हाल तक बीजेपी में नरेन्द्र मोदी का विकल्प माने जाने वाले नितिन गडकरी आजकल अलग-थलग नजर आ रहे हैं. गडकरी को ‘संघ का लाडला’ माना जाता है और संघ ने उनके प्रति अपने भरोसे को कई बार व्यक्त भी किया है. लेकिन हाल के दिनों में महाराष्ट्र की राजनीति में मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस हावी हैं. कारवां के ताजा अंक में प्रकाशित फडणवीस की प्रोफाइल के अनुसार, गडकरी के करीबियों को फडणवीस ने काफी हद तक किनारे कर दिया है. पार्टी में गडकरी के कमजोर होने के पीछे, पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनके लिए फैसलों का भी हाथ है. अपने कार्यकाल में गडकरी को मोदी से कई मामलों में टकराना पड़ा था. संघ के एक और चहेते प्रचारक संजय जोशी के मामले में गडकरी को मोदी के सामने घुटने टेकने पड़े थे.
नीचे पेश है कारवां के स्टाफ राइटर प्रवीण दोंती की 2018 की गडकरी की प्रोफाइल “नितिन गडकरी : संघ का दुलारा” का अंश. जिसमें बतौर बीजेपी अध्यक्ष गडकरी कार्यकाल का ब्यौरा है.
सन 2000 में संघ के पहले गैर-ब्राह्मण सरसंघचालक राजेन्द्र सिंह ने संगठन का नेतृत्व के एस सुदर्शन को सौंपा. हालांकि वाजपेयी खुद भी संघ की पैदाइश थे, गठबंधन सरकार के चलते उनके द्वारा उठाए गए कुछ कदम संघ के गले नहीं उतरे. सुदर्शन के नेतृत्व वाले संघ में, आलोचना अपने शिखर पर पहुंच गई और संघ ने बीजेपी पर लगाम कसने की ठान ली. जब तक वाजपेयी और उनके डिप्टी आडवाणी सत्ता में रहे सुदर्शन कुछ नहीं कर पाए. लेकिन जब 2004 के आम चुनावों में बीजेपी की हार हुई तो उनके हाथ मौका लग गया.
2005 में एक टीवी साक्षत्कार के दौरान सुदर्शन ने कहा कि वाजपेयी और आडवाणी “को अब हट जाना चाहिए और उदित होते नए नेतृत्व को मार्गदर्शन देने का काम करना चाहिए.” आडवाणी द्वारा पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को एक धर्मनिरपेक्ष शख्सियत बताने के बाद तो संघ ने ऐसा बखेड़ा खड़ा किया कि उन्हें बीजेपी के नेतृत्व से ही हाथ धोना पड़ा. संघ के वफादार दब्बू राजनाथ सिंह ने आडवाणी की जगह ली और संघ अब पार्टी की छोटी से छोटी चीज पर भी नजर रखने का काम करने लगी. कई और बातों के अलावा, बीजेपी ने अपने संविधान में संशोधन किया ताकि संघ प्रचारकों को पार्टी के हर स्तर पर तैनात किया जा सके.
2009 के आम चुनावों से ठीक दो महीने पहले, सुदर्शन के स्थान पर मराठी ब्राह्मण मोहन भागवत ने सरसंघचालक की कमान संभाली. यह एक युगांतरकारी बदलाव था. हालांकि बीजेपी अपनी पहले की कार्यनीति पर कायम रही. आडवाणी अब भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे और संघ के पार्टी में दखल ने अंदरूनी झगड़ों को हवा देनी जारी रखी. पार्टी और इसकी जननी संस्था के बीच संबंध रूखे बने रहे.
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