शकील अहमद की उम्र लगभग 60 साल के करीब है. वह अनपढ़ हैं. वह हल्द्वानी में गौला नदी में बुग्गी चलाते हैं. उनकी मां का इंतकाल 75 साल की उम्र में हुआ और वालिद का लगभग 80 साल में. बनभूलपुरा के वह जिस घर में रह रहे हैं उसे उनके वालिद ने बनवाया था. शकील का बचपन यहीं गुजरा. जब मैं शकील से बात कर रहा था तो 25-30 साल के तीन-चार नौजवान सामने आए और हमसे पूछताछ करने लगे. उन्होंने शकील को मीडिया से अतिक्रमण संबंधी बात न करने के लिए मजबूर किया और किसी ''जिम्मेदार आदमी'' से बात कराने के लिए मुझे अपने साथ चलने को कहा. थोड़ा ही चलने पर इनसे कुछ बड़ी उम्र के नौजवानों से मुलाकात हो गई जो कारवां के बारे में पहले से जानते थे उनके सुपुर्द हमें कर वह नौजवान आगे बढ़ गए.
दरअसल हल्द्वानी में अतिक्रमण के मसले को लेकर बीते पंद्रह-बीस दिनों की मीडिया कवरेज ने लोगों के भीतर एक स्वाभाविक गुस्सा भर दिया था. एक नौजवान ने बताया कि वह रोज रात को लगभग सभी चैनलों की कवरेज देखते हैं. उन्होंने जिक्र किया कि 4 जनवरी को रिपब्लिक टीवी की टीम का बहिष्कार किया जा रहा था लेकिन खबरों में दिखाया गया कि लोग प्रशासन का बहिष्कार कर रहे हैं उसके खिलाफ ''गो बैक'' के नारे लगा रहे हैं. इससे पहले रिपब्लिक टीवी ने मामले को शाहीन बाग 2.0 बताते हुए विस्थापित होने जा रहे लोगों को ही कानून का उल्लंघन करने वाला कहा. इस समाचार चैनल के पत्रकारों द्वारा मामले को गलत ढंग से प्रस्तुति करने पर पत्रकारों के बहिष्कार करने संबंधी वीडियो मेरे पास मौजूद है जहां पुलिस-प्रशासन भी मीडिया से माहौल शांत रखने की अपील कर रहा है.
ऐसी नजीरों से सबक लेते हुए, युवा खुद से सक्रिय थे. वे हर जगह नजर बनाए रखते, गोदी मीडिया को खुद से दूर रखने की पुरजोर कोशिश करते. स्थानीय युवाओं ने बताया कि उन्होंने खुद मीडिया के लोगों की मदद की. उन्हें लोगों से मिलवाया, कागज दिखवाए, दस्तावेज उपलब्ध करवाए, उनकी हर मुमकिन जरूरत पूरी की, लेकिन बतौर नतीजा उन्हें जमीन जेहादी, अवैध कब्जाधारी, षड़यंत्रकारी और न जाने क्या-क्या कहा गया.
5 जनवरी को एबीपी न्यूज की रूबिका लियाकत भी मामले को कवर करने हल्द्वानी आने वाली थीं. उनके आने को लेकर युवाओं में एकमत नहीं था. कुछ का कहना था कि लियाकत ने सकारात्मक रिपोर्टिंग करने की बात कही है. वहीं ज्यादातर नौजवान इस बात पर मुतमइन नहीं थे. उन्हें बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि लियाकत उनके पक्ष में रिपोर्ट करेंगी. बीते कुछ ही दिनों में मीडिया का एक खास तबका अपने लिए इस तरह की "इज्जत" कमा चुका था.
टाइम्स नाऊ नवभारत के एंकर सुशांत सिन्हा ने अपनी पाठशाला में एक विचित्र समीकरण सूत्र की खोज कर एक नायाब सवाल पेश करने की कोशिश की. नीम बदहवासी में किया गया उनका लगभग 22 मिनट का कार्यक्रम यूट्यूब पर उपलब्ध है. उनका यह कार्यक्रम सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद का है. उनकी बातों का कोई साफ ओर-छोर नजर नहीं आता. बेदखली पर सुप्रीम कोर्ट की अंतरिम रोक से सिन्हा के होश फाक्ता नजर आते हैं. उनके तर्कों की उथली, बजबजाती, बेसुध धारा कार्यक्रम को इस पंक निष्कर्ष पर ले गई कि उत्तराखंड वक्फ बोर्ड अगर अपनी जमीन से मुस्लिमों के ही अवैध कब्जे खाली करवाए तो किसी को कोई दिक्कत नहीं होती है. उन्होंने कहा तब ''मानवीयता'' खत्म हो जाती है. मानवीयता शब्द पर उनका जोर सुप्रीम कोर्ट से खिसियाहट को भी जाहिर करता है. कार्यक्रम के शुरुआती हिस्से में उन्होंने मानवीय पहलू के आधार पर सुप्रीम कोर्ट से मिली अंतरिम राहत को इस तरह पेश करने में माथा पच्ची की जैसे नैनीताल हाईकोर्ट का आदेश वह सुप्रीम कोर्ट को समझाने की कोशिश कर रहे हों.
सिन्हा खुद बताते हैं कि उत्तराखंड वक्फ बोर्ड का मानना है कि अपनी जमीन से अवैध अतिक्रमण हटाने के बाद वक्फ जमीन का इस्तेमाल गरीब और जरूरतमंदों के लिए शेल्टर, युवाओं के कौशल विकास के लिए कोचिंग सेंटर के लिए किया जाएगा. सिन्हा फिर ललकारते हैं ''बॉस... उस जमीन में बना कर दीजिए न इनको घर.''
थोड़े में कहें तो उनकी स्थिति की तुलना 1986 में आई बासु चटर्जी की फिल्म एक रुका हुआ फैसला के पंकज कपूर से की जा सकती है. इस पर आलम यह है कि मामले को मुस्लिम विरोधी बताना उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाता.
एक तरफ जहां मीडिया का एक हिस्सा इस्लामोफोबिया का जहर बांट रहा था वहीं अपनी आस्तीनों को बेदाग करते हुए विचारों को इस तरफ मोड़ने की भी पुरजोर कोशिशें हुईं कि मामले को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से न देखा जाए. इंडिया टुडे समूह के लल्लनटॉप यूपी ने इस पर एक रिपोर्ट पेश की जिसका थंबनेल था, "हल्द्वानी : मामला हिंदू-मुस्लिम या सच्चाई कुछ और है". वीडियो का शीर्षक अतिक्रमण पर रेलवे की कार्रवाई और हिंदू-मुस्लिम में भेदभाव का पूरा सच पेश करने का दावा करता है. जबकि कार्यक्रम के आरंभ में एंकर सौरभ द्विवेदी मानते हैं कि “जिन घरों को कब्जा बताया गया वे एक वक्त में नहीं बने हैं बल्कि उनमें से कई का इतिहास हल्द्वानी शहर जितना पुराना है.” लेकिन अंत तक आते-आते अपनी इस “निष्पक्ष पेशकश” में द्विवेदी रेलवे के वकील बतौर सामने आते हैं. उनकी प्रस्तुति का अंतिम सार यही था कि देश भर में रेलवे की जमीनों पर कब्जा है जिससे रेवले को नुकसान होता है. रेलवे के दावे पर बिना सवाल उठाए, उनके कार्यक्रम से जो अंतिम निष्कर्ष निकालता है वह यह है कि बनभूलपुरा में जो है वह अतिक्रमण ही है. जबकि जैसा कि ऊपर बताया गया है कि राज्य ने एक हलफनामा में कहा है कि “भूमि राजस्व विभाग की है.” इसके साथ ही कार्यक्रम में इन बातों पर गौर नहीं किया गया कि नोटिस जारी करते हुए विवादित भूमि का आकार 29 से बढ़ा कर 78 एकड़ कर दिया गया जबकि आधिकारिक रिकॉर्ड में कहीं भी विवादित भूमि 78 एकड़ नहीं है. यह भी नजरंदाज कर दिया गया कि कोविड-19 प्रतिबंध समाप्त होने के बाद लोगों को सूचित नहीं किया गया कि आपत्तियों की फिर से सुनवाई शुरू हो गई है और आपत्तियों को एकपक्षीय रूप से खारिज कर दिया.
कार्यक्रम के अंत में वह कहते हैं, “जिन अधिकारियों की नजर तले ये कब्जे बढ़ते गए, वहां पर सरकारी भवन बनते गए उनकी भी जांच होनी चाहिए.” साथ ही वह “उम्मीद करते हैं कि अतिक्रमण विरोधी कार्रवाई में सरकार सभी नियम-कानून का पालन करेगी.”
(कारवां में 18 जनवरी 2023 को प्रकाशित रिपोर्ट का अंश. पूरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)