जब अरुण जेटली भी नहीं ढूंढ पाए बोफोर्स मामले में भ्रष्टाचार

बोफोर्स मामले की जांच के लिए गठित टीम का हिस्सा थे जेटली. बीसीसीएल

वर्ष 1987 में जेटली, तत्कालीन वित्त मंत्री वी.पी. सिंह के अंतर्गत आने वाले एन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट और अमरीकी जासूसी कंपनी फेयरफैक्स के कानूनी पचड़ों में फंसे रहे, जिसे कथित तौर पर विदेशों में जमा गैरकानूनी काले धन की छानबीन के लिए नियुक्त किया गया था. मार्च 1987 में जेटली और जेठमलानी ने संघ के विचारक और गोयनका के आर्थिक सलाहकार एस. गुरुमूर्ति का सफलतापूर्वक बचाव किया था. इंडियन एक्सप्रेस में कांग्रेस और रिलायंस के खिलाफ लिखे लेखों की झड़ी के बाद, गुरुमूर्ति पर शक किया जाने लगा था कि उन्होंने फेयरफैक्स को गुप्त जानकारी मुहैया करवाई थी. तब तक रक्षामंत्री बन चुके, सिंह की छानबीन के लिए दो सुप्रीम कोर्ट जजों का एक आयोग गठित किया गया. वी.पी.सिंह प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा टैक्स चोरों के खिलाफ छेड़ी गई जंग के खिलाफ थे, जिसमें गांधी ने कांग्रेस-समर्थक रिलायंस को भी नहीं बख्शा था. सिंह ने अपना मंत्री पद और कांग्रेस पार्टी दोनों त्याग दिए और अपने बचाव के लिए करांजवाला का हाथ थामा. उन्होंने मुझे बताया, “अरुण भी उन्हें सलाह दिया करते थे.”

अगले महीने अप्रैल तक, लहर कांग्रेस के खिलाफ बहने लगी जब खुलासा हुआ कि स्वीडन की हथियार बनाने वाली कंपनी ने कथित तौर पर भारत सरकार के साथ 1.3 बिलियन डॉलर का करार करने के लिए कथित रूप से राजीव गांधी को रिश्वत दी थी. उसी गर्मियों में जब फेयरफैक्स की जांच अभी जारी थी और बोफोर्स घोटाला खबरों में छाया हुआ था, जेठमलानी इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर अपने लेखों के जरिए गांधी को निशाने पर लेकर सवालों की झड़ी लगाए हुए थे. नलिनी गेरा की 2009 की किताब ‘राम जेठमलानी: एन औथोराइजड बायोग्राफी ’ के मुताबिक, इसमें उनकी मदद गुरुमूर्ति, अरुण शौरी और बीजेपी के कई सदस्य खासकर, अरुण जेटली कर रहे थे.”

जेटली कोर्टरूम के बाहर भी अपनी भूमिका निभा रहे थे. दिसंबर 1989 में बोफोर्स घोटाले की लहर पर सवार होकर वी.पी. सिंह, जनता दल के नेतृत्व में बीजेपी-समर्थित नेशनल फ्रंट सरकार के प्रधानमंत्री बन गए. इंडिया टुडे ने बीजेपी की सीट तालिका में नाटकीय इजाफे का कुछ श्रेय जेटली को दिया. बीजेपी 1984 में दो सीटों से 1989 में 86 सीटों का आंकड़ा छू चुकी थी. “पूर्व छात्र नेता ने पैसों का इन्तेजाम किया और बीजेपी के प्रचार अभियान की कमान संभाली,” इंडिया टुडे ने लिखा, जेटली के कॉलेज के दोस्त प्रभु चावला तब तक पत्रिका में वरिष्ठ संपादक बन चुके थे.

सैंतीस वर्षीय जेटली को अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल बना दिया गया. करांजवाला ने कहा, जेटली, सिंह के “बहुत पसंदीदा थे. मेरी भी शायद इसमें छोटी-मोटी भूमिका थी.” जेटली के साथ दफ्तर साझा करने वाले वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे के अनुसार, इस नियुक्ति के चलते दिल्ली हाई कोर्ट ने उन्हें रातों रात वरिष्ठ वकील का दर्जा दे दिया, जिससे उनकी वकालत और भी चमक उठी. करांजवाला ने कहा, मौजूदा अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी जो “हमारे सबसे करीबी दोस्तों में थे, की भी इसमें भूमिका रही.”

जेटली जैसे वकीलों की सेवाओं के चलते प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह से अपेक्षा की जा रही थी कि वे बोफोर्स आरोपों की जांच को अंजाम तक पहुचाएंगे. जनवरी 1990 में, जेटली समेत पूर्व एन्फोर्समेंट डायरेक्टर भूरे लाल और सीबीआई के डिप्टी इंस्पेक्टर-जनरल एम.के. माधवन का एक जांच दल जांच के सिलसिले में स्विट्जरलैंड और स्वीडन गया. यह पहला मौका था जब जेटली की तस्वीर टीम के साथ राष्ट्रीय अखबारों में छपी.

लेकिन आठ महीने बाद वही ‘ढाक के तीन पात’ वाली बात हो गई. इंडिया टुडे के एक लेख में, एक आलोचक सांसद का बयान छपा. जिसमें उन्होंने कहा कि अगर जांच दल ने “विदेशों में इसी तरह अपनी जांच जारी रखी तो उसे जल्द ही प्रवासी भारतीयों का दर्जा मिल जाएगा.” इसके बावजूद आने वाले सालों में, जेटली अपनी दुकान चमकाने के लिए अक्सर जांच में अपनी भागीदारी को गाहे-बगाहे उठाते रहे. लेकिन 2012 में स्वीडिश पुलिस के पूर्व प्रमुख स्टेन लिंडस्ट्रोम, जिन्होंने पत्रकार चित्रा सुब्रमण्यम को बोफोर्स संबंधित अति संवेदनशील दस्तावेज लीक किए थे, ने टीम के खिलाफ बोलते हुए दावा किया कि इस जांच ने “पानी और गंदा कर दिया था.”

लिंडस्ट्रोम ने कहा कि सुब्रमण्यम के लेखों में पांच स्विस बैंक खातों का जिक्र था जिनमें बोफोर्स की रिश्वत जमा की गई थी. टीम ने राजीव गांधी के करीबी दोस्त, एक्टर अमिताभ बच्चन का नाम भी इसमें शामिल कर दिया, जिसकी खबर डेगेंस नाइटर नामक अखबार में छपी. बच्चन द्वारा यूके कोर्ट में दायर किया गया केस जीतने के बाद, अखबार ने अपना माफीनामा छापा. बच्चन ने दावा किया था कि “भारत सरकार की तरफ से बोफोर्स लेनदेन के मामले में सीधे-सीधे जुड़े लोगों की सूचना पर विश्वास करना” भ्रमित करने वाला है.

सुब्रमण्यम, जो अब द न्यूज मिनट ऑनलाइन पोर्टल की प्रधान संपादक हैं, ने मुझे इमेल इंटरव्यू में बताया, “वह साजिशों का दौर था! लगभग हर किसी के पास एक थ्योरी, एक लिस्ट, एक नाम था.” उन्होंने कहा- जेनेवा, बर्न और स्टॉकहोम से एक दशक से भी ऊपर से, “मैंने देखा कि कैसे सरकारों ने तथ्यों की कीमत पर अपने फायदे के लिए सूचनाओं का उपयोग और दुरूपयोग किया.” उनका यह भी दावा था कि सरकार की जांच में उनके ऊपर बच्चन और सहायक को फंसाने का जबरदस्त दबाव था.

उनके मना करने पर उनके खिलाफ घातक और महिला-विरोधी लेख लिखे गए. एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि मुंबई के एक अखबार, द डेली ने बच्चन और उनके बीच विवाहेत्तर संबंध होने का भी संकेत किया. इंडियन एक्सप्रेस ने उनकी विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते हुए उनके ऊपर अमिताभ बच्चन का प्रभाव होने का आरोप लगाया.” चावला और तरुण तेजपाल ने बच्चन द्वारा मानहानि का मुकदमा जीतने के बावजूद इंडिया टुडे में लिखा. इन लेखों से सुब्रमण्यम बहुत ज्यादा विचलित हुईं. उन्होंने बताया, “कुछ सालों बाद मैंने इस बारे में जेटली से बात की, उन्होंने मेरे विचारों को खुले दिल से सुना.” उन्होंने जेटली पर अफवाह फैलाने का आरोप नहीं लगाया लेकिन कहा, “वे वही कर रहे थे जो उनसे राजनीतिक रूप से अपेक्षित था.”

बच्चन उस समय इलाहबाद से सांसद थे और उनके खिलाफ प्रचार का कम से कम एक व्यापक राजनीतिक असर तो पड़ना ही था. वी.पी. सिंह की राज्य सभा सदस्यता खत्म हो रही थी और वे इलाहाबाद की बच्चन वाली सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे. जब बच्चन ने 1987 में अपने पद से त्यागपात्र दिया तो इसने उपचुनाव की स्थिति पैदा कर दी. बच्चन दोबारा चुनाव मैदान में नहीं उतरना चाहते थे. सिंह ने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए बोफोर्स आरोपों का भरपूर इस्तेमाल किया. “मैंने कहा, मैं बच्चन के खिलाफ चुनाव लडूंगा और उन्हें हराऊंगा क्योंकि वे इस सरकार के भ्रष्टाचार का प्रतिनिधित्व करते हैं.”

(द कैरवैन के मई 2015 अंक में प्रकाशित रिपोर्ट का अंश. पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें.)