4 अगस्त 2010 को गिलानी को एक बार फिर जेल से आजाद कर दिया गया. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने, अपना एक सलाहकार गिलानी से मिलने जेल में भेजा और उनसे कश्मीर में उफनते गुस्से को शांत करवाने में मदद की गुहार लगाई. जेल से छूटते ही गिलानी अपने घर के बाहर, टीवी कैमरों से घिरे खड़े थे. करीने से छंटी अपनी सुफैद दाढ़ी, दुबले-पतले छरहरे बदन वाले गिलानी ने कुर्ता-पाजामा डाला हुआ था और उनका सर हल्के भूरे रंग की कंदीली टोपी से ढंका था. उन्होंने अवाम से गुजारिश की कि वे पुलिस और सेना के नाकों पर पत्थरबाजी न करें. “मैं आजादी के लिए आपके जज्बात समझता हूं,” गिलानी ने कहा, “मैं भी आपकी मानिंद आजादी का दीवाना हूं, लेकिन हम यह जंग बिना खून खराबे के जारी रखेंगे. अगर पुलिस आपको रोकती है, आप बैठ जाएं और उनसे गोली चलाने को कहें.” जिसने एक लंबे समय तक आक्रमक रुख अपनाए जाने की तरफदारी की हो, एक ऐसे इंसान की शांति के लिए अपील ने नई दिल्ली में बैठे हुक्म्मरानों को हैरानी में डाल दिया.
हफ्तों की बेचैनी के बाद आखिर घाटी शांत हुई. ऐसा लगा मानो प्रदर्शनकारियों ने गिलानी की बात मान ली हो. कश्मीर की अवाम, सरकार के सामने घुटने न टेकने के उनके जज्बे के लिए उनका एहतराम करती है. एक नारा अक्सर गिलानी की रैलियों में लगता रहा है : “न झुकने वाला गिलानी! न बिकने वाला गिलानी!” मैंने कुछ लोगों से पत्थरबाजी के मुत्तालिक गिलानी की अपील के बारे में पूछा. “इसे रोक पाना मुश्किल था,” फोन पर 20 साल के एक पत्थरबाज ने कहा, “लेकिन हमें उनकी बात माननी होगी.”
गिलानी सिर्फ एक लफ्ज के कारण हरदिल अजीज हैं : मुखालफत. कश्मीर के नौजवान उन्हें “बाब जान” कहकर पुकारते हैं. उनके कट्टरपन ने उनकी छवि आवाम के नुमाइंदे के तौर पर पेश की है. कश्मीर के नरमपंथी अलगाववादियों की बनिस्पत गिलानी नई दिल्ली से किसी भी किस्म की बातचीत की पैरोकारी नहीं करते. कश्मीर यूनिवर्सिटी में कानून के प्रोफेसर और राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर शेख शौकत हुसैन बताते हैं कि “उनके इस कठोर रवैये ने उन्हें भरोसे के काबिल बनाया है। क्योंकि कश्मीरियों ने अपने बड़े से बड़े नेता को हिंदुस्तान के सामने घुटने टेकते देखा है,” हुसैन, शेख अब्दुल्लाह की तरफ इशारा कर रहे थे, जिन्होंने करीब 20 सालों तक कई जेलों में रहने के बाद, कश्मीर की खुदमुख्तारी के सवालों से 1975 में इंदिरा गांधी के साथ समझौते के कागजों पर दस्तखत कर लिए थे. कश्मीर में एक कहानी को बार-बार दोहराया जाता है। श्रीनगर में एक सिनेमा हॉल से लीबियाई गुरिल्ला नेता उमर मुख्तार और इटली के मुसोलिनी के बीच संघर्ष पर बनी फिल्म देख कर बाहर निकलने पर नौजवानों ने शेख के तमाम पोस्टरों को फाड़ डाला था. मुख्तार ने तब तक हार नहीं कबूल की जब तक उनको फांसी पर नहीं लटका दिया गया. गिलानी उमर मुख्तार बनना चाहते हैं. पिछले बीस सालों में, उन्होंने कश्मीर विवाद को सुलझाने के लिए हिंदुस्तान और पाकिस्तान सरकारों द्वारा हर पेशकश को ठुकराया है.
अंग्रेजों के उपमहाद्वीप छोड़ कर चले जाने के बाद हिंदुस्तान का बंटवारा हुआ और कश्मीर का मसला वजूद में आया. गिलानी उस वक्त 18 साल के थे. उन्होंने अपनी सियासी जिंदगी की शुरुआत, कश्मीर में हिंदुस्तान-परस्त कैंप से की. लेकिन जल्दी ही उन्होंने अपना अलग रास्ता चुन लिया और खुद को इस्लामी तंजीम, जमात-ए-इस्लामी के फलसफे के प्रचार-प्रसार में झोंक दिया. जब 1989 में आंदोलन ने उग्र रूप ले किया तो वे जमात के हथियारबंद, पाकिस्तान-परस्त, हिजबुल मुजाहिद्दीन के सदस्यों के लिए एक किस्म के रूहानी नेता बन गए. कश्मीर में गिलानी के अलावा भी विरोध की आवाजे हैं. एक तरफ वे लोग हैं जो आजादी चाहते हैं; तो दूसरी तरफ ऐसे भी हैं, जो भारतीय संघ में ही स्वायत्तता की मांग करते हैं और तीसरी तरफ, ऐसे लोग भी हैं जो सिर्फ मानव अधिकारों के हनन के मामलों में ही बोलते हैं. आज 81 साल के गिलानी कश्मीर के अलगाववादियों में सबसे दबंग आवाज हैं, जो खुलेआम ऐलान करते हैं कि अगर कभी संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव के मुताबिक रायशुमारी करवाई गई तो वे पाकिस्तान के साथ जाने की वकालत करेंगे. इसी एक वजह से हिंदुस्तान के हुक्मरान उनसे कतराते हैं. उनका इस कदर इस्लामी नजरिया, एक धर्म-निरपेक्ष, सूफी-प्रभावित कश्मीर में शायद उनको उतनी तरजीह न दिलाता हो, लेकिन कश्मीर के मामले में उनका सियासी नजरिया उन्हें सबसे प्रचलित नेता बनाता है. लेकिन सवाल यह है कि उनका इस हद तक कट्टरवादी रवैया, कश्मीर मसले को सुलझाने में कहां तक कारगर साबित होगा?
इस साल मई के आखिर में, एक इतवार की दोपहर मैं गिलानी से उनकी बैठक में मिला. कमरे में फर्श पर सुर्ख ऊनी गलीचा बिछा था, पांच लोगों के बैठने का एक सोफा और 14-इंची टीवी एक बारह इंची टेबल पर पड़ा था; टीवी टूटा हुआ लग रहा था और उससे कोई केबल कनेक्शन भी नहीं जुड़ा हुआ था. थोड़ी देर बाद मैंने दरवाजा खुलने की आवाज सुनी और देखा कि गिलानी कमरे में झांक रहे थे. “मुझे जरा वक्त दीजिए,” उन्होंने कहा. उन्हें अपने दस्तखत के मसले को उठाने में पांच मिनट लगे. “जुल्म करने वालों और जुल्म सहने वालों, दोनों पक्षों को कुछ शर्तों पर तैयार होना होता है,” उन्होंने अपनी बात जारी रखी, “हमारे मामले में जुल्म करने वाला एक भी शर्त मानने को तैयार नहीं है. हमसे हमारे नजरिए को नरम करने के लिए कहा जा रहा है. उन्हें सबसे पहले कश्मीर को, एक विवादित इलाका मानना होगा, जो वे मानने के लिए तैयार नहीं हैं, उन्हें इस पूरे इलाके से सेना हटानी होगी, काले कानूनों को वापस लेना होगा और सभी कैदियों को रिहा करना होगा.”
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