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ढेरों सांप्रदायिक दंगों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि कैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बना कर छद्म "हिंदू बहुमत" समाज पर आरोपित होता है. सांप्रदायिक दंगे अक्सर उच्च-जाति के वर्चस्व के खिलाफ शोषित-जाति के लोगों द्वारा दी जाने वाली अथक चुनौतियों से राजनीति और मीडिया का ध्यान हटाने के लिए किए जाते हैं. भारत में धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या "हिंदू-मुस्लिम एकता" के रूप में की जाती है, जो अक्सर अनजाने में छद्म "हिंदू बहुमत” को वैधता दिलाती है. इसलिए, भारत के संदर्भ में जाति प्रथा का विनाश ही वास्तविक धर्मनिरपेक्षता होगी.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय बुद्धिजीवियों ने देश और विदेशों में रहते हुए हिंदू धर्म को ठीक उसी तरह अपनाकर जैसे की सवर्ण जाति के नेताओं ने उन्हें सौंपा था, इसे वैधता दिलाने में मदद की है. मुख्य रूप से उच्च जाति के इन बुद्धिजीवियों ने भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में शैक्षणिक संस्थानों में ऊंचा स्थान हासिल कर लिया है. उत्तर उपनिवेशवाद शोध और सबल्टर्न अध्ययन जैसे शिक्षा के क्षेत्रों में उन्होंने अपना ध्यान श्वेत उपनिवेशकों पर केंद्रित रखा और उनको उपमहाद्वीप की किसी भी या सभी समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया. इसके साथ ही उच्च जाति के शिक्षाविदों ने खुद को सबल्टर्न की आवाज के रूप में स्थापित कर लिया.
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन उपमहाद्वीप की राजनीति में किसी भी पिछले अनुभव से अलग था. इसने उच्च जाति के लोगों में व्याप्त धार्मिक गौरव या जातीय वर्चस्व को छीन लिया जिससे वह बेहद अपमानित महसूस कर रहे थे.
इस तरह उच्च जातियों द्वारा एक ऐसे धर्म का निर्माण जो अंग्रेज शासकों को स्वीकार्य हो, के साथ-साथ अपने खोए हुए गौरव को, खासकर श्वेत कुलीनों की नजर में, दोबारा हासिल करने की परियोजना पर भी काम करना शुरू हुआ. उत्तर उपनिवेशवाद अध्यन जैसे क्षेत्रों से किए गए अधिकांश अकादमिक कार्य उसी परियोजना का हिस्सा हैं.
नरेंद्रनाथ दत्ता, जो विवेकानंद के नाम से जाने जाते है, इस कार्य का बीड़ा उठाने वाले पहले शख्स थे. उन्हें तथाकथित वामपंथी और हिंदू दक्षिणपंथी समान रूप से सम्मान देते हैं. विवेकानंद ने ब्राह्मणवादी ग्रंथों की व्याख्या पश्चिमी स्रोताओं को ध्यान में रखते हुए की और उनमें से चुनिंदा एवं विकृत जानकारियां दीं. 1890 के दशक में पश्चिम की यात्राओं में उनके प्रदर्शन ने उन्हें लोकप्रियता हासिल करवाई और उन्हें "हिंदू धर्म के महान उन्नायक" के रूप में जाना जाने लगा. हालांकि गांधी की प्रतिमाओं को या तो हटाया जा रहा है या उनकी नस्लवादी और जातिवादी विचारों के खुलासे के मद्देनजर दुनिया के कई हिस्सों में उनकी मौजूदगी को चुनौती दी जा रही है, विवेकानंद के नस्लवाद, जो उनके जातिवाद के अनुरूप है, की ओर लोगों का ध्यान नहीं गया है. डोरोथी एम फिगुएरा के अनुसार, जैसा अंतरविरोध गांधी के अंग्रेजी और गुजराती भाषा के लेखन में मिलता है, ठीक वैसे ही अंतरविरोध विवेकानंद में भी मिलते हैं. जब विदेश यात्राओं में वह “जब राष्ट्रवादी बयानबाजी के दबाव से मुक्त होते” तो भारत के बारे में नस्लवादी बातें करते थे.
विवेकानंद के लिए सभ्यता नस्लीय रूप से "आर्य" जाति की चीज थी और "आर्य रक्त की गैर मौजूदगी" वाली अनार्य जाति का इसे पाना असंभव था. “आर्य जब अपना रक्त एक जाति को सौंपता है तो उससे सभ्यता का जन्म होता है. सिर्फ शिक्षा काफी नहीं होती,” उन्होंने 1900 में संयुक्त राज्य अमेरिका में दिए गए एक व्याख्यान में कहा था. उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में आर्यों और अनार्यों के अंतर की बात की. उन्होंने कहा, "उत्तरी भारत के लोग महान आर्य जाति से ताल्लुक रखते हैं, जिसमें यूरोप के सभी लोग, पाइरेने में बस्की और फिंस को छोड़कर, शामिल हैं," उन्होंने कहा. "दक्षिणी भारत के लोग प्राचीन मिस्र और सेमाइट के समान जाति के हैं."
अंतर-नस्लीय संबंधों को लेकर उनके विचार नस्लवादी थे. विवेकानंद जाति के मिश्रण को उच्च जातियों यानि “आर्यों” के लिए खतरा मानते थे. जाति में कुछ है. फिलहाल इसका अर्थ रक्त है. निश्चित रूप से वंश-परंपरा से प्राप्त गुण-दोष होते हैं. अब समझने का प्रयास करें कि क्यों आप अपने खून को नीग्रो, अमेरिकन इंडियनों से नहीं मिलाते? प्रकृति आपको अनुमति नहीं देगी. प्रकृति आपको अपने रक्त को उनके साथ मिलाने की अनुमति नहीं देती है. ऐसा अचेतन से होता है जो नस्ल को बचाता है. यही आर्य जाति थी.” उनका लेखन उस दौर के किसी भी अन्य नस्लवादी के समान ही है. अंतर बस इतना है कि उनके जातिवाद से उनके नस्लवाद को बल मिल रहा था.
गांधी भी विवेकानंद के प्रशंसक थे और 1980 से शुरू हुए उत्तर औपनिवेशिक अध्ययन में दोनों को ऊंचा स्थान हासिल है.
(28 फरवरी 2021 को कांरवा में प्रकाशित लेख का अंश. पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
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