Thanks for reading The Caravan. If you find our work valuable, consider subscribing or contributing to The Caravan.
26 सितंबर को शिरोमणि अकाली दल ने घोषणा की कि वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से अलग हो रही है. इस तरह सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के साथ उसकी 24 साल की लंबी साझेदारी खत्म हो गई. कृषि उपज की खरीद और बिक्री से संबंधिक तीन विवादास्पद अध्यादेशों को कानून बना देने के केंद्र सरकार के फैसले के चलते अकाली दल गठबंधन से अलग हो गई. अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने ट्वीट कर दावा किया कि अलग होने का कारण केंद्र की “एमएसपी पर फसलों के सुनिश्चित विपणन की रक्षा के लिए वैधानिक विधायी गारंटी देने से इनकार करना और पंजाबी और सिख मुद्दों के प्रति केंद्र सरकार की असंवेदनशीलता है.” बादल यह स्पष्टीकरण चलाकी और राजनीति से प्रेरित लगता है.
पिछले पांच दशकों में संघ परिवार ने कई मौकों पर सिखों के प्रति असंवेदनशीलता दर्शाई है. फिर भी अकाली दल ने बीजेपी और उससे पहले भारतीय जनसंघ के साथ चुनावी संबंध बनाए रखा. हाल के सालों में अकाली दल को पंजाब के भीतर आलोचना का सामना करना पड़ा है. बीजेपी के साथ पार्टी के इतिहास से पता चलता है कि एनडीए के साथ संबंध विच्छेद करने का उसका फैसला सिख मुद्दों को लेकर उसकी प्रतिबद्धता के बजाय हिंदू बहुसंख्यवादी पार्टी के साथ जुड़ने से होने वाले नुकसान को ध्यान में रखा कर किया गया है.
1996 में बीजेपी के साथ गठबंधन करने से पहले अकाली दल कई बार जनसंघ के साथ आई. 1967 में अकाली दल, जनसंघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के गठबंधन से पंजाब में पहली बार कोई गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनाया. एक दशक बाद जनसंघ के साथ फिर से गठबंधन करके अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल को मुख्यमंत्री बनवाया.
अगले 15 साल राज्य उग्रवाद की चपेट में रहा और बीजेपी वालों ने सिखों के खिलाफ कई अपराध किए. इनमें से सबसे जघन्य अपराध इंदिरा गांधी सरकार के दौरान अमृतसर में स्वर्ण मंदिर से आतंकवादियों का सफाया करने के लिए चलाए सैन्य अभियान, ऑपरेशन ब्लू स्टार, से महीनों पहले 1984 में बीजेपी के एक पूर्व विधायक ने किया था. 1996 में इस घटना का विवरण देश भर के गुरुद्वारों का प्रबंधन करने वाली शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति ने अपने “पंजाब का सच” श्वेत पत्र में किया था. इसमें उल्लेख है कि राष्ट्रीय हिंदू सुरक्षा समिति नामक एक समूह ने फरवरी 1984 में बंद का आयोजन किया था. पत्र उल्लेख करता है,
14 फरवरी 1984 को समिति द्वारा भारत बंद के आह्वान के बाद अमृतसर में 56 स्थानों पर भीड़ ने इकट्ठा होकर सिख गुरुओं, सिख धर्म और उनके धार्मिक संस्थानों की पवित्रता को दूषित किया. अमृतसर रेलवे स्टेशन पर दरबार साहिब की एक रेप्लिका (प्रतिकृति) के टुकड़े—टुकड़े कर दिए गए. कई सालों से प्रदर्शनी के लिए रखी चौथे सिख गुरु राम दास की एक तस्वीर को इतना क्षतिग्रस्त कर दिया कि उसे पहचाना भी न जा सके और उसमें एक जलती हुई सिगरेट रगड़ दी. तस्वीर पर मल और पेशाब करना भीड़ द्वारा पवित्रता को बेहद दूषित करने वाला, उत्तेजक कार्य था. ऐसा करने वाली भीड़ का नेतृत्व पूर्व विधायक और बीजेपी के जिला अध्यक्ष हरबंस लाल खन्ना ने किया.
बाद में 2 अप्रैल को खन्ना की हत्या कर दी गई. दो महीने बाद ऑपरेशन ब्लू स्टार में सैकड़ों निर्दोष मौत के घाट उतार दिए गए और स्वर्ण मंदिर को खंडहर कर दिया गया. कारवां में जुलाई 2019 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, ब्लू स्टार से कुछ सप्ताह पहले, “ऑपरेशन ब्लू स्टार से कुछ दिन पहले लाल कृष्ण अडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी इस बात को लेकर धरने पर बैठे थे कि दरबार साहब में फौज भेजी जाए. आडवाणी अपनी आत्मकथा माई कंट्री माई लाईफ में इस बात को स्वीकार करते हैं और फौजी कार्रवाई की सराहना भी करते हैं. अपनी आत्मकथा के एक अध्याय द ट्रॉमा एंड ट्राइअंप ऑफ पंजाब में अडवाणी ने लिखा है, “बीजेपी के इतिहास में एक प्रमुख जन आंदोलन भिंडरांवाले और उसकी निजी सेना के सामने सरकार के आत्मसमर्पण के खिलाफ था. भिंडरांवाले ने स्वर्ण मंदिर को अपनी कार्रवाई का मुख्यालय बनाया हुआ था”. स्वर्ण मंदिर में फौजी कार्रवाई के बाद आरएसएस द्वारा लड्डू बांटे जाने की खबरें भी प्रकाश में आई थीं.”
उस साल इंदिरा गांधी की हत्या हो गई और तुरंत ही सिखों का कत्लेआम शुरू हो गया. इस हिंसा नेतृत्व कांग्रेस ने किया लेकिन कारवां की जुलाई 2019 की उपरोक्त रिपोर्ट के मुताबिक बीजेपी और आरएसएस के कई नेता भी इसमें शामिल थे. रिपोर्ट में उल्लेख है कि कत्लेआम के बाद “दिल्ली सिटी पुलिस स्टेशन में दर्ज 14 एफआईआर में बीजेपी और संघ से संबंधित 49 व्यक्तियों के नाम शामिल हैं. श्रीनिवासपुर पुलिस स्टेशन दक्षिण दिल्ली में ज्यादा मामले दर्ज हैं. एफआईआर से पता लगता है कि हरिनगर, आश्रम, भगवाननगर और सन लाईट कालोनी में बीजेपी और आरएसएस के नेताओं के खिलाफ हत्या, आगजनी, लूटपाट के मामले दर्ज हैं. जिन व्यक्तियों के नाम एफआईआर में दर्ज हैं उनमें से एक नाम है राम कुमार जैन, जो 1980 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी का चुनाव एजेंट था.”
फिर भी अकाली दल ने इन घटनाओं पर आंखें मूंदे रखी और बीजेपी के साथ गठबंधन बनाए रखा. 1996 में अकाली दल ने लोक सभा चुनाव में बीजेपी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन बनाया जिसके बाद वाजपेयी ने अल्पकालिक सरकार बनाई. उसके अगले साल 1997 में पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए दोनों पार्टियां साथ आईं और विजयी हुईं. प्रकाश दुबारा मुख्यमंत्री बने.
पिछले कुछ सालों में अकाली दल अपने खुद के बयानों पर चिपके रहने की अपेक्षा बीजेपी के साथ को प्राथमिकता देती दिखी है. संघवाद और कश्मीर पर पार्टी की राजनीतिक उलटबासियों में यह अच्छी तरह से प्रदर्शित होता है. 1960 और 1990 के बीच अकाली दल ने कम से कम चार बार राज्यों को अधिक स्वायत्तता दिए जाने का समर्थन करने वाले संकल्प और बयान जारी किए. इसमें 1973 का आनंदपुर साहिब प्रस्ताव भी शामिल है जिसमें "राज्यों को स्वायत्तता" और भारत में संघीय ढांचे के महत्व पर जोर दिया गया है. इस प्रस्ताव को उस समय एसजीपीसी के अध्यक्ष गुरचरण सिंह टोहरा ने पेश किया था और अकाली दल द्वारा समर्थन किया था. यह उल्लेख करता है :
शिरोमणि अकाली दल जनता सरकार से अलग-अलग भाषाई और सांस्कृतिक वर्गों, धार्मिक अल्पसंख्यकों और लाखों लोगों की आवाज का भी संज्ञान लेने और वास्तविक तथा सार्थक संघीय सिद्धांतों को पूरा करने के लिए देश के संवैधानिक ढांचे को पुनर्जीवित करने का दृढ़तापूर्वक आग्रह करता है ताकि देश की एकता और अखंडता पर किसी भी खतरे की संभावना से मुक्ति मिले और आगे भी राज्य अपनी शक्तियों का सार्थक ढंग से प्रयोग कर अपने क्षेत्रों में भारतीय लोगों की प्रगति और समृद्धि के लिए उपयोगी भूमिका निभाने में सक्षम बन सकें.
राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अकाली दल के अध्यक्ष प्रकाश ने मई 2014 में कहा था कि "अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दों पर निर्णय जल्दबाजी में नहीं लिया जाना चाहिए." उन्होंने भरोसा जताया कि नरेन्द्र मोदी "देश के संपूर्ण राजनीतिक नेतृत्व के साथ उचित परामर्श के बाद ही" ऐसे मुद्दों पर कोई फैसला लेंगे.
पिछले साल अगस्त में जब बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा छीन लिया और उसे केंद्र के नियंत्रण में ले आई तब अकाली दल ने अपने उपरोक्त बयानों को भुला दिया. सुखबीर ने संसद में इस कदम का समर्थन किया और कहा, “मैं माननीय गृहमंत्री द्वारा अनुच्छेद 370 और 35ए को समाप्त करने के लिए प्रस्तुत विधेयक के समर्थन करता हूं.” उस समय केंद्रीय कैबिनेट मंत्री रही हरसिमरत बादल ने भी बिलों को उपलब्धियां करार दिया था. समाचार रिपोर्टों ने उस समय भी बादल के पाखंड की तरफ इशारा किया था.
बीजेपी के प्रति अपनी मजबूत प्रतिबद्धता के बावजूद अकाली दल सत्तारूढ़ दल के बोझ से दबी नजर आती है. विधानसभा और संसद में अकाली दल की बहुत कम उपस्थिति है. 2017 के पंजाब विधानसभा चुनावों में यह 117 में से मात्र 15 सीटों पर और संसद में पांच सीटों पर जीत दर्ज कर पाई. 2019 के आम चुनावों में बीजेपी ने 303 सीटें जीती. पंजाब में कांग्रेस ने 41 प्रतिशत वोट हासिल किए और अकाली दल को मात्र 28 प्रतिशत वोट मिले. इसके बाद अकाली दल और बीजेपी क्रमशः अक्टूबर 2019 और फरवरी 2020 में हरियाणा और दिल्ली के राज्य चुनावों के लिए सीटों के बंटवारे में सहमत नहीं हो सके. फिर भी बीजेपी हरियाणा में सरकार बनाने में कामयाब रही.
मैंने इस साल सितंबर में कारवां अंग्रेजी की एक रिपोर्ट बताया था कि अकाली दल ने शुरू में कृषि अध्यादेशों का समर्थन किया था. 26 अगस्त को कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने सुखबीर को लिखा कि अध्यादेश "किसान समुदाय के सर्वोत्तम हित की रक्षा" के लिए थे. इसके तुरंत बाद सुखबीर ने एक वर्चुअल प्रेस कॉन्फ्रेंस में तोमर के बयान को दोहराया और अध्यादेशों का बचाव करते हुए कहा कि वे किसानों के हित में हैं. कई विशेषज्ञों ने इस दृष्टिकोण को खारिज कर दिया है. इस बीच विधेयकों के खिलाफ उग्र विरोध जारी रहा और नीति में बदलाव का विरोध नहीं करने के लिए अकाली दल की आलोचना की गई.
कृषि विधेयकों के विरोध में 17 सितंबर को हरसिमरत ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. द ट्रिब्यून में 23 सितंबर को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, बीजेपी नेता मदन मोहन मित्तल ने बाद में अकाली दल को एनडीए से बाहर निकालने की हिम्मत दिखाई. 2022 के राज्य चुनावों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ''अगर अकाली दल 94 सीटों पर चुनाव लड़ती है तो उन्हें बहुमत नहीं मिल सकता और इसलिए बीजेपी 59 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.” पार्टियों ने 2017 के राज्य चुनावों के लिए गठबंधन किया था जिसमें बीजेपी ने कुल 117 में से 23 सीटों पर चुनाव लड़ा था.
मैंने एनडीए छोड़ने के अकाली दल के फैसले को ट्वीट करने के तीन दिन बाद सुखबीर का साक्षात्कार लिया. बातचीत में उन्होंने 1996 में बीजेपी के साथ अकाली दल के गठबंधन को “शांति और सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक” बताया था. जब मैंने खन्ना के कुख्यात कामों की याद दिलाई तो बादल ने जवाब दिया, “1984 में मैं बहुत छोटा था और मुझे नहीं पता कि उस वक्त क्या हुआ था इसलिए मुझे इतनी पुरानी बात याद नहीं.”
साक्ष्यों के बावजूद बादल ने दावा किया कि अकाली दल ने कृषि बिल का विरोध किया था. उन्होंने कहा था, “हरसिमरत ने प्रधानमंत्री को इन कानूनों का विरोध करते हुए आधिकारिक नोट सौंपा था. पिछले चार महीनों से हम सरकार और किसानों के बीच विश्वास बहाली की कोशिश कर रहे थे.” उन्होंने अनुच्छेद 370 पर भी अलग दावा किया. बादल ने दावा किया, “हमने इस फैसले का संसद में कभी स्वागत नहीं किया. हमने बस चर्चा में भाग लिया था.” उन्होंने कहा कि बीजेपी को गठबंधन “सहयोगियों को साथ लेकर चलना नहीं आता." लेकिन जब मैंने पूछा कि क्या वह मानते हैं कि बीजेपी अल्पसंख्यक विरोधी थी या सिख विरोधी थी, तो बादल ने जवाब दिया, “मुझे नहीं लगता कि यह इस सवाल का जवाब देने का ठीक समय है.”