2003 की शुरुआत में असीमानंद को जयंतीभाई केवट का फोन आया. केवट, डांग के बीजेपी सचिव थे. केवट ने उनसे कहा, “प्रज्ञा सिंह आपसे मिलना चाहती है.” केवट ने दोनों की मुलाकात सूरत के नवसारी स्थित अपने घर में अगले महीने कराई.
असीमानंद ने याद किया कि भोपाल में एक वीएचपी कार्यकर्ता के घर पर सिंह से मुलाकात हुई थी. यह 1990 के अंत की बात थी. वह सिंह से प्रभावित हो गए- छोटे बाल, टी-शर्ट, जींस-और जिस वाक्पटुता के साथ वह बोलती थीं उसने असीमानंद को मोह लिया. (2006 में तीक्ष्णता से दिए एक भाषण में सिंह ने घोषणा की, “हम (आतंकियों और कांग्रेस नेताओं) को मिटा कर राख कर देंगे.”) नवसारी में प्रज्ञा सिंह ने असीमानंद से कहा कि एक महीने में वह उनसे वनवासी कल्याण आश्रम (वीकेए) के वघई आश्रम में मिलेंगी.
सिंह ने मुझे बताया कि असीमानंद हिंदू हित के लिए जिस तरह के काम कर रहे थे उसने उन्हें आकर्षित किया. जब प्रज्ञा और मैं दुबारा मिले तो प्रज्ञा ने कहा, “वह एक महान सन्यासी हैं और देश के लिए महान कार्य कर रहे हैं.”
नवसारी में हुई मुलाकात के बाद अपने वादे के मुताबिक प्रज्ञा सिंह डांग पहुंची. उनके साथ तीन लोग और थे. इनमें से एक सुनील जोशी थे.
एक खबर के मुताबिक जो लोग जोशी को जानते थे उनका मानना था कि जोशी “स्वकेंद्रित और बेहद सक्रिय” हैं. सिंह ने मुझसे कहा कि वह एक भाई की तरह थे और दोनों की मुलाकात आरएसएस की वजह से हुई थी. असीमानंद ने याद करते हुए कहा कि उन्होंने जोशी को शबरी धाम आश्रम में रखा था. इस दौरान जोशी पूरा दिन भजन और पूजा किया करते थे और असीमानंद जंगलों में घूम कर आदिवासियों से मिला करते थे. जिस समय जोशी और सिंह ने असीमानंद के साथ समय बिताना शुरू किया उस वक्त जोशी मध्य प्रदेश में कांग्रेस के आदिवासी नेता और उनके बेटे की हत्या के मामले में वांछित थे. यह वह अपराध था जिसके लिए संघ ने उन्हें बहिष्कृत कर दिया था.
एक और सदस्य जल्द ही उनके समूह का हिस्सा बना. कनाडा में काम करने के दौरान भरत रतेश्वर नाम के एक आदमी ने डांग में असीमानंद के काम के बारे में सुना था; उन्होंने बाहर की अपनी इस जिंदगी को त्याग कर भारत लौटने और असीमानंद की मदद करने का फैसला लिया. वलसाड जिले के पास रतेश्वर ने एक घर बनाया जहां असीमानंद और उनके सहयोगी आश्रम के रास्ते में ठहरते थे.
असीमानंद और प्रज्ञा सिंह दोनों ने मुझे बताया कि वह कुंभ आने के पहले के सालों में प्राय: मिला करते थे. दोनों के बीच देश की बढ़ती मुस्लिम आबादी को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा होती थी. असीमानंद इसे देश के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते थे. असीमानंद ने मुझसे कहा, “ईसाईयों के मामले में हम एक साथ खड़े होकर उन्हें धमका सकते हैं. लेकिन मुसलमान तेजी से अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं. क्या आपने वह वीडियो देखी है जिनमें तलिबान वाले लोगों का गला रेत देते हैं. हां, मैं मुलाकातों के दौरान इस बारे में बात किया करता था. मैंने कहा कि अगर मुस्लिम इसी रफ्तार में बढ़ते रहे तो जल्द ही भारत को पाकिस्तान बना देंगे और हिंदुओं को यहां वही अत्याचार सहन करना पड़ेगा जैसा उन्हें पाकिस्तान में सहना पड़ता है.” उन्होंने कहा कि समूह इसे “रोकने के उपाय” तलाशने लगा. समूह के सदस्य इस्लामी आतंकी हमलों को लेकर भी गुस्सा थे. खासतौर पर ऐसे हमले जो हिंदुओं के अक्षरधाम मंदिर जैसे पूजा स्थलों पर किए जाते थे. 2002 में गुजरात के गांधीनगर के इस मंदिर पर किए गए हमले में 30 लोगों की मौत हो गई थी. असीमानंद अक्सर इस समस्या के समाधान के तौर पर निर्दोष मुसलमानों के खिलाफ हमले का उपाय सुझाते थे और इस पर बार बार जोर देते थे. इसके लिए वह बम के बदले बम की वकालत करते थे.
इस समूह की बातचीत अगले दो सालों तक जारी रही. इस बीच असीमानंद के कुंभ की तैयारी भी चलती रही. असीमानंद के मुताबिक जल्द ही मोहन भागवत और इंद्रेश कुमार ने हमले की योजना को अपनी हरी झंडी दे दी. जब दोनों नेता कुंभ में अन्य हिंदू दक्षिणपंथी नेताओं के साथ केंद्रीय भूमिका निभाने लगे तो असीमानंद अपने आश्रम लौट आए. आरएसएस में उनकी वरिष्ठता और लोकप्रियता के बावजूद वह भागवत के साथ इस एक बात के लिए राजी हो गए थे कि उन्हें सावर्जनिक स्थलों पर आरएसएस से दूरी बना कर रखनी चाहिए. कुंभ पर अपना ध्यान लगाने की जगह उन्हें हमले की योजना बनाने पर ध्यान देना था.
शबरी कुंभ मेले के एक महीने के अंदर बनारस में दो बम धमाके हुए जिनमें 28 लोगों की मौत हो गई और करीब 100 लोग घायल हो गए. इनमें से एक बम एक हिंदू मंदिर के प्रवेश द्वार पर रखा गया था. असीमानंद, सिंह, जोशी और रतेश्वर तुंरत शबरी धाम में जुटे जहां उन्होंने जवाब देने की ठानी.
अपने गुनाहों को कबूलने के दौरान असीमानंद ने कहा कि जोशी और रतेश्वर इस बात के लिए राजी हो गए कि वह पिस्तौल खरीदने झारखंड जाएंगे. साथ ही दोनों ने डेटोनेटर में इस्तेमाल होने वाले सिम कार्ड को खरीदने की जिम्मेदारी भी ली. असीमानंद ने दोनों को 25-25 हजार रुपए दिए. उन्होंने यह सलाह भी दी कि षडयंत्र को अंजाम देने के लिए दोनों अन्य कट्टर साधुओं की भर्ती करने की कोशिश करें. झारखंड में जोशी ने अपने दोस्त देवेंद्र गुप्ता से संपर्क साधा. गुप्ता झारखंड के जामताड़ा जिले के आरएसएस प्रमुख थे. उन्होंने इन लोगों को नकली ड्राइविंग लाइसेंस मुहैया कराया जिसके जरिए सिम कार्ड खरीदे गए.
जून 2006 में टीम रतेश्वर के घर में इकट्ठा हुई. जोशी और सिंह षडयंत्र का हिस्सा बनने को तैयार चार और लोगों को लेकर पहुंचे- इनमें संदीप डांगे, रामचंद्र कलसंग्रा, लोकेश शर्मा और एक और व्यक्ति थे जिन्हें अमित के नाम से जाना जाता है. डांगे को “टीचर” के पुकारू नाम से भी बुलाया जाता था. वह मध्य प्रदेश के शाजापुर जिले में आरएसएस के जिला प्रमुख थे; कलसंग्रा इंदौर में आरएसएस के व्यवस्थापक थे.
आरोपपत्रों के मुताबिक जोशी ने धमाके को अंजाम देने के लिए तीन टास्क फोर्स का गठन किया. एक समूह का काम ऐसे युवाओं की भर्ती करना और उन्हें प्रेरित करना था जो बम को धमाके की जगह पर रखेंगे; एक का काम बम के लिए जरूरी चीजों को जुटाना था; और तीसरे को बम बना कर धमाके को अंजाम देना था. जोशी षडयंत्र के अलग-अलग हिस्सों को जोड़ने वाले बने. इसके बाद उन्होंने कहा कि समझौता एक्सप्रेस को निशाना बना कर सबसे ज्यादा पाकिस्तानियों को मौत के घाट उतारा जा सकता है. असीमानंद ने मालेगांव, हैदराबाद, अजमेर और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का नाम सुझाया.
डांग में कई महीने बिना खबरों के बीत गए. इसके बाद दीवाली के जश्न के दौरान असीमानंद से मिलने जोशी सबरीधाम आश्रम आए. असीमानंद ने अपने गुनाहों को कबूलते हुए जो बयान दिए थे उसके मुताबिक जोशी ने मालेगांव में 8 सितंबर को हुए दो धमाकों की जिम्मेदारी ली. इस धमाके में 31 लोगों की जान गई. कालसंग्रा के साथ मिलकर डांगे ने जोशी को बम बनाने का सामान जुटाने, बम बनाने और हमले को अंजाम देने में मदद की थी. ये सारी बातें आरोपपत्रों में दर्ज हैं.
16 फरवरी 2007 को शिवरात्रि के दिन जोशी और असीमानंद फिर मिले. इस बार दोनों गुजरात के बारापुर स्थित कर्दमेश्वर मंदिर में मिले. स्वीकारोक्ति के मुताबिक जोशी ने असीमानंद से कहा कि “थोड़े दिनों में अच्छा समाचार मिलने वाला है.” दो दिनों बाद समझौता एक्सप्रेस में धमाके हुए. इसके एक या दो दिन बाद जोशी, असीमानंद इस षडयंत्र का बड़ा हिस्सा रहे लोग रतेश्वर के घर पर मिले जहां जोशी ने हमले की जिम्मेदारी ली. इस बार उन्होंने असीमानंद को बताया कि डांगे और उसके साथियों ने धमाके को अंजाम दिया. अगले आठ महीनों तक हमले जारी रहे; मई महीने में इस समूह ने मक्का मस्जिद और अक्टूबर में अजमेर की दरगाह पर धमाका किया.
19 फरवरी 2007 को सिंह समझौता धमाके की ब्रेकिंग न्यूज देख रहीं थीं. इस दौरान उनके साथ बहन और सहायिका नीरा सिंह थीं. नीरा ने अपने बयान में यह बात बताई है. जब धमाके की तस्वीरें देख कर नीरा रोने लगी तो सिंह ने उसे रोने से यह कहते हुए मना किया किया मरने वाले मुसलमान हैं. जब नीरा ने कहा कि मरने वालों में कई हिंदू भी हैं तो सिंह ने जवाब दिया, “चने के साथ घुन भी पिसता है.” इसके बाद सिंह ने अपनी बहन और नीरा को आइक्रीम की पार्टी दी.
(द कैरवैन के फरवरी 2014 में प्रकाशित प्रोफाइल का अंश. पूरी प्रोफाइल यहां पढ़ें.)