बीजेपी में मोदी युग का आरंभ और डरने लगे अटल बिहारी वाजपेयी

मई 2002 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ नरेन्द्र मोदी. यह तस्वीर गुजरात दंगों के बाद मोदी को हटाने के अपने फैसले से वाजपेयी के पीछे हटने के एक महीने बाद की है. अजीत कुमार/एपी फोटो

गुजरात दंगे सांप्रदायिक दंगों का वह पहला घमाका था, जो टीवी पर लाइव दिखाया जा रहा था और देश भर में लोगों ने युवाओं को सड़कों पर आतंक मचाते देखा. ये युवा बदले की मांग कर रहे थे और सभी मुसलमानों को देश छोड़ने के लिए कह रहे थे. बीजेपी में, जिसके राष्ट्रीय नेतृत्व ने मोदी को महज पांच महीने पहले मुख्यमंत्री चुना था, गुजरात में हुए खून खराबे से पार्टी के अंदर फूट पड़ गई. कट्टर नेताओं ने मोदी का पुरजोर समर्थन किया. लेकिन नरमपंथियों को डर था कि उदारवादी हिंदू, जो बीजेपी को “बाकी पार्टियों से अलग” मानते हैं, वे आतंकी हिंदुत्व का उभरता चेहरा देख कर पार्टी से दूर हो जाएंगे. जब दंगे बिना किसी रुकावट के जारी रहे तो विदेशी सरकारों ने प्रधानमंत्री कार्यालय पर दबाव बनाना शुरू किया. इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी हरकत में आए. मोदी के करीबी बीजेपी नेता ने मुझे बताया, “मोदी और वाजपेयी के बीच का रिश्ता काफी हताशा से भरा था. मोदी को वाजपेयी के धुर ब्राह्मण चरित्र से ही दिक्कत थी- उनकी उम्दा पसंद, उनकी कविता. वहीं वाजपेयी, मोदी को ‘भोंडा’ समझते थे.” वाजपेयी को इसकी पूरी आशंका थी कि मोदी हिंसा नहीं रुकने देंगे और उन्हें हटाना भी चाहते थे. लेकिन उन्हें पता था कि उन्हीं के डिप्टी आडवाणी और आरएसएस इसका पुरजोर विरोध करेंगे.

उदारवादी खेमे से मोदी को चुनौती देने वाले पहले व्यक्ति शांता कुमार थे. वह तब के कैबिनेट मंत्री और हिमाचल के मुख्यमंत्री रह चुके थे. उन्होंने कहा कि गुजरात की हिंसा से उन्हें दर्द हुआ है और वह इससे खिन्न हैं. साथ ही कुमार ने वीएचपी और बजरंग दल के खिलाफ एक्शन की मांग भी की. उन्होंने घोषणा करते हुए कहा कि, “मृतकों के शरीर पर वोट गिनने वाला हिंदू नहीं होता. जो लोग खून बहाकर गुजरात में हिंदुत्व को मजबूत कर रहे हैं वे हिंदुओं के दुश्मन हैं.” इस बयान से आरएसएस आग बबूला हो गया. कुमार का यह बयान गोवा में होने वाली बीजेपी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के कुछ ही दिनों पहले आया था. संघ के नेता नहीं चाहते थे कि पार्टी के उदारवादियों के चक्कर में उनके फुल टाइम प्रचारक से सीएम बने पहले व्यक्ति का कार्यकाल समाप्त हो जाए. बीजेपी अध्यक्ष के जन मूर्ति ने कुमार को बुलावा भेजा. वहीं, आडवाणी ने घोषणा की कि पार्टी का कोई भी सदस्य अगर अनुशासनहीनता करता पाया गया तो उसके खिलाफ कार्रवाई होगी. कुमार को दो माफीनामे लिखने को मजबूर किया गया. पहला, कृष्णमूर्ति को और दूसरा, वीएचपी के आरएसएस इंचार्ज को. उन्हें वह बयान भी वापस लेना पड़ा, जिसमें कहा था कि वीएचपी ने पूरे हिंदू समाज को कलंकित किया है.

उदारवादियों में इस बात की चिंता थी कि गठबंधन वाली बीजेपी की यह सरकार उस स्थिति में गिर जाएगी, यदि किसी धर्मनिरपेक्ष पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया. लेकिन इसका संघ पर कोई असर नहीं पड़ा. बीजेपी के एक पूर्व राष्ट्रीय सचिव के मुताबिक, ताकतवर आरएसएस नेता और पूर्व बीजेपी अध्यक्ष कुशाभाउ ठाकरे ने पार्टी के बाकी नेताओं तक यह बात फैलाई कि मोदी का बचाव किए जाने की जरूरत है फिर चाहे वाजपेयी सरकार ही क्यूं न चली जाए. पूर्व बीजेपी सचिव ने बताया, “पार्टी में लॉबिंग और इसके विरोध में लॉबिंग हो रही थी. अंत में ठाकरे, आडवाणी, मोदी और जेटली का खेमा, वाजपेयी खेमे पर भारी पड़ा.”

लेकिन बीजेपी के साथ गठबंधन वाली धर्मनिरपेक्ष क्षेत्रिय पार्टियां टस से मस नहीं हुईं. बिहार की जनता दल (यूनाइटेड), तमिलनाडु की द्रविड़ मुन्नेत्र कडगम, आंध्र प्रदेश की तेलगू देशम पार्टी और पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार के साथ बनी रहीं. 12 अप्रैल 2002 को जिस समय बीजेपी की कार्यकारिणी बैठक शुरू हुई, उदारवादी हार चुके थे. वाजपेयी के पास मोदी समर्थक ताकतों को चुनौती देने की हिम्मत नहीं थी. जिस उदारवादी पीएम ने एक महीने पहले मोदी को हटाए जाने की इच्छा जताई थी, उसने आरएसएस के सामने सरेंडर कर दिया. साथ ही गोवा कार्यकारिणी के अपने भाषण में वाजपेयी ने कट्टरपंथियों का झंडा उठा लिया और मोदी की भाषा बोलने लगे.

वाजपेयी ने कहा, “इंडोनेशिया, मलेशिया जहां भी मुसलमान हैं,वे शांति से नहीं रहना चाहते. वे समाज के साथ मेल-जोल नहीं रखते. वे शांति से नहीं रहना चाहते... हमें धर्मनिरपेक्षता का पाठ किसी से पढ़ने की जरूरत नहीं है. मुसलमानों और ईसाइयों के आने से पहले ही भारत धर्मनिरपेक्ष था.”

संभवत: पहली बार कोई प्रधानमंत्री, किसी मुख्यमंत्री के सामने मजबूर हो गया था. फिर वहां से वाजपेयी हमेशा मोदी से डर कर जिए. दिसंबर 2002 में जब मोदी अपने पहले राज्यव्यापी चुनाव का प्रचार कर रहे थे तो उन्होंने खुलकर पार्टी से कहा कि वाजपेयी और बाकी वरिष्ठ नेताओं को इसमें जितनी जल्दी हो भाग लेना चाहिए क्योंकि वह नहीं चाहते कि अंत में अंतिम धक्का देने की बात कह कर मोदी के किए का श्रेय कोई और ले जाए. बीजेपी के भीतर के एक व्यक्ति ने मुझे बताया, “वाजपेयी मोदी से इतना डरते थे कि “जब हम चुनाव के लिए अरुण जेटली और उमा भारती के साथ अहमदाबाद गए, तो उन्होंने हमसे फ्लाइट में कहा, ‘आम तौर पर जब प्रधानमंत्री और पार्टी के नेता किसी राज्य में जाते हैं तो मुख्यमंत्री उम्मीद लगाए इंतजार कर रहे होते हैं. यहां, भूल जाइए कि मोदी मुझे लेने आएंगे. मेरा दिल यह सोचकर घबरा रहा है कि मोदी रैली में क्या बोलेंगे.” सब हंसने लगे और वाजपेयी भी. लेकिन वह गंभीर थे.

मोदी की सफलता ने सिर्फ वाजपेयी के भीतर ही डर नहीं भरा. बल्कि बीते एक दशक में जहां मोदी को लगातार हुए दो चुनावों में सफलता मिली, वहीं केंद्र में पार्टी को दो हारों का सामना करना पड़ा. इस कारण मोदी बीजेपी में सफलता का पैमाना बन गए और पार्टी में उदारवादियों की जगह सिमटती चली गई.

(कैरवैन के मार्च 2012 अंक में प्रकाशित लेख का अंश. पूरी खबर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)