कोलकाता हिंसा : क्या पश्चिम बंगाल में केरल का प्रयोग दोहरा रहा है आरएसएस?

आरएसएस ने 1975 में बालागोकुलम की शुरुआत की. इसे नास्तिकता और तर्कवाद के विस्तार को रोकने के लिए शुरू किया गया था. सौजन्यः मलयाला मनोरमा

अगस्त 2017 में मैं केरल पुलिस के पूर्व डीजीपी का इंटरव्यू करने गया. उन्होंने अपनी नौकरी के कई साल उत्तरी मालाबार में बिताए हैं. जब मैंने उनसे केरल के किलिंग फील्ड के मीडिया नैरेटिव के बारे में पूछा तो वह मुस्कुरा दिए. उन्होंने कहा, "राष्ट्रीय मीडिया या तो इसे नजरअंदाज करती है या केरल की राजनीतिक हिंसा को रिपोर्ट करते समय मूलभूत तथ्यों को बिगाड़ देती है."

पूर्व डीजीपी ने अपने दोस्त और मुंबई हमलों में शहीद होने वाले महाराष्ट्र एंटी-टेरर स्कवॉड प्रमुख हेमत करकरे के साथ हुई बातचीत के बारे में बताया. उन्होंने कहा, "आमतौर पर यह धारणा है कि केरल इस्लामिक आतंकवाद का सुरक्षित ठिकाना है. मैं इस बात से इनकार नहीं करुंगा कि विभिन्न सामाजिक कारणों के चलते केरल के मुस्लिमों का एक छोटा हिस्सा इस्लामिक आतंकवाद की तरफ आकर्षित है. लेकिन बिना बताई और दिखाई गई बात, केरल का आरएसएस के हिंसक और गैर-कानूनी संचालन के साथ लगाव है. अगर करकरे आज जिंदा होते तो वह हिंदुत्व आतंक के नेटवर्क का केरल से कोई लिंक जरूर खोज निकालते, जिसकी वह जांच कर रहे थे."

उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे केरल में हिंसा आएसएस की राजनीतिक रणनीति का केंद्र थी. "शारीरिक आक्रमकता दिखाकर सीपीआई (एम) को उकसाना ही आरएसएस की महत्वपूर्ण रणनीति थी." उन्होंने कहा कि विचारधारा से बंधा बड़ा कैडर होने के बाद भी कम्युनिस्ट, आरएसएस के राष्ट्रीय संगठन, इसकी पैरामिल्ट्री मजबूती, ट्रेनिंग और संस्थाओं में इसकी घुसपैठ का मुकाबला नहीं कर पाए.

पूर्व डीजीपी ने मुझे बताया कि आरएसएस के पास यह दुर्लभ पेशेवर कुशलता है कि वह बेहद कम समय में कम लोगों को साथ लेकर राजनीतिक हिंसा की शुरुआत कर सकता है. "पुलिस और फॉरेंसिक रिपोर्ट से पता चलेगा कि आरएसएस के हमलावर पूरी तरह पेशेवर होते हैं और अपने लक्ष्य को कम से कम लेकिन घातक घाव दे सकते हैं. कई बार डर फैलाने के लिए वे शरीर को अपंग बना लेते हैं." उन्होंने कहा, "दूसरी तरफ कम्युनिस्ट मोटे तौर पर गैर-पेशेवर हैं." उनका बड़ा आधार आमतौर पर उनके खिलाफ काम करता है. आरएसएस के पेशेवर हमले के जवाब में भावुक सीपीआई का बड़ा कैडर उनके साथ शामिल हो जाता है. आमतौर पर आरएसएस एक सीपीआई (एम) कार्यकर्ता को मारने के लिए तीन या चार कुशल कैडर की मदद लेता है, वहीं सीपीआई (एम) का कैडर बदला लेने के लिए भीड़ की तरह काम करता है.

एक पूर्व डीएसपी ने मुझे बताया कि आरएसएस की इस कार्यनीति के तीन खास फायदे हैं. "पहला तो यह कि कम्युनिस्टों द्वारा बदले की कार्रवाई को मीडिया का कवरेज मिलेगा. दूसरा, अधिकतर मामलों में भावुक भीड़ बदला लेने के लिए हमला करती है. इसमें बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट शामिल होते हैं. ज्यादा लोगों के भाग लेने से संगठन पर अतिरिक्त वित्तीय भार पड़ता है. पीड़ित के परिवार की वित्तीय जरूरतों का ध्यान रखना होता है. इससे पार्टी सदस्यों और समर्थकों पर ज्यादा टैक्स लगता है. तीसरा, यह कि कम्युनिस्ट गांव पर अचानक हुए हमले पर कुछ नाराज लोगों का भी ध्यान जाएगा, खासकर उस युवा वर्ग का जो कम्युनिस्टों के कुछ नैतिक आचरणों जैसे, खुले में शराब पीने पर रोक से खफा हैं."

पूर्व डीजीपी ने बताया कि 1980 के दशक के दौरान आरएसएस लोगों को मारने के लिए बाहर से शूटर्स बुलाता था. इसकी सफलता को देखते हुए संघ ने भर्तियां शुरू की, जिसमें राज्य के लोगों को भर्ती किया जाने लगा. अभी भी "यह अलिखित नियम है कि कभी भी हत्या करने के लिए जिले का हत्यारा मत बुलाओ. बड़े अभियानों के लिए कम से कम दो जिले दूर से हत्यारे को बुलाने की परंपरा रही है."

उल्लेखित किताब के मुताबिक, पर्याप्त रूप से ऐसे मामलों में जांच करने में अयोग्य पुलिस पीड़ित पक्ष द्वारा दी गई अपराधियों की सूची को स्वीकार कर लेती है. कन्नूर के डीएसपी के हवाले से उल्लेख लिखते है, "पुलिस पीड़ितों द्वारा दी गई सूची को स्वीकार कर लेती है, जिसमें अपने मामले को मजबूत बनाने के लिए बड़े नेताओं का नाम लिखा होता है."

आरएसएस की पैरामिल्ट्री मशीन युवा कार्यकर्ता की भर्ती के लिए प्रचारकों की निभाई गई भूमिका पर आश्रित है. हेडगेवार द्वारा शुरू किया गया प्रचारक संघ का नर्व सिस्टम है. आरएसएस विचारक, दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर और 2018 में राज्यसभा के सांसद चुने गए राकेश सिन्हा हेडगेवार की जीवनी में लिखते है, "संघ का संगठन दो स्तरों पर काम करता है. औपचारिक और अनौपचारिक. संगठन को औपचारिक स्तर पर चलाया जाता है जिसमें मुख्य शिक्षक से सरसंघचालक तक एक पूरी चैन है. वहीं अनौपचारिक तौर पर प्रचारक होते हैं जो औपचारिक व्यवस्था से बाहर रह कर संघ की गतिविधियों और विकास में जरूरी भूमिका निभाते हैं." वह लिखते हैं कि यह "सकारात्मक द्ंवद्व" संघ के बीच शक्ति के स्रोत को अपरिभाषित और अदृश्य बनाता है.

संघ में काम करने वाले लोग बताते हैं कि कई ऐसे मामले हुए हैं जब प्रचारकों ने आरएसएस और बीजेपी के नेतृत्व से पूछे बिना हड़ताल करने का आदेश दिया है. 2014 में पार्टी से बगावत करने वाले पूर्व बीजेपी जिला सचिव ए. अशोकन ने मुझे बताया, "जब भी कन्नूर में शांति होती है, प्रचारक हिंसा भड़का देते हैं. प्रचारक ऐसा आरएसएस कैडर रखते हैं जो कुछ भी करने के लिए तैयार रहता है. कई मामलों में हम बीजेपी नेतृत्व को हत्या के बाद पता चलता था. इससे हमें काफी समस्या होने लगी है." पनूर के पूर्व प्रचारक ने कहा, "जब भी बीजेपी नेताओं के बीच शांति की भावना होती है, प्रचारक कम्युनिस्टों के खिलाफ हमला या किसी हाई-प्रोफाइल हत्या को अंजाम दे देते हैं. इसके बाद बदले की कार्रवाई और हिंसा शुरू हो जाती."

(द कैरवैन के अप्रैल 2019 अंक में प्रकाशित लेख का अंश. पूरी खबर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)