राफेल करार में एनएसए अजीत डोभाल की भूमिका को छिपा रही सरकार

राफेल करार के​ लिए भारतीय वार्ता टोली में अजीत डोभाल भी शामिल थे जबकि रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 के अनुसार दल में उनका होना नियमों का उल्लंघन है. पीटीआई
17 December, 2018

रक्षा मंत्रालय और विधि मंत्रालय के बीच हुए पत्राचार के जो हिस्से अथवा नोट्स कारवां के पास उपलब्ध हैं उनसे पता चलता है कि सरकार ने राफेल करार की समीक्षा करते वक्त अपने ही अधिकारियों की निरंतर और गंभीर आपत्तियों को नजरअंदाज किया था जिससे फ्रांसीसी टोली के साथ वार्ता में भारतीय वार्ता दल को भारी कीमत चुकानी पड़ी. इन नोट्स से पता चलता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, फ्रांसीसी दल के साथ वार्ता कर रही भारतीय टीम का प्रमुख हिस्सा थे जबकि दल में उनके शामिल होने की बात को कानूनी मंजूरी नहीं थी. इस दल ने आपत्तियों को प्रभावकारी रूप से खारिज कर दिया था. 10 अक्टूबर 2018 को जब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में वार्ता अथवा सौदेबाजी दल के संबंध में हलफनामा दायर किया तब उसने सौदेबाजी में डोभाल की भूमिका को छिपाया. दल के सदस्यों के नामों में डोभाल का नाम शामिल नहीं है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली रक्षा खरीद मामलों में निर्णय करने वाली सर्वोच्च समिति, सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी, ने 24 अगस्त 2016 को राफेल करार के अंतिम प्रारूप को मंजूरी दी थी. 23 सितंबर 2016 को भारत और फ्रांस ने “सरकारों के बीच” कहे जाने वाले इस करार में औपचारिक रूप से हस्ताक्षर किए थे. उपलब्ध नोट्स में ये बताया गया है कि सरकार ने दो सरकारों के बीच होने वाले खरीद करार की बुनियादी शर्तों को नजरअंदाज किया. खासकर करार के उल्लंघन होने पर विदेशी सरकार को जवाबदेह बनाने की शर्त और किसी भी प्रकार के विवादों को सरकार और सरकार के स्तर पर हल करने की शर्त करार में नहीं है. नोट्स से पता चलता है कि सरकार, किसी भी प्रकार की वित्तीय सिक्युरिटी या फ्रांस सरकार और जेट निर्माता कंपनी डसॉल्ट पर कानून रूप से बाध्यकारी डिलिवरी गारंटी के बिना, 36 जेट विमानों की खरीद के लिए 7.87 अरब यूरो के करार की दिशा में आगे बढ़ गई.

अप्रैल 2015 में अपनी पेरिस यात्रा में प्रधानमंत्री ने डसॉल्ट से 36 राफेल विमान खरीदने की पहली बार घोषणा की थी.

भारत और फ्रांस की वार्ता टीमें करार के आरंभिक मसौदे पर सहमत थे. इस मसौदे को रक्षा खरीद परिषद के सामने पेश किया गया और 28 अगस्त और 1 सितंबर 2015 के मध्य इस पर चर्चा की गई.

सौदेबाजी का मुख्य दस्तावेज अंतर सरकार समझौते का मसौदा था जिसमें इस बात का उल्लेख था कि फ्रांस सरकार भारत को 36 राफेल विमान और संबंधित तंत्र और सेवाओं की आपूर्ति करेगी. लेकिन मसौदा दस्तावेज के अनुच्छेद 4 में कहा गया है कि फ्रांस सरकार डसॉल्ट की अपनी जवाबदेहिता एक अन्य समझौते, जिसे कंवेंशन (प्रतिज्ञा) कहा गया था, में हस्तांतरित करेगी. इस कंवेंशन के तहत राफेल करार में मिसाइल आपूर्ति करने वाले एम.बी.डी.ए. के साथ इसी प्रकार की सौदेबाजी की जाएगी. फ्रांस सरकार बिना भारत को पार्टी बनाए आपूर्तिकर्ता कंपनियों के साथ कंवेंशन समझौता करेगी.

इसका मतलब है कि भारत सरकार को उन करारों की कोई जानकारी नहीं होगी और उसे आपूर्ति सुनिश्चित करने के इन कंपनियों पर दवाब बनाने की कितनी शक्ति फ्रांस सरकार के पास है इसका भी पता नहीं होगा.

इसका मतलब है कि करार की शर्तों का उल्लंघन होने पर फ्रांस सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुकर सकती है और भारत के पास इन कंपनियों को जवाबदेही बनाने का कोई प्रत्यक्ष उपाय नहीं होगा. फ्रांस सरकार ने बस इतना ही किया कि उसने भारत को लेटर ऑफ कंफर्ट अथवा आश्वासन-पत्र देना मंजूर किया जिसमें यह वादा किया गया कि वह इस करार को पूरा कराएगी और कंपनियों से भी प्रतिबद्धताओं को रेखांकित करने वाले पत्र दिलाएगी. ये सभी केवल दिलासा देने वाले पत्र थे न कि बाध्यकारी अनुबंध. फ्रांस सरकार की ओर से दिए जाने वाले पत्र पर देश के प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर होंगे न कि फ्रांस के राष्ट्रपति के, जबकि राष्ट्रपति शीर्ष कार्यकारी होते हैं.

मसौदा करार के दूसरे प्रावधानों में विवादों के हल के संयंत्र के बारे में बताया गया है. विवादों को अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता नियमों के तहत हल किया जाएगा और इसके लिए कोर्ट भारत में न हो कर जिनेवा में होगी. अनुबंध का अल्लंघन होने की स्थिति में भारत सरकार उल्लंघन करने वाली कंपनियों के खिलाफ कानूनी कदम उठाएगी, न कि फ्रांस सरकार के खिलाफ. यदि भारत को क्षतिपूर्ति मिलती है तो वह आपूर्तिकर्ता से धन उगाही के सभी विकल्पों को आजमा लेने के बाद ही फ्रांस सरकार के समक्ष अपना दावा पेश करेगी.

उपरोक्त में से कोई भी प्रावधान भारत के हित में नहीं है. सबसे पहले तो इसका मतलब यह है कि फ्रांस सरकार को भारतीय अदालतों या भारतीय कानूनों के तहत जिम्मेदार नहीं बनाया जा सकता. दूसरी बात ये कि सरकारों के बीच करार में फ्रांस सरकार की जवाबदेही और कम कर दी गई. यदि भारत सरकार उल्लंघनकर्ता कंपनी के खिलाफ कदम उठाना चाहेगी तो ऐसा वह सिर्फ फ्रांस सरकार के माध्यम से कर सकेगी और सिर्फ मध्यस्थता के माध्यम से. कंपनियों की सीमित जवाबदेही के चलते भारत मध्यस्थता फैसलों को लागू करवाने में बहुत सीमित शक्ति रखता है और यदि वह कर भी ले तो अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता के माध्यम से विदेशी कंपनी के खिलाफ किसी भी दावे को प्राप्त करना कठिन काम होगा. उदाहरण के लिए भारत सरकार का दावा है कि वोडाफोन को सरकार को कर चुकाना है लेकिन भुगतान के लिए वह कई सालों से अंतर्राष्ट्रीय अदालतों के चक्कर काट रही है.

इस मसौदा करार में कुछ विशेष प्रकार की क्षतियों पर फ्रांस सरकार का दायित्व भी असमान्य रूप से कम है. इसके अलावा इस करार में संप्रभु गारंटी का कोई प्रावधान नहीं है- यह थर्ड पार्टी की ओर से संप्रभु राष्ट्र का सुरक्षा जमा होता है जिसे उल्लंघन के मामले में जब्त किया जा सकता है. करार में ऐसा प्रावधान नहीं है जबकि रक्षा खरीदों में यह आम प्रावधान है. इस बीच भारत सरकार को आपूर्तिकर्ताओं को आपूर्ति के लिए एडवांस में भारी रकम देनी है. और यह प्रावधान भी भारत के खिलाफ जाता है.

आवश्यक प्रक्रिया पूरी करने के बाद रक्षा खरीद परिषद ने मसौदा करार को मंजूरी के लिए विधि मंत्रालय के पास भेज दिया.

विधि मंत्रालय ने दो अलग अलग जवाब रक्षा खरीद परिषद को भेजे. 9 दिसंबर 2015 को भेजे गए नोट क्रमांक 228 में, जिसमें डिप्टी विधि सलाहकार टीके मलिक के हस्ताक्षर हैं और उसमें अतिरिक्त सचिव टीएन तिवारी को मार्क किया गया है, लेकिन इसमें तिवारी या मलिक से वरिष्ठ अन्य किसी अधिकारी के हस्ताक्षर नहीं हैं.

इस नोट में कहा गया है कि कंवेंशन का प्रस्ताव भारत के प्रति फ्रांस सरकार के उत्तरदायित्व को पूरी तरह से खारिज नहीं करता है. उसमें लिखा है कि मसौदा करार न केवल औद्योगिक आपूर्तिकर्ता के स्तर पर बल्कि फ्रांस सरकार के स्तर पर भी विवादों के निबटान की प्रर्याप्त व्यवस्था करता है और इसमें अन्य अधिकांश संप्रभु गारंटी को मंजूर किया गया है और नोट में बताया गया है कि रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 की मानक अनुबंध दस्तावेज में वित्तीय गारंटियां भी शामिल हैं. राफेल करार रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 के नियमों के अंतर्गत आता है.

दूसरे जवाब (नोट क्रमांक 229) में 11 दिसंबर 2015 की तारीख है. इसे तिवारी ने लिखा और हस्ताक्षर किया है. इस नोट में विधि सचिव (तिवारी से बड़े अधिकारी) के हस्ताक्षर हैं. इस दस्तावेज में मलिक के भी हस्ताक्षर हैं.

इस नोट में फ्रांस सरकार की जवाबदेहियों को आपूर्तिकर्ता कंपनियों को हस्तांतरित करने वाले सभी प्रावधानों और अन्य शर्तों पर आपत्ति जताई गई है. नोट 229 में लिखा है, “औद्योगिक आपूर्तिकर्ता द्वारा उल्लंघन की स्थिति में मध्यस्थता के अधिकार को लागू करवाने के लिए कंवेंशन दस्तावेज में हस्ताक्षर करने वाली या इसे मंजूर करने वाली पार्टी भारत को बनाया जाना चाहिए.” नोट कहता है कि यदि भारत को कंवेंशन में पार्टी नहीं बनाया जाता तो ऐसी स्थिति में सरकार को इस बात पर जोर देना चाहिए कि “अंतर सरकार समझौते और कंवेंशन में संयुक्त और विभिन्न दायित्व” वाले प्रावधान हों. इन प्रावधानों का अर्थ है कि दो पार्टियों के बीच हुए करार पर दानों पार्टियों द्वारा किसी तीसरी पार्टी से किए जाने वाले करार का प्रभाव नहीं पड़ेगा. राफेल करार में इन दोनों प्रावधानों को करार और कंवेंशन में जोड़ने से करार पूरा करने के लिए फ्रांस सरकार को जवाबदेह बनाने में भारत का हाथ मजबूत होता.

नोट में कहा गया है कि विवाद के समाधान और क्षतिपूर्ति की शर्तें प्रक्रियागत हिसाब से गलत हैं और भारत के हितों के खिलाफ हैं. नोट में जोर दिया गया है कि मध्यस्थता अदालत भारत में होनी चाहिए. नोट में फ्रांस सरकार के उत्तरदायित्व में किसी भी प्रकार की सीमा पर आपत्ति जताई गई और जोर दिया गया कि आपूर्तिकर्ता कंपनी को सीधा भारत के प्रति उत्तरदायी बनाए जाए न कि किसी तीसरी पार्टी के प्रति जैसा कि इस मामले में फ्रांस सरकार के प्रति बनाया गया है. नोट कहता है, “औद्योगिक आपूर्तिकर्ता की गंभीर लापरवाही और जानबूझ कर किए जाने वाले अविनय के मामले में ऐसी कोई भी सीमा नहीं लगाई जानी चाहिए” और यह भी कि “भारतीय पार्टी के लिए औद्योगिक आपूर्तिकर्ता के दायित्व को आपूर्ति प्रोटोकॉल के तहत संभावित भुगतान की कुल रकम से कम नहीं माना जाना चाहिए.”

नोट क्रमांक 228 की तरह नोट क्रमांक 229 भी संप्रभु गारंटी के प्रावधानों को शामिल किए जाने की वकालत करता है. खासकर इस स्थिति में जबकि “राफेल करार में भारतीय पार्टी को उपकरणों और सेवाओं की वास्तविक आपूर्ति से पहले ही खरीद की भारी रकम दी जानी है.”

11 जनवरी 2016 को हुई रक्षा खरीद परिषद की बैठक में रक्षा मंत्रालय के जवाबों को बिना आपत्ति नोट कर लिया गया. उसने भारतीय सौदेबाजी दल को उठाए गए विषयों की जानकारी दी और फ्रांसीसी पक्ष के साथ परामर्श करने का अधिकार दिया. भारतीय दल का नेतृत्व औपचारिक रूप से वायुसेना उपप्रमुख राकेश कुमार सिंह भदौरिया कर रहे थे. उन्होंने 1 जनवरी 2016 को मात्र 15 दिन पहले दल का नेतृत्व संभाला था. वे पूर्व वायुसेना उपप्रमुख श्याम बिहारी के स्थान पर आए थे. जैसा कि कारवां की एक पूर्व रिपोर्ट में बताया गया है, सौदेबाजी दल के प्रमुख के रूप में भदौरिया ने राफेल की पूर्व निर्धारित बेंचमार्क कीमत 5.2 अरब यूरो का विरोध किया था. इस मूल्य को बाद में संशोधित कर 2.5 अरब यूरो अधिक कर दिया गया.

सौदेबाजी के इस चरण में डोभाल प्रकट होते हैं. रक्षा मंत्रालय द्वारा अगस्त 2016 में जारी पूर्ववर्ती नोट क्रमांक 18 में बताया गया है कि “विधि सुझाव प्राप्त होने के बाद इन विषयों पर भारतीय सौदेबाजी दल के साथ हुईं बैठकों में चर्चा हुई और ऐसी ही चर्चाएं रक्षा मंत्रालय के साथ हुईं बैठकों, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और भारतीय सौदेबाजी दल के सचिव सदस्य और फ्रांसीसी पक्ष के साथ पेरिस में हुई बैठक में चर्चा की गई.” फ्रांसीसी वार्ताकारों ने 12 और 13 जनवरी को डोभाल सहित भारतीय समकक्षों के साथ पेरिस में बैठक की थी.

रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 में खरीद करारों के लिए वार्ता टीमों में शामिल होने वाले लोगों को परिभाषित किया है. यह प्रक्रिया राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को स्वीकार्य वार्ताकारों की अपनी सूची में शामिल नहीं करती. रक्षा मंत्रालय के एक पूर्व अधिकरी ने मुझे बताया कि ऐसी टीमों को बहुत सावधानी और गोपनीय तरीके से सौदेबाजी करनी होती है और विदेशी प्रतिनिधियों के साथ चर्चाओं में गैर अधिकृत व्यक्ति को शामिल नहीं किया जा सकता.

नोट 18 के अनुसार, “पेरिस की बैठकों में फ्रांस पक्ष को संयुक्त और विभिन्न दायित्व के प्रावधान को शामिल करने का अनुरोध किया गया.” परंतु विधि मंत्रालय ने संयुक्त और विभिन्न दायित्व के प्रावधान को अंतिम उपाय के रूप में प्रकट करने का सुझाव दिया था. उसका पसंदीदा विकल्प कंवेंशन में भारत को शामिल करना था ताकि कंपनियां भारत सरकार के प्रति उत्तरदायी हों और सरकार उन पर विवाचन (आर्बिट्रेशन) लागू करा सके. इस नोट में इस विकल्प पर चर्चा का कोई उल्लेख नहीं है.

फ्रांस वार्ताकारों ने एक संयुक्त और विभिन्न दायित्व प्रावधान को अंतर सरकार समझौते में शामिल करने पर सहमति व्यक्त की. लेकिन बिना बाध्यकारी प्रतिबद्धता के मात्र आश्वासन दिया कि ऐसा ही प्रावधान कंवेंशन में जोड़ा जाएगा. भारतीय वार्ताकारों को प्रस्तावित कंवेंशन दिखाया भी नहीं गया. नोट में लिखा है, “वार्ता के दौरान भारतीय पक्ष ने कंवेंशन को देखने का प्रस्ताव रखा ताकि इस बात को जाना जा सके कि आपूर्ति प्रोटोकॉल और कानूनी पेचों पर औद्योगिक आपूर्तिकर्ता के ऊपर फ्रांस सरकार की कितनी शक्ति है. लेकिन फ्रांस पक्ष ने कंवेंशन की भाषा भारत के साथ साझा करने से इनकार कर दिया.” और भी बुरी बात यह है कि भारत ने इसे इस बात के बावजूद मान लिया “कि फ्रांस पक्ष ने कंवेंशन को अनुबंध नहीं माना है.”

वार्ताकारों ने इस बात पर भी सहमति जताई कि विवाचन अदालत जिनेवा में होगी और कार्यवाही संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कानून आयोग के विवाचन नियम के तहत की जाएगी. उस प्रावधान में कोई सुधार नहीं किया गया जिसमें कहा गया है कि भारत सरकार पहले आपूर्तिकर्ता कंपनी से क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का प्रयास करेगी न कि फ्रांस सरकार से और जहां बैंक सिक्योरिटी और संप्रभु गारंटी का भी प्रावधान नहीं था.

13 जनवरी को भारत और फ्रांसीसी वार्ताकारों ने अंतर सरकार करार के संयुक्त दस्तावेज के मसौदे पर हस्ताक्षर किए. संयोगवश दो सप्ताह से कम समय में मोदी के आमंत्रण में फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद दिल्ली आने वाले थे. 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस कार्यक्रम में ओलांद सम्मानित अतिथि थे.

आने वाले महीनों में दोनों पक्षों ने कई बैठकें की लेकिन संयुक्त दस्तावेज में कोई बदलाव नहीं आया. उदाहरण के लिए नोट में बताया गया है कि रक्षा सचिव ने सुझाव दिया था कि प्रावधान में विवाचन में प्राप्त रकम को निजी आपूर्तिकर्ता से पहले हासिल करने वाली शर्त को बदल कर “फ्रांस पार्टी इस रकम को भारतीय पार्टी को देगी” कर दिया जाए. फ्रांसीसी पक्ष ने इसे स्वीकार नहीं किया.

22 अगस्त को जारी नोट क्रमांक 12 में यह विचार व्यक्त किया गया है कि डोभाल की उपस्थिति में हस्ताक्षरित संयुक्त दस्तावेज में विधि मंत्रालय की चिंताओं का संबोधन करने के किसी भी मौके का अंत हो गया. नोट में बताया गया है कि जनवरी के मध्य में हुईं बैठकों के बाद दोनों पक्षों ने “स्वीकार किया कि वित्तीय पक्षों को छोड़कर आईजीए की भाषा को अंतिम रूप दे दिया गया है.

नोट क्रमांक 18 में पेरिस में हुईं बैठकों के बाद “बैंक या सरकारी गारंटी के बदले ‘लेटर ऑफ कंफर्ट’ को मनाने के लिए फ्रांस के जोर” के बाद रक्षा मंत्रालय के रवैये का विस्तृत ब्यौरा है. मंत्रालय ने वार्ताकारों को इस मामले को फिर से उठाने पर जोर नहीं दिया बल्कि इसे परामर्श के लिए सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी के पास भेज दिया. नोट बताता है कि, रक्षा मंत्री ने ऐसा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के विचारों को ध्यान में रख कर किया था. इसका मतलब है कि डोभाल और स्वराज ने पर्रिकर को संप्रभु गारंटी पर जोर न देने को कहा था.

नोट के अनुसार पर्रिकर ने रूस और अमेरिका को दी गई “विशेष रियायत” पर भी विचार किया था जिसमें भारत में रक्षा विक्रय करते समय संप्रभु गारंटी का प्रावधान नहीं था. मई 2016 में अवकाश ग्रहण करने से पहले तक राफेल सौदेबाजी में रक्षा मंत्रालय में वित्त सलाहकार रहे सुधांशु मोहंती ने मुझे बताया कि इन दो देशों के साथ हुए खरीद करार, फ्रांस सरकार के साथ हुए अंतर सरकार समझौते से पूरी तरह से अलग हैं. रूस और अमेरिका में जो कानून हैं उसके तहत सभी रक्षा निर्यात सरकारी एजेंसियों के मध्यम से होते हैं और संप्रभु गांरटी न होने पर भी इन सरकारों की जवाबदेही बनती है. फ्रांस के मामले में ऐसा नहीं है.

मसौदा करार का सबसे ताजा प्रारूप 14 जुलाई को रक्षा खरीद परिषद के समक्ष रखा गया. परिषद ने इस दस्तावेज को मंजूरी के लिए विधि मंत्रालय भेज दिया. विधि मंत्रालय ने 23 अगस्त को इस पर अपना जवाब भेजा. नोट क्रमांक 12 और 13 विधि मंत्रालय के जवाब की प्रतिक्रिया में रक्षा मंत्रालय ने भेजे हैं.

नोट क्रमांक 12 को रक्षा मंत्रालय के एयर कमोडोर ने लिखा है और मसौदे पर सहमति व्यक्त की गई है. उस नोट में लिखा है कि विधि मंत्रालय की फ्रांस सरकार के अधिकारों और उत्तरदायित्व को आपूर्तिकर्ता कंपनियों को हस्तांतरित करने के चिंताओं पर “अमल” किया जा चुका है. विवेचना में मात्र इस बात का जिक्र किया गया है कि फ्रांस सरकार ने एक संयुक्त और विभिन्न दायित्व प्रावधान को अंतर सरकार करार में शामिल करने में सहमति व्यक्त की है और भारत को आश्वासन दिया गया है कि ऐसा ही प्रावधान कंवेंशन में जोड़ा जाएगा. इस नोट में इस बात को नजरअंदाज कर दिया गया कि भारतीय वार्ताकार उत्तरदायित्व प्रावधानों में दो बदलावों को मनवाने में विफल हो गए हैं जिन पर विधि मंत्रालय ने नोट क्रमांक 229 में जोर दिया था. ये थे- आपूर्तिकर्ता की लापरवाही और कदाचार के मामले में दायित्व की सीमा को हटाने और संभावित भुगतान की कुल रकम से आपूर्तिकर्ता के दायित्व को कम करने वाले प्रावधान.

विवादों के समाधान के मामले में नोट क्रमांक 12 में लिखा है कि नुकसान की स्थिति में भारत सीधे फ्रांस सरकार से भुगतान की मांग नहीं करेगा. इसमें लिखा है, “भारतीय पक्ष को संभावित लाभ न दिखाई देने की स्थिति में इससे हटकर कुछ किया गया तो आपस में मंजूर आईजीए पर पुनः विचार विमर्श आरंभ हो जाएगा.” नोट में लिखा है कि “वायुसेना मुख्यालय का विचार है कि उपरोक्त उल्लेखित कारणों से” सरकार/सक्षम प्राधिकारी को मौजूदा प्रावधानों को बनाए रखने पर विचार करना चाहिए.”

रक्षा मंत्रायल की वायुसेना शाखा ने- जो वायुसेना को देखती है- अपने नोट क्रमांक 18 में पुनर्विचार के लिए जरूरी सवाल उठाए. नोट में पूछा गया है कि विधि मंत्रालय ने पूर्व में सटीक तरह से इस बात का जवाब नहीं दिया कि क्या सरकार और सरकार के बीच हुए करार में फ्रांसीसी पक्ष द्वारा प्रस्तावित प्रावधानों का असर पड़ा है. नोट में कहा गया है कि इसे बनाए रखना आवश्यक है ताकि भारत सरकार के विधि और वित्तीय हितों को पर्याप्त रूप से सुरक्षित किया जा सके.”

यह एक संवेदनशील बात थी. पेरिस में पहली बार मोदी की घोषणा के बाद से ही भारत सरकार का सार्वजनिक रूप से यह तर्क रहा है कि सरकार और सरकार के बीच नया राफेल करार पूर्व की अनुबंध प्रक्रिया से बेहतर तरीके से भारतीय हितों का संरक्षण करता है. नोट क्रमांक 18 में सरकार और सरकार के बीच के करार की विशेषताओं को बताया गया है जो इस प्रकार हैं- खरीद की आपूर्ति का जिम्मा “विदेशी सरकार पर है” और विवादों को “केवल सरकार और सरकार के बीच हल किया जाएगा.” नोट 229 में बताया गया है कि कैसे मसौदा करार इस कसौटी को पूरा नहीं करता और यह भी बताया गया है कि उस वक्त से लेकर आज तक बताए गए उपायों को करार में शामिल नहीं किया गया है.

नोट 18 में यह भी कहा गया है कि जब पहली बार मसौदा करार को रक्षा खरीद परिषद के सामने रखा गया तो उसने कहा था कि वह उसी स्थिति में मात्र अधिकारों और दायित्वों के हस्तांतरण के प्रावधानों को मंजूर करेगी जब फ्रांसीसी प्रस्ताव का विधि पुनरीक्षण हो सकेगा.

विधि मंत्रालय ने अपने जवाब में इस बात के लिए कोई स्पष्ट दृष्टिकोण व्यक्त नहीं किया है कि यह करार सरकार और सरकार के बीच होने वाला है. नोट में किसी स्पष्टीकरण के बिना, अधिकारों और दायित्वों के हस्तांतरण और दायित्व की सीमा के बारे में यह उल्लेख है कि पूर्व में हमारी जांच के बाद सुझाए गए “अधिकारों और दायित्व के हस्तांतरण पर फ्रांसीसी पक्ष सहमत है” और “इन्हें संशोधित मसौदे में शामिल किया गया है.” लेकिन जवाब से स्पष्ट है कि दो विवादित बिंदुओं का हल होना बाकी था. नोट में लिखा है कि फ्रांसीसी पक्ष “विवाद समाधान और गारंटी” की उनकी सिफारिशों पर सहमत नहीं है. यह कह कर कि “यथोचित स्तर पर प्रशासनिक निर्णय लिया जाए” जिम्मेदारी को उच्चतर प्राधिकारी को सौंप दिया.

विधि मंत्रालय का सुझाव मिलने के बाद रक्षा खरीद परिषद ने भी यही रुख अख्तियार किया और सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी पर निर्णय छोड़ दिया. विधि मंत्रालय द्वारा उपरोक्त विचार व्यक्त करने के मात्र एक दिन बाद सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी ने 24 अगस्त को करार को मंजूरी दे दी. लगता है कि अधिकारियों द्वारा आपत्तियां व्यक्त करने के बावजूद इस करार को पूरा करने की बहुत जल्दी थी. नोट क्रमांक 12 और 18 में व्यक्त विषय, विधि मंत्रालय का जवाब और कमिटी की मंजूरी सब कुछ एक सप्ताह के भीतर हो गया.

यह जल्दबाजी इस बात से भी पता चलती है कि सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी ने संलग्नक की आवश्यक पुनरीक्षण के पहले ही इस करार पर हस्ताक्षर कर दिए. संलग्नक में कहा गया था कि यह करार 2006 में हुई रक्षा सहकार्य संधि के अंतर्गत आएगा. 20 सितंबर के नोट में रक्षा मंत्रालय ने कहा है कि पूर्व में जब विधि मंत्रालय ने मसौदा करार की समीक्षा की थी तब वह इस जरूरी हिस्से पर खामोश था. नोट में ऐसा करने का काई कारण नहीं बताया गया है.

विधि मंत्रालय ने 21 सितंबर को बिना आपत्तियों के इस संलग्नक को मंजूर कर दिया और दो दिन बाद भारत और फ्रांस के रक्षा मंत्रियों ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में राफेल करार पर हस्ताक्षर कर दिए.