20 अक्टूबर को भारतीय जनता पार्टी ने मध्य प्रदेश के मतदाताओं के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक असाधारण अपील जारी की. इसमें उनसे मोदी को सीधा समर्थन देकर राज्य में बीजेपी की जीत सुनिश्चित करने को कहा गया. राज्य में 17 नवंबर को चुनाव होना है. अपील में सबसे ऊपर मोदी की तस्वीर थी. चार बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का बस एक लाइन में जिक्र भी था. चुनाव प्रसार से जुड़ी तस्वीरों में मोदी आगे नजर आते हैं और शिवराज और अन्य नेता उनके पीछे.
चौहान की हालत यह बना दी गई है कि उनके बारे में बोली गई एक लाइन भी उपलब्धी की तरह बताई जा रही है. एक स्तंभकार ने लिखा है कि अब तक चौहान के लिए एक शब्द भी नहीं कहने वाले मोदी की अपील में चौहान का एक लाइन में जिक्र उपकार ही समझा जाना चाहिए. वह लिखते हैं, "चौहान के नाम का जिक्र नहीं किया था, उनकी उपलब्धियों का उल्लेख तो दूर की बात है." यहां तक कि बीजेपी से टिकट पाने के लिए भी चौहान को इंतजार करना पड़ा. उनका नाम चौथी सूची में आया.
घोषणा से पहले चौहान कुछ हताशा में अपने निर्वाचन क्षेत्रों में गए थे, “मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या मैं अच्छी सरकार चला रहा हूं या बुरी सरकार चला रहा हूं. तो क्या इस सरकार को आगे बढ़ना चाहिए या नहीं? क्या मामा को मुख्यमंत्री बनना चाहिए या नहीं?'' पार्टी ने उनके आखिरी सवाल का जवाब नहीं देने का फैसला किया है, लेकिन ऐसा लगता है कि मतदाताओं ने दूसरों के लिए अपने हिसाब से जवाब तैयार कर लिया है.
यहां तक कि उनके निर्वाचन क्षेत्र बुधनी में, जहां उन्हें भारी समर्थन हासिल है, ज्यादातर मतदाता यह मानने को तैयार थे कि चौहान सरकार को लेकर असंतोष है. बुधनी घाट पर मेरी बात पंडित आशीष दुबे से हुई. उन्होंने अपने नाम के आगे "पंडित" लगाने पर जोर दिया. पूरे राज्य में जाति की पहचान वोट के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन मध्य प्रदेश ने उत्तर प्रदेश और बिहार की तर्ज पर जाति आधारित सामाजिक आंदोलनों का मंथन नहीं देखा है. वर्ण व्यवस्था का पदानुक्रम यहां निर्विवाद बना हुआ है.
दुबे ने स्वीकार किया कि पूरे राज्य में बदलाव का मूड है. लेकिन उन्होंने वही दोहराया जो विभिन्न इलाकों और निर्वाचन क्षेत्रों के मतदाताओं ने दोहराया था: मोदी के लिए असंतोष नहीं है; वह इस मनोदशा से ऊपर और परे हैं. दुबे ने कहा, ''यही कारण है कि हमें राज्य में बीजेपी का समर्थन करना होगा. केंद्र में तो मोदी जी निर्विवाद बने रह सकते हैं लेकिन दो के बजाय दस राज्य सरकारों के समर्थन से आगे बढ़ने में एक फर्क है. हमें उनका अंतरराष्ट्रीय कद सुनिश्चित करना होगा.” और अगर राज्य में बीजेपी की सरकार नहीं होगी तो वह हमारे लिए जो कर रहे हैं वह हम तक कैसे पहुंचेगा?”
कस्बे में केवल कुछ मुस्लिम मतदाता ही थे जो मोदी के प्रति इस व्यापक भावना से असहमत थे. पहले ट्रक ड्राइवर रहे राशिद अली ने मुझसे कहा, “हम सभी चौहान का समर्थन करेंगे. यह हमारे लिए गर्व की बात है कि मुख्यमंत्री हमारे निर्वाचन क्षेत्र से हैं. कांग्रेस द्वारा खड़ा किया गया प्रतिद्वंद्वी अनजान है.” वह मोदी के बारे में इतने आशावादी नहीं थे. "हम सब देख रहे हैं कि क्या हो रहा है, पर हर जुल्म का अंत होता है."
ये अलग-अलग धारणाएं मोदी की अपील के वास्तविक स्रोत का एक अच्छा संकेतक हैं. हालांकि, ऐसे राज्य में जहां “मुस्लिम खतरे” के कुप्रचार को बीजेपी मजबूत नहीं कर पाई है, औसत मतदाता के लिए जरूरी है कि वह धार्मिक पहचान में निहित प्राथमिकता का कोई बहाना तलाशे. विशाल जनसंपर्क तंत्र के माध्यम से मोदी यही प्रदान करने में बहुत निपुण हैं.
बुधनी से नदी के पार, नर्मदापुरम में, जिसे स्थानीय लोग अभी भी इसके पुराने नाम होशंगाबाद से बुलाना पसंद करते हैं, बाजार के बीचों-बीच, मनोज रायचंदानी एक कपड़े की दुकान चलाते हैं. उन्होंने बताया कि कैसे जिला हमेशा से बीजेपी का गढ़ रहा है. “बीजेपी इस क्षेत्र में हमेशा आगे रही है लेकिन अब मामा के खिलाफ कुछ नाराजगी है.'' दूसरी ओर, उन्होंने कहा, ''राष्ट्रीय स्तर पर मोदी को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती.''
थोड़ा पूछने पर उन्होंने स्वीकार किया कि "नोटबंदी का हमारे कारोबार पर असर पड़ा है, इस बाजार में कोई भी आपको बता देगा. अभी भी व्यापार उस स्थिति में नहीं आया है, जहां नोटबंदी के समय था लेकिन हमें अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा. पहली बार भारत की अंतरराष्ट्रीय मंच पर ऐसी उपस्थिति है.” यह भावना सुदूर आदिवासी गांवों से लेकर शहरी परिवेश तक में मिली.
ऐसा लगता है कि मामा के प्रति नाराजगी और मोदी के प्रति आदर का यह विरोधाभास राज्य में बीजेपी की रणनीति का आधार बन गया है. लेकिन चौहान के कद में जो गिरावट आई है वह पार्टी के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
मध्य प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य पर किसी भी राजनेता का इतना दबदबा नहीं रहा जितना कि शिवराज सिंह चौहान का है. वह 2005 में मुख्यमंत्री बने और अब अपने चौथे कार्यकाल के अंत में हैं. वह पांच बार लोकसभा में भी रह चुके हैं.
मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले लंबे समय तक मोदी और चौहान का करियर समानांतर पटरी पर चलता रहा. 2002 में गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा के बाद मोदी ने खुद को गुजरात के मुख्यमंत्री के पद पर स्थापित किया और राजनीतिक सफलता हासिल की. इसके उलट, जब चौहान 2005 में मुख्यमंत्री पद संभालने के लिए वापस आए तो वह पहले ही लोकसभा में थे.
मोदी और चौहान उन ओबीसी नेताओं में से थे जो 1990 के दशक में बीजेपी में नियुक्त होने से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सक्रिय थे. इस सूची में उत्तर प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह और एक साल के लिए मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं उमा भारती जैसी हस्तियां भी शामिल थीं.
दुर्भाग्य से बीजेपी के लिए मोदी का ओबीसी दर्जे का दावा हमेशा कुछ बहस का विषय रहा है. अन्य तीन के उलट, मोदी की जड़ें अपने ओबीसी समुदाय में निहित नहीं हैं. सिंह और भारती दोनों को अतीत में महसूस हुआ था कि उन्हें उनका हक नहीं दिया गया. सिंह ने अपमान की शिकायत करते हुए दो बार पार्टी छोड़ दी और भारती ने एक संवाददाता सम्मेलन में हंगामा करते हुए आरोप लगाया था कि उनकी ही पार्टी के सदस्य उनके खिलाफ काम कर रहे हैं.
इन नेताओं के उद्भव के बाद से तीन दशकों में ओबीसी वोटों पर सवार होने के बावजूद बीजेपी शीर्ष पर उनके लिए जगह बनाने में काफी हद तक नाकाम रही है. द प्रिंट में एक हालिया विश्लेषण में सात बीजेपी शासित राज्यों और एक राज्य जहां पार्टी सरकार में भागीदार है, पर गौर किया गया कि, "वे सभी राज्य जहां जाति राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है (इसमें कर्नाटक भी शामिल है, जहां सरकार बदल चुकी है.) के विश्लेषण से पता चलता है कि अपनी बहुप्रचारित समावेशिता के बावजूद पार्टी में फैसले लेने वाले लोग ऊंची जातियों के हैं. या फिर किसी प्रभावशाली जाति या समुदाय से हैं.'' यह भी नोट किया गया:
विश्लेषण किए गए आठ राज्यों के 123 केंद्रीय मंत्रियों में से, जिनमें मुख्यमंत्री भी शामिल हैं, 82 उच्च या प्रभावशाली जातियों से हैं... आठ मुख्यमंत्रियों में से छह उच्च या प्रभावशाली जातियों से हैं. केवल मध्य प्रदेश के शिवराज सिंह चौहान (गैर-प्रमुख) ओबीसी से हैं... राज्यों में गृह मंत्रालय प्रभावशाली या उच्च जातियों के पास है... यही बात वित्त, पीडब्ल्यूडी, राजस्व, ऊर्जा और स्वास्थ्य जैसे अन्य प्रमुख विभागों के लिए भी है.
मोदी ने खुद एक ऐसा रुख अपनाया है जो इस विशेषाधिकार का बचाव करता है और सामाजिक न्याय के आवश्यक तर्क के खिलाफ जाता है. उन्होंने विपक्ष पर ''देश को जाति के नाम पर बांटने की कोशिश'' करने का आरोप लगाया है. ऐसे समय में जब जाति जनगणना के राष्ट्रीय चुनावों में एक महत्वपूर्ण कारक बनने की संभावना है, इस अभियान के जरिए अपनी ही पार्टी द्वारा चौहान को कमजोर करना एक संदेश भेजता है कि वही होने जा रहा है जैसा कि कल्याण सिंह और उमा भारती के मामले में हुआ था.