2023 राजस्थान चुनाव, एक नजर

अभय रेजी इलस्ट्रेशन Paramjeet Singh
01 December, 2023

राजस्थान में 25 नवंबर को मतदान हुआ. अशोक गहलोत की मौजूदा कांग्रेस सरकार का मुकाबला फिर से दम भरती भारतीय जनता पार्टी और कई छोटे दलों और स्वतंत्र उम्मीदवारों से है, जिन्हें अक्सर राज्य में मतदाताओं का समर्थन मिलता है. 53 जिलों में 200 निर्वाचन क्षेत्रों के साथ 5.26 करोड़ मतदाता और चुनाव के दौरान 1,875 उम्मीदवारों का सामना करना, रेगिस्तानी राज्य में चुनावों को एक रोचक मामला बना देता है. पेश है चुनाव के प्रमुख दलों, क्षेत्रों, उम्मीदवारों और निर्वाचन क्षेत्रों का एक ब्योरा.

उम्मीदवार

राजस्थान देश में सबसे ज्यादा सत्ता विरोधी लहर वाले राज्यों में से एक है, जहां 1993 से कांग्रेस और बीजेपी बारी-बारी से सरकार बनाती रही हैं. 1993 में भैरों सिंह शेखावत के नेतृत्व में भगवा पार्टी ने अपना पहला पूर्ण पांच साल का कार्यकाल पूरा किया था. तब से, दोनों पार्टियों का भाग्य उनके प्रमुख नेताओं से जुड़ा हुआ है, जो मुख्यमंत्री पद पर रहे है, कांग्रेस के लिए यह गहलोत हैं और बीजेपी के लिए वसुंधरा राजे. अगर सत्ता विरोधी प्रवृत्ति जारी रहा, तो यह चुनाव बीजेपी के लिए आसान जीत साबित हो सकता है, लेकिन कई कारक राज्य के राजनीतिक भविष्य की इतनी आसान व्याख्या में खलल डालते हैं.

मिसाल के लिए, देश के अन्य तीन सबसे ज्यादा सत्ता विरोधी प्रवृत्ति वाले राज्यों, पंजाब, तमिलनाडु और केरल ने 2012 में प्रकाश सिंह बादल, 2016 में जे जयललिता और 2021 में पिनाराई विजयन के दोबारा सत्ता में बने रहने के साथ इस प्रवृत्ति को तोड़ दिया. ऐसा लगता है कि मौजूदा गहलोत सरकार ने सत्ता विरोधी लहर से बचने के लिए सारे रास्ते छान लिए हैं: पंजाब की तरह विपक्ष के बीच विभाजन का बीज बोना; तमिलनाडु की तरह कई कल्याणकारी उपायों की घोषणा; और केरल की तरह ही कोविड-19 महामारी जैसे संकटों को अपेक्षाकृत प्रभावी ढंग से प्रबंधित करना.

हालांकि, उनकी सरकार ने भी ऐसी ही कई समस्याएं देखी हैं, जैसे पंजाब और तमिलनाडु में दलित-विरोधी अत्याचारों की बढ़ती संख्या, साथ ही चरमपंथी हिंदुत्व तत्वों के विकास पर पूरी तरह से रोक लगाने में केरल जैसी असमर्थता. रिपोर्टों से पता चलता है कि महिलाओं और दलित समुदायों के लिए सुरक्षा सुनिश्चित करने में सरकार की नाकामी इस चुनाव में एक प्रमुख मुद्दा बन गई है, जिसका बेशक कांग्रेस की उम्मीदों पर गहरा असर पड़ेगा. दूसरे मुद्दों ने भी गहलोत को परेशान किया है, जिसमें अडानी कंपनियों के साथ कोयला सौदों के चलते बिजली की कीमतों में बढ़ोतरी भी शामिल है. जबकि कांग्रेस के राहुल गांधी कंपनी को सरकारी मदद की तीखी आलोचना करते रहे हैं.

इसके अतिरिक्त, राजस्थान की राजनीति दोनों पार्टियों के बीच की प्रतिद्वंद्विता के साथ-साथ पार्टी सहयोगियों के बीच प्रतिद्वंद्विता से भी प्रभावित होती है. दो साल पहले, पूर्व केंद्रीय मंत्री सचिन पायलट के गहलोत के खिलाफ खुले विद्रोह के बाद कांग्रेस ने एक बड़ा संकट देखा था. कांग्रेस आलाकमान ने 2022 में पार्टी अध्यक्ष पद के लिए गहलोत पर दबाव डालकर विवाद को शांत करने की कोशिश की. यह एक ऐसा कदम था जिसने उन्हें पार्टी के "एक व्यक्ति, एक पद" नियम के कारण राज्य में मुख्यमंत्री बनने के अयोग्य बना दिया होता. इससे पायलट के लिए मुख्यमंत्री पद की दावेदारी का रास्ता खुल जाता. लेकिन गहलोत ने अपनी एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया, विधायकों को अपने समर्थन में बुला लिया और पार्टी-अध्यक्ष चुनाव से बाहर हो गए. इससे यह धारणा बन गई है कि कांग्रेस नेतृत्व अब उनका समर्थन करने की बजाय उन्हें अधिक परेशान कर रहा है. राज्य में उनका समर्थन करने वाले विधायकों के सामने भी गहलोत खुद को शक्तिहीन पाते हैं, भले ही वे अब अपने संबंधित निर्वाचन क्षेत्रों में सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रहे हों. इस बीच, पायलट के साथ उनका झगड़ा, हालांकि कम गर्म है, अभी भी पृष्ठभूमि में उबल रहा है.

बीजेपी, जिसके पास राजे की रहनुमाई में थोड़ा ज्यादा सुरक्षित नेतृत्व था, ने देखा कि आलाकमान ने इस अभियान के दौरान उनकी भूमिका को गंभीर रूप से कम कर दिया है, लगभग नौ नेताओं को विकल्प के रूप में प्रस्तावित किया गया है. यह राजस्थान में एक महत्वपूर्ण कारक है, जहां राजे जैसे नेता अपनी पार्टी की संबद्धता से परे भी सामंती युग की वफादारी का आनंद लेते हैं. इसके अलावा, जिन पार्टी गुटों को उपेक्षित किया जाता है वे अक्सर पार्टियां बदल लेते हैं या राज्य में निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ते हैं. ऐतिहासिक रूप से पार्टी के प्रतीक के बिना भी उनकी आश्चर्यजनक सफलता देखी गई है. उदाहरण के लिए, किरोड़ी लाल मीणा जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप - एक आदिवासी नेता, जो वर्तमान में बीजेपी के सांसद हैं - पार्टियां बदलते समय उप-क्षेत्रों में दबदबा रखते हैं.

आखिर में, राजस्थान में चुनावी मुकाबला द्विध्रुवीय से बहुत दूर है. सफल निर्दलीय और छोटी पार्टियां - जो जाति और हित समूहों का प्रतिनिधित्व करती हैं - न केवल जीवित रहती हैं, बल्कि राष्ट्रीय पार्टियों के साथ चुनावी गठबंधन के बिना भी राज्य में फलती-फूलती हैं. बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, भारतीय ट्राइबल पार्टी, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी, समाजवादी पार्टी, दो कम्युनिस्ट पार्टियां और नेशनल यूनियनिस्ट जमींदारा पार्टी जैसी पार्टियों ने लगातार राज्य का लगभग बीस प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया है. बाकी अस्सी फीसदी हिस्सा कांग्रेस और बीजेपी के बीच बंटा हुआ है. दोनों पार्टियां हर चुनाव में 35 से 45 प्रतिशत वोट शेयर के बीच झूलती रहती हैं.

यहां एकमात्र नाटकीय परिवर्तन प्रमुख जाति ब्लॉकों के मतदान पैटर्न में महत्वपूर्ण बदलाव के कारण हुआ है, राज्य में पांच सबसे प्रभावशाली जाति समूह - ब्राह्मण, राजपूत, गुज्जर, जाट और मीना - वर्तमान विधानसभा में आधे से अधिक है. ये समुदाय अपने वोटों का महत्व किसी भी पार्टी के बीच बदल देते हैं. अन्य राज्यों की तुलना में, क्षेत्रों में स्पष्ट जाति-स्थानीयकरण पैटर्न को देखते हुए, ये वोट-शेयर रुझान राजस्थान में सीट निकालने पर अधिक मजबूती से असर डालते हैं.

क्षेत्र

राजस्थान के पांच क्षेत्रों में सबसे बड़ा - और क्षेत्रफल के हिसाब से, यकीनन देश के सबसे बड़े सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों में से एक - मारवाड़, रेगिस्तानी इलाका है जो पाकिस्तान के साथ पूरी सीमा बनाता है. यह राज्य विधायिका में 61 प्रतिनिधि भेजता है. इसके उत्तरी इलाकों में बड़ी जाट आबादी है, जबकि दक्षिणी मारवाड़ में राजपूत प्रतिनिधित्व बड़ा है, दलित और आदिवासी समुदाय अपेक्षाकृत कम चुनावी प्रभाव डालते हैं. जहां 2008 और 2018 में यहां कांग्रेस और बीजेपी के बीच कांटे की टक्कर देखने को मिली, वहीं 2013 में भगवा पार्टी ने इस क्षेत्र में जीत हासिल की. यह 2013 के चुनावों में राज्य भर में उनकी रुतबेदार स्थिति का आधार था. यह अकारण नहीं है कि मारवाड़ को अक्सर राजस्थान के चुनावी भाग्य का प्रवेश द्वार कहा जाता है.

बड़े पैमाने पर ग्रामीण क्षेत्र होने के बावजूद, इसके सबसे चुनावी प्रभावशाली नेता इस क्षेत्र के सबसे बड़े शहर जोधपुर से हैं. ये हैं, अपेक्षाकृत गैर-प्रमुख ओबीसी माली जाति से आने वाले गहलोत और राजपूत समुदाय से आने वाले केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत. गहलोत सरदारपुरा सीट से चुनाव लड़ते हैं, जहां उन्होंने पिछली चौथाई सदी से लगातार जीत हासिल की है. हालांकि यह अफवाह थी कि शेखावत गहलोत के खिलाफ चुनाव लड़ सकते हैं, बीजेपी ने आखिरकार पार्टी के वफादार महेंद्र सिंह राठौड़ को उम्मीदवार बनाया, जिन्हें कांग्रेस "शहीद" उम्मीदवार मानती है.

इसी नाम का मारवाड़ जंक्शन निर्वाचन क्षेत्र भी उत्सुकता से देखा जाने वाला क्षेत्र है, क्योंकि 2018 में, जल संरक्षणवादी खुशवीर सिंह जोजावर ने एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में 251 वोटों के बेहद कम अंतर से जीत हासिल की थी. वह इस बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं और गहलोत के करीबी माने जाते हैं.

उत्तरी राजस्थान में हरियाणा की सीमा से लगा हुआ शेखावाटी क्षेत्र है, जिसमें 21 सीटें आती हैं. अपेक्षाकृत एक छोटा क्षेत्र होने के बावजूद, कांग्रेस और बीजेपी के बीच स्पष्ट झुकाव के चलते यह राज्य में महत्वपूर्ण क्षेत्र साबित हुआ है. 2008 और 2018 में, इसने निर्णायक रूप से कांग्रेस को वोट दिया, जिससे वह राज्य में सत्ता में आई, जबकि 2013 में, यहां की आधी से ज्यादा सीटें बीजेपी के पास गईं, जिसने चुनाव जीता. सात बार के विधायक राजेंद्र सिंह राठौड़, जो वर्तमान में राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता और बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के अन्य उम्मीदवारों में से एक हैं, शेखावाटी में चूरू विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ते हैं. 2018 में, उन्होंने सीट पर करीबी जीत हासिल की. कांग्रेस उम्मीदवार और उनके बीच केवल एक प्रतिशत वोट का अंतर था.

शेखावाटी में पार्टियों के बीच भारी उतार-चढ़ाव का श्रेय इसकी मिश्रित आबादी को दिया जा सकता है, जिसमें खासकर जाट, गुज्जर, राजपूत, मुस्लिम और दलित उपस्थिति है. बसपा ने पिछले दो दशकों में एक या दो सीटें जीतकर लगातार यहां अपना आधार बनाए रखा है, जबकि निर्दलीय और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने भी अपनी उपस्थिति स्थापित की है. शेखावाटी क्षेत्र में भी गंभीर कृषि संकट देखा गया है, जिस पर किसी भी पार्टी ने ध्यान नहीं दिया है. 2018 में कांग्रेस ने यहां की फतेहपुर सीट मामूली अंतर से जीती थी.

ढूंढाड़ क्षेत्र, राज्य का दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है जो 58 विधायक भेजता है. यह मध्य और पूर्वी राजस्थान के अधिकांश भाग में फैला हुआ है. यह एक जटिल क्षेत्र है, जो मेवात के उप-क्षेत्रों के बीच विभाजित है. ये हरियाणा और उत्तर प्रदेश के जाट, गुज्जर और मुस्लिम बेल्ट के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक समानताएं साझा करता है जैसे अरावली पर्वत श्रृंखला और बड़ी आदिवासी आबादी. साथ ही जयपुर जैसा क्षेत्र से भी, जिसका समुदायों का अपना जटिल मिश्रण है, मेल खाता है. अपनी सामाजिक संरचना की तरह, इस क्षेत्र का चुनावी इतिहास भी जटिल रहा है. पिछले तीन चुनावों में यहां बीजेपी को 10 से 44 सीटों के बीच बेतहाशा उतार-चढ़ाव देखने को मिला, जबकि कांग्रेस को कम से कम 8 और अधिकतम 35 सीटें मिली हैं. शेखावाटी की तरह ढुंढार का मतदान बनने वाली राज्य की सरकार के पक्ष में होता है.

अन्य दल और पार्टियां भी यहां हमेशा निर्णायक रहे हैं, जिनमें बसपा भी शामिल है, जिसका मेवात में महत्वपूर्ण आधार है. अरावली रेंज में किरोड़ी लाल मीणा का प्रभाव देखा गया. मीणा ने 2013 में मेघालय की नेशनल पीपुल्स पार्टी, जो राज्य में बिल्कुल अज्ञात थी, के बैनर तले लड़ते हुए एक साल में बीजेपी से चार सीटें छीन लीं. यह राज्य में भगवा पार्टी की सबसे ऐतिहासिक जीत का साल था. लोकतांत्रिक समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल जैसे अन्य राजनीतिक दलों ने भी सीटें जीती हैं.

इस चुनाव में, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी-जिसे बड़े पैमाने पर जाट समुदायों का समर्थन प्राप्त है-चंद्रशेखर आज़ाद रावण की आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) के साथ गठबंधन में लड़ रही है. क्षेत्र में अंबेडकरवादियों की मौजूदगी और किसानों के विरोध प्रदर्शन को मिल रहे समर्थन को देखते हुए, यह ऐसा गठबंधन नहीं है जिसे खारिज किया जाए. ये कारक कैसे काम करते हैं यह तिजारा जैसी सीटों पर दिखाई देगा. यहां, गठबंधन, बसपा-जो पिछले तीन चुनावों में या तो सीट जीत चुकी है या उपविजेता रही है-और कांग्रेस का मुकाबला बीजेपी के बाबा बालकनाथ से होगा, जो नाथ संप्रदाय के एक संत हैं. बीजेपी उन्हें राजस्थान के आदित्यनाथ के रूप में तैयार कर रही है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने बालकनाथ के लिए प्रचार भी किया. बालकनाथ बुलडोजर में अपना नामांकन दाखिल करने पहुंचे थे.

ढूंढाड़ में मैदान में अन्य प्रमुख नेताओं में पायलट भी शामिल हैं, जिन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र की कीमत पर राज्य और राष्ट्रीय मामलों पर ध्यान केंद्रित करने के कारण टोंक शहर में सत्ता विरोधी संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है. बीजेपी ने सांसद रमेश बिधूड़ी को टोंक जिले का प्रभारी नियुक्त किया है, जो हाल ही में संसद में एक मुस्लिम सांसद के खिलाफ अभद्र टिप्पणी के बाद खबरों में थे.

जयपुर के विद्याधर नगर में, बीजेपी ने अपने पहले मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत के दामाद नरपत सिंह राजवी की जगह जयपुर शाही परिवार की सदस्य दीया कुमारी को चुना. यह राज्य की राजनीति में सामंती राजाओं की अंतहीन उपस्थिति को और मजबूत करता है. इस प्रवृत्ति के लिए दोनों प्रमुख दल दोषी हैं. भगवा पार्टी के लिए यह सीट हमेशा मजबूत रही है, इसलिए किसी आश्चर्य की उम्मीद यहां से नहीं है.

बीजेपी की राज्य इकाई के पूर्व प्रमुख सतीश पूनिया पड़ोस के अंबर निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं, जहां से वह मौजूदा विधायक हैं. कारवां की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि यह उनके कार्यकाल के दौरान ही हुआ कि बीजेपी राज्य इकाई के भीतर गुटबाजी वास्तव में आक्रामक हो गई थी. ढूंढाड़ में देखने लायक अंतिम सीट फुलेरा होगी, जो जयपुर जिले का एक ग्रामीण क्षेत्र है. बीजेपी के मौजूदा विधायक निर्मल कुमावत का यह तीसरा कार्यकाल है. उनका समर्थन कम होने की संभावना है, जो उनकी 2018 की जीत के मामूली अंतर से जाहिर है.

राजस्थान के जटिल बहु-सामुदायिक क्षेत्रों में से एक गुजरात सीमा के साथ मेवाड़ है, जो राज्य विधानसभा में 43 विधायकों को भेजता है. जबकि इस क्षेत्र के कुछ हिस्सों में गुर्जरों की महत्वपूर्ण उपस्थिति है, आदिवासी राज्य के सबसे दक्षिणी इलाकों में सबसे बड़ा समुदाय है, जिसमें 17 सीटें अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं. नतीजतन, इस क्षेत्र के कुछ हिस्से गुजरात स्थित नेता छोटूभाई वसावा के नेतृत्व वाली इंडियन ट्राइबल पार्टी का गढ़ हैं. 2018 में अपने पहले चुनाव में, पार्टी ने दो सीटें जीतीं और इस बार और बढ़त हासिल कर सकती है, खासकर 2020 में डूंगरपुर जिले में आदिवासी प्रदर्शनकारियों की कार्रवाई और गोलीबारी के बाद उपजे गुस्से के चलते.

मेवाड़ का अधिकांश हिस्सा आदिवासी बेल्ट होने के बावजूद, इस क्षेत्र के किसी भी पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता शहरी ब्राह्मण समुदायों से आते हैं. कांग्रेस के सीपी जोशी, जो केंद्रीय मंत्री थे और राजस्थान विधानसभा के वर्तमान अध्यक्ष हैं, नाथद्वारा सीट से चुनाव लड़ते हैं. भ्रामक रूप से, इस क्षेत्र में बीजेपी के सबसे वरिष्ठ नेता का नाम भी सीपी जोशी है. वह पार्टी की राज्य इकाई के वर्तमान अध्यक्ष हैं, जो चित्तौड़गढ़ लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं.

ऐसा लगता है कि यह क्षेत्र बीजेपी के लिए सुरक्षित क्षेत्र बन गया है, पार्टी 2013 में 12 से बढ़कर 39 सीटों पर पहुंच गई और 2018 में भी, जब कांग्रेस को अन्य जगहों पर बड़ा लाभ मिला, इसने बढ़त बनाए रखी. इस क्षेत्र में निर्दलियों की भी हमेशा मौजूदगी रही है.

भीलवाड़ा जिले के आसींद निर्वाचन क्षेत्र में 2018 के चुनाव में सबसे करीबी मुकाबला देखने को मिला, जहां बीजेपी उम्मीदवार जब्बार सिंह सांखला महज 154 वोटों से हार गए. इस बार बीजेपी ने सांखला को फिर से मैदान में उतारा है. वह रावणा राजपूत समुदाय से आते हैं. चुनाव से पहले, समुदाय के सदस्यों ने धमकी दी थी कि अगर दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने उनकी उप-जाति से उम्मीदवार नहीं उतारे तो वे समर्थन वापस ले लेंगे.

हाड़ौती क्षेत्र, जो विधानसभा में 17 विधायकों को भेजता है, राजस्थान के किसी भी प्रमुख समुदाय का गढ़ नहीं है, बल्कि पड़ोसी मध्य प्रदेश के मालवा और चंबल क्षेत्रों के साथ अपने सामाजिक-राजनीतिक ढांचे को साझा करता है. हाड़ौती में मेवाड़ की तरह दो प्रमुख दलों के बीच आमने-सामने की लड़ाई देखी जा रही है. पिछले तीन चुनावों में कोई भी स्वतंत्र या छोटी पार्टियां नहीं जीती हैं. लेकिन यह बीजेपी का अपेक्षाकृत गढ़ बना हुआ है.

जबकि कांग्रेस के पास इस क्षेत्र में कोई बड़ा नेता नहीं है, राजे और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला दोनों यहीं से हैं. राजे ने झालावाड़ जिले के ग्रामीण गढ़ झालरापाटन से लगातार जीत हासिल की है और 2003 के बाद से हर चुनाव में कुल वोट का आधे से ज्यादा हासिल किया है. हालांकि यहां से उनकी जीत कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी, उनके गृह क्षेत्र के पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ एक ग्राउंड रिपोर्ट यह स्पष्ट कर दिया कि यह चुनाव उनके राजनीतिक भविष्य को सील कर सकता है. राज्य में बीजेपी के लिए एक बड़ी जीत उन्हें पार्टी में कई अन्य सत्ता हकदारों द्वारा प्रतिस्थापित कर सकती है, जबकि एक हार या एक मामूली जीत उन्हें बीजेपी के आलाकमान के लिए एक आवश्यकता के रूप में स्थापित कर देगी.

पिछले चुनाव में बीजेपी ने यहां बूंदी सीट करीब आठ सौ वोटों के मामूली अंतर से जीती थी.

मध्य प्रदेश की तरह, राजस्थान में भी कई महत्वपूर्ण सीटें हैं - जिन पर हमेशा राज्य के अनुरूप मतदान होता है. ऐसी प्रमुख सीटें, जिन्होंने कम से कम छह चुनावों में इस पैटर्न को बनाए रखा है, उनमें डीडवाना, पीपल्दा, सुजानगढ़, मंडल और निवाई शामिल हैं.