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जैसे ही यह स्पष्ट हो गया कि डोनाल्ड ट्रंप सत्ता से बाहर हो गए हैं और जो बाइडन अमेरिका के नए राष्ट्रपति होंगे, अनंत गोयनका ने एक ट्वीट किया :
मैं आशा करता हूं कि बाइडन की जीत के बाद अमेरिकी समाचार मीडिया अपने पक्षपातपूर्ण तरीके के बारे में आत्मावलोकन करेगा. वह केवल अपने प्रति वफादारों और ईको-कक्ष समुदाय के पाठकों के बजाय अवश्य ही सकल आबादी के विचारों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करेगा.
जाहिर तौर पर यह गोयनका के पसंदीदा विषयों में से एक है. पत्रकार शोमा चौधरी को दिए एक हालिया इंटरव्यू में एक्सप्रेस ग्रुप के कार्यकारी निदेशक और वारिस गोयनका ने “एक निश्चित सरोकार, एक निश्चित भूमिका जो परिभाषित करे कि हम यह क्यों कर रहे हैं, मीडिया के इस पेशे में क्यों हैं,” की जरूरतों पर बातचीत की. उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस की इमरजेंसी काल से चली आ रही विरासत का उल्लेख किया, जब इस अखबार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अधिनायकवादी रवैये की मुखालफत की थी. फिर उन्होंने उस अंधेरे कालखंड द्वारा परिभाषित किए गए लक्ष्यों के बारे में कहा, “तब मुनाफे से कहीं ज्यादा बड़ा मकसद होता था : निरंकुशता को चुनौती देना, अबाध अभिव्यक्ति और लोकतंत्र की रक्षा करना.”
लेकिन इमरजेंसी के बाद एक दूसरी सरकार के अपनी मौज-तरंग में आकर अपने से असंतुष्टों को जेल में डाले जाने के बावजूद गोयनका ने आज के मीडिया के लिए उन्हीं लक्ष्यों का उल्लेख नहीं किया. इसके बजाय उन्होंने महसूस किया कि वर्तमान की त्रासदी की वजह देश में अतिवादी विचारों का ध्रुवीकरण है. गोयनका ने कहा, “आज पत्रकारिता की एकदम सटीक भूमिका उस सामान्य धरातल की खोज और उसके लिए प्रयत्न में अधिक समय लगाने का है, जो कम ध्रुवीकरण करे, एक या दूसरे अतिवादों के बारे में महज जुगाली करने के बजाए समाज को कम से कम विभाजित करे.”
गोयनका ने आगे कहा, “मुझे लगता है कि सरकार भी यह समझ रही है कि मीडिया का एक हिस्सा उसके आगे मुश्किलें खड़ी कर रहा है और एक अन्य भाग वास्तव में अपना काम कर रहा है. और मैं सोचता हूं कि यह फर्क सरकार और श्रोताओं दोनों के बीच पूरी तरह स्पष्ट हो गया है. तथ्य तो यह है कि कुछ तथाकथित सत्ता विरोधी, जबरदस्त व्यवस्था विरोधी मीडिया ने कभी सरकार के नेक कामों की सराहना करने वाली कोई स्टोरी नहीं छापी, इस वजह से उन्होंने (सत्ता) से सख्त सवाल पूछने की अपनी वैधता गंवा दी है.”
उनके कहे का मतलब यह हुआ कि इमरजेंसी के समय में एक्सप्रेस का जो मकसद था, वह इस वजह से फेल हो गया क्योंकि उसने उस दौरान ट्रेनों के समय पर चलने की रिपोर्टिंग नहीं की.
इस साल हमने भारत को एक निरंकुश राज्य के रूप में निरंतर विकसित होते देखा है, फरवरी में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई व्यापक सांप्रदायिक हिंसा के प्रति संस्थाओं की प्रतिक्रियाएं इसका बड़ा उदाहरण हैं. ये हमले, जिनमें अधिकतर मुसलमानों को निशाना बनाया गया, विभेदकारी नागरिकता कानून के विरोध में जारी अहिंसक प्रदर्शनों के मुंहतोड़ जवाब में किए गए थे और जिसे दिल्ली पुलिस और भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों की सांठगांठ से अंजाम दिया गया था. साल के अंत में, पुलिस के चार्जशीट दाखिल करने और अदालतों में मामलों की सुनवाई जब शुरू हुई तो शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में भाग लेने वाले अनेक प्रदर्शनकारियों और हिंसा में निशाना बनाए गए लोगों ने पाया कि उन पर दंगा भड़काने की साजिश रचने और खुद पर ही हमले कराने के आरोप थोप दिए गए हैं. ये घटनाएं भारतीय नागरिकता के विचार को लेकर विधायिका से लेकर कानूनी प्रक्रियायों के जोड़-तोड़ से जुड़ीं हैं, जो अपराध के शिकार हुए लोगों पर ही खुद के खिलाफ हिंसा की साजिश रचने का इल्जाम मंढ़ देता है-यह कसौटी है कि भारतीय लोकतंत्र की संस्थाएं किस तरह उन लोगों के ही विरुद्ध हो गई हैं, जिनकी सेवा करने और संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से वह बनाई गई हैं.
यह सब उन संस्थाओं के गलत कामों या निर्णयों का कम प्रतिरोध करने या एकदम प्रतिरोध नहीं करने की वजह से हुआ है, जिनका मकसद ही एक संवैधानिक लोकतंत्र में कार्यपालिका की निरंकुशता को रोकना था. विधायिका को दरकिनार करने और न्यायिक- प्रणाली के सह-विकल्प पर तो काफी कुछ लिखा गया है, लेकिन इस प्रक्रिया में मीडिया के उकसावे ने उसको पूरी तरह उधेड़ दिया है.
मीडिया की सबसे ज्यादा आलोचना अकेले प्राइम टाइम की की जाती है लेकिन वह रवैया इस असफलता को पूरे विस्तार से दर्ज नहीं करता. मुख्यधारा के प्रेस ने भी अपनी जवाबदेही को बिल्कुल ही तज दिया है. इनमें से कोई भी अखबार इसका उदाहरण हो सकता है : दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, द टाइम्स ऑफ इंडिया और दि हिंदुस्तान टाइम्स. यहां केवल उन अखबारों के नाम गिनाए गए हैं जिनकी पाठकों तक व्यापक पहुंच है. किंतु यह बात विशेष रूप से निर्भीक, निष्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता करने की ऐतिहासिक प्रसिद्धि-प्रतिष्ठा वाले इंडियन एक्सप्रेस के संदर्भ में कही जा रही है कि उस जैसे संगठनों में, जो सत्ता को परेशान करने का बीड़ा उठाता है,यह बदलाव किस तरह दिखाई देता है.
बिना किसी गंभीर जांच-परख के गोयनका का तुलना के साथ अमेरिकी मीडिया को मशविरा देना, यहां (देशी) के मीडिया को मक्खन लगाने से ज्यादा कुछ नहीं है. अलबत्ता, ट्रंप के पूरे कार्यकाल में अमेरिकी मीडिया के अधिकांश हिस्से में एक स्पष्ट विभाजन रहा है. किंतु, पक्षपात और ट्रंप द्वारा घृणा-द्वेष के माहौल को खुराक देने तथा उसे बढ़ावा देने की असल वजह बताने में पक्षपाती नहीं होना चाहिए. गोयनका के अमेरिकी मीडिया की भर्त्सना में यह अंतर गायब दिखा है, जब ट्रंप सत्ता से बेदखल किए जा रहे थे, तो अमेरिकी मीडिया का छोटा-मोटा हिस्सा नहीं बल्कि उसका एक बड़ा हिस्सा उनकी छानबीन, उनकी समीक्षा का काम कर रहा था. इसकी तुलना में भारतीय मीडिया, जो अपने विभिन्न संस्करणों और इकाइयों की फौज के साथ मौजूदा सरकार के पक्ष में बैटिंग कर रहा है, वह कम “पक्षपाती” है, जिसने नरेन्द्र मोदी और उनके समर्थकों के सामने खड़े होने में लगभग पूरी तरह से अपनी उदासीनता या अनिच्छा जताई है. अमेरिका में न्यूज चैनलों के रसूख के बावजूद, वहां के न्यूयॉर्क टाइम्स या वॉशिंगटन पोस्ट जैसे अखबार राष्ट्रीय बहस को आकार देने में आज भी अपनी दखल रखते हैं. यह बात आज भारत के किसी भी अखबार के बारे में नहीं कही जा सकती.
विफलता मीडिया के लिए प्राय: वित्तीय गिरावट ला देती है राजस्व के रूप में लंबे समय से चले आ रहे उस रुझान में गिरावट आयी है, जिसमें कई मीडिया हाउस इस उद्योग पर अपनी शक्ति के विस्तार में लगी सरकार से मिलने वाले विज्ञापन पर निर्भर रहे हैं. यह बात खास कर के इस साल भी सच है क्योंकि कोरोनावायरस से आई इस वैश्विक महामारी के चलते अर्थव्यवस्था पर कड़ी मार पड़ी है. इसने निजी विज्ञापनों और समाचार पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री को भी बहुत नुकसान पहुंचाया है. लेकिन सरकार से सवाल पूछने की मौजूदा समय में मीडिया की यह विफलता वित्तीय दबाव के तहत आई बताई जाती है लेकिन मीडिया ने तब भी अपना यह काम बेहतर तरीके से नहीं किया था, जब उस पर इस तरह का कोई दबाव नहीं था. देश के सबसे बडे मीडिया घरानों ने वर्षों तक सरकार की दरियादिली से अकूत मुनाफा कमाया है.
फिर यह टूटन भी अन्य कारकों पर प्रभाव डालती है. गहरा संकट है लेकिन इस पर कम ही चर्चा की जाती है. इसने उन लोगों के विचारों को ग्रसित कर लिया है, जिनके खुद के मीडिया हाउस हैं और जो इस सरकार को चला रहे हैं. यह सूरतेहाल दिखाता है कि मीडिया को सहअपराधिता का उत्पाद होना है, मात्र जोर-जबरदस्ती या धौंस का नहीं.
यह जो घालमेल है, महज राजनीतिक अवधारणा तक ही नहीं अटका पड़ा है बल्कि उसने मीडिया की भूमिका को भी अपने दायरे में समेट लिया है.
एक्सप्रेस ने जब 2019 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक इंटरव्यू, जो एक दुर्लभ चीज है, लिया तो उन्होंने इस मौके का फायदा इस अखबार के कवरेज में रह गई कसर का बिंदुवार जिक्र करते हुए आरोप लगाने में उठाया. उन्होंने जम्मू-कश्मीर का जिक्र करते हुए सवाल किया,“क्या इंडियन एक्सप्रेस ने, जो खोजी पत्रकारिता करता है, राज्यपाल के शासनकाल में 100 फीसद विद्युतीकरण के हासिल लक्ष्य के बारे लिखा? क्या यह खबर नहीं है?” उन्होंने आगे कहा :
जम्मू-कश्मीर में चुनावों के दौरान हिंसा की एक भी घटना नहीं हुई. पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनावों के दौरान 100 से ज्यादा लोग मारे गए थे. वहां कोई भी चुनाव बिना खून-खराबे के नहीं होता. मेरी देशभक्ति जम्मू-कश्मीर में दिखती नहीं आपको क्या? पूर्वोत्तर, जो कब से उग्रवाद से जूझ रहा था, अब अमन-चैन से है. क्या हमने वहां राष्ट्रवाद की समझ नहीं रोपी है? उन्हें मुख्यधारा में नहीं लाया है?
यह पूछने पर कि ऐसी कोई चीज जिसको उनकी सरकार हासिल करने से चूक गई हो, मोदी ने ठहाकों के साथ जवाब दिया, “मोदी की आलोचना करने में इंडियन एक्सप्रेस को वस्तुनिष्ट बनाने से.”
जब देश के सबसे निर्भीक मीडिया संगठनों में से एक में पत्रकारिता का मिशन, जैसा कि उसको नियंत्रित करने वाले परिवार के वारिस के शब्दों में झलकता है, उसी संदर्भ में इसे परिभाषित करता है, जिस रूप में मोदी भारतीय मीडिया को पसंद करेंगे, तो वह सरकार के एक अंग के रूप में काम करने लगता है.
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जब बात टीवी न्यूज चैनलों की आती है, तो यह तथ्य पहले से ही संदेह के बिल्कुल परे है. लेकिन जिन वजहों से गड़बड़ी हुई है उन पर गहराई से ध्यान दिए जाने की जरूरत है. कई सारे उदाहरणों में सबसे स्पष्ट उदाहरण अर्नब गोस्वामी के रिपब्लिक टीवी का है. इस चैनल पर होने वाली ज्यादतर बहस यहीं तक सिमट कर रह गईं. लेकिन इस समय जो स्पष्ट है,वह यह कि यह जिन चीजों को अंजाम देने में सक्षम है,जो वह कर भी रहा है, वह पत्रकारिता से जुड़ी प्रक्रियाओं का उल्लंघन करके ही किया जाता है.
तेजिंदर सिंह सोढ़ी अगस्त में इस्तीफा देने के पहले तक जम्मू-कश्मीर में रिपब्लिक टीवी के ब्यूरो चीफ थे. उन्होंने चैनल में काम करने के दौरान मिले अनुभवों के बारे में अपने इस्तीफे में लिख कर इसे रिकॉर्ड पर ला दिया. उनका इस्तीफा जल्द ही पब्लिक डोमेन में भी आ गया. सोढ़ी ने अपने इस्तीफे में कांग्रेसी नेता शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर की 2014 में मौत के बाद की एक घटना का जिक्र किया है. यह मामला अब तक अनसुलझा है. उन्होंने लिखा है :
एक दिन डेस्क से किसी का (मैं उसका नाम नहीं लूंगा लेकिन अर्नब गोस्वामी ने इस कदर प्रताड़ित किया कि उसे दफ्तर की मेज पर ही मेजर हार्ट अटैक हो गया) मेरे पास फोन आया कि सुनंदा पुष्कर के पिता के घर जाइए और उनके नजदीक छिप जाइए. निश्चित समय पर आपको बताया जाएगा कि आगे क्या करना है? मैं क्यों छिपूं? उन्होंने अपने स्टाफ पर कभी भरोसा नहीं किया इसलिए अंतिम क्षण तक, हम लोगों को कुछ नहीं बताया जाता था. मैं उनके घर गया और तभी मुझे कहा गया कि अब घर में दाखिल हो जाऊं और श्रीमती पुष्कर के बुजुर्ग पिता के मुंह में माइक ठूंस दूं और उन्हें “अपनी बेटी की हत्या” का दोष शशि थरूर पर मंढने के लिए मजबूर कर दूं. मैंने ऐसा करने की कोशिश की लेकिन मैंने जब सुनंदा के पिता को देखा तो मुझे आंसू आ गए. वह बहुत कमजोर थे और मानसिक रूप से स्थिर नहीं थे. मैंने इस बारे में डेस्क को बताया किंतु उन्होंने मुझसे कहा कि अर्नब मुझ पर आग-बबूला हो रहे हैं और वह चाहते हैं कि पिता कैमरे पर बोलें कि “थरूर ने उनकी बेटी को मारा” है.
मैंने यह करने से इनकार कर दिया और वहां से निकल पड़ा. इसके पहले मैंने उनके नौकर से बातचीत की जिसमें उसने श्री थरूर और श्रीमती पुष्कर के रिश्ते के बारे में अच्छा बताया, लेकिन इसको चैनल पर कभी प्रसारित नहीं किया गया. अगले दिन अर्नब ने मुझे कॉल किया और मुझ पर बेतहाशा चीखे-चिल्लाए. उन्होंने मुझे कहा, “कैमरे के सामने श्रीमती सुनंदा पुष्कर के पिता से उनकी बेटी की मौत के लिए थरूर को कसूरवार न ठहरा कर मैंने उनको शर्मसार कर दिया है.” यह वह जर्नलिज्म नहीं था, जिसके लिए मैंने रिपब्लिक टीवी ज्वाइन किया था. यहां रिपोर्टर्स को अर्नब की तरफ से हिटमैन के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा था.
इसके एक महीने बाद, रिपब्लिक में काम करने वाली शांताश्री सरकार भी नोटिस अवधि खत्म करने के बाद चैनल से बाहर आ गईं. उन्होंने भी एक के बाद एक कई सारे ट्वीट करके ठीक इसी तरह के आरोप लगाए. सुशांत सिंह के खुदकुशी कर लेने के बाद, रिपब्लिक टीवी उनकी दोस्त रिया चक्रवर्ती के चरित्र हनन में लग गया. बिना पर्याप्त सबूत के ही रिया पर सुशांत को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप लगाए जाने लगे थे. सरकार ने लिखा कि वह देख रही थी कि “किस तरह मेरे साथी-सहयोगियों ने रिया के अपार्टमेंट में आने वाले किसी भी व्यक्ति को तंग करना शुरू कर दिया था. वे पुलिस और यूं ही सामने टकरा गए किसी भी डिलिवरी ब्वाय से असुविधाजनक सवाल पूछने से बाज नहीं आते थे. वे सोचते थे कि महिलाओं के कपड़े खींचने और उन पर चीखने-चिल्लाने से वे चैनल के लिए मौजू बने रहेंगे!”
न्यूज लॉन्ड्री के साथ एक इंटरव्यू में सोढी ने खुलासा किया कि चैनल ने लोगों को सताने के लिए कुछ विशिष्ट शब्दावली का इजाद कर रखा था, जिनके जरिये लक्षित व्यक्ति से नाटकीय प्रतिक्रियाएं लेने के लिए उनको उकसाया जाता था.“हम इसे ‘चेज सिक्वेन्स’ कहा करते थे,” उन्होंने कहा. एंकरों से कहा जाता था,“जाओ और उमर अब्दुल्ला के साथ चेज सिक्वेन्स करो”,“जाओ और मेहबूबा मुफ्ती के साथ चेज सिक्वन्स करो.” ये दोनों कश्मीरी राजनेता हैं. ऐसे ही, किसी के बारे में कह दिया जाता,जाओ और उसके साथ चेज सिक्वेन्स करो, जो उस आइडियोलॉजी को नहीं मानता है, जिसको वे मानते हैं.
सोढी बताते हैं कि वीडियो प्राय: चेज सीक्वेंस के नतीजे होते, “जहां कोई व्यक्ति खीज रहा है, चिड़चिड़ा हो रहा है, वह आपको धकियाने की कोशिश कर रहा है. तो यह चेज सीक्वेंस का परिणाम होता था क्योंकि अधिकतर समय लोग इत्मीनान में नहीं रहते हैं.”
लक्ष्य को निशाना बनाने की चैनल की अपनी पसंद चुनिंदा थी. “मेरा जॉब एक ‘हिटमैन’ का था,” सोढ़ी ने कहा, “यह पता लगाना कि उमर अब्दुल्ला क्या कह रहे हैं, या यह पता लगाना कि महबूबा मुफ्ती क्या कह रही हैं, बुनियादी रूप से उन सब का पता लगाना जो किसी खास पार्टी की विचारधारा को नहीं मान रहे हैं, उसके सभी बयानों को हासिल करना, उसमें कमियां ढूंढ़ना और इसकी रिपोर्टिंग करना कि “ये पार्टियां देश विरोधी हैं.” उन्होंने बताया, “प्रत्येक असाइनमेंट के साथ आपको एक ऐसा कोण पाना होता था जिसके द्वारा उस विशेष पार्टी की लानत-मलामत की जा सके, जो अभी सत्ता में नहीं है.”
ये ‘हिट्स’ केवल रिपोर्टर तक सीमित नहीं थीं; रिपब्लिक की संपादकीय टीम भी निर्देशित लक्ष्य के साथ उनको बनाने की प्रक्रिया में लगती थी. “अगर उमर अब्दुल्ला एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं, महबूबा मुफ्ती प्रेस से रूबरू हैं, तो डेस्क पर बैठा व्यक्ति इनकी निगरानी कर रहा है कि वे लोग क्या बोल रहे हैं,” सोढी बताते हैं, “अगर उनके 1000 शब्द भारत के समर्थन में हैं, उनको वे नहीं लेंगे. वे उनके इंटरव्यू की केवल कोई एक गलती, एक कोई बिंदु ढूंढ़ निकालेंगे, जिसको वह ‘मानते’ हैं कि यह देश विरोधी है, फिर वे उस नैरेटिव के पीछे पिल पड़ेंगे, जिस विचार को वह मानना चाहते हैं. फिर हमें डेस्क से कॉल आ जाता, ‘सर, सर लाइव आ जाइए. हम इस स्टोरी को लेने जा रहे हैं, इसलिए आइए, लाइव के लिए जल्दी आइए’. तो हम उमर या महबूबा के खिलाफ बल्ले-बल्ले करने लग जाते. देखा आपने, ये देश विरोधी हैं, उन्होंने यह कहा, उन्होंने यह कहा. हम कभी उस हिस्से को छूते ही नहीं थे, जिसमें उन्होंने देश के बारे में अच्छी-भली बातें कही होती, जिनमें लोगों के बारे में, समुदायों के बारे में बातें होतीं. एक बात और, वे हमारे चैनल के बारे में कहते थे कि हमारा चैनल राष्ट्र विरोधी, लॉबी समर्थक है, आप इसे जो कहें, हम उनके खिलाफ जाते थे. इस तरह चीजें हमारे लिए काम करती थीं.”
रिपब्लिक की अंदरूनी कार्यप्रणाली का यह खुलासा वैचारिक संघर्ष के चलते नहीं हुआ. सोढ़ी ने चैनल के लड़ाका राष्ट्रवाद के समर्थक थे और इसके खिलाफ कभी कुछ नहीं कहा. उनका रुख यह बताता है कि वहां काम करने वाले पत्रकारों के बीच पत्रकारिता की विधियों और प्रक्रियाओं को लेकर कुछ हद तक सहमति थी कि इसका उल्लंघन नहीं करना है, विचारधारा चाहे जो हो.
सोढ़ी ने सीधे कहा कि रिपब्लिक चैनल में पत्रकारिता को मार दिया गया है और कि हत्या के इस गुनाह में वह भी शरीक थे. “पत्रकारिता क्या है”, एक बिंदु पर वह पूछते हैं. “पत्रकारिता वह है जब आप सत्ता में काबिज व्यक्ति से सवाल पूछते हैं. आप किसी वैसी पार्टी पर आरोप नहीं लगाते, जो पहले ही सत्ता से बेदखल हो चुकी है. आप हर एक गड़बड़ियों के लिए उसी को दोषी नहीं ठहराते.”
जनर्लिज्म के सही मायने के बारे में यह आम मान्यता अधिकतर पत्रकारों को पता है लेकिन मालूम होता है कि अधिकांश मीडिया संस्थानों ने इसे भुला दिया है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई संस्थान पत्रकारिता करने का दावा करता है, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई संस्थान आर्थिक रूप से स्वतंत्र है या नहीं, इसकी निष्ठा में आई गिरावट इसकी संपादकीय प्रक्रियाओं में नजर आती है, क्योंकि ये ही प्रक्रियाएं हैं, जो आखिरकार अपने उत्पाद को आकार देती हैं. समझौते कई रूपों में हो सकते हैं. कुछ मीडिया संस्थान किसी घटना की कवरेज इस तरह से करते हैं, जो सत्ता में बैठे लोगों के मुफीद हो और उन मुद्दों को ही नजरअंदाज कर देते है, जो उनके आकाओं के मनमाफिक न हों. वे संस्थान पूर्व निर्धारित निष्कर्षों को तभी हासिल कर सकते हैं, जब रिपोर्टिंग के बुनियादी नियम-कायदों को धता बता दिया जाए. अन्य संस्थान प्रक्रियाओं को नरम कर सरकार को बख्श देते हैं और उनके प्रतिनिधि या समर्थक, अभिव्यक्ति की आजादी और सभी पक्षों की आवाज को जगह देने के नाम पर या इनके बहाने, सत्ता के झूठों को सच बनाकर दर्शक-पाठक-श्रोताओं के सामने पेश कर देते हैं.
ये दूसरी तरह के समझौते के समूचे नतीजे को कभी-कभार बहुत गलत समझा जाता है, लेकिन प्रकाशन की दुनिया में हाल में हुए घोटालों ने इसे एक बेहतर साज-सज्जा दिया है. अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशक ब्लूम्सबरी की भारतीय शाखा ने अगस्त में, दिल्ली राइट्स 2020 : द अनटोल्ड स्टोरी नाम से एक किताब जारी करने की घोषणा की, जिसका दावा था कि दिल्ली में फरवरी में हुए दंगे जिहादियों और नक्सलियों ने कराए थे, जबकि इस दंगे में सबसे ज्यादा मुसलमान मारे गए थे और जख्मी भी हुए थे. यह किताब, जैसा कि दावा किया गया है, “तथ्य-खोजी” समूह, जिसमें खुद इनके लेखक भी शामिल हैं, द्वारा जुटाई गई व्यापक तथ्यात्मक सूचनाओं पर आधारित है. लेकिन मार्च में इसके प्रकाशित होने के साथ ही इसे मूल रूप से खारिज कर दिया गया. उस समय मीडिया रिपोर्टों में दिल्ली हिंसा में दिल्ली पुलिस और बीजेपी के राजनीतिक नेताओं की सांठगांठ का भांडा फोड़ किया गया था. अब ब्लूम्सबरी से यह सवाल है कि उसने इस किताब को कैसे प्रकाशित होने दिया था?
यह सवाल किताब छापने के तयशुदा तौर-तरीकों के बारे में है. प्रकाशन संस्थान साहित्येतर विधाओं को छापने से पहले उसके तथ्यों की जानकारी की जवाबदेही लेता है और संस्थान के संपादकों से पुस्तक की विषय-वस्तु की सत्यता की जांच या मिलान की अपेक्षा की जाती है. इस मामले में यह हुआ कि ब्लूम्सबरी ने अपनी किताब वापस ले ली. कइयों ने अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात बताया-कुछ मामलों में स्पष्ट भोलेपन से और कुछ में जानबूझकर आक्षेप के एक अधिनियम के रूप में-कुछ मामलों में स्पष्ट सादगी नहीं होती और दूसरे मामले में सोची-समझी कोई एकदम अस्पष्ट गतिविधि होती है-लेकिन इस मामले में यह समस्या नहीं थी. ब्लूम्सबरी की किताब बाजार से वापस ले लेने का फैसला इस बात की मौन स्वीकृति थी कि जिस तरह से यह किताब लिखी गई है या उसका संपादन किया गया है, उसका वह समर्थन नहीं कर सकता है.
ब्लूम्सबरी की किताब के बदले दिल्ली दंगे 2020 का चयन गरुड़ प्रकाशन ने किया जो दक्षिणपंथी लेखकों का अड्डा है और उसने समीक्षा की वे तमाम प्रक्रियाएं लगभग बहुत जल्दी पूरी कर लीं, जो ब्लूम्सबरी द्वारा नजरअंदाज कर दी गई थी. गरुड़ प्रकाशन अब वह करने का प्रयास कर रहा है, जो ब्लूम्सबरी ने नहीं किया था : किताब को सच्चाई के काम के रूप में पेश करना.
किताब को वापस लेने का ब्लूम्सबरी का फैसला, जो इस मामले पर पैदा हुए विवाद के अपने वैश्विक मुख्यालय लंदन जा पहुंचने के बाद लिया गया, उसका ज्यादा संबंध अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक के रूप में स्थापित अपने मानकों के ख्याल से लिया गया मालूम पड़ता है, बजाए अपनी एक स्थानीय शाखा की फ्रिक करने के.
यह भारत में प्रकाशकों के कामकाज की प्रक्रिया और मानकों के बारे में बताता है कि जब तक उनके कारनामे दुनिया में उजागर न हो जाएं, तब तक वे उन मूल्यों की जरा भी परवाह नहीं करते. अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन में सत्यता और निष्पक्षता के सवाल आज भी मायने रखते हैं जबकि भारत में इसकी अनदेखी के उदाहरण बढ़ते जा रहे हैं.
पेशेवर तकाजों का ऐसा हरेक व्यक्तिगत परित्याग एक ऐसे परिदृश्य की सरजमीं तैयार करता है, जहां ब्लूम्सबरी और गरुड़ प्रकाशन के बीच अंतर समाप्त हो जाता है. अगर कोई पब्लिशिंग हाउस कुछ निश्चित मानकों और प्रक्रियाओं से संचालित नहीं होता है, तो हर एक संस्थान बाकी अन्यों की तरह ही है.
पत्रकारिता के संस्थान उसी समान स्थिति में हैं. अगर कोई स्पष्टता से अपनी न्यूज रूम की प्रक्रियाओं की रक्षा नहीं करता, तो यह विचार धीरे-धीरे अपना प्रभाव जमाने लगता है कि सभी पत्रकारिता उतनी ही बुरी है, जितनी कोई खराब पत्रकारिता हो सकती है. यह तब सरकार के हाथों में खेलने लगता है, जिसने पत्रकारिता में लोगों के विश्वास को गंवा देने का काम किया है, ताकि वास्तविक रिपोर्टिंग को भी बदनाम किया जा सके, खासकर तब जब उसे खारिज नहीं किया जा सकता है.
तो भारतीय मीडिया में कौन-कौन इस लाइन पर चलेंगी?
यहां तक कि वे संस्थाएं भी जिनसे ऐसी भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती थी वे भी उम्मीद पर खरी नहीं उतर पाई हैं. आपातकाल के दौरान इंडियन एक्सप्रेस के कामकाज को प्रायः एक मॉडल के रूप में पेश करते हुए बताया जाता है कि जब एक अधिनायकवादी सरकार सामने हो तो संस्थानों को किस तरह काम करना चाहिए. लेकिन इसी अखबार के लिए मोदी सरकार के दौरान वैसा व्यवहार करना कठिन हो रहा है.(डिस्क्लोजर : मैंने इंडियन एक्सप्रेस में 1997 से लेकर 2004 तक एक रिपोर्टर के रूप में काम किया है.)
शोमा चौधरी से बातचीत में, गोयनका “मीडिया में हो रही तमाम अराजकता” पर पश्चाताप व्यक्त करते हैं. वह “स्वयं के इस इंडस्ट्री का हिस्सा होने में अब लज्जा” का अनुभव करते हैं, उन्होंने कहा कि, “एक दशक में पहले कभी ऐसा नहीं हुआ” जब से वह औपचारिक रूप से एक्सप्रेस से जुड़े हैं और जहां तक कि उन्हें याद आता है.
गोयनका ने राजपूत मामले से जो सबक लिया, वह था-एक ही मुद्दे पर उनका बार-बार वापस आ जाना. वह कहते हैं, “जो हमें करना चाहिए था उसके विपरीत कवरेज हो रहा था. मैं फिर कहता हूं कि मैं वास्तव में यह विश्वास करता हूं कि हमारी भूमिका समाज को सुदृढ़ बनाने की होनी चाहिए. हमें समाज के टुकड़े नहीं करने चाहिए. हमें लोगों को अतिवाद की तरफ नहीं ले जाना चाहिए. मैं सोचता हूं कि भारत में अधिकांश लोग मिलेजुले स्वभाव के हैं और हम उन्हें खामख्वाह अतिवादी बना रहे हैं..”
रिपब्लिक टीवी ने मोदी और बीजेपी तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसने इन दोनों को पैदा किया, के अतिवादी विचारों को बड़ी मात्रा में प्रसारित किया है. लेकिन गोयनका ने इसके अलावा और कहीं जवाबदेही में विचलन देखा. उन्होंने मीडिया की मौजूदा दुर्दशा की हालत तक पहुंचने के बारे में अपना विचार दिया : “ जब मैं मीडिया के क्षेत्र में आया-यह 2012 का समय था-उस समय पत्रकारिता के चमकते सितारों ने अन्य नजरियों को कभी भी अवसर नहीं दिया. पत्रकारिता के मुख्य सिद्धांतों में से एक, उसके मुख्य नियम कायदों में से एक...यह होना चाहिए कि उसे समाज का आईना होना चाहिए. अगर उस दर्पण का हिस्सा होने के कारण कुछ चीजें अपने मन के अनुरूप होती नहीं दिखें, तो आपको उस पर फैसला नहीं सुना देना चाहिए. आपकी जवाबदेही एक निश्चित लोकप्रिय परिप्रेक्ष्य को जगह और आवाज देने की है. बहुत सारे लोगों ने इस जवाबदेही को ठीक से नहीं निभाया है, मैं समझता हूं कि यही हमारे यहां होने के बहुत सारे कारणों में से एक है.”
गोयनक के इस “जनप्रिय परिप्रेक्ष्य” वाले विचार का अंदाजा लगाना कोई मुश्किल नहीं है. वह जो इस अवधि में प्राय: मीडिया में नहीं आ पाया, जिसके बारे में गोयनका बताते हैं, दरअसल वह देश के रक्षक के रूप में मोदी और संघ की छवि है. वह एक हिंदू राष्ट्र की खोज में धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की तिलांजलि है. गोयनका के विचित्र तर्क के मुताबिक मोदी और संघ को खुली छूट नहीं देना मीडिया की गलती है.
मीडिया ने किस तरह से मुसलमानों के साथ लगातार हो रही लिंचिंग की वारदातों को लोगों के प्रति बिना किसी न्याय की भावना और इस अपराध के पीछे की विचारधारा का खुलासा किए रिपोर्टिंग की है? किस तरह “अन्य परिप्रेक्ष्य को एक अवसर दिया जाए” जब कुछ लोग अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की निंदा करते हैं और दूसरे इस पर उत्सव मनाते हैं? रिपब्लिक की विधि इस पहेली का सटीक जवाब हो सकती है.
इंडियन एक्सप्रेस ने अन्य परिप्रेक्ष्य को एक अवसर दिया है, उदाहरण के लिए उसके संपादकीय पृष्ठ इसके गवाह हैं. मोदी के राष्ट्रीय फलक पर पदार्पण के वर्षों में-संयोग से यही साल इस अखबार में गोयनका के शुरुआती साल भी रहे- मुख्य रूप से प्रताप भानु मेहता और आशुतोष वार्ष्णेय जैसे जाहिरन उदारवादी स्तंभकारों ने राजनेताओं का उनके आलोचकों से बचाव करना शुरू कर दिया. (इस बारे में प्रवीण दोंती ने अपने “बौद्धिक संकट” आलेख में विस्तार से लिखा है, जो करवां पत्रिका में जून 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ था). अभी हाल में मोदी सरकार के सदस्यों और दक्षिणपंथी सिद्धांतकारों को जगह दी गई है-राम माधव और राकेश सिन्हा-ये दोनों नाम इसके उदाहरण हैं.
एक्सप्रेस ने बार-बार दक्षिणपंथी स्तंभकारों को अपने पेजों पर प्रकाशित किया है, जो साफ-साफ सरकार और आरएसएस का एजेंडा रखते हैं. उनके लेख एक विचार के रूप में पेश किए जा सकते हैं लेकिन उनमें तथ्यों की सत्यता की जांच के बुनियादी नियम-कायदों के अनादर का कोई बहाना नहीं चल सकता, खास कर जब वे अपने तथ्यात्मक दावों को वास्तविक बनाने का प्रयास करते हैं. इन झूठों को अपने अखबार में छापने की इजाजत देकर, ऐसा प्रतीत होता है कि एक्सप्रेस ने मानो छानबीन के तौर-तरीके का पूरी तरह से पालन किया है, जबकि वे ऐसा नहीं करते. इस तरह से वे अपनी अर्जित साख को उनके झूठ को सच के रूप में फैलाने की चाकरी में लग जाने देते हैं. पाठकों के साथ इस धोखाधड़ी या बेईमानी के लिए स्वयं उस स्तंभकार- लेखक-पत्रकार के साथ-साथ उस अखबार के मालिक या नेतृत्व की भी उतनी ही जिम्मेदारी है.
उस सामग्री को सरसरी तौर पर पढ़ने से ही यह उदाहरण स्पष्ट हो जाते हैं. जब मोदी ने संविधान के अनुच्छेद 370 के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को दिए गए विशेष प्रावधानों को 2019 में जोर-जबरदस्ती से छीन लिया था, इसके ठीक बाद नवंबर में लिखे अपने एक लेख में राम माधव ने मोदी की इस कार्रवाई की तुलना अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के उस ऐतिहासिक महत्व के काम से की, जिसमें उन्होंने अमेरिका में जारी दास प्रथा का उन्मूलन कर दिया था और गृह युद्ध में अपनी सरकार को विजय दिलाई थी. राम माधव ने लिंकन के विश्लेषण में उद्धृत किया :
उन्होंने बंदी प्रत्यक्षीकरण को निलंबित कर दिया लेकिन केवल अपने संविधान को बचाया. और सबसे महत्वपूर्ण यह कि लिंकन अमेरिकी लोगों का नैतिक स्तर ऊंचा करने के काम में लगे थे. इन सबको देखते हुए लिंकन उदार लोकतंत्र के एक महान नेता थे. ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति के रूप में नियुक्त कर अमेरिका ने न केवल अपने संविधान की रक्षा की बल्कि खुद स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मनुष्यता को भी बचा लिया.
उन्होंने आगे लिखा :
कश्मीर में, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्रवाई को भविष्य में इसी रोशनी में देखा जाएगा...यूरोपियन उदारवादी तब लिंकन के उदार समतावादी सिद्धांत के पक्ष में खड़े थे. आज जब यूरोपियन सांसदों के प्रतिनिधियों ने घाटी के दौरे से आने के बाद मोदी की कार्रवाई को अपना समर्थन देकर उसी सिद्धांत को दोहराया है, जबकि भारतीय उदारवादी इसकी भर्त्सना करते हैं और दक्षिणपंथी के रूप में उन सांसदों की ब्रांडिंग करते हैं.
माधव को लिंकन और मोदी में मन-मुताबिक समानताएं ढूंढ़ने और उन्हें प्रस्तुत करने का पूरा-पूरा अधिकार है लेकिन उन्हें मन-मुताबिक तथ्यों को गढ़ने का हक नहीं है. उन्होंने जिन यूरोपीयन संसदों के प्रतिनिधियों का हवाला दिया, कश्मीर में उन्हें चारों तरफ घुमाया-फिराया गया, इस दौरान कश्मीरियों को लॉकडाउन में रखते हुए उनके असंतोष को दबाया गया, उन यूरोपियन सांसदों पर भारतीय उदारवादियों ने दक्षिणपंथी होने का ठप्पा नहीं लगाया था, जबकि वे वस्तुतः लगभग सभी के सभी दक्षिणपंथी पार्टियों के आधिकारिक प्रतिनिधि ही थे.
जैसा कि बीबीसी ने रिपोर्ट किया :
उस प्रतिनिधिमंडल का एक तिहाई से ज्यादा यूरोप में धुर दक्षिणपंथी पार्टियों, जिन्हें मुस्लिम विरोधी माना जाता है,से खुले तौर पर जुड़े थे. उनमें से दो यूरोपियन संसद के प्रतिनिधि अल्टरनेटिव फॉर द जर्मनी (एएफडी) से संबंधित थे और 6 प्रतिनिधि फ्रांस में मरीन ले पेन की नेशनल रैली से जुड़े थे. …ब्रिटेन की लिबरल डेमोक्रेट पार्टी के सांसद क्रिस डेविस ने कहा कि जब उन्होंने जम्मू-कश्मीर में अपनी मर्जी से कहीं भी जाने और किसी भी व्यक्ति से बातचीत करने की बात कही तो उनका बुलावा रद्द कर दिया गया. बाद में उन्होंने बीबीसी के गगन सभरवाल से कहा कि “वे मोदी सरकार की तरफ से पीआर करने और वहां सब कुछ अच्छा है, यह बताने के लिए राजी नहीं थे.”
अगस्त 2020 में, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन करने के अवसर पर राम माधव ने एक लेख लिखा था, “अयोध्या रिप्रेजेंट्स ए शेयर्ड सेंटीमेंट ऑफ सैक्रिड्निस” (अयोध्या धार्मिकता की साझी भावना का प्रतिनिधित्व करता है), जबकि यह मंदिर उसी जगह पर बनाया जा रहा है जहां स्थापित बाबरी मस्जिद को उग्र हिंदू भीड़ ने 6 दिसंबर 1992 को जमींदोज कर दिया था. माधव ने अपने इस दावे कि अयोध्या केवल हिंदुओं के लिए ही पवित्र भूमि नहीं है, को मजबूत समर्थन देते हुए कहा कि “सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह, ने राम जन्मभूमि को मुगलों से वापस लेने की लड़ाई में बाबा वैष्णव दास का समर्थन करने के लिए अयोध्या में एक सेना का नेतृत्व किया था.”
इस बारे में जब मैंने सिखों के प्रसिद्ध इतिहासकार और गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति से पूछा, तो उन्होंने मुझे बताया, “मैंने हाल ही में गुरु गोविंद सिंह पर एक किताब लिखी है और इसको लिखने की तैयारी में मैंने 18वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक का समूचा इतिहास खंगाला है. मुझे वहां इस तरह का कोई दृष्टांत नहीं मिला है. मेरी जानकारी में यह तथ्य सही नहीं है.”
माधव ने अपने दावे की बिना छानबीन किए हुए पहले इसे संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में प्रकाशित करवाया था. जब कोई अगला व्यक्ति इस तथ्य को संघ की कल्पना की उड़ान कहेगा तो वे बदनाम ऑर्गेनाइजर के बदले तथ्य की विश्वसनीयता के प्रमाणस्वरूप इंडियन एक्सप्रेस में छपे लेख को आगे कर देंगे और इस तरह एक और खतरनाक मिथक को इतिहास में प्रसारित-प्रचारित कर दिया जाएगा. भारत जैसे एक ऐसे देश में जहां सुप्रीम कोर्ट अयोध्या की भूमि पर हिंदुओं का स्वामित्व जताने के लिए अपने फैसले में सिख मिथक को उद्धृत करता है, ऐसे में एक्सप्रेस के राम माधव का लेख छापने से पहले उसमें वर्णित तथ्यों की छानबीन की उपेक्षा का नतीजा हानिकारक सिद्ध होगा.
बीजेपी के राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा ने भी इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में, आरएसएस के सुविधाजनक इतिहास पर लीपापोती का काम किया था. उन्होंने 2018 में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा :
स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले तीन दशकों में आरएसएस और विरोधी ताकतों के बीच असहमति एक दूसरे के साथ युद्ध स्तर पर नहीं थी. आरएसएस के विरोधी उसका दर्शन जानते थे और जब कभी भी देश की सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं के सामने संकट आता, वे संघ के प्रति लचीला रुख रखते थे...प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1950 के दशक में देश में खाद्यान्न अभियान में आरएसएस को शामिल करने के खाद्यान्न सचिव के प्रस्ताव को स्वीकार किया था. लगभग इसी समय, कांग्रेस कार्यसमिति ने आरएसएस कार्यकर्ताओं को पार्टी में शामिल करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया था. यह कांग्रेस सरकार की अपनी उस भूल-सुधार का हिस्सा था, जिसमें उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या में आरएसएस की सांठगांठ का झूठा आरोप लगाया था.
राकेश सिन्हा का यह दावा कि आरएसएस के साथ नेहरू की कोई लड़ाई नहीं थी, इस पर वाद-विवाद हो सकता है. लेकिन यह कहना कि कांग्रेस ने संघ कार्यकर्ताओं का अपनी पार्टी में स्वागत किया था, पूरी तरह से झूठ है. आरएसएस के प्रति सहानुभूति रखने वाले लेखक वाटर एंडरसन ने लिखा कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगे प्रतिबंध को अक्टूबर 1949 में हटा लिए जाने के बाद कांग्रेस कार्यसमिति ने आरएसएस के सदस्यों को कांग्रेस में शामिल करने की व्यवस्था की थी. कार्यसमिति के इस निर्णय पर कांग्रेस के भीतर तत्काल ही विरोध शुरू हो गया. सरदार वल्लभभाई पटेल के समर्थक इस प्रस्ताव के पक्ष में थे तो पंडित जवाहरलाल नेहरू के समर्थक इसका विरोध कर रहे थे. आखिरकार नेहरू को इस विवाद में आना पड़ा. उन्होंने कार्यसमिति से कहा कि आरएसएस कार्यकर्ताओं को इसी शर्त पर कांग्रेस में शामिल किया जाएगा, जब वे आरएसएस की सदस्यता को छोड़ देंगे.
वास्तव में जितना कुछ सामने आया, उससे कहीं ज्यादा कुछ था. जब नेहरू विदेश दौरे पर थे तो वल्लभ भाई पटेल ने आरएसएस कार्यकर्ताओं को कांग्रेस में शामिल करने का एक प्रस्ताव कार्यसमिति में पेश किया था. नेहरू इस प्रस्ताव पर हक्का-बक्का रह गए थे और स्वदेश लौटकर उन्होंने इस निर्णय को वापस कराया था. इस तरह कार्य समिति का वह प्रस्ताव मुश्किल से एक महीना भर टिका रह सका था. हालांकि सिन्हा के धूर्ततापूर्ण पुनराख्यान में यह वाकया आरएसएस के प्रति नेहरू के आदर-मान के साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया है.
राकेश सिन्हा ने 2018 में ही लिखे अपने एक अन्य लेख में आरएसएस और हिंदू महासभा को एक जैसी प्रवृत्ति की संस्था बताए जाने पर एतराज जताया था. उन्होंने लिखा कि “महासभा के नेता बीएस मूंजे,आरएसएस के मुख्य वास्तुकार के रूप में प्रायोजित है” लेकिन “ मूंजे और आरएसएस के बीच महत्वपूर्ण मसलों पर मतभेद था और आरएसएस ने इसे कभी छिपाया भी नहीं”. विद्वान मर्जिया कसोलरी ने 2000 में इकोनामिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा, “मान्य विचार के अनुसार- और उग्र हिंदूवादी संगठन भी इसका समर्थन करते हैं कि-आरएसएस और हिंदू महासभा के बीच खास अर्थों में कभी नजदीकी नहीं रही है.” इस विचार के तहत मार्जिया ने आगे लिखा, ऐसा समझा जाता है कि 1937 के बाद आरएसएस और महासभा का संबंध विच्छेद हो गया, जब वीडी सावरकर ने मूंजे से संघ का कार्यभार ले लिया. कसोलरी ने लिखा कि दरअसल अनगिनत ऐतिहासिक साक्ष्य दिखाते हैं कि इस तरह का बंटवारा कभी नहीं हुआ बल्कि दोनों संगठनों में हमेशा गहरा संबंध रहा है.”
सावरकर के भाई गणेश दामोदर सावरकर उन पांच लोगों में शामिल थे, जो 27 सितंबर 1925 को नागपुर में आरएसएस की स्थापना किए जाने के वक्त मौजूद थे. मूंजे ने 1931 में बेनिटो मुसोलिनी से आरएसएस के संस्थापक और हिंदू महासभा के अध्यक्ष के रूप में मुलाकात की थी. मूंजे का जीवन वृत्त, आरएसएस और महासभा सदैव परस्पर गहरे अंतर्गुम्फित थे. इन संगठनों के बीच विभाजन का मिथ केवल इसलिए प्रचारित किया गया था कि महात्मा गांधी की हत्या में आरएसएस के किसी संबंध या हाथ होने के आरोप को खारिज किया जा सके. गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का आरएसएस और हिंदू महासभा इन दोनों संगठनों से लंबा संबंध रहा है. लेकिन संघ पूरे हठ के साथ कहता रहा है कि अपराध करने से काफी पहले गोडसे ने संघ छोड़ दिया था. इस मान्यता को बहुसंख्यक ऐतिहासिक साक्ष्यों ने नकार दिया है (देखें, धीरेंद्र के झा द्वारा लिखित “नाथूराम गोडसे : नफरत का प्रचारक”. यह इसी पत्रिका में जनवरी 2020 के अंक में प्रकाशित हुआ था.)
शोमा चौधरी के साथ इंटरव्यू के दौरान गोयनका से पूछा गया था कि आज मीडिया की इस दुर्दशा के लिए किसे जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए. उनका बेलाग जवाब था : “कोई एक आदमी जिसकी इन सबकी जवाबदेही होती है? संस्थान का मालिक (एक) निश्चित प्रारूप को जारी रखने की इजाजत देता है, (यह) उसके या उसकी निर्देश पर है.अपनी खुद की राय से फिर एक्सप्रेस की इन गड़बड़झाला प्रवृत्तियों के लिए अंततः दोष खुद गोयनका और उनके पिता, एक्सप्रेस समूह के अध्यक्ष, विवेक गोयनका पर पड़ता है।
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अंतरराष्ट्रीय निगरानी समूह रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स और एक स्थानीय साझेदार की भारत के बारे में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट 2019 मीडिया ओनरशिप मॉनिटर में प्रसार की संख्या और “आम राय कायम करने में उनके असर” के आधार पर देश की चोटी की 8 मीडिया कंपनियों की पहचान की गई है. ये समूह हैं : जी समूह, टीवी टुडे, एबीपी ग्रुप, नेटवर्क 18, द टाइम्स ग्रुप, दैनिक भास्कर समूह और प्रसार भारती. इनमें से चार समूहों- जी, दैनिक भास्कर, द टाइम्स ग्रुप और एचटी मीडिया एक ही जाति, मारवाड़ी, के स्वामित्व वाले हैं और नेटवर्क 18 के मालिक मुकेश अंबानी हैं, जो एक गुजराती बनिया हैं, यह साहूकार की जाति मानी जाती है. मीडिया में मारवाड़ी जाति का कद डेक्कन के उत्तर की कंपनियों : जागरण प्रकाशन, राजस्थान समूह, लोकमत मीडिया और दि एक्सप्रेस ग्रुप तक विस्तारित हो गया है.
जैसा कि अनंत गोयनका ने चिन्हित किया है कि भारतीय मीडिया के ऊपर उनके मालिकों का बड़ा प्रभाव पड़ता है. लगभग इन सभी सूचीबद्ध कंपनियों में इनके मालिक अखबार या चैनल की संपादकीय नीति-निर्धारण में सक्रिय भूमिका निभाते हैं-या तो संपादकीय निर्णयों पर अपना सीधा नियंत्रण रखते हैं या फिर पसंद के संपादकों, जिन्हें व्यापक रूप से मालिकों के एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए नियुक्त किया जाता है, के माध्यम से अपना दखल-प्रभाव रखते हैं. इस संदर्भ में, मीडिया को एक निश्चित आकार देने में मारवाड़ी आचार-विचार की भूमिका खास हो जाती है और इसका संदेश भारतीयों की बड़ी तादाद तक पहुंचता है.
जर्नलिस्ट अक्षय मुकुल ने अपनी चर्चित किताब “गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया” में बीसवीं शताब्दी के पहले दशक से मारवाड़ी समुदाय के विकास की थाह ली है. मारवाड़ी अपने मूल निवास स्थान राजस्थान से कारोबार और व्यवसाय के अवसरों की तलाश में पूरे देश में फैल गए. इसमें उन्हें बड़ी कामयाबी मिली और वे देश की शीर्ष कारोबारी परिवारों का मजबूती से प्रतिनिधित्व करने लगे. लेकिन उनकी वित्तीय स्थिति उनकी सामाजिक हैसियत से मेल नहीं खाती थी क्योंकि साहूकार जातियों को परंपरागत वर्णाश्रम प्रणाली में तीसरे पायदान पर रखा जाता था. इन मारवाड़ियों ने सत्ता के साथ तालमेल बनाने और अपने हिस्से के धन को प्रभावित करने के लिहाज से सामाजिक स्वीकार्यता की तलाश शुरू कर दी.
बढ़े हुए सम्मान की इस तलाश में उन्होंने मंदिरों, धर्मशलाओं और शैक्षणिक संस्थानों और कई गौरक्षा सभाओं का निर्माण,उन्हें बनाए रखने के लिए उनका संरक्षण किया.
गीता प्रेस की स्थापना 1923 में की गई और इसे मारवाड़ी वित्त पोषित ट्रस्ट द्वारा संचालित किया जाने लगा. यह जल्द ही मानकीकृत हिंदू धार्मिक ग्रंथों के व्यापक प्रसार की एक बड़ी ताकत बन गया. इसने कल्याण नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, जिसने परंपरागत विचार के एक जरिए के रूप में अपनी सेवा दी. मारवाड़ियों और सभी हिंदुओं के लिए प्रकाशन गृह अपनी धारणाओं को आगे बढ़ाने का एक कुशल जरिया बन गया. प्रकाशन घराने ने इस धारणा का समर्थन किया कि मारवाड़ियों और सभी हिंदुओं के लिए आगे का रास्ता उसी विचार को अपनाने में निहित है, जिस विचार को हिंदू धर्म यानी सनातन धर्म के शाश्वत सत्य के रूप में सामने रखा गया है.
मुकुल ने मारवाड़ी समुदाय के भीतर सामाजिक लामबंदी के एक वैकल्पिक मार्ग के रूप में आंतरिक छटपटाहट को रेखांकित किया, जिसका नेतृत्व जीडी बिरला और जमुना लाल बजाज जैसे लोगों ने किया. उन्होंने आधुनिक शिक्षा और किफायत से जिंदगी जीने पर जोर दिया. किंतु, अंत में गीता प्रेस का स्थापित दृष्टिकोण व्यापक रूप से प्रचलित हुआ.
फेयर ऑब्जर्वर को दिए एक इंटरव्यू में मुकुल कहते हैं, “एक अर्थ में, जो होना शुरू हुआ था, वह यह कि मारवाड़ियों का ब्राह्मणीकरण हो गया था और हिंदुत्व का मारवाड़ीकरण.” इसके केंद्र में था मुद्रा पर मारवाड़ियों का नियंत्रण होना और यह उन्हें शिक्षा या गौ-संरक्षण, कुछ मसलों के नाम यहां लिए जा सकते हैं, पर उनको अपनी रजामंदी देने की इजाजत देता था. भक्ति का बनिया मॉडल आसानी और जल्दी से खुशी पाने पर आधारित था. इस मॉडल से मेरा अर्थ है जिस तरह बनिया फौरन और तयशुदा मुनाफा चाहता है, गीता प्रेस ने प्रचार किया कि अगर लोग कुछ तयशुदा नियमों का पालन करें तो उन्हें तुरन्त फायदा होगा.
मुकुल, टाइम्स ग्रुप के अखबार दि टाइम्स ऑफ इंडिया से लंबे समय तक जुड़े रहे हैं. उन्होंने मारवाड़ी आचार-विचार को देश के इस सबसे बड़े अखबार में परिलक्षित होते हुए नजदीक से देखा है. जब मैंने उनसे बातचीत की तो उन्होंने कहा,“ यह मामला अंग्रेजी के सबसे बड़े अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदी अखबार दैनिक जागरण दोनों के साथ है.” चाहे पूर्ववर्ती सरकार रही हो या मौजूदा सत्ता, “इन समूहों का मूल स्वभाव में बहुत अर्थों में एक जैसा रहता है.” मुकुल कहते हैं, “टाइम्स ग्रुप जैसे संगठन ने सरकार किसी भी दल या गठबंधन की रही हो, उसके साथ काम करने का तरीका सीख लिया है. मुनाफा पर केंद्रित, अनेक बड़े मीडिया संस्थान किसी को भी नाराज करना नहीं चाहते. किंतु मौजूदा सत्ता के साथ चीजें इस प्रतिमान के दायरे के बाहर चली गई हैं. बहुत सारे मारवाड़ी मालिकों के लिए लाभ और प्रतिबद्धता एकमएक हो गई हैं, यह दोनों के लिए फायदेमंद स्थिति है.”
एक मशहूर मौके पर यह मानक अपने सिर के बल खड़ा हो गया था जब इंडियन एक्सप्रेस इंदिरा गांधी के विरोध के लिए आगे आया. तब उसने उस समय देश के सर्वाधिक ताकतवर व्यक्तियों को नाराज कर अपने लिए गंभीर वित्तीय संंकट मोल लिया था. तब इसके मालिक रामनाथ गोयनका-विवेक गोयनका के दत्तक पिता-मनोवृत्ति में कारोबारी से बढ़कर थे. जैसा कि मुकुल ने अपनी किताब में लिखा है, इस मीडिया बैरन ने जनसंघ के टिकट पर 1971 में लोकसभा का चुनाव लड़ा था और विजयी भी रहे थे. तब गीता प्रेस के ट्रस्टी और प्रतिबंद्ध हिंदू राष्ट्रवादी हनुमान प्रसाद पोद्दार ने उनके पक्ष में एक अपील जारी की थी.
जनसंघ बीजेपी की पुरखा है और यह इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस की तीव्र राजनीतिक विरोधी हुआ करती थी. एक राजनेता के रूप में गोयनका की स्थिति, स्वतंत्र पत्रकारिता के महान धर्म योद्धा की उनकी स्थिति के समान नहीं है. आज की स्थिति में गोयनका का चुनाव जीतना बिल्कुल ऐसे ही होगा जैसे कि कोई मीडिया का मालिक कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा सांसद निर्वाचित हो जाए और उसकी मीडिया इकाई मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी बीजेपी की आलोचना करें.
बनिया और उसकी सहयोगी जातियों की विचारधारा की सहानुभूतियां कारपोरेट इंडिया के रुझानों में स्पष्ट दिखाई देती हैं, जहां ये समूह मीडिया की तरह की ही अपना दखल रखते हैं.
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के एक आकलन के मुताबिक राजनीतिक पार्टियों ने 2019 के चुनावों में 55000 हजार करोड़ रुपए खर्च किए, 2014 के आम चुनावों में 30 हजार करोड़ और उसके पहले 2009 के चुनाव में 20000 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे. एक मोटे अनुमान के मुताबिक, भारतीय जनता पार्टी ने 2019 के आम चुनाव में कुल व्यय राशि में से आधी अकेले खर्च की थी जबकि कांग्रेस ने 20 फीसदी खर्च किया था. 2009 के चुनाव में कांग्रेस ने सकल व्यय का 45 प्रतिशत खर्च किया था, जबकि बीजेपी ने 40 फीसद. इन स्तरों पर किए जाने वाले खर्च और बड़े व्यावसायिक घरानों से प्रत्येक दल को मिलने वाले चंदों के स्तर में सीधा सामंजस्य है, क्योंकि देश में इस व्यापक स्तर पर धन जुटाने का और कोई स्रोत नहीं है.
बीजेपी में कारपोरेट निवेश लगातार बढ़ता गया है, जो सत्ताधारी पार्टी होने की वजह से अधिक लाभ पाने के तर्क से बाहर की बात है. 2014 से 2019 की अवधि अर्थव्यवस्था में गिरावट के रूप में दर्ज की गई है, फिर भी बड़े व्यावसायिक घराने मोदी का लगातार जबरदस्त समर्थन करते रहे हैं. यह एक जीतने वाली पार्टी को चंदा देने के स्वभाविक तर्क का हिस्सा हो सकता है लेकिन कांग्रेस के शासनकालों के साथ इस रुझान का मेल नहीं खाता है. यहां तक कि 2005 और 2009 के बीच अर्थव्यवस्था में उछाल आया हुआ था और हर लिहाज से तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का समर्थन मुनासिब था, उनके मुकाबले बीजेपी का नेतृत्व उसके सीनियर नेता लालकृष्ण आडवाणी कर रहे थे, जो सत्ता के लिए गंभीर दावेदार के रूप में नहीं देखे जा रहे थे, इसके बावजूद बड़े व्यावसायिक घरानों ने दोनों ही पार्टियों में लगभग बराबर-बराबर धन का निवेश किया था. 2014 के चुनाव में बीजेपी ने अपनी विरोधी पार्टी की बनिस्बत सबसे ज्यादा धन इकट्ठा किया था, जबकि वह उस समय विपक्ष में थी.
कारपोरेट भारत विचारधारात्मक रूप से मोदी सरकार में निवेश करता है और आज जो कुछ मीडिया में हो रहा है, वह इसी का एक प्रतिबिंब है. मी़डिया मालिकों को जब कभी भी सरकार के प्रति अपनी वफादारी दिखाने मौका दिया गया है, वे इसमें फेल नहीं हुए हैं.
2020 के मार्च में, कोरोनावायरस की प्रतिक्रिया में पूरे देश में लॉकडाउन लागू करने के कुछ ही घंटे पहले मोदी ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए देश की सबसे बड़ी मीडिया कंपनियों के मालिकों और उनके शीर्ष कार्यकारी अधिकारियों से बातचीत की थी. इसमें शरीक हुए अनेक लोगों से बाद में भी उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर बातचीत की थी. प्रधानमंत्री की वेबसाइट पर दी गई सूचना के मुताबिक, जो लोग वीडियो कांफ्रेंसिंग में मौजूद थे, उन्होंने “प्रधानमंत्री की सलाह पर इस दौरान सकारात्मक और प्रेरणास्पद रिपोर्ट छापने के लिए तैयार हो गए थे”. इस कॉन्फ्रेंस में मौजूद मीडिया बिरादरी के बहुत सारे लोगों में एचटी समूह की शोभना भरतिया, लोकमत ग्रुप के ऋषि दरदा और एक्सप्रेस ग्रुप के विवेक गोयनका भी शामिल थे.
कोरोनावायरस से उत्पन्न वैश्विक महामारी से निपटने में सरकार की बदइंतजामी की मीडिया-छानबीन से बचने की यही वजह रही. विगत मार्च के मध्य तक, भारत पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई) के कच्चे माल का निर्यात कर रहा था जबकि अपने देश में इसकी काफी कमी थी. इसके साथ ही वह वेंटिलेटर का निर्यात भी जारी रखे हुए था. अफरा-तफरी में लागू किए गए लॉकडाउन ने सैकड़ों हजारों अप्रवासी मजदूरों को भूखे-प्यासे, रोजगार विहीन और परिवहन की सुविधाओं से वंचित कर दिया. दूरदराज के शहरों से मीलों पैदल ही गांव-घरों के लिए कूच करते हुए कई लोगों ने जान गंवा दी. एक सक्षम आधिकारिक समूह के एक सदस्य ने यह दावा करने की कोशिश की कि सरकार के लॉकडाउन लागू करने की वजह से मई महीने के मध्य के बाद देश में कोरोना के नए मामले नहीं होंगे. अब दुनिया के देशों में सबसे ज्यादा कोरोनावायरस के मामले भारत में हैं और वह अपने पड़ोसी देशों की तुलना में सबसे ज्यादा बुरी स्थिति में है, यद्यपि सरकार का ख्याल है कि वह इस असामान्य स्थिति से बेहतर तरीके से निपटी है. ऐसा इसलिए संभव होता रहा है कि मीडिया ने अपनी अपेक्षित भूमिका को त्याग दिया है.
सरकारी विज्ञापनों और अन्य प्रकार की रियायतों के जरिए मीडिया को अपनी इस प्रतिबद्धता का पुरस्कार भी मिला है. 2020 की शुरुआत में संसद ने देश के श्रम कानूनों को पूरी तरह से बदल दिया. इसमें वर्किंग जर्नलिस्ट्स एक्ट भी शामिल था, जो प्रिंट के सभी पत्रकारों की सेवा-शर्तों का नियमन करता था. पहले के प्रावधानों में, संपादकों को नौकरी से हटाने के 6 महीने पहले और अन्य सभी पदों पर काम करने वाले पत्रकारों के लिए 3 महीने पूर्व नोटिस देने की समय सीमा निर्धारित थी. इसको बदलकर सभी पत्रकारों के लिए 1 महीने पूर्व की समय सीमा तय कर दी गई. इस परिवर्तित कानून के जरिए मीडिया मालिकानों के हाथ को और मजबूत कर दिया गया तथा उनके खिलाफ पत्रकारों की खड़े होने की क्षमता को समाप्त कर दिया.
इस रुझान ने अधिकाधिक रूप से न्यूजरूम की स्वतंत्रता का भी विलोप कर दिया. इसी पत्रिका के लिए 2 वर्ष पहले लिखे अपने लेख में प्रख्यात संपादक हरीश खरे ने रेखांकित किया था :
“काबू में न आने वाले” संपादक की प्रजाति आज भारत में दुर्लभ हो गई है. केंद्र और राज्य सरकारों और उनकी विरोधी पार्टियों समेत भारत का सर्वाधिक राजनीतिक वर्ग एक मजबूत और स्वतंत्र दृष्टिकोण रखने वाले संपादक को अवांछनीय मानता है. पेशेवर संपादकों के प्रति कारपोरेट के बॉस का व्यवहार तिरस्कारपूर्ण रहा है. मीडिया घरानों के मालिक, जो खासतौर से चापलूसी करने वाले पत्रकारों को पसंद करते हैं, वे एक निडर किस्म के संपादक से सबसे ज्यादा नाखुश रहते हैं. यहां तक कि समाचार संगठनों में भी साथी पत्रकार प्रबंधन में एक कमजोर व्यक्ति को आसीन देखना पसंद करते हैं.”
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मोदी के 2019 के आम चुनाव में फिर से चुने जाने से कोई साल भर से पहले, इंडियन एक्सप्रेस के चीफ एडिटर राजकमल झा ने एक संपादकीय मीटिंग में अपने सहयोगियों से कहा कि अखबार में किसी स्टोरी को छापने से पहले बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है. यह पुरानी कांग्रेस की नेतृत्व वाली सरकार नहीं है जहां कोई बात कही जा सकती थी और किसी को कोई डर नहीं होता था- “ये” लोग भिन्न हैं.
यह उसी पृष्ठभूमि से जुड़ी बात है कि क्यों आज का मीडिया ऐसा हो गया है. अगर वित्तीय मानसिकता और विचारधारात्मक रूप से सहानुभूतिशील मीडिया का मालिक होना काफी नहीं है तो सरकार की बदमाशियों का भय भी दिखाया जाता है.
इसे स्वयं प्रधानमंत्री ने 2019 के चुनाव के दौरान ही एक्सप्रेस के साथ अपने इंटरव्यू में रेखांकित किया था. राज कमल झा और अखबार के नेशनल ब्यूरो के प्रमुख रवीश तिवारी से बातचीत करते हुए मोदी ने सब को सावधान किया था :
“अब आप हमारे साथ मीडिया का नकाब पहनकर नहीं लड़ सकते… आज आप बेनकाब हो गए हैं, सभी पत्रकार. सोशल मीडिया पर आपके विचार दिखाई दे रहे हैं. लोग उसका विश्लेषण करते हैं कि...जो व्यक्तिगत विचार मीडिया में परिलक्षित हो रहे हैं, वे मीडिया की तटस्थता-निष्पक्षता नहीं हैं. इसीलिए आज आपकी प्रतिष्ठा जो दांव पर लगी है, इसी के कारण लगी है.
आपको अपनी प्रतिष्ठा बनाए-बचाए रखने के लिए संयम बरतना होगा. पूरी मीडिया बिरादरी को यह करना होगा. पहले संपादक गोष्ठी-सभाओं में विचार व्यक्त करते थे तो उसे दूसरे रूप में नहीं लिया जाता था. आज यह मामला नहीं है. विश्वसनीयता का संकट मीडिया का संकट नहीं है बल्कि इसमें काम करने वाले एक व्यक्ति का है. इसलिए हमें गाली मत दीजिए.”
संदेश बड़ा सरल था : हम आप पर नजर रख रहे हैं, हरेक पर व्यक्तिगत रूप से, और अगर आपने दायरे से बाहर कदम रखा तो आपकी प्रतिष्ठा ऑनलाइन हो जाएगी. इसका मतलब यह नहीं है कि आप क्या रिपोर्ट करते हैं, बल्कि क्या आप इस सरकार के समर्थक हैं. कोई भी व्यक्ति जो मोदी की मुखर आलोचना करता है, उसे मोदी की रिपोर्टिंग से दूर रहना होगा और कोई जर्नलिस्ट मोदी के ऊपर रिपोर्टिंग करता है, उसे उनके बारे में आलोचना करने से जरूर ही परहेज करना होगा.
मोदी ने इंटरव्यू के दौरान स्पष्ट कर दिया कि एक्सप्रेस पर्याप्त “संयम” नहीं बरत रहा है. वह बार-बार अखबार में दिखी गलतियों के विस्तृत ब्योरे देने की तरफ मुड़ जाते, जिससे यह प्रतीत होता था कि वह कितनी तैयारी के साथ आए हैं. जब उनसे मध्य प्रदेश और राजस्थान में कुछ महीने पहले हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी के विरुद्ध कांग्रेस की जीत के बारे में पूछा गया, तो मोदी ने अखबार में छपी रपटों की एक पूरी सूची दिखाई और यह महसूस किया कि इस अखबार को उन राज्यों से प्रकाशित किया जाना चाहिए. वे रिपोर्टें, अनाश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस की संभावनाओं की धुंधली तस्वीर पेश करती थीँ.
जब उनसे उनकी सरकार की परस्पर विरोधी नीतियों के बारे में पूछा गया यानी एक तरफ तो उनकी सरकार स्वरोजगार के लिए कर्ज देती है और दूसरी तरफ किसानों और दूसरों को धन बांटने की योजना बनाई है, तो मोदी ने छूटते ही कहा, “मैं इंडियन एक्सप्रेस को विज्ञापन देता हूं. यह मुझे कोई फायदा नहीं देता तो क्या यह धन बांटना हुआ? अखबारों को दिया जाने वाला विज्ञापन खैरात के विवरण में बिल्कुल सटीक बैठ सकता है.”
यह उस सवाल का जवाब नहीं था, जो उनसे पूछा गया था लेकिन इसने एक्सप्रेस को सरकारी विज्ञापनों पर उसकी निर्भरता की याद दिलाई. मोदी ने “मैं” शब्द का इस्तेमाल किया. यह भी इसकी याददाश्त कराता था कि चीजें कैसे खड़ी हैं. बिल्कुल यह कि इस सरकार में कौन तय करता है कि विज्ञापन के रूप में किसको कितना धन दिया जाएगा.
इसका मतलब यह नहीं कि अखबार अपनी वित्तीय वास्तविकताओं से अनजान है. सार्वजनिक टेंडर को अनिवार्य रूप से प्रिंट मीडिया में प्रकाशित किए जाने के 2018 के सरकारी निर्णय का भी एक्सप्रेस ग्रुप को बहुत फायदा पहुंचा है, जो वित्तीय वर्ष 2019 के दौरान 33.3 करोड़ रुपए से 19.2 करोड़ रुपए नीचे खिसक गया था. यहां तक कि नई व्यवस्था के अंतर्गत, जिसमें मंत्रालय को यह तय करने का अधिकार है कि टेंडर प्रिंट में छपाया जाए या कहीं और केंद्रीय मंत्रालयों की विज्ञप्तियां, विज्ञापन और दृश्य-प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) द्वारा जारी किए जाते हैं, इसके तहत भी उस वित्तीय वर्ष में एक्सप्रेस ग्रुप को दो करोड़ रुपए का विज्ञापन मिला था. यह रकम उस अखबार के कुल लाभांश का 10 फीसद से अधिक है.
सरकार और बीजेपी से अन्य विज्ञापनों की आमद के साथ एक्सप्रेस ग्रुप, मोदी के अनुदान के लिए स्पष्ट रूप से बेकरार था.
मोदी ने इस अखबार की अपनी तफ्तीश जारी रखी. एक्सप्रेस को ले कर उनका खीजा सवाल था, जम्मू-कश्मीर में उनके प्रदर्शित “राष्ट्रवाद” की तरफ एक्सप्रेस की आंख मूंदें रखना. उन्होंने बातचीत के दौरान एक बिंदु पर याकूब मेनन का जिक्र करते हुए कहा, “जब एक आतंकवादी को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फांसी की सजा दे दी जाती है, तो इस तरह की सुर्खियां दी जाती है, ‘उन्होंने उसे फांसी पर लटका दिया’.’’ एक्सप्रेस में हेडिंग स्वयं राजकमल झा द्वारा लिखी जाती है या तय की जाती है. मोदी मजाक में पूछते हैं, “यह अभिव्यक्ति की आजादी थी, क्या ऐसा नहीं था?’’
एक्सप्रेस एक अकेला मीडिया संस्थान नहीं था जिसकी मोदी सरकार की तरफ से इतनी बारीक और तफ्सील से तफ्तीश की जा रही है. छानबीन की उसकी पद्धति एबीपी न्यूज के एंकर पुण्य प्रसून बाजपेयी के मामले में स्पष्ट हो गई थी, जब उन्हें 2018 में बलात नौकरी से हटने पर मजबूर कर दिया गया था.
एबीपी ग्रुप उस आचार-विचार से अलग हो गया है, जो मारवाड़ी स्वामित्व वाली मीडिया कंपनियों पर दखल रखता है. इस ग्रुप का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अखबार द टेलीग्राफ केंद्र सरकार की लगातार मुखर आलोचना करता है. लेकिन एक बात तो यह कि द टेलीग्राफ अंग्रेजी अखबार है, वह कोलकाता में प्रकाशित होता है और उसका प्रसार बहुत सीमित है. वहीं, एबीपी न्यूज व्यापक रूप से देखा जाने वाला हिंदी चैनल है और इसीलिए यहां उसे सरकार का दबाव झेलना पड़ता है.
पुण्य प्रसून वाजपेयी एबीपी न्यूज चैनल पर प्राइम टाइम शो करते थे. उन्होंने चैनल से खुद के हटाए जाने के बारे में विस्तृत विवरण देते हुए कहा कि कैसे चैनल के मालिक ने उनसे सरकार की किसी भी आलोचना के क्रम में मोदी के नाम से बचने को कहा था. फिर ऐसी खबरों के दौरान मोदी की तस्वीर न लगाने का फरमान दिया गया-यह एक बेतुकी परिस्थिति थी क्योंकि केंद्र सरकार की हर स्कीम या पहल की शुरुआत स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा की जाती थी.
चैनल में अपने कामकाज के अनुभवों के बारे में वाजपेयी ने लिखा कि “मंत्रालय में अतिरिक्त महानिदेशक की मातहत 200 सदस्यों की निगरानी टीम काम करती है, जो सीधे संबद्ध मंत्री को अपनी रिपोर्ट करती है. चैनल की निगरानी के काम में 150 सदस्यों की टीम लगी हुई हैं, 25 सदस्य सरकार की इच्छा के मुताबिक इसका स्वरूप तय करते हैं; और बाकी 25 सदस्य चैनलों पर प्रसारित होने वाले विषय-वस्तु की अंतिम समीक्षा करते हैं. इस रिपोर्ट के आधार पर उपसचिव श्रेणी के 3 अधिकारी रिपोर्ट बनाते हैं, जिसे (सूचना और प्रसारण) मंत्री के पास भेज दिया जाता है, फिर वे इसे पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) भेज देते हैं, जहां के अधिकारी इसे एक्टिवेट करते हैं और उनके दिशा-निर्देशों को न्यूज चैनलों के संपादकों तक भेज दिया जाता है कि चीजों को किस रूप में और कैसे किया जाना है.”
वाजपेयी ने लिखा कि अगर संपादक अपनी पत्रकारिता के धरातल पर डटे रह गए, “तब मंत्रालय के अधिकारी या पीएमओ सीधे उस चैनल के मालिक से बातचीत करता था...वे उन्हें मॉनिटरिंग रिपोर्ट की पूरी फाइल भेज देते जिसमें इसका विस्तार से ब्योरा होता था कि किस तरह प्रधानमंत्री के बयान, 2014 के चुनावी वादों से लेकर नोटबंदी के उनके दावों, सर्जिकल स्ट्राइक्स और जीएसटी को फिर से दिखाया जा सकता है, इसमें प्रधानमंत्री के पुराने दावों को भी जोड़ा जा सकता है.”
अगर यह तरीका सफल नहीं होता था तो बीजेपी और आरएसएस के प्रतिनिधि उस भटके हुए चैनल पर होने वाली बहस में भाग लेना ही बंद कर देते थे-जैसा की एबीपी न्यूज के साथ हुआ जबकि वाजपेयी वहां कार्यरत थे-चैनल के प्राइम टाइम कार्यक्रम में झटके से बचने के लिए वैसा करते थे.
इसका अंतिम चरण था चैनल द्वारा आयोजित उच्च स्तरीय सार्वजनिक कार्यक्रम के बहिष्कार का. वाजपेयी ने लिखा कि,“बीजेपी और मोदी सरकार दोनों ने कार्यक्रम में आने से इनकार कर दिया था. इसका मतलब था कि इस समारोह में कोई मंत्री भाग नहीं लेगा. और वे जो सत्ता में थे, वे अपनी गैरहाजिरी को लेकर पूरी तरह स्पष्ट थे कि कैसे कोई कार्यक्रम केवल विरोधियों की मौजूदगी में सफलतापूर्वक किया जा सकता है? इसका संदेश सभी चैनलों के लिए तीखा और स्पष्ट था, वह यह था : हमारे खिलाफ जाओ, तुम्हारा कारोबार ठप हो जाएगा.”
मैंने 2017 में ऐसे मीडिया इवेंट्स में हो रही बढ़ोतरी को लेकर लिखे एक लेख में यह दिखाया था कि किस तरह ऐसे कार्यक्रम मीडिया कंपनियों की ब्रांडिंग और धन के लिए आवश्यक हो गए हैं और यह कि सरकार की भागीदारी पर उनकी भारी निर्भरता ने उनकी स्वतंत्रता को कमजोर कर दिया है. गोयनका ने तो बाद में मंत्रियों को आमंत्रित कर उनके हाथों ‘रामनाथ गोयनका उत्कृष्ट पत्रकारिता पुरस्कार’ दिलाने की अपनी आदत ही बना ली थी. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2016 में खुद अपने हाथों यह पुरस्कार दिया था. (तब गीता प्रेस के लेखक अक्षर मुकुल ने अपना विरोध दर्ज कराते हुए इस किताब पर सम्मान लेने से इनकार कर दिया था.). इसके पहले मोदी और उनकी पार्टी ने टाइम्स ग्रुप और एचटी मीडिया के समारोहों का बहिष्कार किया था.
एचटी का कम घृणाजनित अपराधों को रिकार्ड पर लाने वाले प्रोजेक्ट को रोक कर, मोदी पर प्रहसन के एक रेडियो कार्यक्रम को निरस्त कर, सरकार को विरोधी नजरिए से देखने वाले संवाददाताओं को बाहर का रास्ता दिखा कर और जो संपादक मोदी के प्रति थोड़े-बहुत आलोचनात्मक रुख रखते थे, उन्हें पद से हटा कर बंद हो गया. पुण्य प्रसून वाजपेयी के साथ भी ऐसा ही हुआ.
सरकार की तफ्तीश से मीडिया का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा. दुर्लभ हो रहे ऐसे पत्रकार, जो मोदी के शासन काल की गंभीरता से समीक्षा करते हैं, उसकी बड़ी तादाद डिजिटल प्लेटफार्म का उपयोग करने लगी है और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सरकार उसे नियमन करने की दिशा में बढ़ रही है.
पिछले सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने सुदर्शन टीवी पर “यूपीएससी जिहाद” से खतरों को लेकर प्रसारित किए जा रहे उत्तेजक कार्यक्रम के मामले में सुनवाई की थी. न्यायालय ने टेलीविजन चैनल के नियमन के विकल्प पर जैसे ही विचार की बात कही, केंद्र सरकार ने इसमें साहसपूर्वक दखल किया और कहा कि सबसे पहले डिजिटल मीडिया के लिए नियमन बनाया जाना चाहिए. जैसा कि द हिंदू ने अपने संपादकीय में लिखा,
इस डर को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि नियमनों का लाया जाना सेंसरशिप के लिए मंगलाचरण है. ये सभी सवाल अति महत्वपूर्ण हैं क्योंकि डिजिटल न्यूज मीडिया के क्षेत्र में हाल के वर्षों में निवेश की एक लहर बनी है. ये मीडिया साइट्स और पत्रिकाएं तर्कसंगत पत्रकारिता की पहल करती हैं, जिनके पास न केवल गुणात्मक सामग्री देने की उपयुक्त मशीनरी है बल्कि इस काम को उच्चस्तरीय उत्तरदायित्व के साथ किया जाता है.
इसके तुरंत बाद ही, सरकार ऑनलाइन न्यूज प्लेटफार्म को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की निगरानी के दायरे में ले आई. इनमें विदेशी निवेश की अंतिम सीमा भी तय कर दी गई जिसके तहत कुल स्वामित्व 26 फीसद से ज्यादा विदेशी निवेश नहीं किया जाएगा. सरकार के इस नियमन की पहली शिकार हफ्फ पोस्ट इंडिया बनी जो उन गिनी-चुनी संस्थाओं में शामिल थी जो सरकार की स्क्रूटनी करती थी. इसकी संरक्षक कंपनी ने अपने को नए नियमों के गलत हिस्से में पाते हुए और नवंबर में इस वेबसाइट को बंद कर दिया.
मोदी के अब तक के छह साल के कार्यकाल के दौरान, द इंडियन एक्सप्रेस वही अखबार नहीं रह गया जो एक समय इंदिरा गांधी के रवैये के विरुद्ध खड़ा हुआ था. अखबार के वरिष्ठ संवाददाताओं को कहा गया कि अखबार के लिए रिपोर्टिंग, “सीधी और एफवाईआई” ( फॉर योर इनफॉरमेशन, आप की सूचना के लिए) होना चाहिए. अपने स्टाफ के साथ निजी बातचीत में राजकमल झा ने कहां कि वे उनकी बाध्यताओं को नहीं समझते जहां 350 नौकरियां दांव पर लगी हुई हैं. इस दलील को रामनाथ गोयनका ने समझौते के आधार के लिए कभी इस्तेमाल नहीं किया.
मैंने यह आलेख लिखे जाने के क्रम में, इस बारे में और उस संपादकीय मीटिंग के बारे में जिसमें उन्होंने पुरानी सरकार और “ये” लोग में अंतर बताया था, को लेकर राजकमल झा को कुछ सवाल भेजे थे. उनका जवाब था, “आपके सवाल उन बातचीतों के बारे में हैं, जो कभी हुई ही नहीं. एक्सप्रेस के प्रत्येक संपादकीय मीटिंग में जो कुछ होता है, वह निष्पक्षता, सटीकता और विशिष्टता के अंतर्गत होता है. न केवल संपादकीय पवित्रता के रूप में बल्कि इस ध्रुवीकृत समय में चारों तरफ से होने वाले हमले से बचाव के केवल यही औजार हैं, जिन्हें हम न्यूजरूम की सुरक्षा दीवार के रूप में इस्तेमाल करते हैं. दिन पर दिन, एक्सप्रेस की रिपोर्टिंग, उसके संपादकीय तथा स्तंभकारों या अतिथि लेखकों की टिप्पणियां, निष्पक्षता और स्वतंत्रता के प्रति न्यूजरूम की प्रतिबद्धता को परिलक्षित और सुदृढ़ करती हैं.”
कश्मीरी रिपोर्ताज के सर्वाधिक प्रख्यात आवाज मुजामिल जलील की बाई लाइन लगभग 2019 की शुरुआत से ही एक्सप्रेस में गायब हो गई है. सीमा चिश्ती, प्रतीक कांजिलाल और सुशांत सिंह जैसे ख्यातिलब्ध पत्रकारों ने अखबार छोड़ दिया है.
जब इंडियन एक्सप्रेस ने कुछ साल पहले अपने रूप का पुनर्विन्यास कराया था तो उसने कलम और स्टाइलिश लौ वाले पुराने लोगो को फिर से सजा दिया था. लौ तो अब भी लहक रही है लेकिन कलम गायब हो गई है.
(1 दिसंबर 2020 के अंग्रेजी कारवां में प्रकाशित इस कवर स्टोरी का हिंदी में अनुवाद डॉ विजय कुमार शर्मा ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
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