Thanks for reading The Caravan. If you find our work valuable, consider subscribing or contributing to The Caravan.
इस महामारी से निपटने में भारत के जो प्रयास थे उनकी छानबीन विनोद के॰ पॉल की भूमिका के अध्ययन के बिना नहीं की जा सकती. राष्ट्रीय टॉस्क फोर्स का नेतृत्व करने के अलावा पॉल नेशनल एक्सपर्ट ग्रुप आन वैक्सिन एडमिनिस्ट्रेशन के भी अध्यक्ष हैं. यह ग्रुप देश में कोविड-19 के टीकाकरण कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करता है और देशभर में टीके की व्यवस्था करने से संबंधित निर्णय लेता है. नीति आयोग के सदस्य के रूप में पाल की भूमिका नेशनल हेल्थ स्टैक के लिए रणनीतिक दस्तावेज तैयार करने में भी रही है. ‘नेशनल हेल्थ स्टैक' भारत में स्वास्थ्य प्रणाली को डिजिटल स्वरूप देने का एक प्रस्ताव है. सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने बताया कि "समूचे तामझाम के केंद्र में डॉ॰ पाल हैं, हर मामले में उनकी ही चलती है."
पॉल एक बाल रोग विशेषज्ञ हैं और वह दिल्ली में एम्स की फैकल्टी के सदस्य थे. नीति आयोग में आने से पहले और एम्स से रिटायर होने से पहले उन्होंने अनेक वर्षों तक एम्स के बाल रोग विभाग की अध्यक्षता की. 2017 में वह रिटायर हुए लेकिन रिटायर होने से पहले वह गुलेरिया और भार्गव के साथ एम्स का निदेशक पद पाने की होड़ में शामिल थे. एक पूर्व नौकरशाह ने, जो स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ काम कर चुका था, मुझसे कहा कि, "सबने सोचा था कि उन्हें बगैर किसी संदेह के एम्स के निदेशक का पद मिल जाएगा. लेकिन जब उनके स्थान पर यह पद गुलेरिया को मिला तो सरकार ने उन्हें पुरस्कार स्वरूप नीति आयोग का पद दे दिया जो संभवतः उनके लिए बेहतर साबित हुआ."
पूर्व नौकरशाह ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में नीति आयोग एक ऐसा ‘गोपनीय कक्ष’ बन गया है जहां उन सारी नीतियों को तैयार किया जाता है जिसके बारे में प्रधानमंत्री का कार्यालय सोचता है. उन्होंने बताया कि नीति आयोग इतना शक्तिशाली है कि अगर यहां के थिंक टैंक द्वारा कोई फैसला ले लिया गया तो किसी भी मंत्रालय के पास इतनी ताकत नहीं है कि वह उस फैसले पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि, "नीति बनाने का यह एक अस्वस्थ ढांचा है. पहले की सरकारों के साथ कम से कम यह बात तो जुड़ी थी कि देश की सभी समस्याओं के लिए उनके पास ऐसे मंत्रालय थे जिनके पास कुछ ताकत थी जो प्रेस, नागरिक समाज और अदालत के प्रति कुछ हद तक जवाबदेह थे." पूर्व नौकरशाह ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान स्वास्थ्य मंत्रालय की भूमिका निरंतर घटती चली गई है. स्वास्थ्य नीति से संबंधित सभी बड़े फैसले- यहां तक कि सरकार की महत्वाकांक्षी आयुष्मान भारत योजना भी नीति आयोग की पहल से शुरू की गई. यह भारी धनराशि से तैयार राष्ट्रीय स्तर की स्वास्थ्य बीमा योजना है.
देश के अंदर सभी स्वास्थ्य संबंधी नीति निर्माण के केंद्र में विनोद के॰ पॉल हैं. और अब महामारी से संबंधित कार्यों में निर्णय लेने के भी वही सर्वेसर्वा हैं. राष्ट्रीय टॉस्क फोर्स के सदस्य और साथ ही एम्स के एक पूर्व वरिष्ठ सलाहकार, जिन्होंने पॉल के साथ काफी निकट रहकर काम किया है, उन्हें एक सज्जन और गर्मजोशी से भरा व्यक्ति बताया है जो सबकी बातें ध्यान से सुनता है और जो एक सफल वक्ता है. एम्स के पूर्व कंसल्टेंट का कहना है कि, "लेकिन इन सारी विशेषताओं से जरूरी नहीं कि वह सार्वजनिक स्वास्थ्य के भी विशेषज्ञ हों. निश्चित तौर पर वह अत्यंत योग्य और सक्षम व्यक्ति हैं लेकिन केवल एक व्यक्ति द्वारा फैसले नहीं लिए जा सकते."
संक्रामक रोगों के अध्ययन के एक विशेषज्ञ ने, जो इस विषय पर बनी उपसमिति के अंग हैं, मुझसे बताया कि पॉल ने इस संगठन की बैठकों में आना पहले से ही बंद कर दिया था. उनका कहना है कि, "जाहिर सी बात है कि हम लोग उन बैठकों में जो भी विचार विमर्श करते थे वह उच्च अधिकरियों तक नहीं पहुंचती थी... और अगर पहुंचती भी थी तो बेशक हमारे राजनीतिज्ञों द्वारा उसकी अवहेलना कर दी जाती थी. शुरू से ही यह जाहिर हो गया था कि हमें जो कहना है उसमें राजनीतिक वर्ग की कोई दिलचस्पी नहीं थी. जो भी हो, सार्वजनिक स्वास्थ्य का मामला भी राजनीति का ही मामला है. सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में हस्तक्षेप एक अच्छी राजनीति का ही परिणाम होता है. और अभी जो राजनीतिक परिदृश्य सामने दिखाई दे रहा है उसमें मुझे बहुत उम्मीद नहीं है. पाल को उनके ई मेल पर कुछ सवाल भेजे गए थे जिनका उन्होंने उत्तर नहीं दिया.
राष्ट्रीय टॉस्क फोर्स के सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ की यह धारणा थी कि बाबुओं और उनके चमचों द्वारा जो फैसले लिए जाते हैं, उन्हीं फैसलों ने आज हमें मौजूदा मानवीय संकट के बीच खड़ा कर दिया है. उन्होंने कहा कि, "ऐसी हालत में अगर आप इस सरकार के चमचे नहीं हैं तो सत्ता के उस पद पर पहुंचेंगे कैसे? राष्ट्रीय टॉस्क फोर्स के पॉल तथा अन्य नेताओं का उल्लेख करते हुए, जिनकी पहुंच के अंदर प्रधानमंत्री कार्यालय है, कहा, "अगर आपने प्रधनमंत्री को खुश करने की बजाय वैज्ञानिक सोच और सार्वजनिक क्षेत्र में समय रहते हस्तक्षेप के बारे में सोचा तो इस सरकार के लिए आपकी राय पूरी तरह बकवास है."
(कारवां पत्रिका के जून 2021 की कवर स्टोरी का अंश. पूरी स्टोरी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)