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गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की 29 अक्टूबर को मौत हो गई. 2001 में पटेल के स्थान पर नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे. नीचे प्रस्तुत है कारवां के मार्च 2012 अंक में प्रकाशित नरेन्द्र मोदी की प्रोफाइल का वह अंश जो केशुभाई पटेल और मोदी के संबंध की जानकारी देता है.
आरएसएस के अंदर मोदी का तेजी से उदय हुआ लेकिन असली राजनीतिक ताकत हासिल करने के लिए उन्हें आरएसएस के विशुद्ध विचारधारात्मक क्षेत्र से बाहर निकल कर बीजेपी में पहुंचना था. इसकी शुरुआत 1987 में तब हुई जब उन्हें गुजरात में संगठन सचिव नियुक्त किया गया. यह व्यक्ति राज्य में आरएसएस का वह व्यक्ति होता है जिसे बीजेपी को देखना होता है. वह बीजेपी के राज्य के राष्ट्रीय अध्यक्ष की तरह नहीं होता जो लोकप्रिय हस्तियां होती हैं. संगठन सचिव का काम गुप्त और पीछे से पार्टी को चलाना होता है. वह आरएसएस और इसी राजनीतिक शाखाओं के बीच एक "पुल" की तरह होता है.
गुजरात में मोदी आठ साल संगठन सचिव रहे. संयोग से यही वह समय था, जब राज्य में बीजेपी का अभूतपूर्व विकास हुआ. इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 1985 में बीजेपी के पास 11 सीटें थीं और एक दशक बाद पार्टी के पास 121 सीटें हो गईं. हालांकि राज्य में पार्टी के पास दो बहुत ही वरिष्ठ नेता केशुभाई पटेल और शंकरसिंह वाघेला थे. दोनों ही बीजेपी के अध्यक्ष रहे चुके थे. लेकिन अब मोदी भी राज्य में ताकत का तीसरा केंद्र बन गए थे. इस ताकत के तहत वह गठबंधन बनाने के फैसले से लेकर, राज्य और केंद्र में उम्मीदवारों के चयन तक को प्रभावित करते.
इस दौरान गुजरात में सांप्रदायिक दंगों की तीन बड़ी घटनाएं हुईं और हर दंगे में मरने वालों की संख्या पिछले दंगे से ज्यादा होती. 1985 में 208 लोगों की मौत हुई, 1990 में 219 लोगों की मौत हुई और 1992 में 441 लोगों की मौत हुई. राज्य में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव से बीजेपी को फायदा हुआ और पार्टी के हिंदू वोट बढ़ते चले गए. तनाव को भुनाने के लिए बीजेपी ने रोडशो का आयोजन कर दो राज्यव्यापी अभियान लॉन्च किए. जिनमें मोदी ने पर्दे के पीछे अहम भूमिका निभाई. 1987 में निकाली गई पहली यात्रा का नाम न्याय यात्रा और 1989 में निकाली गई दूसरी यात्रा का नाम लोक शक्ति रथ यात्रा था. 1990 में जब बीजेपी अध्यक्ष आडवाणी ने अपनी अयोध्या रथयात्रा की शुरुआत की, जिसके तहत बाद में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई, तो उन्होंने इस यात्रा की शुरुआत गुजरात के सोमनाथ मंदिर से ही की. इस अभियान के पहले पड़ाव का सारा इंतजाम मोदी ने ही किया था. इसके अगले साल मोदी को पहला राष्ट्रीय कार्यभार मिला जब उन्हें बीजेपी के नए अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में उन्हें देशव्यापी यात्रा का आयोजक बनाया गया. इसकी शुरुआत दक्षिणी छोर के तमिलनाडु से होकर श्रीनगर में तिरंगा फहराए जाने पर संपन्न हुई.
1990 की शुरुआत में हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन का उदय हो गया था और साथ ही यह एक दुर्जेय राजनीतिक ताकत में भी तब्दील हो गया था. चुनावी मामले में बीजेपी के पास संसद में गठबंधन का भाग्य तय करने के लिए पर्याप्त सीटें थीं और पार्टी अपनी बूते भी कुछ राज्यों में सरकार बनाने में सफल रही थी. इसने साबित कर दिया था कि धार्मिक जोश वाली भीड़ को सड़कों पर लाने में यह पार्टी पारंगत है और इसका बड़ा उदाहरण बाबरी मस्जिद मामला और जोशी का कश्मीर में लंबामार्च था.
एकता यात्रा की अवधि के दौरान मोदी ने इसका रूट तय किया और रास्ते में प्रत्येक जगह पर समारोह का आयोजन किया. मोदी ने उन्हें दिए गए काम को बखूबी निभाया. लेकिन यात्रा में शामिल एक पार्टी नेता को याद है कि उस वक्त भी संकेत मिल रहे थे कि मोदी आदेशों का पालन करने वाले भर नहीं हैं. पार्टी नेता ने कहा कि मोदी अक्सर जोशी के निर्देशों से छिटक जाते. उन्होंने एक छोटी घटना बताई जिसमें जोशी ने आग्रह किया था कि यात्रा में शामिल बड़े राष्ट्रीय नेताओं से लेकर छोटे कार्यकर्ता एक साथ खाना खाएंगे. लेकिन मोदी अक्सर गायब हो जाते और अपने ही काम में लगे रहते. उन्होंने कहा, “जब यात्रा बेंगलुरु पहुंची तो अनंत कुमार और मोदी गायब हो गए. अनंत कुमार बेंगलुरु के नेता थे. जब जोशी ने पाया कि मोदी साथ खाना नहीं खा रहे हैं तो वह आग बबूला हो गए. अगली सुबह जोशी ने मोदी को हम सबके सामने डांट लगाई और कहा कि उन्हें ठीक से रहना चाहिए. अनुशासन पवित्र चीज है. वह भले ही यात्रा को आयोजित कर रहे हैं लेकिन अनुशासन उन पर भी लागू होता है.”
लेकिन यात्रा के बाद जब मोदी गुजरात लौटे तो और अधिक स्वयत्ता से काम करने लगे. जिससे उनके और शंकरसिंह वाघेला के बीच विवाद पैदा हो गया. वाघेला मोदी से 10 साल सीनियर थे और बीजेपी में बेहद ताकतवर भी. वह पार्टी में फंड लाने वाले और धर्मनिरपेक्ष पार्टियों से गठबंधन बनाने वाले प्रमुख व्यक्ति थे. लेकिन राज्य में वाघेला के ऊपर केशुभाई पटेल थे जो बीजेपी की सरकार बनने की स्थिति में मुख्यमंत्री बनते. मोदी से उम्मीद थी कि वह बीजेपी और आरएसएस के बीच “पुल” का काम करेंगे लेकिन उनके आदेश देने की प्रवृति और अपने मनमाफिक काम करने की वजह से बीजेपी नेताओं में विवाद पैदा होने लगा. तब बीजेपी के महासचिव और प्रमुख पार्टी विचारक के गोविंदाचार्या ने कहा, “वह एक मेहनती व्यक्ति हैं लेकिन उन्हें छोटे कद का काम पसंद नहीं था. मोदी केशुभाई और शंकरसिंह वाघेला के कद का होना चाहते थे.”
वाघेला ने मुझे बताया, “मोदी बीजेपी के रोजमर्रा के काम में दख्ल देने लगे जबकि पार्टी अध्यक्ष के तौर पर वह मेरा काम था. पार्टी के संविधान के मुताबिक संगठन सचिव को सिर्फ पार्टी को निर्देश देना होता है उन्हें लागू करवाने का काम उसका नहीं होता.”
इस समय बीजेपी विपक्ष में थी. दोनों नेताओं के बीच दरार बढ़ गई और विचारधारात्मक रूप से नैतिकतावादियों ने साथ मिलकर एक लक्ष्य की सेवा करने की ठानी. यह लक्ष्य राज्यव्यापी चुनावों में जीत हासिल करने का था. बीजेपी कार्यकर्ताओं के पास वोटरों को मैनेज करनी की कोई खास ट्रेनिंग नहीं थी. उन्हें वोटर रिकॉर्ड मेंटेन करना नहीं आता था. उन्हें बूढ़े और बीमार लोगों के लिए परिवहन की व्यवस्था भी नहीं आती थी जिसका फायदा विपक्ष उठा ले जाता था और कुछ ऐसे मजेदार नुस्खे भी थे जो दूसरी पार्टी के अनुभवी कार्यकर्ता खूब जानते थे. मोदी, वाघेला और पटेल आरएसएस, वीएचपी और एबीवीपी के 150000 लोगों को ट्रेनिंग देने के लिए साथ ले आए. यह 1995 के चुनाव के ठीक पहले की बात है. इससे चुनाव में बीजेपी को खूब फायदा हुआ था.
182 सदस्यों वाली विधानसभा में बीजेपी की सीटों की संख्या जहां 67 से 121 यानी दोगुनी हो गई वहीं कांग्रेस 45 सीटों पर सिमट गई. पार्टी ने पटेल को सीएम चुना और मोदी उनके साथ ज्यादा समय बिताने लगे. जिसकी वजह से वाघेला और अकेले पड़ गए. उन्हें इसका भी एहसास हुआ कि दोनों नेता मिलकर उनके खिलाफ मोर्चा खोल रहे हैं. वाघेला ने मुझसे कहा, “मोदी हर रोज केशुभाई के साथ दोपहर और रात का खाना खाने लगे और उनके कान भरते कि मैं उनके खिलाफ विद्रोह की तैयारी कर रहा हूं और उन्हें विधायकों को मुझसे दूर रखना चाहिए.”
लेकिन वाघेला भी महत्वाकांक्षी और अधीर थे. 1995 में वह बीजेपी के आधे विधायकों को मध्य प्रदेश के एक रिसॉर्ट में लेकर चले गए और धमकी दी कि अगर पटेल को हटाकर उन्हें सीएम नहीं बनाया गया तो सरकार गिरा देंगे. केंद्रीय नेतृत्व को दखल देना पड़ा और अटल बिहारी वाजपेयी को मसले को हल करने के लिए गुजरात जाना पड़ा.
पटेल को एक तीसरे उम्मीदवार सुरेश मेहता के लिए स्थान छोड़ने को कहा गया और मोदी को सजा देकर बीजेपी का राष्ट्रीय सचिव बनाकर दिल्ली भेज दिया गया जहां उन्हें पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, चंडीगढ़ और जम्मू-कश्मीर की जिम्मेदारी सौंप दी गई.
1996 के लोकसभा चुनाव में उम्मीद के विपरीत वाघेला लोकसभा चुनाव हार गए. इसके लिए उन्होंने आरएसएस, मोदी और पटेल को दोष दिया. बीजेपी से नाता तोड़कर उन्होंने बागी उम्मीदवारों के साथ नई पार्टी बना ली. मेहता की सरकार गिर गई और कांग्रेस के समर्थन से वाघेला मुख्यमंत्री बन गए.
दिल्ली में निर्वासन झेल रहे मोदी के लिए यह किसी चमत्कार की तरह था. पार्टी मुख्यालय में रोज उनका बीजेपी के कई राष्ट्रीय नेताओं के साथ उठना-बैठना होता ही था. मोदी ने वाघेला के दल-बदल का खूब लाभ लिया. वह जिस किसी से मिलते उससे यही कहते वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वाघेला के बारे में पार्टी को चेताया था. इसकी वजह से परोक्ष और विडंबनात्मक रूप से मोदी का कद बढ़ गया. 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो एक बार फिर मोदी की पदोन्नती हुई और वह पार्टी के राष्ट्रीय संगठन सचिव बनाए गए. इस पद का व्यक्ति देश भर में बीजेपी और आरएसएस के बीच सेतु का काम करता है.
भारतीय जन संघ और बीजेपी के पांच दशक के इतिहास में पहले सिर्फ तीन संगठन सचिव हुए हैं. विचारधारात्मक रूप से तीनों विशुद्ध निष्ठावान संघी थे. मोदी से पहले इस पद पर जो लोग रहे उन्होंने मीडिया से दूरी बनाए रखी और पर्दे के पीछे से काम किया लेकिन मोदी चकाचौंध चाहते थे.
1999 के करगिल युद्ध और उसके बाद वाजपेयी और जनरल परवेज मुशर्रफ के बीच रही असफल बातचीत के दौरान मोदी लगातार प्रेस कॉन्फ्रेंस कर टीवी पर नजर आने लगे. इस दौरान वह अपना राष्ट्रवादी जोश भी दिखाने लगे जो बाद में चलकर उनकी असल पहचान बना. टीवी डिबेट के दौरान जब उनसे पूछा गया कि पाकिस्तान के उकसावे का क्या जवाब होना चाहिए? तो उन्होंने कहा,“चिकन बिरयानी नहीं, बुलेट का जवाब बम से दिया जाएगा.”
उधर गुजरात में कांग्रेस के समर्थन वापस लेने से वाघेला की सरकार जल्द ही गिर गई और मुख्यमंत्री के तौर पर केशुभाई पटेल की वापसी हुई. इस दौरान वह, संजय जोशी, हरेन पांडेया और गोवर्धन झाडापिया जैसे युवा नेताओं से घिरे थे जबकि दिल्ली में बैठे मोदी अभी तक इस फ्रेम से गायब थे. लेकिन पटेल के नेतृत्व में बीजेपी कई स्थानीय चुनाव हार गई और 2001 के दो उपचुनावों में भी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. इसके पीछे की बड़ी वजह कच्छ में आए भूकंप के बाद स्थिति को सही तरीके से नहीं संभाल पाना था. इस दौरान केंद्र में मोदी अपने पूर्व सहयोगी पटेल के खिलाफ चुपचाप अभियान चलाने लगे.
उस वक्त दिल्ली में वरिष्ठ पद पर बैठे एक बीजेपी नेता ने बताया, “मोदी हमसे शिकायत करते कि कैसे केशुभाई असफल हो रहे हैं और कैसे वह सिर्फ ''विकास के बारे में सोचते हैं ना कि राज्य में हिदुंत्व के विकास के बारे में. “मोदी पार्टी के नेताओं को हमेशा केशुभाई के बारे में बुरी बातें कहते. वह ठीक उसी तरह से था जैसा उन्होंने वाघेला के मामले में केशुभाई के साथ किया था.”
वाजपेयी ने अचानक मोदी को राज्य का सीएम बना दिया. मोदी के अपने बयान के मुताबिक, ''उन्हें राज्य का मुख्यमंत्री बनाया जाना उनके लिए भी आश्चर्यजनक था''. उनके आधिकारिक जीवनी लेखक को दिए गए एक इंटरव्यू में मोदी ने कहा कि वह एक टीवी कैमरामैन के साथ थे तभी उन्हें वाजपेयी का कॉल आया कि शाम को मीटिंग है. मोदी ने कहा, “जब में उनसे मिला तो उन्होंने कहा, ‘पंजाबी खाना खाकर आप मोटे हो गए हैं आपको वजन कम करना चाहिए. यहां से जाइए. दिल्ली छोड़ दीजिए.’ मैंने पूछा, ‘कहां जाऊं?’ उन्होंने जवाब दिया, ‘गुजरात जाइए, आपको वहां काम करना है.’ मुझे इस बात का अंदाजा नहीं था कि अटलजी मुझे मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं. लेकिन तब अटलजी ने कहा, ‘नहीं...नहीं, आपको चुनाव लड़ना होगा.’ जब मुझे पता लगा कि मुझे मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है तो मैंने अटलजी से कहा, ‘ये मेरा काम नहीं है. मैं गुजरात से छह सालों से दूर हूं. मुझे मुद्दों का भी पता नहीं है. मैं वहां क्या करूंगा? यह मेरी पसंद का काम नहीं है. मैं किसी को जानता भी नहीं.’...पांच या छह दिन बीत गए. फिर मुझे उस काम के लिए तैयार होना पड़ा जो पार्टी चाहती थी.”
लेकिन मोदी ने जो कहा था, पार्टी के कई नेता उससे अलग बताते हैं. इनका कहना है कि मोदी ने इस काम को पाने के लिए जमकर लॉबिंग की थी. वह जब से दिल्ली आए थे तब से ऐसा ही कर रहे थे. एक बीजेपी नेता ने मुझसे कहा, “उन्हें पता था कि गुजरात बीजेपी उन्हें मुख्यमंत्री नहीं चुनेगी इसलिए यह काम केंद्र के किसी बड़े व्यक्ति से करवाना पड़ेगा. गुजरात के नेताओं को पता था कि मोदी कितने ज्यादा विभाजक और आत्मतुष्ट हैं.” यहां तक कि मोदी के बारे में यह बात पता चली थी कि उन्होंने दिल्ली के कुछ संपादकों से पटेल के बारे में नकारात्मक खबर करने को कहा था. अपने संस्मरण में आउटलुक के संपादक विनोद मेहता ने ऐसी ही एक मुलाकात का जिक्र किया है, “जब वह पार्टी के दिल्ली ऑफिस में काम कर रहे थे तो नरेन्द्र मोदी मेरे दफ्तर आए. वह कुछ दस्तावेज लाए थे जिससे साबित होता था कि गुजरात के सीएम केशुभाई कुछ गलत कर रहे हैं. जो अगली बात मुझे पता चली वह यह कि केशुभाई की जगह उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया गया है.”
गुजरात बीजेपी के विधायक कहीं इस फैसले का विरोध ने करें इसलिए तब के बीजेपी अध्यक्ष केशुभाई ठाकरे मोदी के साथ गुजरात गए और बीजेपी के एक और वरिष्ठ नेता मदन लाल खुराना भी साथ थे. उनकी उपस्थिति ने यह तय किया कि बिना चुने जिन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया है वह गुजरात में सुरक्षित लैंड कर सकेंगे. आरएसएस के लिए मोदी की नियुक्ति एक बड़ी सफलता थी. उसके इतिहास में पहली बार एक सच्चा प्रचारक मुख्यमंत्री बना था.
राज्य में महज एक साल बाद चुनाव होने थे. मोदी जैसे ही गुजरात में लैंड हुए वैसे ही अपने महत्वाकांक्षी इरादे सब को जता दिए. गुजरात पहुंचकर मोदी ने प्रेस से कहा, “मैं यहां एक वनडे मैच खेलने आया हूं. मुझे ऐसे तेज बल्लेबाजों की जरूरत है जो इस लिमिटेड ओवर के गेम में रन बना सकें.” इस दौरान शायद ही कोई यह जानता होगा कि मोदी का वनडे मैच टेस्ट सीरीज में तब्दील हो जाएगा और जो 11 सालों के बाद अभी भी खेला जा रहा है.
(कारवां अंग्रेजी के मार्च 2012 अंक में प्रकाशित नरेन्द्र मोदी की प्रोफाइल का अंश. पूरी प्रोफाइल पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
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