता बलकौर सिंह और माता चरनजीत कौर के घर जन्मे शुभदीप सिंह सिद्धू उर्फ सिद्धू मूसेवाला ने बाहरवीं तक की शिक्षा जिला मानसा से प्राप्त की. लुधियाना के गुरु नानक इंजनियरिंग कॉलेज से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री की. उसके बाद कनाडा जाकर एक साल का डिप्लोमा किया. उसने कॉलेज के दौरान संगीत की थोड़ी तालीम हासिल की. 2017 में उसने अपने संगीत करियर की शुरुआत की और वह बड़ी तेजी से आगे बढ़ा. उसका पहला हिट गाना जी-वैगन था जो उसने गुरलेज अखतर के साथ निकाला था. उसी साल उसका गाना सो हाई रिलीज हुआ जिसने मूसेवाला को लोकप्रियता दिलाई. ‘ओल्ड स्कूल’, ‘जट्ट दा मुकाबला’ ‘संजू’, ‘295’, ‘पुत्त डाकुओं दे’, ‘साड्डा चलदा है धक्का असीं तां करदे’ उसके हिट गानों में शुमार हैं.

25 साल की उम्र में, 2018 में, उसका पहला म्यूजिक एल्बम 'पीबीएक्स 1' संगीत कंपनी टी-सिरीज ने रिलीज किया. यह 100 शीर्ष कैनेडियन एल्बम के बिलबोर्ड लिस्ट में शामिल हुआ. सिद्धू की मांग टोरंटो के उपनगर ब्रैम्पटन में व्यापक रूप होने लगी, जो पंजाबी एनआरआई संगीत उद्योग का अनौपचारिक मुख्यालय है. उसने भारतीय डायस्पोरा के बाहर अंतरराष्ट्रीय कलाकारों के साथ काम करना भी शुरू किया. उसने ब्रिटिश रैपर स्टीफलॉन डॉन और मिस्ट के साथ एकल गीत "47" में काम किया. सिद्धू का नाम अब तक इतना बड़ा हो चुका था कि पंजाब स्थित निर्माता द किड के साथ काम करने पर उसने द किड को पहचान दिलाई. उसने स्टील बंगलेज के साथ काम किया जिसने उसके गीतों को लय और पश्चिमी रैप की छौंक दी. इसके बाद वह बुलंदियों को छूता गया. उसके अपने यूट्यूब चैनल पर 14 मिलियन से अधिक सब्सक्राइबर हैं. उसने कम उम्र में ही पैसा और शोहरत कमाया. मूसेवाला के ज्यादातर गीत हिंसा, हथियारों, गैंगस्टर कल्चर, सामंती मानसिकता और पितृसत्ता के चारों ओर घूमते हैं.

मूसेवाला ने गायकी के बाद फिल्मों में भी कदम रखा. उसकी फिल्में हैं : ‘यस आई एम स्टूडैंट’, ‘तेरी मेरी जोड़ी’, ‘गुनाह’, ‘मूसा जट्ट’ और ‘जट्टां दा मुंडा गाउण लग्गिया’. उसके गीतों की धमक बॉलीवुड तक भी पहुंची. बॉलीवुड के कई सितारों ने उसके गीतों का नोटिस लिया. संगीत के कुछ जानकारों का कहना है कि उसने पश्चिम के रैप-हिपहॉप और पंजाबी धुनों का मिश्रण करके पंजाबी संगीत को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाया. वह अमरीकी रैपर और मॉडल टूपाक शकूर, पंजाबी गायक करतार रमला और कुलदीप मानक को अपना रोल मॉडल बताता था.

मई 2020 में सिद्धू ने कम सफल एल्बम स्निचिज गेट स्टिचिज जारी किया. वह प्रसिद्ध कलाकारों के साथ मिल कर एकल हिट गीत देता रहा. उसी वर्ष उसने अपनी मां के साथ खुद का लेबल '5911 रिकॉर्ड्स' लॉन्च किया जो उसके पसंदीदा ट्रैक्टर मॉडल के नाम पर था.

उसका सबसे शानदार, कलात्मक और सफल एल्बम 'मूसेटेप' 2021 में आया. इसके निर्माता द किड और वजीर पठान थे और इसमें भारतीय मूल के अमेरिकी रैपर राजा कुमारी, मुंबई स्थित रैपर डिवाइन और बोहेमिया ने काम किया है. मूसेटेप ने सिद्धू को पंजाब के सबसे बड़े कलाकारों में शुमार करा दिया. इस साल की शुरुआत में सिद्धू ने नो नेम शीर्षक से एक एल्बम जारी किया था यह भी बेहद सफल हुआ.

मूसेवाला की माता चरनजीत कौर मूसा गांव की सरपंच हैं. सरपंची के चुनावों के दौरान मूसेवाला ने अपनी मां के लिए जोर-शोर से प्रचार किया. मूसेवाला की शोहरत का चुनावी फायदा लेने के लिए कांग्रेस पार्टी ने 2022 के विधानसभा चुनाव में मूसेवाला को कांग्रेस पार्टी में शामिल कर मानसा सीट से उम्मीदवार बनाया. कुछ लोगों को बगावत और स्थापना विरोधी लगने वाला मूसेवाला पंजाब में उस समय सत्ता पर काबिज पार्टी में शामिल होकर कहता है, “कांग्रेस आम लोगों की पार्टी है, इसमें वे लोग शामिल हैं जो आम घरों से उठे हुए हैं, मैं भी आम परिवार से आया हूं और यही कारण है कि मैं कांग्रेस में शामिल हुआ हूं.” लेकिन विधानसभा चुनाव में यह मशहूर सिंगर आम आदमी पार्टी के विजय सिंगला से 63 हजार से अधिक मतों के अंतर हार गया.

सिद्धू मूसेवाला अक्सर अपने गीतों, उकसाऊ शब्दावली, विरोधियों पर की गई टिप्पणीयों या अपने कुछ कामों के कारण विवादों में रहा. कुछ लोगों का कहना है कि वह विवाद ही चर्चा में रहने के लिए करता था. साल 2018 में उसकी पहली म्यूजिक एल्बम रिलीज होते ही वह अपने गीतों के कारण आलोचना का शिकार बना.

एक सिख व्यक्ति जून 2017 में अमृतसर में मार्च के दौरान अलगाववादी नेता जरनैल सिंह भिंडरावाले की तस्वीर लगे फोन से तस्वीरें लेते हुए. 1980 के दशक में भिंडरावाले ने सिखों के लिए एक अलग राज्य खालिस्तान के गठन की मांग को लेकर एक उग्रवादी आंदोलन चलाया था. इस दशक में पंजाबी समाज में बड़ी उथल-पुथल देखी गई, जिससे एक पूरी पीढ़ी को आघात पहुंचा. रमिंद्र पाल सिंह /ईपीए

मार्च 2020 में, कोरोना के शुरुआती दौर में, पंजाब सरकार की कोरोना के फैलाव को न रोक पाने के लिए आलोचना हो रही थी क्योंकि सरकार ने कई जगहों पर भीड़ जुटने दी थी. जब केस बढ़ने लगे तो सरकार ने इसका ठीकरा एनआरआई लोगों पर फोड़ा. जिला शहीद भगत सिंह नगर के पठलावा गांव के बलदेव सिंह की पंजाब में कोरोना के कारण हुई पहली मौत थी. उस समय सिद्धू मूसेवाला ने बलदेव सिंह के बहाने एनआरआइयों पर तंज करते हुए गाना रिलीज किया, ‘गुरबख्श गवाचा’. गाने का गुरुबख्श, जो एक एनआरआई है, अपनी बीमारी को जानबूझ कर छिपाता है जिसके चलते वह अपने परिजनों को संक्रमित कर देता है. यहां तक की उसका पोता भी कोरोना संक्रमित हो जाता है. सच तो यह है कि बलदेव एनआरआई नहीं थे. सिद्धू ने यह गीत पंजाब पुलिस को समर्पित किया. इस गीत ने सरकार की नाकामियों को ढकने और सरकार का नैरेटिव को स्थापित करने में सहायता की. इसी गीत को उस समय के पंजाब पुलिस मुखिया ने अपने ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया था. जब इसका पंजाब में और प्रवासी पंजाबियों द्वारा विरोध हुआ तो पुलिस मुखिया ने इस गीत को अपने ट्विटर से हटा लिया.

कुछ समय बाद एक वीडियो वायरल होती है जिसमें वह पुलिस कर्मियों के साथ खड़ा एक असाल्ट राइफल चलाता दिखाई देता है और उसके बाद उसके खिलाफ आर्म्स एक्ट के तहत मामला दर्ज होता है. इसी मामले पर मूसेवाला ‘संजू’ नामक गीत रिलीज करता है जिसमें वह खुद को "बहादुर जट्ट" बताते हुए कहता है कि उस पर जो केस है वही संजय दत्त पर था. इस गीत के कारण पंजाब की क्राइम ब्रांच ने बंदूक कल्चर और हिंसा को बढ़ावा देने के कारण आईपीसी की धाराओं के तहत मामला दर्ज किया था. किसान आंदोलन के दौरान उसने भी अन्य कलाकारों की तरह दिल्ली किसान मोर्चे पर हाजिरी लगाई. उसी समय ही उसने एक गाना ‘पंजाब : माई मदरलैंड’ निकाला जिसका सुर उग्र सिख विचारों वाला था जिसमें उसने भिंडरावाले का खास इज्जत से जिक्र किया था. साल 2019 में उसका गीत ‘जट्टी जिउणे मोड़ दी बंदूक वरगी’ इसलिए विवादों में घिर गया क्योंकि इस में कथित तौर पर सिख ऐतिहासिक शख्सियत माई भागो को गलत प्रसंग में पेश किया गया था जिसके लिए मूसेवाला को माफी भी मांगनी पड़ी थी. पंजाब विधानसभा चुनाव के बाद उसका गीत ‘स्केपगोट’ रिलीज हुआ जिसमें उसने अपनी हार के लिए मानसा हलके के लोगों को गद्दार तक बोल दिया.

जब भी उसके गीतों को लेकर सवाल उठता तो वह कहता है कि जो उसके प्रशंसक चाहते हैं वह वही गाता है, लोग उसके गानों को पसंद करते हैं इसलिए उसके गाने लाखों की गिनती में सुने जाते हैं. मूसेवाला की शख्सियत का एक पहलू यह भी था कि वह अपने गीतों में जितना गुस्सैल दिखता था व्यवहारिक बोलचाल में या टीवी इंटरव्यू में उतना ही विनम्र और संयम से बात करने वाला नजर आता.

पंजाब के विद्वान रौनकी राम मूसेवाला की तारीफ करते हुए कहते हैं, “मूसेवाला अपने गांव की मिट्टी से जुड़ा हुआ कलाकार था. आज का नौजवान जब अपना मुल्क छोड़ विदेशों में जा रहा है वहीं मूसेवाला कनाडा से आकर गांव में रहने का फैसला करता है. उसने नौजवानों को संदेश दिया कि उनका अस्तित्व गांवों से जुड़ने में है. उसने पंजाबी संगीत को बुलंदियों पर पहुंचाया है. उसने गांवों को गीतों का केंद्र बिंदु बनाया है. उसके गीतों की छवि जट्टवादी और हिंसक बना कर पेश की जाती है पर असलियत यह है कि उसके गीतों में आने वाले ‘जट्ट’ से मतलब जट्ट जाति से नहीं बल्कि ग्रामीण संस्कृति से है. उसके द्वारा अपनी मां और पिता के बारे गाए गाने बहुत ही भावुक करने वाले हैं. वह पूरी तरह परिवारिक शख्सियत था. वह अक्सर ही अपनी दादी को याद करके भावुक हो जाता था.”

पंजाबी में राजनीतिक और सामाजिक चेतना वाले उपन्यास लिखने वाले तथा पंजाबी दैनिक ‘नवां जमाना’ के लंबे समय तक साहित्य संपादक रहे बलबीर परवाना बेबाकी से कहते हैं, “सिद्धू मूसेवाला पंजाब की पांच फीसदी खाती-पीती धनी किसानी का प्रतिनिधित्व करने वाला गायक था. छोटी किसानी और पंजाब के अन्य तबके उसकी गायकी से दूर हैं. पंजाब के जो बुद्धिजीवी मूसेवाला को पंजाब का नायक बनाने पर तुले हैं और उसकी तुलना मिर्जा या दुल्ला भट्टी से कर रहे हैं वह अपने आपको और लोगों को धोखे में रख रहे हैं. असल में पंजाब के आधुनिक बुद्धिजीवियों में साहस ही नहीं कि वे बहती धारा के विपरीत चल सकें. वे भीड़ मानसिकता का शिकार हैं. नायक कोई छह महीने में पैदा नहीं होता. दुल्ला भट्टी यदि पंजाबियों का नायक है तो उसने सचमुच में स्थापित शासन से टक्कर ली थी. उसके समय में ही और कितने ऐसे योद्धा होंगे लेकिन विशेष गुणों के कारण इतनी सदियां बीतने पर भी पंजाबी उसे एक हीरो के रूप में याद करते हैं. दुल्ला भट्टी ने सिर्फ स्थापित सत्ता से टक्कर ही नहीं ली बल्कि अपने इलाके के किसानों और मजदूरों को स्थापित सत्ता के विरुद्ध लामबंद किया था. जो खालिस्तानी या पंथक लोग मूसेवाला को कौम का आधुनिक हीरो बता रहे हैं उनकी त्रासदी यह है कि वे नौजवानी में सिक्खी भावना या उनकी अपनी खालिस्तानी सोच का युवा ‘नायक’ पैदा नहीं कर सके. इसलिए उन्हें मंडी कल्चर द्वारा परोसे गए हीरो अपनाने पड़ रहे हैं. पांच-छह महीने पहले इनके लिए दीप सिद्धू हीरो था अब मूसेवाला को बना रहे हैं, छह महीने बाद कोई और हो जाएगा. हीरो छह महीने के लिए पैदा नहीं होते उन्हें पैदा होने में भी सदियां लगती हैं और वे याद भी सदियों तक रखे जाते हैं. जब धर्म ही उपभोगतावाद का शिकार हो गया है तो धार्मिक नेता ऐसे ही नायक बनाएंगे.”

सिद्धू मूसेवाला के गीतों में गुंडागर्दी, व्यक्तिवाद, स्वार्थ, हिंसा, मर्द प्रधानता, औरत पर मर्द की दावेदारी, गैंग की गुंडागर्दी, आवारा पूंजी (वह धन जो मेहनत से न कमाया गया हो) और जट्टवाद आम ही दिख जाता है. उसके कई गीतों में यह बात साफ झलकती है कि उसे अपने आप पर फक्र है कि उसने इतनी छोटी उम्र में कामयाबी हासिल की है. यही फक्र कई जगह अहंकार में तब्दील हो जाता है. हिंसा को बढ़ावा देने वाले मूसेवाला के गीतों की झलक कुछ इस तरह हैं :

जित्थे बंदा मार के कसूर पुछदे
जट्ट उस पिंड नू बिलोंग करदा

(जहां व्यक्ति को मारने के बाद कसूर पूछा जाता है, मैं उस गांव से सबंध रखता हूं)

***

तूत (शहतूत) टिब्बी (टीले) दे तों उड़न गटारां (गुरसली पक्षी)
जदों जट्ट फायर करदा
मूसे (मूसा गांव) दी ना टप्पे (लांघे) फिरनी कोई
सदा तकड़े (ताकतवर) दी हिक्क (सीने) विच वज्जिया
माड़ा (कमजोर) न कोई साइड कढिया
जिऊं बर्फी दे पीस मिठीए
तिओं बंदा वढिया,

***

लक मेरा  कहंदा तू जितणी है दुनिया
कम्म मेरे कहंदे तैनू जेल भेजना

जो लोग मूसेवाले की तुलना दुल्ला भट्टी और मिर्जा के साथ करते हैं उन्हें उसका गाना ‘नेवर फोल्ड’ दोबारा सुनना चाहिए. जिसकी एक लाइन है :

साड्डे लाणे (खानदान) जिऊणे (जिऊणा मौड़) सुच्चियां (सुच्चा सूरमा) दे,
साड्डे मिर्जे-रांझे नहीं जम्मदे (जन्म लेते)

इस लाइन में मूसेवाला साफ कहता है कि हमारे खानदान में मिर्जा और रांझा नहीं पैदा होते. हमारे खानदान में तो जिऊणा मौड़ और सुच्चा सूरमा जैसे पैदा होते हैं. पंजाबी संस्कृति में मिर्जा और रांझा को मोहब्बत और मोहब्बत के लिए बगावत का प्रतीक माना जाता है. जबकि जिऊणा मौड़ और सुच्चा सूरमा मालवा इलाके के नायक माने जाते हैं. जिऊणा मौड़ डाकू था और सुच्चा सूरमा अपनी भाभी का कत्ल करके ‘सूरमा’ बना था क्योंकि उसकी भाभी के उसके दोस्त के साथ संबंध थे. सुच्चा सिंह ने इसे अपने खानदान की इज्जत का सवाल बनाते हुए अपनी भाभी का कत्ल कर दिया था. मूसेवाला मुहब्बत के प्रतीकों की जगह ‘ऑनर किलिंग’ करने वाले में अपनी विरासत देखता है.

सिद्धू मूसेवाला के कई गीतों में सिरे की आत्ममुग्धता दिखती है, साथ ही औरत पर अपनी बनावटी शोहरत का रौब डाला गया है. साथ ही वह अपने गीतों में अपने विरोधियों को गालियां भी देता है, जैसे इस गीत में :

ओह broke as F*ck ने हाणदिये
life time दी pension मंगदे ने
माड़ी जनानी वांगू नी
साले मैथों attention मंगदे ने
...तू जिन्ना नाल compare करे
साड्डे level दे नहीं हाणदिये
इत्थे किहड़ा किन्ने जोगा है
सब जात जाणदे छक्कियां दी
उन्झ माझे दे जट्ट बणदे आ
कुछ कॉपी बणदे यक्कियां दी

उसके ‘zero to 100, ‘The Last Ride’, ‘Power’,  ‘Built Different’ जैसे गीत बनावटी शोहरत, बड़े लोगों के साथ संबंध होने, अमीरी ठाठ और आत्ममुग्धता से भरे हैं.

मूसेवाला ने ‘F*ck Em All’, Facts (skit) और ’Invincible’ जैसे अपने गानों में अपने आलोचकों और विरोधियों पर निशाना साधा है. उसके ऐसे कई गीत हैं जिनमें अपने आलोचकों और विरोधियों को गालियां तक दी हैं. ‘YOUNGEST IN CHARGE’ गीत मूसेवाला को कांग्रेस द्वारा विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार ऐलाने किए जाने पर है जिसमें वह खुद की प्रशंसा करता है. यह प्रशंसा आत्ममुग्धता में बदल जाती है. वह अपने नेता बनने, अपनी बढ़िया गाड़ी पर लालबत्ती लगने और विरोधियों की जुबान बंद करवाने के सपने देखता है. ‘G shit’, ‘B&W’ और ‘Celebrity killer’ जैसे गीत गैंग और गनकल्चर को प्रोत्साहन देने वाले गीत हैं, ‘IDGAF’, ‘Malwa Block’ जैसे गीतों में अपनी अमीरी और बड़ी गाड़ी के जरिए लड़कियों पर रौब या प्रभाव बनाया गया है. ‘Yes I Am Student’ गीत विदेश में पढ़ने गए पंजाबी नौजवान की मुश्किलों को बयां करता है. इसी तरह ‘AROMA’, ‘Ajj kal ve’, ‘Regret’ जैसे मुहब्बत वाले गीत चैन से सुने जा सकते हैं.  ‘DEAR MAMA’ गीत उसने अपनी मां पर गाया है यह बहुत ही प्यारा गीत है. इसी तरह उसने पिता के रिश्ते पर ‘बापू’ गीत भी गया.  

मूसेवाला का एक गीत है ‘Love sick’ जिसकी पहली लाइन मलिका-ए-तरुन्नम नूरजहां के गाए पंजाबी गीत ‘जदों हौली जिहे लैना मेरा नां, मैं थां मर जानीयां’ की कॉपी कर ‘जदों खबरां ‘च औंदा तेरा नां, मैं थां मर जानीयां’ गाया है. इस गीत में उसने अपने दुश्मनों से खतरे की बात की है और किसी शूटर द्वारा गोली मारे जाने की आशंका प्रकट की है. ‘EVERYBODY HURTS’ गीत में वह जिंदगी से परेशान व नीरस नजर आता है और यहां तक कहता है ‘मैनू माफ करीं जिंदगी सुसाईड हो गया’. मूसेवाला की मौत के बाद उसका गीत ‘THE LAST RIDE’  बहुत सुना गया जिसमें एक लाइन थी :

ओ चोबर (नौजवान) दे चेहरे उत्ते नूर दस्सदा
नीं एह्दा उठूगा जवानी ’च जनाजा मिठीए

यह गीत उसने अपने  रोल मॉडल और अमरीकी रैपर टूपाक शकूर (Tupac Shakur) को अर्पित किया था. कुछ लोग मूसेवाला के गीत ‘295’ को प्रगतिशील गीत मानते हैं यह गीत आईपीसी की धारा 295 के बारे है जो धार्मिक स्थानों और पवित्र मानी गई किताब या वस्तु के अपमान के बारे है. इस गीत के कुछ बोल इस प्रकार हैं :

मुसीबत तां मरदां ते पैंदी रहिंदी ऐ
दब्बीं ना तूं  दुनिया स्वाद लैंदी ऐ
नाले जेह्ड़े रस्ते ते तूं तुरियां  
इत्थे बदनामी हाई रेट मिलूगी
नित्त controversy create मिलूगी
धरमां दे नां ’ते debate मिलूगी
सच बोलेंगा तां मिलू 295
जे करेंगा तरक्की पुत्त hate मिलूगी  

पर ‘प्रगतिशील’ माने गए इस गीत की यह लाइन ही इसकी ‘प्रगतिशीलता’ की फूक निकाल देती है :

तूं झुकियां ऐ जरूर होइआ कोडा तां नहीं
पग्ग तेरे सिर `ते तूं रोडा तां नहीं”

***

शाम ते सवेरे भाल्दे विवाद ने
ऐवें ई तेरे नाल करदे फसाद ने
24 घंटे नाले निंददे परोणे नूं
नाले ओहदे कल्ले कल्ले गीत याद ने
भावें औखी होई है crowd तेरे `ते
बोलदे ने ऐवें साले loud तेरे `ते

2005 में लंदन में एक कार्यक्रम में परफोर्म करते हुए पंजाबी मूल के गायक जय सीन. उदारीकरण के पहले दो दशकों में एक वैश्विक पंजाबी संगीत उद्योग का उदय हुआ, जहां प्रवासी पंजाबी विदेशी कलाकारों के साथ काम करते थे. जो हेल / गैटी इमेजिस

मूसेवाला के गीतों में अंग्रेजी शब्द बहुत मिल जाते हैं जो कइयों को अच्छे लगते हैं कइयों को बुरे. उसकी मौत के बाद उसका ‘SYL’ गाना रिलीज हुआ जिसमें पंजाब हरियाणा के बीच सतलुज-यमुना लिंक नहर के चल रहे मुद्दे और जेलों में बंद सिख कैदियों का जिक्र है. इस गीत में न सिर्फ ऐतिहासिक जानकारी का अभाव नजर आता है बल्कि इसमें गालियां और निम्न स्तर की भाषा का प्रयोग किया गया है. यह गीत पहले ही दिन लाखों में देखा गया. देश-विदेश में बैठे खालिस्तानी सोच के लोगों ने इस गीत को अपने पक्ष में भुनाने के लिए खूब प्रचार किया. बाद में केंद्र सरकार के कहने पर यूट्यूब ने इस गीत पर भारत में रोक लगा दी.

मूसेवाला के कई गीतों में ऐतिहासिक जानकारी का अभाव नजर आता है. कई ऐतिहासिक  प्रसंगों के हवाला देते हुए वह गड़बड़ा जाता है. जैसे कि अपने एक गीत, पंजाब, माई मदरलैंड, में वह कहता है, “मेरे बारे पुच्छ लवीं पोरस अब्दालियां तों”. उसे यह नहीं पता कि पोरस पंजाब का ही राजा था न कि विदेशी हमलावर. एक अपने टुच्चे से गीत में वह इंकलाबी कवि पाश का इस तरह जिक्र करता है: “जो लिखदा ओह Hit नीं, ना लोकां वांगू fame लई करां talk sick नीं....मुंडा अज्ज दा आ पाश नीं”. साफ झलकता है कि वह क्रांतिकारी कवि पाश के बारे में कुछ नहीं जानता. कई गीतों में यह भी साफ नजर आता है कि उसको सही शब्दों का इस्तेमाल करना नहीं आता या वह कहना कुछ चाहता है बन कुछ जाता है. (याद रहे कि मूसेवाला खुद ही अपने गीत लिखता था) पंजाबी की साहित्यिक पत्रिका ‘सरोकार’ के संपादक सुखविंदर पप्पी कहते हैं, “सिद्धू मूसेवाला के गीतों में एस्थिटिक सेंस की कमी साफ झलकती है. उसके गीतों में गाली-गलौच और गंदी भाषा बहुत है. उसके गीत पंजाब की रूह से कटे हुए है. वह रैप कल्चर का प्रतिनिधि है. उसके गीत बाजार को ध्यान में रख कर बने हैं. यदि वह उकसावे वाले गाली-गलौच वाले गीत गाता है तो उसे पता है कि यह नौजवानों के बीच चलेंगे. यदि वह भिंडरांवाला के बारे गीत गाता है तो उसे पता है कि ‘NRI मंडी’ में यह चलेगा.”

हिप-हॉप की दुनिया में किसी युवा कलाकार की मौत एक ऐतिहासिक घटना बन जाती है. अमेरिका में, जहां रैप का जन्म हुआ, ऐसे कई अश्वेत कलाकार हुए जिनके करियर गैंगवॉर की भेट चढ़ गए. इन मौतों को एक नस्लवादी व्यवस्था का अपरिहार्य परिणाम माना जाता हैं जो जो युवा अश्वेत मर्दों को गरीबी और हिंसा के चक्र में फंसाती है. इस तरह से मरने वाले ब्लैक रैपर अक्सर लोकप्रिय संस्कृति में अमर हो जाते हैं. सिद्धू मूसेवाला भले ही इस सांचे में फिट होता हो- उनका परिवार और प्रशंसक ऐसा होते देखना चाहते हैं- लेकिन वह जिस चीज के लिए खड़ा था,  वह हिप-हॉप नायक की सत्ता को चुनौती के बिल्कुल विपरीत थी.

पिछली सदी के अंतिम दशक में जब रैप ने पंजाबी संगीत में प्रवेश किया, युवा संगीतकारों ने पश्चिमी रैप शब्दावली को देसी गीत और पॉप संगीत के साथ जोड़ने में सफलता पाई. यह एक चमकदार सौंदर्य, एक नई ध्वनि और चतुर तुकबंदी का फ्यूजन विस्फोटक था. अभिनेताओं और क्रिकेटरों को पछाड़तो हुए रैपर तेजी से नए यूथ आइकॉन बनते जा रहे थे.

लेकिन पश्चिम से पंजाब तक आते-आते इस शैली का स्वरूप बदल गया. पंजाबी समाज में प्रचलित सामूहिक हिंसा और नशे की बात लोगों को आसपास की लगी. पश्चिमी रैप जहां सत्ता को आंख दिखाने का इतिहास रहा है, वहीं पंजाबी रैपरों, जिनमें से कई प्रमुख जमींदार जट्ट समुदाय से थे, ने जट्ट मर्दवाद से ब्लैक प्राइड को बदल दिया. सामंतवादी, जातिवादी और पितृसत्तात्मक संगीत का पंजाब में पहले से ही एक लंबा इतिहास रहा है, रैप में इसे एक नया मोड़ दे दिया. यहां रैपरों ने इस शैली का इस्तेमाल अपने हिंसक और सामंती अतीत को महिमामंडित करने के लिए किया.

गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी अमृतसर में समाजशास्त्र के प्रोफेसर परमजीत सिंह जज का विचार है, “मूसेवाला की मौत से पंजाबी गायकी के एक युग का अंत हो गया है. पहले कोई भी गायक-गीतकार पंजाब की विभिन्न संगीतक परंपराओं को जोड़ कर उन्हें पश्चिमी रैप शैली के नजदीक नहीं ला सका. मूसेवाला ने यह काम किया है. उसने पंजाबी संगीत को दोनों पंजाबों के अलावा दुनिया के कोने-कोने में पहुंचाया है. जो लोग उसके गानों में आने वाली हिंसा की आलोचना करते हैं शायद उन्हें नहीं पता कि वह अपने इलाके को प्रतिबिंबित कर रहा है क्योंकि वह पंजाब के जिस इलाके से आता है वह असल में आपसी लड़ाइयों के कारण ही जाना जाता रहा है. पुराने समय में वहां छोटी-छोटी बातों पर कत्ल हो जाते थे.”

वहीं नाटककार और अदाकार डॉ. साहिब सिंह का कहना है, “अपनी कला द्वारा समाज का चित्रण करना तो ठीक है लेकिन समाज की बुराइयों का महिमामंडन करना कोई कला नहीं है.”

पंजाबी के साहित्य आलोचक तस्कीन दो टूक शब्दों में कहते हैं, “पंजाब में पिछले समय के दौरान हरित क्रांति, एनआरआई पूंजी, रियल एस्टेट व अन्य कई तरह के माफियाओं के जरिए आए धन, जट्ट/किसान की बढ़ी हुई जमीन की कीमत से अमीर हुए वर्ग (जोकि राइफल्स, पिस्तौलें, ओपन जीपें रखने की क्षमता रखता है) व गैंगस्टर माफिया का प्रतीक है सिद्धू मूसेवाला और उसकी गायकी.”

पंजाबी लोकधारा के विद्वान डॉ. नाहर सिंह कहते हैं, “हरित क्रांति में पिछड़ चुका जट्ट तबका जिसे अपना अतीत याद आता है और वह पुरानी सामंती संस्कृति की तरफ भागता है और अपने पुराने अतीत में ही अपनी शान देखता हैं, सिद्धू मूसेवाला की गायकी ऐसे लोगों का प्रतिनिधित्व करती है.”  

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सहस्राब्दी के मोड़ पर आकर वैश्वीकरण, पूंजीवादी संस्कृति ने पंजाबी गीतों को जकड़ लिया है. 2000 के दशक के शुरुआती वीडियो में भारतीयों के विदेशी लोकेशन का खूब इस्तेमाल किया गया था, जिनकी खासियत लक्जरी कारें, शराब, क्लब, पार्टियां के साथ गगनचुंबी इमारतें हुआ करती थी.

पंजाबी की आधुनिक गायकी की शुरुआत 20वीं सदी के शुरू में हुई. पंजाबी में सबसे पहले रिकॉर्डिंग 1929-30 में हुई. आरंभ में ‘ढाढी’ ग्रुपों को रिकॉर्ड किया गया क्योंकि पहले ‘ढाढी’ लोक कथाएं, वीर गाथाएं और किस्सों को गांव, मेलों और शादियों में गाया करते थे. 1930 और 1950 के बीच पंजाबी संगीत पर फिल्मी गीतों का प्रभाव पड़ने लगा. उस समय फिल्मी गीत ज्यादा रिकॉर्ड होने लगे. उस समय पुरातन और नए साजों-सामान का इस्तेमाल गीतों में होने लगा था. भारतीय फिल्म-संगीत से जुड़े बड़े नामों का संबंध पंजाब से ही था, जैसे कुंदन लाल सहगल, नूर जहां, शमशाद बेगम और अन्य. 1950 के दशक में लोक गीतों की रिकॉर्डिंग शुरू हुई. 1960 के दशक में नई किस्म का लोक संगीत शुरू हुआ. इनमें से ज्यादातर गीतों के रचनाकार अज्ञात थे लेकिन कई गीतों के रचनाकार उस समय के लोकप्रिय गीतकार थे. उस समय एचएमबी संगीत रिकॉर्ड कंपनी का बड़ा नाम था. लाल चंद यमला जट्ट, अमर सिंह शौंकी, दीदार सिंह, हज़ारा सिंह रमता, नरिंदर बीबा, प्रकाश कौर, सुरिंदर कौर, हरचरन ग्रेवाल, मुहम्मद सदीक, कुलदीप मानक, दीदार संधू, स्वर्ण लता का नाम 1970 के दशक तक लोगों के सिर चढ़ कर बोल रहा था.

इस समय तक के ('70 के दशक तक) गीतों में विविधताएं थीं, जैसे कि लोक गीत, किस्से, सूफी संगीत, साहित्यिक गीत, युगल गायकी. साथ ही सामंती, मर्द की धौंस और औरत को नीचा दिखाने वाली गायकी का आगाज भी हो चुका था.  इस समय तक पंजाबी संगीत गैर-पंजाबी लोगों को भी अपने असर में लेने लगा था.

1980 में कैसेट प्लेयर ने पंजाबी संगीत इंडस्ट्री में अपना जोर पकड़ा. उस समय पंजाबी संगीत में ग्रामीण रंग को और तगड़ा करने की कोशिश की गई. के. एस. नरूला और चरणजीत आहूजा जैसे संगीतकारों के नाम उभर कर सामने आए. 1980 का दशक अमर सिंह चमकीला का था. चमकीला गायक के साथ-साथ गीतकार भी था. उसके पास दमदार आवाज के साथ तुंबी, हारमोनियम और ढोलक जैसे साज थे. चमकीला के पास ग्रामीण मुहावरे वाली भाषा थी. उसके गीतों में सामंती मूल्यों, मर्दवादी धौंस, औरत पर मर्द का दबदवा, ‘वैली’ को नायक बनाना, हिंसा, वर्जित समाजिक रिश्तों, नशे का सेवन आदि का जिक्र साफ दिखता है. कई विद्वान उस पर अश्लीलता को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हैं. असल में अमर सिंह चमकीला हरित क्रांति से अमीर हुई अनपढ़ अथवा अधपढ़ ग्रामीण किसानी का गायक था. 1988 में महज 28 साल की उम्र में उनकी गोली मार कर हत्या कर दी गई. जब तक चमकीला गायकी में रहा (करीब 9 साल) उसने किसी भी गायक को उबरने नहीं दिया. एक विचार यह भी है कि चमकीला की हत्या का कारण उसके समकालीन गायकों की ईर्ष्या थी. चमकीला की मौत के बाद भी पंजाबी गायकों ने उनको कॉपी करने की या उनकी तरह गाने की कोशिश की. कहा जाता है कि चमकीला तो मर गया पर उसकी रूह आज भी कई पंजाबी गायकों में जिंदा है.

1980 के दशक तक पंजाबी संगीत की कई किस्मों को ‘भांगड़ा’ कहा जाने लगा. इसी के दशक में ही गुरदास मान, हंसराज हंस, हरभजन मान, सर्धूल सिकंदर, मलकीत सिंह जैसे गायकों ने अपना नाम संगीत जगत में बनाया. इसी समय पंजाबी संगीत भारत और पाकिस्तान से बाहर निकल कर विदेशों में भी अपना सिक्का जमाने लगा. इसमें प्रवासी पंजाबियों का अहम योगदान था. 

1990 के दशक में उदारीकरण, वैश्वीकरण का असर पंजाबी संगीत जगत पर भी पड़ा. पंजाबी संगीत के निर्देशन के तौर-तरीकों, गीतों की विधियों, गीतकारी, साजों और विषय वस्तु में तबदीली आई. इस समय संगीत की अन्य शैलियां, जैसे रेगे, डिस्को पंजाबी संगीत में शामिल हुईं. इस समय ‘फ्यूजन’ पंजाबी संगीत ने जन्म लिया. हांलाकि पश्चिम में खासकर ब्रिटेन में डायस्पोरा पंजाबी संगीत 1980 के दशक में प्रसिद्ध हो चुका था पर यह रुझान 1990 के दशक में और आगे बढ़ा. इस समय पंजाबी संगीत में ब्रिटन और अमरीकी संगीत मिक्स होना शुरू हो गया था. वहां बसने वाले पंजाबी मूल के नौजवानों ने अपने पश्चिम देशों के संगीत अनुभव को पंजाबी संगीत से जोड़ा. इसके साथ ही वहां बसने वाले गायक नौजवानों ने भी पश्चिमी देशों में अपनी पहचान बनाई. बल्ली सग्गू, सुक्षिंदर शिंदा, जैजी बी. वे कलाकार हैं जिन्होंने उस समय पंजाबी संगीत में पश्चिमी संगीतक रुझानों का मिश्रण किया. बल्ली सग्गू अपनी प्रोडक्शन और रीमिक्स के लिए मशहूर हुए. सुक्षिंदर शिंदा ने पंजाबी संगीत जगत में प्रोडक्शन और जोरदार ढोल बीट्स को शामिल करके अपना नाम बनाया. जैजी बी. ने फिल्मांकन और जोरदार संगीतक बोलों और पंजाबी संगीत में हिप-हॉप को लेने के लिए जाना जाता है. पंजाबी डायस्पोरा संगीत रेडियो, कैसेट और टीवी चैनलों के माध्यम से भारत में तेजी से अपने पैर पसारने लगा.

2001 में पाकिस्तानी मूल के अमरीका में बसने वाले पंजाबी गायक और गीतकार बोहेमीया पंजाबी संगीत में ‘रैप’ को लेकर आए. उसके बाद कई गायकों ने इस ‘रैप’ की संगीतक विधा को अपनाया और अपने ढंग के प्रयोग किए. ‘पंजाबी रैप’ बड़े स्तर पर डिस्को क्लबों और डांस पार्टियों में पहुंच गया. हनी सिंह जैसे गायक रैप में नशा, रेप, हिंसा और गैंगस्टर कल्चर लाए.

सन 2002 तक गुरदास मान, हंस राज हंस, हरभजन मान, दलेर मेहंदी और सर्धूल सिकंदर जैसे पंजाबी गायक हिंदी फिल्मों में पंजाबी पॉप गीतों का जादू बिखेर चुके थे. हिंदी फिल्मों में भी पंजाबी टच वाले गीत बड़ी गिनती में गाए जाने लगे. 1990 के दशक के मध्य और 21वीं सदी के शुरुआती सालों में पहुंचते ही पंजाबी संगीत एक बड़ी संगीत मंडी में तब्दील हो गया. कई बड़ी संगीत कंपनियों ने पंजाबी संगीत जगत में अपने पैर जमाने शुरू किए. इस समय में गाए जाने वाले गीतों में कारों, मोबाइल, चश्मे, कपड़े, इत्र और अन्य सामानों के बड़े-बड़े ब्रैंडों का जिक्र होने लगा. इसका प्रभाव पंजाबी जन-मानस पर पड़ा, खासकर नौजवानों पर. जिस कारण हरित क्रांति, एनआरआई पूंजी और आवारा पूंजी से अमीर हुए वर्ग ने अपनी इस पूंजी से इन चीजों का उपभोग किया. 2022 तक पहुंचते-पहुंचते हालात यह हो गए है कि यदि कोई गैर-पंजाबी पंजाब पहुंचता है तो उसे महसूस होगा कि जैसे पंजाब को ‘ब्रैंड फोबिया’ हो गया है. यही ‘ब्रैंड फोबिया’ मानसिकता पंजाबी गानों में कुछ इस तरह प्रगट होती है :

जिन्ने विच बल्लीये सारी तूं सजदी
उन्ने विच ता मित्तरां दे बूट औंदे आ

यही बड़ी ब्रैंड वाली कंपनियों ने पंजाबी संगीत की मंडी में खूब पैसा लगाया. पंजाबी संगीत जगत में प्रवासी पूंजी का भी बोलबाला है. पंजाब में 2004-05 में रीयल एस्टेट का कारोबार तेजी से फैलने लगा. यह रीयल एस्टेट का पैसा पंजाबी संगीत इंडस्ट्री में भी खूब लगने लगा. रीयल स्टेट के कारोबार के साथ ही गैंगस्टर कल्चर का जन्म हुआ (यां यूं कहें अपनी आवारा पूंजी की रक्षा के लिए गैंग्स की सेवा लेनी शुरू हुई). यहीं से ही रीयल एस्टेट कारोबार, आवारा पूंजी, पंजाबी संगीत इंडस्ट्री और गैंगस्टर का रिश्ता आपस में जुड़ता है और गीतों का नायक गैंगस्टर बनता है. कुछ सालों से पंजाबी संगीत जगत में संगीत रिकार्ड करने वाली कंपनियों की इजारेदारी टूटी है. गायक खुद ही सोशल मीडिया खास कर यूट्यूब पर अपने चैनल बनाने लगे है. अपना गीत शूट कर अपने यूट्यूब चैनल पर डाल देते हैं. इससे कंपनियों की बंदिश टूटी है पर कई संगीत समीक्षक कहते हैं कि इसका उल्टा असर यह है कि अब कई गायक किसी नियम की प्रवाह किए बिना गाली-गलौच और हल्के स्तर की भाषा वाला गीत भी गा देते हैं. सोशल मीडिया पर अपनी रेटिंग बढ़ाने के लिए कई बार बिना मतलब का विवाद खड़ा करने वाला बयान दे देते हैं. कई बार अपने विरोधी गायक पर निशाना साधते हैं, उसके साथ किसी बात को लेकर सोशल मीडिया पर उलझ जाते हैं. दो कलाकारों की लड़ाई में दोनों के फैन भी सोशल मीडिया पर अपने पसंदीदा गायक के पक्ष में गाली-गलौच पर उतर आते हैं. अक्सर सिद्धू मूसेवाला भी इस तरह के विवादों में उलझा रहता था. यह तकनीक सोशल मीडिया पर अपनी फैन फॉलोइंग बढ़ाने का अच्छा जरिया बनती है. कई बार दो गायकों की आपसी लड़ाई ‘फ्रैंडली’ भी होती हैं.

पंजाबी गीतों को गहराई से समझने वाली शख्सियत और पंजाबी गिद्धा ग्रुप ‘नूर आर्टस’ के संस्थापक नूर जोरा उर्फ जोरावर सिंह पंजाबी संगीत के बारे बताते हैं, “पंजाबी संगीत के दुनिया भर में प्रसिद्ध होने का कारण यह है कि यह संगीत भारी-भरकम नहीं है, सीधा-साधा है, एड़ी उठा कर नाचने वाला है. यह संगीत आप को नाचने को मजबूर करता है. पंजाबी भांगड़ा के दुनिया भर में प्रसिद्ध होने का यही कारण है.’’

वहीं नूर जोरा पंजाबी गीतों के बारे बेबाक टिप्पणी करते हुए कहते हैं, “1990 के दशक और 21वीं सदी के शुरू में पंजाबी गीतों की दिखावट और तकनीक के रूप में कई तब्दीलियां आईं पर इसका आधार वही रहा जैसे सामंती कल्चर, सामंती कीमतों से प्यार, हथियार, औरत विरोधी मानसिकता, अपनी दौलत का दिखावा, हिंसा, आदि.” 

सिद्धू की हत्या अकाली दल के युवा नेता विक्रमजीत मिधुखेड़ा की हत्या से जुड़ी हुई थी. मिधुखेड़ा (बीच में) अगस्त 2021 में मारा गया था. वह बिश्नोई गिरोह के प्रमुख लॉरेंस बिश्नोई का करीबी था, जिन्होंने सिद्धू की हत्या की जिम्मेदारी ली थी. सौजन्य फेसबुक डॉट कॉम / विक्कीमिद्धूखेरा

यदि हम 1990 के दशक से अब तक के गीतों को परखें तो नूर जोरा की कही बात को आसानी से समझ सकते हैं. बाबू सिंह मान, गुरदास मान, हाकम सूफी, बब्बू मान, हरबजन मान और हंस राज हंस जैसे गायक और गीतकारों के गीत साहित्यक रंग वाले रहे हैं. ये लोग पढ़े-लिखे नौजवानों के गायक माने जाते रहे हैं; जिनकी गायकी की जड़ें पंजाबी के सूफी काव्य और गुरबाणी से प्रभावित थी पर इसके बावजूद गुरदास मान सामंती किस्म की ‘सरदारी’ (राठशाही) का महिमामंडन करते हैं. ‘यारी ते सरदारी औंदी किसे-किसे नूं रास’, इसी तरह एक और गीत ‘मुड़-मुड़ याद सतावे पिंड दीयां गलियां दी’ में वह गांव से उप-भावुक किस्म की जुड़ाव बनाता नजर आते हैं. इसी तरह बब्बू मान को भी अपनी सरदारी पर मान होने लगता है : ‘बाकी दीयां गल्लां बाद च पहलां सरदार हां’. अपने-आप को सूफी गायक कहलवाने वाले हंस राज हंस ने जब बाजार के आगे घुटने टेक कर यह गीत गाया ‘ओह देखो, ओह देखो सड़कां, ते अग्ग तुरी जांदी ए’ तो बड़ा विरोध हुआ था. अपने पश्चाताप के लिए उसने शिव कुमार बटालवी के लिखे गीतों को आवाज देकर ‘गमां दी रात’ नाम की एल्बम (2002 में) निकाला .

20वीं सदी के आखिरी दशक में रणजीत मणी की दस्तक होती है, जोकि गायकी में फूहड़पन की उम्दा मिसाल है. यहां शब्द का साहित्य और गायन का संगीत से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं था. रणजीत मणी असल में हरित क्रांति में पीछे रह गई और कम पढ़े-लिखे वर्ग के विलाप का गायक था. यह वर्ग आधुनिक दौर में पैर रख रही औरत है जो पढ़ी-लिखी है और बाजार द्वारा पैदा किए गए मर्द के सजावटी रूप की ओर आकर्षित हो रही है (जो रूप अथवा फैशन औरत-मर्द दोनों को ही बाजार ने दिया है). मणी की वह औरत खुदगर्ज है जिसने उसके प्यार को ठुकरा कर अमीर आदमी से शादी कर ली. वह उसे "बेवफा" कहता है और खुद को बिना फूल वाला पौधा कहता है जबकि वह औरत "फूलों वाली बेल" है और इसलिए दोनों कभी नहीं मिल सकते.

रणजीत मणी के अलावा इस तरह के गीत गाने वालों में 1990 के दशक के कुछ और गायक थे जैसे मेजर राजस्थानी, गोरा चक्क वाला, धर्मप्रीत, हरदेव माहीनंगल.

फिर दौर आता है सुरजीत बिंदरखीया का, वह रुदन के माहौल को जश्न में तब्दील करता है. वह नई अर्थव्यवस्था से पैदा हुए नए वर्ग का प्रतिनिधि गायक बन कर उभरता है. रुदन वाला पक्ष पीछे चला जाता है. संगीत समीक्षक तस्कीन के मुताबिक, “बिंदरखीया वाला वर्ग ‘नई औरत’ को अपनी सत्ता की ओर आकर्षित करने में कामयाब हो जाता है और ‘पग्ग दे पेच्चां’ द्वारा अपनी ओर खींचता है क्योंकि औरत का नया रूप जिस बाजारी खींच की ओर आकर्षित हुआ था यह नई जमात उस पर काबिज हो चुकी थी. रणजीत मणी युग जिस औरत को ‘आजाद’ जान कर परेशान था, बिंदरखीया उस नई स्थिती पर सवार होकर मर्द की नई स्थिती में पैदा हुई सत्ता के आगे औरत का समर्पण करवाने में कामयाब हो जाता है तो जश्न का माहौल दोबारा खिल उठता है.”

जीह्दे हेठ घोड़ा मोढ़े ते दोनाली नी
पग्ग बन्ह्दा जिऊणे मोड़ वाली नी
जीहदी पचीँयां पिंडा च सरदारी नी
ला ली ऐहो जेहे वैली नाल यारी नी
कहिंदे डी. सी. वी सलूट ओहनूं मारदा
पैरा ’च थानेदार रोल `ता
तुं नी बोलदी रकाने तुं नहीं बोलदी
तेरे `च तेरा यार बोलदा

इसी तरह गायक पम्मी बाई कल्चर के नाम पर सामंती कदरें, जट्टवाद और हथियार अपने गीतों में लाता है जब वह गाता है, “दो चीजां जट्ट मंगदा/ दारू घर दी, बंदूक बारां बोर दी.”

2006 तक पहुंचते ही बाजार मिस पूजा के जरिए गायक नौजवानों (जिनके पास जमीनों के रेट बढ़ने या आवारा पूंजी के जरिए ताजा-ताजा धन आया था) से पूंजी हथियाने लगता है, ये ‘गायक’ मिस पूजा के साथ गाकर रातों-रात शोहरत पाना चाहते थे. इसी समय सतिंदर सरताज अपनी सूफियाना और पंजाबी किस्साकार वारिस शाह की वेश बना कर लोगों को अतीत और गांवों से उप-भावुक जुड़ाव बनाता है.

21वीं सदी में पंजाबी गायकी में हथियारों, हथियारों के जरिए लड़कियों को अपनी ओर आकर्षित करना, हिंसा और गैंगस्टर कल्चर इस रूप में पेश हुआ कि लड़की खुद अपने प्रेमी को कहती है कि वह वैली (गैंगस्टर) बन जाए. मिस पूजा और प्रीत बराड़ का एक गीत ऐसा है :

हुण तक नीवें रहि रहि के, असीं घुट सबर दे भरले
बरी करा लूं आपे तैनू, वेच के पंज-सत मरले
वैली बन मित्तरा बड़े डरावे जर लए

इसी तरह के गीतों की कुछ उदाहरण और देखें,

वैलीयां दी अख अज्ज लाल ए
कोई बंदा-बुंदा मारना तां दस” (गायक बाली रिआड)

 ***

कढ़ के दे दे रफल दोनाली
नाले पेटी रोंदां वाली
लहू जिन्ना ने पीता साड्डा
बिना सोधियां नहीं सरदा
नीं हुण बंदा मारण नू जी करदा (हरजीत हरमन)

***

यारां दे सिरा `ते हथियारां दे सिरा ‘ते
जितीये मैदान तलवारां दे सिरा `ते
हिक्क दी जुअरत नाल फैसले करीदे
उतों रब्ब दी निगा वी मेहरबान चाहिदी
गैरां दियां सिरा ते नहीं हुन्दीयाँ लड़ाईयां
अपने वी डोलियां ‘च जान चाहिदी (मांगी माहल)

***

तेरे पीछे घुमदे ने जिहड़े बने घैंट नी
चढ़गे जे हत्थे साले सारे देने फैंट
हॉकीयां नाल मार-मार
बिजली दी लै के तार
जट्ट फेर छडू चार चाली दा करंट नीं
फेर भावें साड्डे नाम`ते निकले वारंट नीं (दिलजीत)

खुली पूंजी का दिखावा, ‘बापू वाले पैसे ते एश’ करने का विचार इसी समय में प्रबल होता है. चंडीगढ़, मोहाली या बठिंडा कोठी पाने के सपने भी 21वीं सदी की गायकी ने पैदा किए.

हनी सिंह की गायकी अमर सिंह चमकीला के नक्श-ए-कदमों वाली गायकी है. फर्क सिर्फ इतना है कि हनी सिंह नए ढंग के रैप में इसे परोस के पेश करता है, चमकीले का नशा अफीम था तो हनी सिंह का ‘चिट्टा’ है. चमकीले के गीतों की औरत ग्रामीण अनपढ़ थी, हनी सिंह के गीतों की मल्लिका सनी लिओनी है. चमकीला का ‘वैली’ हनी सिंह के दौर में आते आते गैंगस्टर बन जाता है.

इस तरह यह गायकी सफर करती-करती सिद्धू मूसेवाला के दौर में पहुंची. मूसेवाला की गायकी में दूसरों से फर्क यह है कि उसके गीत नशे का प्रोत्साहन नहीं करते और औरत के मामले में अश्लीलता या गाली-गलौच नहीं मिलता जो मूसेवाला के अपने समकालीन गायकों, हनी सिंह या चमकीला की गायकी में मिलता है. उसके गीतों में औरत पर मर्द की धौंस दिखती है. अपनी आत्ममुग्धता में औरत या प्रेमिका को ‘नीं’ से संबोधित करके नीचा दिखाया जाता है. असल में जिन सामंती कीमतों को वह प्रकट करता है वे पितृसत्ता के पक्ष में और औरत के विरुद्ध ही जाती हैं. उसकी गायकी में मुख्य बात ‘सरदारी’ (सामंती राठशाही) और व्यक्ति के अंदर छुपी ‘मैं’ है. वह इंसान के अंदर वाली ‘मैं’ को पकड़ता है जो ‘मैं’ इंसान के अहंकार, उसके आत्मविश्वास, उसके अंदर सत्ता को मानने या सत्ता से जुड़ने की ललक पैदा करता है. जब वह गाता है, “डालरां वांगू नी नां है साड्डा चलदा” तो सुनने वाला मूसेवाला की जगह खुद को वहां पाता है कि उसका नाम भी डालरों की तरह चलता है या चलेगा. इसके सिवा वह पंजाबी संगीत और रैप का सुमेल अपने ढंग से पेश करता है.

***

2020 में सिद्धू अठारहवीं शताब्दी के सिख योद्धा माई भागो पर बनाए गए एक गीत के लिए माफी मांगने के लिए सिखों की सर्वोच्च अस्थायी तख्त अकाल तख्त के सामने पेश हुए. इस गाने को सिख समुदाय के विरोध का सामना करना पड़ा था. समीर सहगल / हिंदुस्तान टाइम्स / गैटी इमेजिस

मूसेवाला के अंतिम संस्कार में नौजवानों की भीड़ मौजूद थी. उनके हाथों में सिद्धू मूसेवाला के नाम की तख्तियां थीं जिनमें मूसेवाला को इंसाफ दिलाने की मांग थी. नारे लग रहे थे, "सिद्धू मूसेवाला तेरी सोच ते, पहरा दियांगे ठोक के", "दिल दा नी माड़ा, सिद्धू मूसेवाला". नौजवान "पंजाब सरकार मुर्दाबाद" का नारा लगा कर राज्य की भगवंत मान सरकार के प्रति अपना रोष प्रगट कर रहे थे. 45 वर्षीय व्यक्ति मीडिया को कह रहा था कि वह अपने 16 साल के लड़के की इच्छा पर यहां आया है. मूसेवाला की मौत के बाद यह भी खबरें आईं कि उसके एक-दो नौजवान प्रशंसकों ने उसकी मौत के सदमे में खुदकुशी कर ली. अब सवाल यह है कि सिद्धू मूसेवाला जैसे कलाकार ही आज की जवानी के नायक क्यों हैं? पंजाब में जन संघर्ष भी चलते हैं उनमें से कोई मौजूदा दौर का नायक क्यों नहीं? साहित्य की दुनिया में से इस समय कोई नायक क्यों नहीं है (पहले भले ही गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी, शिव कुमार बटालवी या पाश नायक रहे हो पर 21वीं सदी में पैदा हुई पीढ़ी के बड़े हिस्से के ये नायक नहीं हैं)? यही नौजवान सोशल मीडिया पर अपनी पसंद के कलाकारों के हक में गाली-गलौच करते हैं.

इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए अतीत के पन्नों को पलटने की जरूरत है. 1960 के दशक में भारतीय मध्यम वर्ग के एक हिस्से के साथ ही पंजाब के लोगों के ‘आजादी के सपने’ टूटने लगे थे. इसी दशक में आई हरित क्रांति ने किसानी में एक धनी वर्ग पैदा किया और एक बड़ा वर्ग वह भी सामने आया जो हरित क्रांति की बरकतों से अछूता रह गया. इसी दौर में पूंजीवादी प्रबंध ने सामंती मूल्यों को तहस-नहस कर दिया पर कई जगह सामंती मूल्य प्रबंध ने पूंजीवादी मूल्यों से हाथ भी मिलाना शुरू किया हुआ था. अब इंसान और उसके जज्बात की जगह पूंजी ने ले ली थी. इस सामाजिक उथल-पुथल को समझना साधारण व्यक्ति/ नौजवान के लिए मुश्किल हो रहा था. पंजाबी के चहेते शायर शिव कुमार बटालवी की कविता में पंजाब के उस निराश हुए नौजवान की झलक मिलती है. उस समय के समाज जहां ‘लाखों का तन’ मिलना आसन था पर किसी एक का मन मिलना मुश्किल था.

शिव कुमार बटालवी के एक गीत की लाइन है :

सानूं लख्खां दा तन लब्भ गया
पर एक दा मन भी न मिलिया
क्या लिखिया किसे मुकद्दर सी
हत्थां दीयां चार लकीरां दा

बटालवी की शायरी उस निराश और हताश नौजवान की मन:स्थिती पेश करती है जिसको यह समझ नहीं आ रहा था वह किसके विरुद्ध लड़े, उसका दुश्मन कौन है, वह सामाजिक बंधनों में जकड़ा हुआ नौजवान है, उसको लगता है कि वह इन जंजीरों को तोड़ नहीं सकेगा. वह इसी तरह मर जाएगा/जाएगी. इस समाज से निराश नौजवान दूर कहीं भागना चाहता है. शिव कुमार खुद भी इस समाज से कहीं दूर भाग जाना चाहता था जिसका ज़िक्र उसने बी. बी. सी. को दी अपनी इंटरव्यू में किया था. इस बेइत्तबारे समाज में तभी वह अपने सारे रिश्ते प्रकृति से जोड़ता है. उसने पेड़-पौधों और दरख्तों से ऐसा कोई रिश्ता नहीं जो न जोड़ा हो (जानने के लिए उसका गीत ‘कुझ रुख मैनू पुत्त लगदे ने ,कुझ रुख लगदे मावां पढ़ें). इसीलिए शिव की कविता ‘जोबन (जवानी) रुत्ते (ऋतु)’ मरने की चाह रखती है :

असां ते जोबन रुत्ते मरना
मुड़ जाणा असां भरे भराए
हिज्र तेरे दी कर परक्रमा
असां ते जोबन रुत्ते मरना
जोबन रुत्ते जो वी मरदा
फुल बने जां तारा
जोबन रुत्ते आशिक मरदे
जां कोई करमां वाला
जां ओह मरन
कि जिन्हां लिखाए
हिज्र धुरों विच करमां
हिज्र तुहाडा असां मुबारक
नाल बहिश्ती खड़ना

1960 के दशक के आखिरी सालों में शुरू हुई नक्सली लहर ने पंजाब को भी अपनी लपेट में ले लिया. नए समाज की चाह रखने वाले नौजवान इस लहर में कूदे. इस लहर ने पंजाब पर वैचारिक असर डाला. पंजाबी साहित्य और पंजाब की संघर्ष व जुझारू परंपरा पर भी इसका असर पड़ा. इस दौरान फर्जी एनकाउंटर भी हुए. इस दौरान पंजाब में चर्चित फर्जी एनकाउंटर आजादी संग्रामी और गदर आंदोलन से जुड़े रहे कम्युनिस्ट विचारों के बुजुर्ग बाबा बूझा सिंह का 1970 में प्रकाश सिंह बादल सरकार के समय में हुआ था. उस समय बूझा सिंह की उमर 80 साल थी.

1980 के दशक की खालिस्तानी लहर में पंजाब को चौतरफा नुकसान हुआ. पंजाब ने खालिस्तानी दहशतगर्दों का जुल्म भी सहा और खालिस्तानियों को दबाने के नाम पर सरकारी जुल्म भी. नौजवानों के फर्जी एनकाउंटर हुए. उन 30 सालों के बाद जो नौजवानी पैदा हुई उसका बड़ा हिस्सा राजनीतिक चेतना से रहित था. 1990 के दशक के आखिर और 21वीं सदी में पैदा हुई पीढ़ी के बड़े हिस्से के पास पंजाब के प्राचीन इतिहास, सिख इतिहास, गुरबाणी, सूफी परंपरा, पुरातन महान साहित्य, आजादी आंदोलन, भगत सिंह, करतार सिंह सराभा, गदर लहर, पगड़ी संभाल जट्टा लहर, कूका लहर, बबर अकाली लहर, बंटवारे, आजादी के बाद की पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिकता के बारे में या तो ज्ञान है ही नहीं यदि है भी तो वह सुनी सुनाई बातों और सीमित तथ्यों पर आधारित है. पंजाब की विरासत और हकीकत से टूटी इस नौजवान पीढ़ी के लिए भगत सिंह भी हीरो है, भिंडरावाला भी. वह केजरीवाल का झाड़ू भी उठा लेता है, उसे भगवंत मान की बातें भी अच्छी लगती हैं, उसको दीप सिद्धू और सिद्धू मूसेवाला भी ‘कौम के हीरे’ नजर आते हैं. पंजाब की नौजवानी के संकट बारे पंजाबी नाटककार डॉ. साहिब सिंह कहते हैं, “पंजाब की नौजवानी इस समय बियाबान में विचर रही है. अपनी जड़ों और इतिहास से टूटी नौजवानी को जो भी विचार उत्तेजक लगता है वो उसके पीछे भागती है. बाद में जब उस विचार की हकीकत पता लगती है फिर निराशा में चली जाती है.”

गायक अमर सिंह चमकीला और उनकी पत्नी अमरजोत. चमकिला ने 1980 के दशक में पंजाबी संगीत उद्योग पर राज किया. उन्होंने वैलिस और गैंगस्टरों को ऐसे मर्दों के रूप में दर्शाया जो महिलाओं को अपने अंगूठे के नीचे रखते थे. सौजन्य दिलदार_चमकीला

1990 के दशक के आखिरी सालों और 21वीं सदी के शुरुआत में पंजाबी गानों का फिल्मांकन अथवा वीडियोग्राफी आधुनिक तौर-तरीकों से होने लगा. इन गीतों में बड़ी कारों, आधुनिक हथियारों से लैस नौजवान, जट्टवाद और सरमायेदारी-सामंतवादी सोच का दिखावा, लड़ाई, कत्ल और मर्दानी की धौंस दिखने लगी. गीतों के फिल्मांकन में आधुनिक लिबास पहनी लड़कियां ऐसे ही लड़कों पर ‘फिदा होतीं’ दिखाई जाती हैं. इन गानों में पश्चिम के देशों की वस्तुओं को दिखाया जाने लगा. इन गीतों के नायक अपने जवानी के रौब, पैसे, हथियारों के जोर पर और बड़े नेताओं से ‘यारी पा कर’ समाज में अपना वर्चस्व बनाने की सोच रखने वाले हैं. इस चकाचौंध ने पंजाबी नौजवानों को खींचा. नौजवान भी गीतों के नायक की तरह बनने की सोचने लगा क्योंकि गीतों के नायक ही अब पंजाब के नौजवान के नायक बन चुके थे. जिंदगी से निराश, बेरोजगार, सिस्टम से नाराज नौजवान के लिए यह झूठ-मूठ का आसरा बनते हैं. वहीं हरित क्रांति में पीछे रह गए किसानी वर्ग में भी ये गीत पुरातन सामंती रुमानियत का एहसास जगा कर उसे अपने अतीत और जातीय गौरव का एहसास करवाते हैं. लाजमी था कि जमीन की कीमत बढ़ने और एनआरआई पूंजी से ताजा-ताजा अमीर हुए जट्ट/किसान वर्ग के नौजवानों को तो ये गीत उकसाएंगे ही.

पंजाब के विद्वानों का मानना है कि पंजाबी संस्कृति इस वक्त गंभीर संकट में है और इसकी एक गहरी जड़ संगीत उद्योग से जुड़ी हुई है. बड़े स्तर पर पंजाबी संगीत उद्योग ने पंजाबी ‘लोक मन’ को विशेष रूप में ढाला है. नौजवानों को अपने हितों अनुसार निर्देशित करने के लिए यह संगीत उद्योग किसी भी बौद्धिक और राज्यसत्ता को चुनौती देने वाली गतिविधि से दूरी बनाए रखता है. व्यापारिक मंडी के संगीत ने नशे, कामुक हिंसा, गैंगस्टर कल्चर को बढ़ावा दिया है. हनी सिंह के गीत इसका एक पुख्ता उदाहरण हैं. मौजूदा हालात पर साहित्य और पंजाबी गीतों के समीक्षक तस्कीन चिंता प्रकट करते हैं, “इस समय पंजाब उपभोगतावादी भाषा और संस्कृति के नासूर की पीड़ा से तड़प रहा है. जिसमें से बौद्धिक कंगाली का दरिया पंजाब की धरती से सब्र, जज़्बा, गैरत, नैतिकता सब बहा कर ले गया है. पंजाबी मानस के जहन पर उपभोगतावादी मंडी ने अपना किला बना लिया है. इंसानियत की भावना की जगह वस्तुओं के मोह ने ले ली है. इस अवस्था वाले पंजाबी व्यक्ति को आवारा पूंजी चाहिए जिसका वह उपभोग कर सके. यह आवारा पूंजी मेहनत से नहीं आ सकती. इस समय पंजाब हर तरह के गैंगस्टरों का गढ़ बन गया है. राजनीतिक गैंगस्टर, डेरावादी गैंगस्टर, धार्मिक गैंगस्टर, गायक गैंगस्टर, नशा गैंगस्टर, बौद्धिक गैंगस्टर, ये सब तरह के गैंगस्टर पंजाबी मानस की चेतना में कील ठोक रहे हैं. लेकिन पंजाबी मानस भ्रम में जकड़ा हुआ हुआ है. पंजाबी बंदे की चेतना पर सरदारीविचारों का किला बना हुआ है जिस पर कारपोरेट उपभोगतावादी मंडी ने पूरी तरह कब्जा कर लिया है. यहां कला और साहित्य मंडी का एक माल है, विवेक पैदा करना इसका काम नहीं है. आतंक फैलाना हमारे नए संगीत का मनोरंजन है. इसीलिए हथियारों ने ‘साज’ का रूप धारण कर लिया है. इन्हें बजाने वाला गैंगस्टर हमारा आदर्श नायक है. इस युग में जो बिकता है वही साहित्य, कला और संगीत है. उपभोगतावादी कल्चर के इस उद्योग में उत्पादक पहले वस्तु बनाता है फिर मीडिया मशीन के जरिए उसकी मांग पैदा करता है.”

मौजूदा पंजाबी संगीत इंडस्ट्री ने इतिहास में दमन का प्रतीक माने जाने वाले शब्दों को भी शानो-शौकत के तौर पर पेश किया गया है जैसे सरदार (राठ) वैली (बदमाश या लंपन ) आदि शब्द, इसी तरह संगीतक मंडी ने ऐतिहासिक अर्थों और नायक की परिभाषा भी बदल दी है. एक गीत है : “हिटलर बन गया सोहनीए नीं तेरी राखी करदा”. यहां फासीवाद का प्रतीक हिटलर गैरत का प्रतीक बन जाता है जो एक लड़की की रक्षा गुंडों से करता है. बब्बू मान के एक गीत के बोल हैं :

दुनिया जित्तण आया सिकंदर लै के भारी फोर्स
वड़िया जद पंजाब ’च मूहरे टक्कर गया जट्ट पोरस

जट्टों को पंजाब का गौरव बताने के लिए पोरस को भी जट्ट बना दिया गया है. इसी तरह भगत सिंह, करतार सिंह सराभा और उधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों को यह गीत जट्ट, सरदार, ‘गोरों से बदला लेने वाले गैरतमंदों’ तक सीमित कर देते हैं.

इस संगीत मंडी के बड़े रूप है यदि यहां जट्टों के गुणगान पर गीत हैं तो यहां कुछ गीत पंजाब की उन जातियों के गौरव पर भी आए हैं जिन्हें तथाकथित ‘निम्न’ जातियां कहा जाता है.  दलित गायक रूप लाल धीर और गिन्नी माही ने अपनी चमार पहचान के बारे में गीत रच कर आप बनाया. कोई इस बात को संगीत इंडस्ट्री का इंकलाबी कदम मान सकता है पर ध्यान देने वाली बात यह है कि संगीतक मंडी को दोआबा इलाके में अपनी दलित पहचान के लिए ‘जागा हुआ’ ‘दलित कस्टमर’ भी दिखता है. यहां यदि कोई गायक ‘लक्क ट्वंटी एट कुड़ी दा, फोरटी सैवन वेट कुड़ी दा’ गा कर ‘कल्चर को खराब करने वाला’ बन जाता है वहीं वही गायक ‘आर नानक पार नानक’ गा कर ‘सभ्याचारक गायक’ (अर्थात कल्चर की सेवा करने वाला) बन जाता है. यहां यदि एक गायक ‘मर गये नीं असीं तेरा रूप देख-देख’ गीत गाता है तो उस गायक और उसकी कम्पनी को किशोर और नौजवान अपने ग्राहक के रूप में दिखाई देते है जब वही गायक ‘साडा हक्क’ गीत गाता है तो उसको एनआरआई ग्राहकों का एक हिस्सा दिखाई देता है. इस मंडी में हर विचार बिकता है. आम जन को किसी गायक का गाया कोई गीत सत्ता विरोधी, बागीयाना या जनपक्षीय लग सकता है पर बात ध्यान देने वाली है कि गायक/गीतकार को किसी न किसी बहाने अपने श्रोताओं का घेरा बढ़ाना भी जरूरी होता है. इसका एक उदाहरण किसान आंदोलन के समय कितने गायकों ने आंदोलन के पक्ष में गीत गाए और आंदोलन में हाजिरी भी लगाई इससे उन्होंने लोगों में अपनी इज्जत और आधार बनाया लेकिन जैसे ही आंदोलन खत्म हुआ तो ज्यादातर गायक उसी किस्म के जातिवादी, नारी विरोधी, मार-धाड़ वाले गीत गाने लगे जैसे आंदोलन से पहले गाते थे.

तस्कीन इसको और स्पष्ट रूप से समझा देते हैं, “मुख्य रूप में इस मंडी कल्चर को ‘सट्टे की पूंजी’ चलाती है, भले ही और कई तरह की पूंजी की इसमें समूलियत से इनकार नहीं किया जा सकता. बाजार पर नजर रखने वाले खोजते रहते हैं कि अब किस विचार की खपत हो सकती है; संगीत की मंडी में कौन-सा विचार मांग को बढ़ा सकता है; अब इसमें ‘सरदारी’ बिकनी है, जात-धर्म, जश्न, वैराग या रुदन बिकना है. हर एक मांग/विचार की पूर्ती के लिए माल मंडी में मौजूद होता है. संताप से भरे व्यक्ति का ‘आसरा’ कौन सी वस्तु (विचार ) बन सकती है. मंडी धडा-धड़ उसी उत्पाद का ढेर लगाने लगती है.”

1983 में टोरंटो, कनाडा में प्रवासी पंजाबी. कॉलिन मैककोनेल / टोरंटो स्टार / गैटी इमेजिस

इस समय पंजाबी संगीत इंडस्ट्री से जुड़े ज्यादातर गायक और गीतकार पंजाब के मालवा क्षेत्र से आते हैं. 1990 के दशक के मध्य तक तो संगीत उद्योग का केंद्र मालवा में लुधियाना जिला रहा उसके बाद इस उद्योग का केंद्र मालवा का ‘खालिस इलाका’ बठिंडा हो गया. इस इंडस्ट्री में बहुत से गायक और गीतकार बठिंडा और मानसा से मिल जाएंगे. तस्कीन इसके कारणों को बारीकी से समझाते हुए कहते हैं, “हरित क्रांति का रण-क्षेत्र मालवा था. यहां लोगों की चेतना पर ‘पैप्सू’ की राजाशाही के जगीरू विचारों का कब्जा था. कम्युनिस्टों ने यहां मजारों के लिए राजनीतिक संघर्ष तो किया पर सांस्कृतिक स्तर पर संघर्ष की जरूरत को समझने में वे पिछड़ गए. यहां जिस साहित्य और संस्कृति का निर्माण हुआ भी था वह सुच्चा सूरमा, जिऊणा मौड़, धन कौर, केहर सिंह जैसे पिछड़े सामंती संसार के सूरमें थे. अंग्रेजों के अधीन समूचा सिखशाही पंजाब था जिसका केंद्रीय हिस्सा ज्यादातर साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेता था. 1947 के बंटवारे ने पंजाब की साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को झिंझोड़ कर रख दिया. पंजाब का साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधि का गढ़ है और इन गतिविधियों का केंद्र लाहौर जैसा शहर पाकिस्तान में चला गया. सन 1966 तक भारतीय पंजाब भी तीन हिस्सों में बंट गया जिसके चलते मालवा पंजाब का बड़ा क्षेत्र बन कर उबरा. हरित क्रांति का मुख्य केंद्र भी यही इलाका बना जिससे यह इलाका माला-माल हुआ. यहां के लड़के- लड़कियां भी पढने लगे. यहां हरित क्रांति के धन से अय्याशी भी पनपने लगी. जिस क्षेत्र की आर्थिकता संपन्न है कल्चरल प्रभाव भी उसी का होगा और वहां के लोगों की चेतना के अनुसार होगा. यहां के नेता सदा ही राजसत्ता से मिल कर चलते रहे हैं. आजादी के बाद भी आजादी संघर्ष से निकले नेताओं की बजाय मालवा के जागीरदार, राजे, सरदार राजनीतिक बदलाव के तौर पर सामने आए. ये लोग अंग्रेजों के चमचे और जी हजूरिये थे. खुशामद करनी और करवानी इनके कल्चर का हिस्सा था. अब यही सामंती, कमजोर को मसलने वाली और सत्ता से यारी बनाने वाली सोच पंजाबी गीतों में भी दिखती है.”

मालवा जहां सामंती सोच वाली गायकी का केंद्र है वहीं यह लोक संघर्षों की केंद्रीय धुरी भी है. पंजाब से निकल कर देश में फैलने वाला किसान आंदोलन मालवा से ही शुरू हुआ था. मालवा बड़े-बड़े आंदोलनों, रैलियों का अड्डा भी है. मालवा ही पंजाब का वह क्षेत्र है जहां सबसे ज्यादा साहित्य पढ़ा जाता है, सब से ज्यादा पुस्तक मेले भी यहां लगते हैं. देखा जाए तो मालवा ही वैचारिक तौर पर सब से ज्यादा उबलने वाला इलाका है. यहां वैचारिक युद्ध पूरे शबाब पर चल रहा है. एक ओर बड़ी- बड़ी कारपोरेट कंपनिया हैं जो सरकारी सरपरस्ती से किसानों की जमीन छिनने का प्रायोजन कर रही हैं. दूसरी ओर यहीं उन्हें चुनौती देते जन -संघर्ष हैं. एक ओर संगीतक मंडी का संगीत जो उन्हें सामंती केंद्रों से और मर्दवादी सत्ता से जकड़ कर कमाई कर रहा है दूसरी ओर उन्हें चुनौती देता प्रगतिशील साहित्य और पुस्तक मेले हैं.

मालवा क्षेत्र में वर्चस्व रखने वाले वामपंथी संगठनों ने भी सांस्कृतिक क्षेत्र को गंभीरता से नहीं लिया. यहां तक के जिन संगठनों के कल्चरल विंग बने भी हुए हैं उनका संगीत (एकाध संगठन को छोड़ कर), गीत, उनमें पेश विचार और साज पुरातन सामंती काल के हैं. इन संगठनों के ज्यादातर नेता खुद सामंती कीमतों की जकड़ से मुक्त नहीं हो पाए. अक्सर ही फसल की कटाई के मूल्य को लेकर जब दलितों का बाईकाट होता है तो ऐसा करने वालों में वामपंथी संगठनों से जुड़े किसान भी शामिल होते हैं. कई बार इन संगठनों के नेता इसलिए इस पर नहीं बोलते या बहिष्कार करने वालों को नहीं रोकते कि संगठन में दरार न पड़ जाए.

पंजाबी साहित्य से ‘गीत’ विधा को ‘देश निकाला’ देने से भी सेहतमंद गायकी को नुकसान पहुंचा है. 1970 के दशक तक साहित्यिक गीत बड़े स्तर पर लिखे और गाए जा रहे थे. शिव कुमार बटालवी, नंद लाल नूरपुरी, बावा बलवंत, प्रोफेसर मोहन सिंह, अमृता प्रीतम जैसे साहित्यकारों ने बड़े खूबसूरत गीत लिखे और उन्हें पंजाब के नामवर गायकों ने गाया भी. बाद में पंजाबी कवियों ने ‘गजल सम्राट’ बनने के चक्कर में गीत लिखने छोड़ दिए. ‘गीत’ को अपना ‘नालायक पुत्र’ मान कर घर से निकाल दिया और वही नालायक पुत्र व्यापारियों ने संभाल लिया. अब आलम यह है कि पंजाबी में सब से ज्यादा धड़ाधड़ कविता और गजल लिखी जा रही है पर उसमें न तो काव्यात्मकता है न एहसास है और न ही संगीत रस. यह एक ‘मिडल क्लासी’ हल्का साहित्य है. 19वीं सदी में पैदा हुए प्रो. पूरन सिंह की ‘खुली कविता’ को तो गाया जा सकता है और उसकी काव्यात्मकता का आनंद लिया जा सकता है पर आज की थोक में लिखी जा रही तोल-तुकांत वाली कविता को नहीं.

पंजाब में जहां सिख गुरुओं, सूफी संतों, किस्साकारों और शायरों की विरासत है, वहीं सामंती सोच, जुझारूपन, हथियार, हिंसा, औरत विरोधी मानसिकता, पितृसत्ता, मर्दानी धौंस और ‘वैलीपणा’ भी पंजाब की संस्कृति में पहले से मौजूद है. पुरातन लोक साहित्य, कहानियों, लोक गीतों और ‘लोक तथ्थों’ में इसकी झलक मिल जाती है. पंजाबी के किस्सा काव्य में भी सामंती, मर्दानी धौंस और औरत विरोधी मानसिकता प्रकट होती दिख जाती है. 1960 के दशक में  पंजाबी के नामवर गीतकार देव थरीकियांवाला ने मालवा के किस्सा काव्य को अपने गीतों का रूप देकर लोगों को सामंती पाठ पढ़ाया. वह अपनी वैचारिक खुराक सामंती समाज से लेते हैं. "365 चलितर नार दे गल्ल सोलां आने सच थरीकेवाला कह गया" जैसे औरत विरोधी गीत उसी के हैं. इसी तरह की मानसिकता चमकीला के इस गीत में भी प्रकट होती है,

जीहने लाल परी न पीती
रन्न कुट के सीधी न कीती
जीहने नशा पानी न पीना
उस भड़ूई दा दस की जीणा
कंडा खिचिया न जीहने
भैण दी ननान दा
ओह वैली काहदा कौढ़ी है जहान दा

1992 की हिट फिल्म, जट जियोना मोड़ में प्रसिद्ध पंजाबी अभिनेता गुग्गू गिल. मोड़ एक औपनिवेशिक युग का डाकू था जो हिंसा के लिए जाना जाता था. मालवा क्षेत्र में जहां के सिद्धू हैं, वहां मोड़ को वीरता के प्रतीक के रूप में देखा जाता है.

पंजाबी लोग भले ही आधुनिक होने के लाख दावे करें पर उसका मन सामंती बेड़ियों से जकड़ा हुआ है. विदेश की धरती पर भी सामंती कदरों-कीमतों से उसका पीछा नहीं छूटता. वहां उसका ज्यादा घुलना-मिलना वहां बसे उसके अपने भाईचारे से ही होता है. विदेशी धरती पर ‘सैटल’ हुआ पंजाबी अपने आधुनिक होने और दूसरों से अलग दिखने का नाटक करता है पर चिंता उसको इस बात की भी रहती है कि उसकी बेटी यहां (विदेशी धरती पर जहां वह ‘सैटल’ हो गया है) अपनी मर्जी से जाति/धर्म से बाहर वाले लड़के से शादी न करवा ले; ‘काला’ तो बिलकुल न हो. कभी-कभार ऑनर किलिंग के मामले भी सामने आते हैं. कनाडा, अमरीका का ‘सिटीजन’ बना जब वह अपने पैत्रृक गांव आता है तो अपनी अमीरी और एनआरआई पूंजी का घमंड करता हुआ अपने ‘देसी रिश्तेदारों’ पर रौब डालता है. पैसे के जोर पर सामंती किस्म के खेल और सांस्कृतिक प्रोग्राम करवाता है और कोई बड़ा नेता उस में मुख्य मेहमान होता है. इस तरह वह सामंती कीमतों से जुड़ा हुआ और मौजूदा सत्ता के साथ अच्छे संबंध बनाता हुआ नजर आता है. गांव में अपना सियासी और सामाजिक रुतबा दिखाने के लिए सबसे बड़ी और ऊंची कोठी बनाता है ताकि उसकी जागीरू शान-ओ-शौकत को चार चांद लग सकें.

पंजाब के कुछ विद्वान सिद्धू मूसेवाला की इसी बात पर तारीफों के पुल बांध रहे हैं कि उसने कनाडा से वापिस आकर अपने गांव में कोठी बना कर रहना शुरू किया, वह चंडीगढ़ मोहाली जैसे किसी बड़े शहर में नहीं गया. दरअसल शहर के अंदर जागीरू शानों-शौकत फीकी पड़ जाती है. सियासी, सामाजिक और जगीरू रुतबे की भूख भी गांव में रहने को मजबूर करती है.

इस समय पंजाबी मन एक ओर सामंती कदरों-कीमतों में जकड़ा हुआ है दूसरी तरफ उपभोगतावाद ने उसको गुलाम बना लिया है. बाजार उसकी सामंती कदरों-कीमतों को कैश कर उन्हें उसके ‘गौरव का प्रतीक बना’ गीतों/फिल्मों में दिखा कर कमाई कर रहा है. संगीत की मंडी पंजाबी मन को इतिहास-मुक्त और अर्थ-मुक्त करने में लगी हुई है.

जब कोई समाज ज्ञान और चिंतन से पीठ कर ले, इतिहास को समझना भूल जाए या जब कोई इतिहास के हाथों हार जाए, तो वह अपनी बची-खुची ताकत को अपने ‘अतीत के गौरव’ में तलाशने लगता है. बाजार इसमें सहायक के तौर पर काम करता है. राज्य सत्ता को यह स्थिति खूब रास आती है.